....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:
याथातथ्यतोsर्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः ||
ईशोपनिषद के अष्ठम मन्त्र .---
स पर्यगाच्छुक्रमकायमब्रणम
अस्नाविरम शुद्धम्पापविद्धम |
का काव्य भावानुवाद...
कुंजिका - स= वह ईश्वर ...परि अगात=सर्वत्र व्यापक....शुक्रं =जगत का
उत्पादक....अकायम=शरीर रहित....अब्रणम=शारीरिक विकार रहित....अस्नाविरम=स्नायुओं,
नाडियों व नसों आदि ( शारीरिक) के बंधन से मुक्त...शुद्धं =पवित्र
...अपापविद्धं=पाप बंधन से रहित....कवि =सूक्ष्मदर्शी ...मनीषी =ज्ञानी...परिभू
=सबको आच्छादित किये हुए, सर्वोपरि,सर्वत्र वर्त्तमान ...स्वयंभू =स्वयंसिद्ध,
प्रामाणिक ....शास्वतीभ्य =अनादि, शाश्वत...समाभ्य =प्रजा अर्थात जीव के
लिए...याथाताथ्यत:= यथानुसार, ठीक ठीक ...अर्थान= कर्मों के फल का ..व्यदधात=
विधान/ व्यवस्था करता है |
मूलार्थ- वह एकमात्र अकेला ब्रह्म सर्वत्र व्यापक, कण-कण
में स्थित, उसी में समस्त जगत स्थित है, सारे जगत का उत्पादन कर्ता, शारीरिक
विकारों से रहित, स्नायुविक अर्थात तन,मन व आत्मिक बंधनों से मुक्त, पापरहित,
पवित्र, सूक्ष्मदर्शी, आदि-अंत रहित अनादि, मनीषी, सब कुछ जानने वाला, सर्वज्ञ,
स्वयंभू है| उस ब्रह्म ने सदैव अनादि काल से ही कर्मों के अनुसार सभी के लिए यथातथ्य
उचित व्यवस्था व फल का विधान किया है |
पर्यगात शुक्रम अकायं अब्रणम
अस्नाविरम शुद्धं पाप
अविद्धम |
सूक्ष्मदर्शी मनीषी परिभू
स्वयंभू ,
यथातथ्य फलेषु वह शाश्वत
समाभ्य: |
देहरहित अविकारी व्यापक,
तेजस्वी वह जग उत्पादक |
अप्रभावित दैहिक बंधन से,
पापबोध से मुक्त व पावन |
स्वयंसिद्ध है सर्वोपरि वह,
सदा उपस्थित वह अनादि है |
भूतकाल, दिक् परे का दृष्टा
,
सब कुछ यथातथ्य निर्धारक |
स्वयं पूर्ण वह ब्रह्म सदा
ही,
जग का सब विधान करता है |
जिसका जैसा कर्म-कृत्य है ,
वैसा फल विधान करता है |
ब्रह्म प्राप्त वह ब्रह्म
हुआ नर,
ये सारे गुण आत्मसात कर |
मनसा वाचा और कर्मणा,
श्रेष्ठ मार्ग अपनाता वह नर
|
बह आत्मज्ञ सर्वज्ञानी बन ,
दैहिक बंधन से हुआ परे |
मन की सत्ता पर किये
नियंत्रण,
पाप बोध से मुक्त रहे |
विश्वप्रेम परमार्थ साधकर,
एक्यभाव अनुसर कर पाता |
उचित कर्म को करने वाला,
उचित धर्म जग को दिखलाता |
ईश्वर के इन सभी गुणों को,
धारण करलें और अपनाएं |
अपना जीवन सफल करें हम,
जग सुन्दर शिव सत्य बनाएं ||
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