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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

बुधवार, 9 अगस्त 2017

पुस्तक ईशोपनिषद का काव्य भावानुवाद --मन्त्र आठ---- डा श्याम गुप्त

                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...




ईशोपनिषद के अष्ठम मन्त्र .--- स पर्यगाच्छुक्रमकायमब्रणम अस्नाविरम शुद्धम्पापविद्धम |
             कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू: याथातथ्यतोsर्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः ||  
                                     का काव्य भावानुवाद...
कुंजिका - स= वह ईश्वर ...परि अगात=सर्वत्र व्यापक....शुक्रं =जगत का उत्पादक....अकायम=शरीर रहित....अब्रणम=शारीरिक विकार रहित....अस्नाविरम=स्नायुओं, नाडियों व नसों आदि ( शारीरिक) के बंधन से मुक्त...शुद्धं =पवित्र ...अपापविद्धं=पाप बंधन से रहित....कवि =सूक्ष्मदर्शी ...मनीषी =ज्ञानी...परिभू =सबको आच्छादित किये हुए, सर्वोपरि,सर्वत्र वर्त्तमान ...स्वयंभू =स्वयंसिद्ध, प्रामाणिक ....शास्वतीभ्य =अनादि, शाश्वत...समाभ्य =प्रजा अर्थात जीव के लिए...याथाताथ्यत:= यथानुसार, ठीक ठीक ...अर्थान= कर्मों के फल का ..व्यदधात= विधान/ व्यवस्था करता है |

मूलार्थ-  वह एकमात्र अकेला ब्रह्म सर्वत्र व्यापक, कण-कण में स्थित, उसी में समस्त जगत स्थित है, सारे जगत का उत्पादन कर्ता, शारीरिक विकारों से रहित, स्नायुविक अर्थात तन,मन व आत्मिक बंधनों से मुक्त, पापरहित, पवित्र, सूक्ष्मदर्शी, आदि-अंत रहित अनादि, मनीषी, सब कुछ जानने वाला, सर्वज्ञ, स्वयंभू है| उस ब्रह्म ने सदैव अनादि काल से ही कर्मों के अनुसार सभी के लिए यथातथ्य उचित व्यवस्था व फल का विधान किया है |      



पर्यगात शुक्रम अकायं अब्रणम
अस्नाविरम शुद्धं पाप अविद्धम |
सूक्ष्मदर्शी मनीषी परिभू स्वयंभू ,
यथातथ्य फलेषु वह शाश्वत समाभ्य: |

देहरहित अविकारी व्यापक,
तेजस्वी वह जग उत्पादक |
अप्रभावित दैहिक बंधन से,
पापबोध से मुक्त व पावन |

स्वयंसिद्ध है सर्वोपरि वह,
सदा उपस्थित वह अनादि है |
भूतकाल, दिक् परे का दृष्टा ,
सब कुछ यथातथ्य निर्धारक |

स्वयं पूर्ण वह ब्रह्म सदा ही,
जग का सब विधान करता है |
जिसका जैसा कर्म-कृत्य है ,
वैसा फल विधान करता है |


ब्रह्म प्राप्त वह ब्रह्म हुआ नर,
ये सारे गुण आत्मसात कर |
मनसा वाचा और कर्मणा,
श्रेष्ठ मार्ग अपनाता वह नर |

बह आत्मज्ञ सर्वज्ञानी बन ,
दैहिक बंधन से हुआ परे |
मन की सत्ता पर किये नियंत्रण,
पाप बोध से मुक्त रहे |

विश्वप्रेम परमार्थ साधकर,
एक्यभाव अनुसर कर पाता |
उचित कर्म को करने वाला,
उचित धर्म जग को दिखलाता |

ईश्वर के इन सभी गुणों को,
धारण करलें और अपनाएं |
अपना जीवन सफल करें हम,
जग सुन्दर शिव सत्य बनाएं ||







 

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