....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
भारतीय धर्म, दर्शन राष्ट्र -संस्कृति के विरुद्ध उठती नवीन आवाजें व उनका यथातथ्य निराकरण ---पोस्ट--सप्तम --डा श्याम गुप्त
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----पूर्वा पर ----
आजकल हमारे देश में गोंड आदिवासी दर्शन और बहुजन संस्कृति व महिषासुर के नाम पर एक नवीन विरोधी विचारधारा प्रश्रय पा रही है जिसे महिषासुर विमर्श का नाम दिया जारहा है | जिसमें जहां सारे भारत में समन्वित समाज की स्थापना के साथ धर्मों व प्राचीन जातियों आदि का अस्तित्व नहीं के बरावर रह गया था, अब असुर, नाग, गोंड आदि विभिन्न जातियों वर्णों को उठाया जा रहा है |
भ्रामक विदेशी ग्रंथों आलेखों में आर्यों को भारत से बाहर से आने वाला विदेशी बताये जाने के भारत में फूट डालने वाले षडयन्त्र से भावित-प्रभावित वर्ग द्वारा इंद्र, आदि देवों को आर्य एवं शिव व अन्य तथाकथित असुर व नाग, गोंड आदि जातियों भारत की मूल आदिवासी बताया जा रहा है | वे स्वयं को हिन्दू धर्म में मानने से भी इनकार करने लगे हैं |
-----------------विभन्न आलेखों, कथनों, प्रकाशित पुस्तकों में उठाये गए भ्रामक प्रश्नों व विचारों, कथनों का हम एक एक करके उचित समाधान प्रस्तुत करेंगे जो ४० कथनों-समाधानों एवं उपसंहार के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा, विभिन्न क्रमिक ११ आलेख-पोस्टों द्वारा |
-------पोस्ट सप्तम---- कथन २७ से ३० तक---
कथन २७--
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अगर हम यह कहें कि बुद्ध पारी कुपार लिंगो की ही तरह
भौतिकवादी दर्शन पर अपने दर्शन की नीव रख रहे हैं तो यह बात तर्कपूर्ण लगती है।
जिस तरह से पारलौकिक और अतिभौतिक को पारी कुपार लिंगो ने अधिक महत्व नही दिया है
उसी तरह बुद्ध भी इहलोकवादी दर्शन का प्रस्ताव कर रहे हैं, इसी कारण गौतम बुद्ध
पंचमहाभूतों पर अपने विचार के परिणाम में इस निष्कर्ष तक आते हैं कि आकाश तत्व
आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म जैसे पाखंडों का आधार बन जाता है इसीलिये वे पञ्च
महाभूतों की बजाय चार महाभूतों की प्रस्तावना करते हैं। यह सही है कि हमारे
पास लिंगो के दर्शन का विस्तारित रूप और उपलब्ध नहीं है लेकिन उनके द्वारा दिए गए
मौलिक सूत्रों और मान्यताओं का बुद्ध की मान्यताओं से साम्य नजर आता है और यह भी
प्रतीत होता है कि बुद्ध स्वयं भी कुपार लिंगो के दर्शन के तार्किक प्रवाह में
हैं। इसीलिये बुद्ध ने बहुत विचारपूर्वक अपने चार महाभूतों में आकाश तत्व को शामिल
ही नहीं किया है।
दर्शन के विद्यार्थी जानते हैं कि आकाश तत्व के आधार पर ही
आत्मा और परमात्मा सहित पुनर्जन्म और इन सबसे जुड़े कर्मकांड पैदा होते हैं।
इसलिए श्रमण परम्परा के बौद्ध धर्म सहित आरंभिक लोकायत और चार्वाक भी आकाश तत्व को
अपने विचार में सम्मिलित नही करते हैं। प्राचीन लोकायतिक विचार जिस प्रकार से
इह-लोकवादी चिंतन पर खड़ा है उसी तरह गोंडी पूनम विचार भी प्रकृति की शक्तियों को
सर्वाधिक महत्वा देते हुए पुनर्जन्म और आत्मा परमात्मा के नकार पर खड़ा है।
समाधान २७.--
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परन्तु जैसा
स्वयं कथन २६ में स्वीकार किया गया है कि शिक्षित गोंड तो पञ्च महाभूत को मानते हैं, गगन या आकाश तत्व पांचवा महाभूत है, तभी तो भगवान शब्द पूर्ण होता है |
वस्तुतः पाश्चात्य दर्शन में भी चार ही तत्व
होते हैं वे भी गगन को तत्व नहीं मानते अतः यह स्थिति अपूर्ण ज्ञान व दर्शन की और
इशारा करती है, इसीलिये इन किसी भी दर्शनों का आगे उन्नयन नहीं हुआ अपितु समाप्त
होगये | ये चार तत्व की अवधारणा अवैज्ञानिक भी है |
आज वैज्ञानिक युग में आकाश तत्व में ही सारे अति-उन्नत क्रियाकलाप
होते हैं|
कथन २८---
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पुरुष व प्रकृति के मिलन से विश्व की उत्पत्ति को तन्त्र में
नर व मादा तत्व के मिलन के रूप में दिखाया गया है। पारी कुपार लिंगों के गोंडी पुनेम
दर्शन में भी प्रकृति (एक अर्थ में संसार चक्र) सल्लां और गांगरा नाम के दो तत्वों
के मिलने से बनता है।
यहा सल्लां पूना (धन तत्व) है और गांगरा ऊना (ऋण तत्व) है, इन्ही के संयोग से
प्रकृति की उत्पत्ति होती है (Kangali,
2011) पुरुष प्रकृति के मिलन का यही संकेत
नर्मदा नदी को दिए गये भिन्न नाम से भी जाहिर होता है। मध्य प्रदेश के बालाघाट
जिले में गोंडों की लोककथाओं के अनुसार नर्मदा नदी असल में “नर-मादा” नदी
है। वे आज भी इसी तर्क और इसी प्रतीकवाद का
इस्तेमाल करते हैं।
समाधान २८-----
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यह पुरुष व
प्रकृति के मिलन तत्व दर्शन प्राणी उत्पत्ति के बहुत बाद का है | इससे पहले पुरुष स्वयं ही अपनी प्रतिकृतियाँ
तैयार करता है जिसे वैदिक दृष्टि में अमैथुनी
--मानसिक व स्पर्श से प्राणी उत्पत्ति कहते हैं –यथा ब्रह्मा, चार कुमार, सप्तर्षि, नारद आदि की उत्पत्ति और -----विज्ञान में भी
पहले एक अमैथुनी उत्पत्ति कहा जाता है, बिना नर-नारी तत्व के मिलन के--यथा अमीवा, जीवाणु आदि निम्न वर्ग के प्राणी व वनस्पति आदि, आगे बाद में एकलिंगी प्राणी व मैथुनी सृष्टि
उत्पत्ति होती है | अतः सल्लां और गांगरा दर्शन बहुत बाद का अल्पज्ञान वाला दर्शन है |
हाँ यह सत्य ही है सर्वप्रथम मानव इसी नर्मदा
नदी के किनारे उद्भूत हुआ था | जब भारतीय प्रायद्वीप अफ्रीका के गोंडवाना लेंड
से जुड़ा हुआ था और नर्मदा नदी आज की विक्टोरिया झील में गिरती थी भारतीय भूखंड के
टूटकर द्वीप रूप में उत्तर की ओर प्रवाह में आने पर नर्मदा सागर में गिरने लगी |
और आदि प्राणी भी इसी नदी के किनारे भारतीय भूमि पर उद्भूत हुआ |
कथन २९--
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गोंडी पुनेम दर्शन और
गोंडों की अन्य मान्यतायें उनके जुन्नार देव के मंदिर आदि सुदूर अतीत में खोई किसी असुर या लोकायतिक
परम्परा के चिन्ह हैं। यही परम्परा आगे चलकर श्रमण परम्परा के रूप में
बुद्ध के साथ अपने शिखर पर पहुँचती है तो आत्मा और परमात्मा दोनों को नकारकर
चार महाभूतों पर आधारित दर्शन का निर्माण करती है। यह उल्लेखनीय है कि बौद्ध
दर्शन भी अंत में परमात्मा और आत्मा के निषेध का वेद विरोधी या अनात्मवादी दर्शन
है। इसे निरीश्वरवादी और नास्तिक दर्शन माना गया है। इसी तरह सांख्य दर्शन भी आरंभ से ही इश्वर की सत्ता
को स्वीकार नहीं करता और पुरुष व प्रकृति के सिद्धांत पर अपने पूरे दर्शनशास्त्र
सहित विश्वोत्पत्ति विज्ञान का भी निर्माण करता है।
आगे चलकर भगवत गीता में हम देखते
हैं कि कृष्ण स्वयं योग को सांख्य के निकट लाते हैं और यह निरूपित करते हैं कि योग
और सांख्य एक ही परिणाम (ज्ञान या मुक्ति) उत्पन्न करते हैं। इसीलिये स्वयं कृष्ण
के जमाने से सांख्य और योग में एक युति निर्मित कर दी गयी थी जिसे “सांख्य योग” कहा गया है।
यहाँ
उल्लेखनीय यह भी है कि डॉ. आंबेडकर की खोज बतलाती है कि भगवत गीता असल में
बौद्ध धर्म के खिलाफ प्रतिक्रान्ति को संगठित करने के उद्देश्य से लिखी गयी है। ---इस
उदाहरण से भी यह देखा जा सकता है कि ब्राह्मणवादी परम्परा मूल सांख्य की मान्यताओं
को अपने अनुकूल बनाने के प्रयास में कृष्ण और गीता को इस्तेमाल कर रही है।
समाधान-२९-- ---
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परन्तु यह
खोज एक मूर्खतापूर्ण तथ्य है क्योंकि संसार जानता है कि गीता तो बौद्ध धर्म से
बहुत पहले की है | वस्तुतः बुद्ध, लोकायत व अन्य सभी अनीश्वरवादी गीता के सांख्य व
योग का अर्थ समझने में असफल रहे हैं |
गीता में भगवान श्रीकृष्ण जब कहते हैं--सांख्ययोगौ
प्रथग्बाला प्रवदन्ति न पंडिता.... |---गीता ५ /४ ..तो गीता का सांख्य व योग,
भारतीय षडदर्शन का सांख्यदर्शन व योगदर्शन नहीं है, अपितु वह कर्मसंन्यास व
कर्मयोग है अर्थात ज्ञानयोग व कर्मयोग, जिसका फल एक ही बताया गया है परन्तु
कर्मयोग की महिमा अधिक कही गयी है |
कथन-३०--
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गोंडी पुनेम दर्शन और गोंडों की अन्य मान्यताओं पर गहन शोध
से निर्मित ग्रन्थ “पारी
कुपार लिंगो गोंडी पूनेम
दर्शन” ,को थोड़ा विस्तार में
जानना जरुरी है। यह दर्शन गोंडी धर्म के प्रथम दार्शनिक और आदिगुरू पारी कुपार
लिंगो द्वारा रचा गया है और जिसे डॉ. कंगाली ने पहली बार व्यवस्थित दर्शन के
रूप में संकलित किया है।
यह आर्य असुर या आर्य मूलनिवासी संघर्ष का एक
अन्य और सबसे प्राचीन नेरेटिव प्रस्तुत करता है, ये
नेरेटिव असुर आर्य संघर्ष से भी पुराना है। संभवतः यह पहले से ज्ञात अन्य नेरेटिव्स से अधिक विस्तृत है
और अन्यों की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय प्रमाणों पर आधारित है। यह नेरेटिव कोयवंशी
गोंड जनजातीय समाज में फैले मिथकों और लोककथाओं सहित उनकी धार्मिक मान्यताओं
में आज भी ज़िंदा हैं। उनकी वाचिक परम्परा में इसे आज भी देखा जा सकता है
समाधान ३०---
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एक तरफ तो आप
पौराणिक मिथकों वाचिक परम्पराओं पर उंगली उठाते हैं दूसरी तरफ अपने मिथकों धार्मिक
मान्यताओं की बात करते हैं --- अतः वस्तुतः ये सभी पूरी तरह से भ्रमित एवं विरोधी
भावों से ग्रसित हैं |
ये सभी तथाकथित स्वयंभू दार्शनिक आदि इतिहास
के ज्ञान के एक दम कोरे हैं, आर्य व असुर संघर्ष या आर्य-मूल निवासी संघर्ष का तो
कहीं इतिहास में नाम ही नहीं है | ये सुर-असुर युद्ध थे, उस समय तो आर्य नाम की
कोई परिकल्पना ही नहीं थी |
-----चित्र में विभिन्न गोंड-मिथक---
-----चित्र में विभिन्न गोंड-मिथक---
लकड़ी के मूल जुन्नार देव = शिव लिंग |
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क्रमश आगे पोस्ट आठ-----
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