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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

बुधवार, 7 मार्च 2018

भारतीय धर्म, दर्शन राष्ट्र -संस्कृति के विरुद्ध नवीन आवाजें व उनका यथातथ्य निराकरण --- एक क्रमिक आलेख--एक ---डा श्याम गुप्त

                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...




            भारतीय धर्म, दर्शन राष्ट्र -संस्कृति के विरुद्ध नवीन आवाजें व उनका यथातथ्य निराकरण --- एक क्रमिक आलेख--एक  ---डा श्याम गुप्त
        भावसृष्टि सृजन के समय ब्रह्मा जी को नींद आगई, असावधानीवश आसुरी सृष्टि का सृजन होगया अतः बुराई का जन्म हुआ और बुरे भावों व लोगों की सृष्टि | एक तात्विक विचार यह भी है कि जीवधारियों-प्राणियों-मनुष्यों को अच्छाई का ज्ञान निरंतर होता रहे, इसके लिए तुलना रूप में बुराई का प्रादुर्भाव, ब्रह्म की ही इच्छा थी | अतः सृष्टि में अच्छाई व बुराई का एक सतत युद्ध चलता रहता है
          भारतीय धर्म संस्कृति के विरुद्ध सदैव समय समय पर आवाजें उठती रहती हैं | चूंकि यह एक गहन तात्विक एवं मानव सद-आचरण आधारित उच्च संस्कृति है अतः यह स्वाभाविक है, चाहे वह पूर्व वैदिककाल में शुक्राचार्य का विरोध एवं आसुरी विचार धारा हो या वैदिककाल में विश्वामित्र की नव-विचारधारा या पौराणिक काल में ऋषि जाबालि की नास्तिक एवं रावण की रक्ष संस्कृति, तत्पश्चात  कंस, जैन, बौद्ध, ईसाई , इस्लामिक एवं आम्बेडकर आदि की नवबौद्ध विचार धाराएं आदि |
        आजकल हमारे देश में गोंड आदिवासी दर्शन और बहुजन संस्कृति महिषासुर के नाम पर एक नवीन विरोधी विचारधारा प्रश्रय पा रही है जिसे महिषासुर विमर्श का नाम दिया जारहा है | जिसमें जहां सारे भारत में समन्वित समाज की स्थापना के साथ धर्मों व प्राचीन जातियों आदि का अस्तित्व नहीं के बरावर रह गया था, अब असुर, नाग, गोंड  आदि विभिन्न जातियों वर्णों को उठाया जा रहा है | भ्रामक विदेशी ग्रंथों आलेखों में आर्यों को भारत से बाहर से आने वाला विदेशी बताये जाने के भारत में फूट डालने वाले षडयन्त्र से भावित-प्रभावित वर्ग द्वारा  इंद्र, आदि देवों को आर्य एवं शिव व अन्य तथाकथित असुर व नाग, गोंड आदि जातियों भारत की मूल आदिवासी बताया जा रहा है | वे स्वयं को हिन्दू धर्म में मानने से भी इनकार करने लगे हैं |
       विभन्न आलेखों, कथनों, प्रकाशित पुस्तकों में उठाये गए भ्रामक प्रश्नों व विचारों, कथनों का हम एक एक करके उचित समाधान प्रस्तुत करेंगे जो ४० कथनों-समाधानों एवं उपसंहार के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा, विभिन्न क्रमिक ११ आलेख-पोस्टों द्वारा | 
प्रस्तुत है पोस्ट १----समाधान १ से ५ तक------
कथन १-----जहां-जहां धर्म को एक अनिवार्य जोड़ने वाली विचारधारा या जीवन शैली की तरह देखा जाता है वहां-वहां धर्म स्वयं की एक स्पष्ट परिभाषा रखता है और अपने अनुयायियों को भी उतनी ही स्पष्टता से परिभाषित करते हुए आपस में जोड़ता  है। क्या यह बात भारतीय धर्म के बारे में और भारत में बसने वाले समुदायों के बारे में सही हैयह मात्र एक प्रश्न ही नहीं है बल्कि स्वयं में कई अन्य प्रश्नों का उत्तर भी है, और हजारों अनसुलझी पहेलियों को सुलझाने वाला सूत्र उपलब्ध करवाता है। इसके सहारे हम न केवल भारतीय उपमहाद्वीप के दार्शनिक, धार्मिक, भाषायिक और ऐतिहासिक क्रमविकास को जान सकते हैं बल्कि यह भी जान सकते हैं कि एक ही धर्म में होने के बावजूद इस हिन्दू कहे जाने वाले समुदाय में इतना भेदभाव और अलगाव क्यों है।
           इस सन्दर्भ में डॉ. अंबेडकर अपनी महत्वपूर्ण रचना  रिडल्स इन हिन्दुइज्म   में विभिन्न धर्मों और उनके मानने वालों की पहचान पर एक तार्किक सवाल उठाते हैं। कि कोई पारसी खुद को पारसी क्यों कहता है या कोई इसाई खुद को इसाई कहता है। इस सवाल के लिए उसके पास एक स्पष्ट उत्तर होता है। यही सवाल आप किसी हिन्दू से पूछिए कि वो हिन्दू क्यों है? वह यह नहीं बता सकेगा कि हिन्दू होने का क्या अर्थ होता है और किस चीज में विश्वास रखने पर कोई हिन्दू बनता है|
समाधान-१ ---क्या यह शीर्षक वे हिन्दी में या अपनी मातृभाषा मराठी में नहीं लिखा जा सकता था, अपने दलित, अनपढ़ लोगों के लिए, नहीं.. ताकि उन्हें कुछ समझ न आये और उन्हें उल्लू बनाता रहा जाये ---क्या अपने अँगरेज़ आकाओं के लिए लिखा गया यह |
     वस्तुतः आंबेडकर को यथार्थ नहीं ज्ञात था, एक ईसाई भंगी भी जानता होगा की हमारी एक किताब है बाइबल हम उसे मानते हैं, चाहे उसने पढी न हो, यही उत्तर एक पादरी का भी होगा जो रोज बाइबल पढ़ता होगा |  हिन्दू का निम्न तबका भी रामायण से उदाहरण दे सकता है और यह हमारा धर्मग्रन्थ है एवं हम हिन्दुस्थान के आदिमूल वासी होने से हिन्दू हैं,हम भिन्न भिन्न विचारों को स्वीकार करते हैं, कह सकता है परन्तु यदि किसी हिन्दू विद्वान् से पूछेंगे तो वह पूर्णरूप से व्याख्या सहित बताएगा कि हम हिन्दू क्यों हैं । 
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कथन-२ वे (डा.आम्बेडकर ) यह स्थापित करना चाहते हैं कि धर्म विशेष से संबद्ध होने के लिए किन्ही विशेष विश्वासों मान्यताओं अभ्यासों और कर्मकांडों की आवश्यकता होती है,एक ही धर्म के मानने वालों में इन आधारों पर साम्य होना चाहिए। एक दूसरे से भिन्न या विपरीत विश्वासों और व्यवहारों वाले लोगों को एक धर्म का अनुयायी नहीं माना जा सकता।
समाधान -२  इसका अर्थ है कि आंबेडकर को धर्म क्या है इसका ज्ञान नहीं था, वे मज़हब व कर्मकांडों को धर्म समझते थे, जो हिन्दू धर्म के विविध रूप व अंग व जीवन पद्दतियां है और हिन्दू धर्म के अतिरिक्त विश्व के सभी धर्म, मज़हब हैं धर्म नहीं | वे किसी एक किताब या व्यक्ति विशेष के अनुयायी हैं, मानवता दर्शन के नहीं |
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कथन -३-वर्त्तमान शिवलिंग को ब्राह्मणी धर्म ने, कुपार लिंगो के गोंडी धर्म और दर्शन और गोंडी धर्म से लिया है |  
समाधान ३-ये भूल जाते हैं कि ब्राहमणी धर्म नामक कोइ धर्म ही नहीं है, ब्राहमण-क्षत्री आदि कोई आदि-वर्गीकरण भी नहीं है | आदिवासियों के काल में वर्गीकरण कब था वह तो मानव के और विक्सित होने के बाद हुआ है | निश्चय ही शिव आदि देवता हैं, वर्गीकरण के पश्चात भी वे ब्राह्मणों के ही नहीं अपितु सभी विश्व व सभी वर्गों के देवता हैं, आज भी | पाषाण युगीय आदि गोंडी काल में तो धर्म या दर्शन की अवधारणा ही नहीं थी |   
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कथन ४-सेमेटिक मूल के तीन मुख्य धर्मों यहूदी, इसाइयत और इस्लाम में आंतरिक भेद कितने ही हों, लेकिन उनकी दुनिया भर में फ़ैली आबादी स्वयं को यहूदी इसाई या मुस्लिम साबित करने के लिए बहुत ही ठोस और सर्वमान्य आधारों की तरफ संकेत कर पाती है। ये संकेत उनकी एक किताब, एक पैगम्बर या एक ईश्वर को लेकर है।
समाधान-४- यही तो मूल अंतर है हिदू धर्म व अन्य धर्मों में ---अन्य सभी धर्मों में आंतरिक भेद तमाम होंगे, लेकिन उनकी दुनिया भर में फ़ैली आबादी स्वयं को उस धर्म का बतायेगी, यह धार्मिक अज्ञानता है एवं केवल दिखावा है,; ये धर्म नहीं अपितु मज़हब हैं, संगठन हैं, वर्ग-संस्थाएं हैं ;  वहीं हिन्दू धर्म मानने वालों में ऊपरी विभिन्नता कितनी भी हो परन्तु आतंरिक मूल रूप में एकरूपता पाई जाती है जिसे विविधता में एकता  कहा जाता है जो हिन्दू धर्म की विशेष विशिष्टता है | जो इस धर्म को अनंतकालिकता देती है, अनित्यता, अखण्डता |
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 कथन-५- दो महत्वपूर्ण धर्मों बौद्ध और जैन धर्म में भी यह सुविधा है। जैन तो खैर भारत में ही सिमट गए हैं, लेकिन बौद्धों की विश्व भर में फ़ैली आबादी कुछ बहुत महत्वपूर्ण विश्वासों के आधार पर हमेशा से एकता के सूत्र में बंधी रहती आई है। ये विश्वास असल में बुद्ध, धम्मपद, त्रिशरण मन्त्र और त्रिपिटकों में विश्वास है जो उन सबको एकसूत्र में बांधता है। साथ ही ईश्वर और अनश्वर आत्मा के निषेध सहित क्षणवाद और शून्य के दर्शन के प्रति निष्ठा भी उनकी एकता को सिद्ध करता है। ठीक उसी तरह जैसे विश्व भर के मुस्लिमों की बिना शर्त निष्ठा एक अल्लाह एक कुरआन और एक मुहम्मद में है।
समाधान-५----यह पशुओं की भांति पशुभाव एनीमल इंस्टिंक्ट’, झुण्डभाव-मानसिकता है, क्राउड मेंटालिटी जो एक ही विचार भाव से हांके जाने के समान है | उच्च विक्सित स्वानुभूत स्वतंत्र मानव वैचारिकता भाव नहीं, जो हिदू धर्म में है, कोइ किसी भी देवता, विचार या कर्मकांड को माने पर वह मानवीय व्यवहारगत हिन्दू ही है |

  -----क्रमश पोस्ट २ ---आगे .. 




 

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