....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
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भारतीय
धर्म, दर्शन राष्ट्र-संस्कृति के विरुद्ध उठती नवीन आवाजें व उनका यथातथ्य
निराकरण- --डा श्यामगुप्त
---पोस्ट-दस-अंतिम किश्त----
पूर्वापर----
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भावसृष्टि सृजन के समय ब्रह्मा जी को
नींद आगई, असावधानीवश आसुरी सृष्टि का सृजन होगया अतः बुराई का जन्म हुआ और बुरे
भावों व लोगों की सृष्टि | एक तात्विक विचार यह भी है कि जीवधारियों-प्राणियों-मनुष्यों
को अच्छाई का ज्ञान निरंतर होता रहे, इसके लिए तुलना रूप में बुराई का
प्रादुर्भाव, ब्रह्म की ही इच्छा थी | अतः सृष्टि में अच्छाई व बुराई का एक
सतत युद्ध चलता रहता है |
भारतीय धर्म संस्कृति के विरुद्ध सदैव समय
समय पर आवाजें उठती रहती हैं | चूंकि यह एक गहन तात्विक एवं मानव सद-आचरण आधारित
उच्च संस्कृति है अतः यह स्वाभाविक है, चाहे वह पूर्व वैदिककाल में शुक्राचार्य
का विरोध एवं आसुरी विचार धारा हो या वैदिककाल में विश्वामित्र की
नव-विचारधारा या पौराणिक काल में ऋषि जाबालि की नास्तिक एवं रावण की
रक्ष संस्कृति, तत्पश्चात कंस,
जैन, बौद्ध, ईसाई , इस्लामिक एवं
आम्बेडकर आदि की नवबौद्ध विचार धाराएं आदि |
आजकल हमारे देश में गोंड आदिवासी दर्शन
और बहुजन संस्कृति व महिषासुर के नाम पर एक नवीन विरोधी विचारधारा प्रश्रय पा
रही है जिसे महिषासुर
विमर्श का नाम दिया जारहा है | जिसमें जहां सारे भारत में समन्वित समाज की
स्थापना के साथ धर्मों व प्राचीन जातियों आदि का अस्तित्व नहीं के बरावर रह गया
था, अब असुर, नाग, गोंड आदि विभिन्न
जातियों वर्णों को उठाया जा रहा है | भ्रामक विदेशी ग्रंथों आलेखों में आर्यों
को भारत से बाहर से आने वाला विदेशी बताये जाने के भारत में फूट डालने वाले षडयन्त्र
से भावित-प्रभावित वर्ग द्वारा इंद्र, आदि
देवों को आर्य एवं शिव व अन्य तथाकथित असुर व नाग, गोंड आदि जातियों भारत की मूल आदिवासी
बताया जा रहा है | वे स्वयं को हिन्दू धर्म में मानने से भी इनकार करने
लगे हैं |
विभन्न आलेखों, कथनों, प्रकाशित पुस्तकों
में उठाये गए भ्रामक प्रश्नों व विचारों, कथनों का हम एक एक करके उचित समाधान
प्रस्तुत करेंगे जो ४० कथनों-समाधानों एवं उपसंहार के रूप में प्रस्तुत किया
जाएगा, विभिन्न क्रमिक १० आलेख-पोस्टों द्वारा |
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उपसंहार -----
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कथन---महिषासुर आन्दोलन या इसके साथ आरंभ हुआ मिथकीय पुनर्पाठ का
आन्दोलन कोइ छोटी सी घटना नहीं है। इसकी ऐतिहासिक दार्शनिक और धार्मिक सांस्कृतिक
प्रष्टभूमि बहुत विराट है और इस एक आन्दोलन ने जिन खो गयी कड़ियों को आपस में जोड़ा
है वैसा भारतीय इतिहास में बहुत कम हुआ है। अन्य शोध और मिथक अनुवाद किन्ही खो गयी
परम्पराओं की दार्शनिक, धार्मिक या भाषागत समानता के आधार पर सिद्ध किये जाते रहे हैं।
-------लेकिन पहली बार एक समाज शास्त्रीय और मानवशास्त्रीय आधार पर ठोस दार्शनिक विमर्श
को केंद्र में रखने वाला आन्दोलन उभर रहा है। असुरों और गोंडों की बची हुई
आबादी और उनके साथ उनकी मिथकीय कथा में शामिल अन्य दलित पिछड़ी और मूलनिवासी
जातियों से एक तरह का दार्शनिक और धार्मिक सांस्कृतिक सम्बन्ध निर्मित होता दिखाई
दे रहा है। और सबसे बड़ी बात ये है कि ये संबंध असल में प्राचीन भारत की सभी
विद्रोही परम्पराओं को मूलनिवासी साबित करने की तरफ बढ़ रहा है।
------- प्राचीन भारतीय भौतिकवाद के गहन अध्ययन से लोकायतिक अर्थात
प्राचीन असुरों और उनके बाद के बौद्धों के बीच में ऐतिहासिक
क्रमविकास का एक सीधा संबंध निर्मित होता दिखाई देता है।
------यह प्रतीत होता है कि
असुर या लोकायतिक या मूल सांख्य या तांत्रिक दर्शनों को मानने वाले मूलनिवासी
समुदायों में ही लोकायत के रूप में एक भौतिकवादी दर्शन ने आकार लिया और संभवतः यही
श्रमण परम्परा के लिए एक दार्शनिक आधार बनकर प्रकट हुआ।
-------साथ ही इसने ‘इस लोक’ (इहलौकिक) के सुख की
प्राप्ति (चार्वाक) और ‘इस लोक’ के दुःख की निर्जरा (बौद्ध) जैसे दर्शनों को भी ठोस भौतिकवादी
आधार दिए।
--------संभवतः यही असुर जनजातीय लोकायत (जिसके मानने वाले सुदूर लंकावासी
रावण और मेघनाद आदि भी थे) और जो तन्त्र और मूल सांख्य की अपनी प्रवृत्तियों में
आरंभ में अल्पविकसित था वही बाद में अपने पूर्णतः विकसित रूप “बौद्ध
धर्म” के रूप में प्रकट हुआ।।
------- फिर संभूशेक और महिषासुर सहित असुरों की संस्कृति को छल से
नष्ट किया गया और ब्राह्मणवादी धर्म में आत्मसात कर लिया गया। बाद में इसी
तरीके से बुद्ध और कबीर को भी आत्मसात कर लिया गया।
--------यह एक ऐसा सूत्र है जो
प्राचीन भौतिकवाद और आधुनिक बौद्ध रहस्यवाद सहित मध्यकालीन संतों के भक्ति आन्दोलन
को और उनके सनातन शत्रुओं को एकसाथ एक सीधी रेखा में बाँध देता है।
------यह न केवल
ऐतिहासिक अर्थों में उद्विकास और पतन की नयी तस्वीर को उजागर करेगा, बल्कि भविष्य में
ब्राह्मणवादी पाखण्ड के शमन के लिए प्रगतिशीलों और मुक्तिकामियों सहित संपूर्ण
बहुजन समाज के सभी धडों को एक साथ संगठित भी करेगा।
--------यही अंततः एक निरीश्वरवादी
प्रकृतिरक्षक मातृसत्तात्मक और ‘इस लोक’
में भरोसा करते हुए परलोक को नकारने
वाले वैज्ञानिक व समतामूलक समाज की भारत में स्थापना का आधार बनेगा।
इसी पूरी विमर्श यात्रा में यह लेख
तीन दावे करना चाहता है ----
---पहला
यह कि देव असुर संग्राम के बहुत पहले ही आर्य और कोयावंशी गोंड
संग्राम हो चुका था।
----दूसरा दावा
ये कि गोंडों के संभुशेक,
असुरों के महिषासुर और ब्राह्मणी धर्म के महादेव एक ही व्यक्ति या संस्था हैं व आज के
‘शिव’ या ‘शंकर’ उनका
विकृत व ब्राहमणीकृत रूप हैं ।
-----तीसरा
दावा ये कि श्रमण दर्शन और पारी
कुपार लिंगो का पुनेम दर्शन आपस में
जुड़े हुए हैं और बहुत बाद में गौतम
बुद्ध इसी पुनेम दर्शन की आरंभिक
प्रवृत्तियों और मान्यताओं पर अपने
विस्तृत दर्शन का भवन खड़ा कर रहे हैं।
-------------इसी कारण महिषासुर के मिथक सहित संभूशेक, गोंडी धर्म, असुर व श्रमण व
मातृसत्तात्मक या तांत्रिक या
लोकायतिक दर्शनों पर और अधिक गहराई से
शोध की आवश्यकता है। यह शोध बहुजन
समाज की मूल संरचना और उसके ऐतिहासिक
उद्विकास सहित उसके पतन की खोज है
ताकि ब्राह्मणी या आर्य षड्यंत्र को
उसकी सम्पूर्णता में देखा जा सके। यही
शोध आज हमारी आँख के सामने चल रहे उसी
सनातन षड्यंत्र को दुबारा उजागर
करेगा।
समाधान -------
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—--यह सत्य-असत्य, ज्ञान-अज्ञान, अन्धकार-प्रकाश की सदा की भाँति होने वाली
वैचारिक विचारधारा के युद्ध की पृष्ठभूमि है जो पुनः एक बार भारतीय भूमि पर सनातन
हिन्दू वैदिक ज्ञान के विरुद्ध, वेद विरोधी अज्ञान धाराओं के उभरने का प्रयास है, सदा की भाँति पुनः मुंह की खाने के लिए |
----दावा
1. --लेखक भ्रम में हैं व इतिहास से अज्ञान---आर्य शब्द व आर्य लोग देव
व असुर संग्रामों के बहुत बाद की व्यवस्था है जब देव व असुर द्वंद्व मुख्यता
समाप्त हो चुके थे एवं मानव समाज में एक रूपता आगई थी | यदि कोयावंशी भारतीय आदिवासी
हैं तो उनका आर्यों से संघर्ष में दूर दूर तक सत्यता नहीं |
---दावा
२.----संभु सेक व महादेव तो
निश्चय ही एक ही हैं जो भारतीय समाज के विकास की अवस्थाओं में हैं | जैसा की ऊपर
कथनों में स्पष्ट किया जा चुका है की संभुसेक, या हरप्पा-पूर्व व हरप्पा सभ्यता के पशुपति ---महा मानवीय समन्वय के बाद
में सरस्वती सभ्यता व वैदिक सभ्यता के शिव व् महादेव ही हैं,जिन्हें देवाधिदेवस्वीकारा
गया | यह आदि संभुसेक का विकृत नहीं अपितु विक्सित, उन्नत रूप है जिसे वैदिक धर्म
के साथ विश्वभर में पूज्य के रूप में स्वीकारा गया | हिन्दू धर्म में महादेव के
नामों में एक नाम शंभू, भोला, भी है |
---हाँ महिषासुर, महादेव
नहीं हैं, वह एक असुर सम्राट था | अन्यथा उसका शिव पत्नी पार्वती द्वारा क्यों वध
किया जाता | यह निश्चय ही इतिहास व तार्किकता की अज्ञानता प्रदर्शन है |
----दावा
३.---निश्चय ही ये सारे वर्णित
दर्शन या धर्म आपस में जुड़े हुए हैं, क्योंकि ये सभी प्रारम्भिक, अविकसित
अवस्था के आरंभिक प्रवृत्तियों और मान्यताओं से सम्बद्ध हैं तथा समय
समय पर वेदों की विक्सित, उन्नत ईश्वरवादी एवं उनकी मानव आचरण शुचिता भावना के विरुद्ध
उभरे हुए लोकायत या अनीश्वरवादी दर्शन हैं |
-------- समतामूलक समाज क्या है, समता का क्या अर्थ है ? समता, समानता नहीं है | समता का अर्थ है सबको यथायोग्य मिले न कि सबको
समान मिले | इसमें न निरीश्वरवादी, प्रकृतिरक्षक, मातृसत्तात्मक, केवल लोक पर भरोसे की लोकायत संस्था / दर्शन से
अंतर पड़ता है; न ईश्वरवादी, पितृसत्तात्मक, लोक-परलोक वादी दर्शन/ संस्था से ---दोनों ही
दर्शनों के साथ मानवतावादी व्यवहारिक तत्व होना चाहिए | यही सुनिश्चित जीवन दर्शन एवं सत्य है |
क्योंकि भौतिकवादी लोकायत दर्शन में
मनुष्य स्वयं ही प्रत्येक कार्य का विचारक, निश्चितकारक एवं कर्ता होता है अतः अहंकारग्रस्त
होकर विनाश की ओर चल पड़ने का अधिक संभावना होती है | ईश्वरवादी दर्शन में मानव केवल कर्ता है कारक
नहीं, सब कुछ ईश्वर या प्रकृति के हाथ में है अतः प्रायः अहंग्रस्तता की
संभावना नहीं होती |
इतिहास गवाह है कि इस देश-दुनिया में
सदैव ही समय समय पर लोकायत दर्शन प्रादुर्भूत होता रहा है, चाहे वह असुर हों, या रावण, कंस, जावालि मुनि, जैन, बुद्ध, पाश्चात्य दर्शन परन्तु सदैव ही, सभी कुछ समय के उपरांत समाप्त होगये, विलीन होगये या ईश्वरीय वैज्ञानिक वैदिक-वेदान्त
दर्शन में समन्वित होगये, जो वैचारिक विकास के क्रम में सर्वोपरि, वैज्ञानिक एवं मानवतावादी व्यवहारिक सर्वश्रेष्ठ
दर्शन है |
पशुपति-हरप्पा सील |
अर्धनारीश्वर |
पशुपति व मातृदेवी -हरप्पा सील |
ब्रह्मा विष्णु महादेव --त्रिदेव ( मानव जाति का महा समन्वय ) |
अफगानिस्तान में शिव |
---इति---
कथन सन्दर्भ जिसका समाधान किया गया --
--------आलेख -- महिषासुर विमर्श : गोंड आदिवासी दर्शन और बहुजन संस्कृति Sanjay Jothe संजय
जोठे On July 3, 2017
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