....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
चित्र काव्य---
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कान्हा तेरी वंसी मन तरसाए |
कण कण ज्ञान का अमृत बरसे, तन मन सरसाये |
ज्योति दीप मन होय प्रकाशित, तन जगमग कर जाए |
तीन लोक में गूंजे यह ध्वनि, देव दनुज मुसकाये |
पत्ता-पत्ता, कलि-कलि झूमे, पुष्प-पुष्प खिल जाए
|
नर-नारी की बात कहूँ क्या, सागर उफना जाए |
बैरन छेड़े तान अजानी , मोहनि मन्त्र चलाये |
राखहु श्याम’ मोरी मर्यादा, मुरली मन भरमाये ||
काहे न मन धीर धरे घनश्याम |
तुम जो कहत हम एक विलगि कब हैं राधे ओ श्याम ।
फ़िर क्यों तडपत ह्रदय जलज यह समुझाओ हे श्याम !
सान्झ होय और ढले अर्क, नित बरसाने घर-ग्राम ।
जावें खग मृग करत कोलाहल अपने-अपने धाम।
घेरे रहत क्यों एक ही शंका मोहे सुबहो-शाम।
दूर चले जाओगे हे प्रभु! छोड़ के गोकुल धाम ।
कैसे विरहन रात कटेगी, बीतें आठों याम ।
राधा की हर सांस सांवरिया , रोम रोम में श्याम।
श्याम', श्याम-श्यामा लीला लखि पायो सुख अभिराम ।
तुम जो कहत हम एक विलगि कब हैं राधे ओ श्याम ।
फ़िर क्यों तडपत ह्रदय जलज यह समुझाओ हे श्याम !
सान्झ होय और ढले अर्क, नित बरसाने घर-ग्राम ।
जावें खग मृग करत कोलाहल अपने-अपने धाम।
घेरे रहत क्यों एक ही शंका मोहे सुबहो-शाम।
दूर चले जाओगे हे प्रभु! छोड़ के गोकुल धाम ।
कैसे विरहन रात कटेगी, बीतें आठों याम ।
राधा की हर सांस सांवरिया , रोम रोम में श्याम।
श्याम', श्याम-श्यामा लीला लखि पायो सुख अभिराम ।
राधे काहे न धीर धरो ।
मैं पर-ब्रह्म ,जगत हित कारण, माया भरम परो ।
तुम तो स्वयं प्रकृति -माया ,मम अन्तर वास करो।
एक तत्व गुन , भासें जग दुई , जगमग रूप धरो।
राधा -श्याम एक ही रूपक ,विलगि न भाव भरो।
रोम-रोम हर सांस सांस में , राधे ! तुम विचरो ।
श्याम, श्याम-श्यामा लीला लखि,जग जीवन सुधरो।
मैं पर-ब्रह्म ,जगत हित कारण, माया भरम परो ।
तुम तो स्वयं प्रकृति -माया ,मम अन्तर वास करो।
एक तत्व गुन , भासें जग दुई , जगमग रूप धरो।
राधा -श्याम एक ही रूपक ,विलगि न भाव भरो।
रोम-रोम हर सांस सांस में , राधे ! तुम विचरो ।
श्याम, श्याम-श्यामा लीला लखि,जग जीवन सुधरो।
चित्र
गाथा ---
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युगल छवि राधे गोविन्द
बन्दे ....
“ रस स्वरुप घनश्याम हैं राधा
भाव विभाव... | ”
इश्के मजाजी और इश्के
हकीकी का जो संगम बांसुरी की तान में है अन्यंत्र कहाँ ! यही वह रूप, भाव, रस, छंद
की अनूठी तान है जिसने युगों युगों से विश्व को, विश्व की हर संस्कृति-सभ्यता को,
जन जन को, स्त्री-पुरुष को, मानवता को, समस्त जड़-जंगम, चेतन-अचेतन प्रकृति को अपने
वश में कर रखा है |
प्रेम और भक्ति का
सम्पूर्ण भाव यदि कहीं ढूंढना हो राधाकृष्ण शब्द में ढूंढिए, मुरली की तान में
खोजिये | गोपाल की वंशी धुन में पाइए | गोपी भाव में, राधा की भक्ति, श्रीकृष्ण की
प्रेम धुन में जानिये, अपने अंतर के आनंदमय मधुरतम भाव में अनुभव कीजिये और प्रेम-सरिता के प्रवाह को तात्विकता से उत्पन्न होकर, लोक
में प्रणय से होकर दिव्य की अनुभूति तक प्राप्त करिए |
श्रृद्धा-विश्वास
रूपिणों का
सम्पूर्ण रूप प्रस्तुत चित्र में ढूंढिए जिसे मन की गहराई से अनुभव करेंगे
तो प्रेम की लौकिक अभिव्यक्ति प्रणय के प्रभावोत्पादन का सौन्दर्यमय, अभिव्यन्जनीय,
अनिवर्चनीय व मादक रूप भाव दृष्टव्य होगा |
ब्रह्म-माया-जीव-संसार का भाव आनंद रूप मिलेगा, साक्षात् माया-ब्रह्म का नर्तन,
प्रकृति-पुरुष का भाव मंथन, द्वैत–अद्वैत के तत्व-चितन का दर्शन होगा, जहां प्रेम उच्चतम अवस्था में, भावातिरेक अवस्था में भक्ति में परिवर्तित होजाता है और अगले सोपान निर्विकल्प भक्ति पर द्वैत का
अद्वैत में लय होकर प्रिय के साथ रंग, रूप, रस, भाव, लय, विचार आदि
सर्वस्व तदनुरूपता में | ...
” जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं |”
तब
मीरा आलाप लेती हैं---मैं तो
सांवरे के रंग रांची .......
तथा मुग्धा नायिका भाव विह्वल हुई गा उठती है – पिया अंग लग लग भयी सांवरी मैं ...|
जिसका वर्णन आदि-पुराण में इस प्रकार
किया गया है ----
श्री
कृष्णस्य तेजसार्धेना सा च मूर्तिमती सती
एका मूर्तिहि
द्विविधा भुव भेदो वेदा निरूपिता |
-----श्रीकृष्ण के दैवीय
तेजस स्वरुप का अर्धभाग राधारूप है | वे वेदों द्वारा निरूपित एक ही शरीर के दो
अविभाज्य रूप है |
यथा सामवेद के
अनुसार- ‘रेपोहि कोटि
जन्मागम कर्म भोगम शुभशुभं |
जिसका दर्शन मात्र करोड़ों करोड़ों वर्ष के जन्मों के पाप का विनाश व समस्त
कर्मभोगों का क्षय करता है तथा जन्म-मरण के संसार चक्र से मुक्ति प्रदान करता है
---- अस्तु-
लीला
राधा-श्याम की श्याम’ सके क्या जान ,
जो लीला को जान ले श्याम’ रहे न श्याम’ |
-----हरे
कृष्ण -----
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