....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
----- गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं ---
वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्द्सामहम
मासानां मार्गशीर्षोsहमृतूनां कुसुमाकरः||१०/३५ विभूतियोग
-----साम अर्थात गायन करने योग्य सामवेद की श्रुतियों में, मैं वृहत्साम और वैदिक छंदों में गायत्री छंद मैं हूँ | बारह महीनों में मार्गशीर्ष ( दिसंबर-जनवरी के भाग ) और छः ऋतुओं में मैं वसंत हूँ |
\
आरण्यक व ब्राह्मण-ग्रन्थों के अनुसार ऋचाओं के आधार पर स्वर प्रधान ऐसा गायन जो स्वर्गलोक, आदित्य, मन, श्रेष्ठत्व और तेजस को स्वर-आलाप में व्यंजित करता हो, समत्व भाव को प्रदर्शित करता हो '#बृहत्साम' कहा जाता है।
साम एवं वृहत्साम ----
********************
ऋग्वेद की जिन ऋचाओं को सामवेद में गाया जाता है? वे मनोहारी गीत हैं उन्हें #साम कहते हैं। इनका गायन एक विशिष्ट परम्परागत वैदिक पद्धति से किया जाता है जो अत्यंत मनोहारी होता है | गायन विशिष्ट पद्धति का होने के कारण अत्यन्त कठिन है? जिन्हें सीखने के लिए वर्षों तक गुरु के पास रहकर साधना करनी पड़ती है।
---- #साम अर्थात् सु-समन्वित स्वर, harmony, स्वरों की संगति से अभिव्यक्ति ‘साम’ या ‘राग’ का रूप ले लेती है। अतः ‘साम’ का अर्थ हुआ रागयुक्त अभिव्यक्ति अर्थात् गीत और काव्य। ‘साम’ का अर्थ ‘उद्गीथ’ अर्थात् ‘#गेयमन्त्र’।
---- वैदिक मन्त्रों से लेकर ललित निबन्ध तक सभी को साम-सम्पृक्त माना जा सकता है। सभी में कोई-न-कोई ‘साम’ प्रतिष्ठित है।
----- इसकी ही विस्तार-शक्ति (विराट या ‘ही’) और रूप-शक्ति (विराज या ‘श्री’) छान्दोग्य में वर्णित सारे सामों का ‘मूल साम’ रचती है।
-----उनमें एक साम वह है? जिसमें इन्द्र की सर्वेश्वर के रूप में स्तुति की गई है? जिसे बृहत्साम कहते हैं? -----‘#वृहत्साम’ पद में महत्त्वपूर्ण शब्द है ‘वृहत्’, जो इस ‘साम’ (संगीत) की विशिष्टता का बोध कराता है। यह विशेषण इस ‘साम’ को एक दिव्य परिवेश से जोड़ता है क्योंकि वृहत् यहाँ पर दिव्यता का वाचक है। ‘वृहत्’ का अर्थ परमात्मा और विश्वात्मा दोनों होता है। यह ‘विराट्’ का पर्यायवाची है अर्थात ==विराट के गान== ….
परम्परागत रूप से वृहत्साम संहिता के किसी विशेष भाग की संज्ञा न होकर सूर्य और विष्णु से जुड़े हुए मन्त्रों की एक गायन पद्धति का ही नाम है। सम्भवतः इसका प्रयोग यज्ञ के अनुष्ठान-कल्पों में और उनके बाहर भी प्रार्थना मूलक संगीत के रूप में होता था और आधुनिक कीर्तन-भजन आदि उसी प्रवृत्ति के विकसित रूप हैं।
\
वृहत्साम व मुनि भारद्वाज ---
*************************
ऋग्वेद के दसवें मण्डल में कहा गया है- 'यों तो समस्त ऋषियों ने ही यज्ञ का परम गुह्य ज्ञान जो बुद्धि की गुफ़ा में गुप्त था, उसे जाना, परंतु भारद्वाज ऋषि ने द्युस्थान (स्वर्गलोक)-के धाता, सविता, विष्णु और अग्नि देवता से ही बृहत्साम का ज्ञान प्राप्त किया'। यह बात भारद्वाज ऋषि की श्रेष्ठता और विशेषता दोनों दर्शाती है। उन्होंने आत्मसात किया था 'बृहत्साम'।
सामवेद के #रथन्तर आदि विभिन्न सामों में #वृहत्साम ( बृहत् नामक साम )प्रधान होने के कारण सबमें श्रेष्ठ है जिसमें परमेश्वर की इंद्र रूप में स्तुति की गयी है| अतिरात्र याग में यही पृष्ठ-स्त्रोत (=मुख्य ) है | इसी कारण भगवान श्री कृष्ण ने यहाँ वृहत्साम को अपना स्वरुप बताया है |
\
तैत्तिरीय व ब्राह्मण-ग्रन्थ में वर्णित घटना इस प्रकार है- भारद्वाज ने सम्पूर्ण वेदों के अध्ययन का यत्न किया। दृढ़ इच्छा-शक्ति और कठोर तपस्या से इन्द्र को प्रसन्न किया। भारद्वाज ने प्रसन्न हुए इन्द्र से अध्ययन हेतु सौ वर्ष की आयु माँगी। भारद्वाज अध्ययन करते रहे। सौ वर्ष पूरे हो गये। अध्ययन की लगन से प्रसन्न होकर दुबारा इन्द्र ने फिर वर माँगने को कहा, तो भारद्वाज ने पुन: सौ वर्ष अध्ययन के लिये और माँगा। इन्द्र ने सौ वर्ष प्रदान किये। इस प्रकार अध्ययन और वरदान का क्रम चलता रहा। भारद्वाज ने तीन सौ वर्षों तक अध्ययन किया।
\
इसके बाद पुन: इन्द्र ने उपस्थित होकर कहा-'हे भारद्वाज! यदि मैं तुम्हें सौ वर्ष और दे दूँ तो तुम उनसे क्या करोगे?' भारद्वाज ने सरलता से उत्तर दिया, 'मैं वेदों का अध्ययन करूँगा।' इन्द्र ने तत्काल बालू के तीन पहाड़ खड़े कर दिये, फिर उनमें से एक मुट्ठी रेत हाथों में लेकर कहा---
------'भारद्वाज, समझो ये तीन वेद हैं और तुम्हारा तीन सौ वर्षों का अध्ययन यह मुट्ठी भर रेत है। वेद अनन्त हैं। तुमने आयु के तीन सौ वर्षों में जितना जाना है, उससे न जाना हुआ अत्यधिक है।'
------अत: मेरी बात पर ध्यान दो- 'अग्नि है सब विद्याओं का स्वरूप। अत: अग्नि को ही जानो। उसे जान लेने पर सब विद्याओं का ज्ञान स्वत: हो जायगा |
---- इसके बाद इन्द्र ने भारद्वाज को सावित्र्य-अग्नि-विद्या का विधिवत ज्ञान कराया। भारद्वाज ने उस अग्नि को जानकर उससे अमृत-तत्त्व प्राप्त किया और स्वर्गलोक में जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया'| इन्द्र द्वारा अग्नि-तत्त्व का साक्षात्कार किया, ज्ञान से तादात्म्य किया और तन्मय होकर रचनाएँ कीं। यही रचनाएँ #वृहत्साम कहलाईं |
\
ऋषि भारद्वाज बृहत्साम-गायक थे। वे चार प्रमुख साम-गायकों, गौतम, वामदेव, भारद्वाज और कश्यप में गिने जाते हैं।
\
संहिताओं में ऋषि भारद्वाज के इस 'बृहत्साम' की बड़ी महिमा बतायी गयी है। काठक-संहिता में तथा ऐतरेय-ब्राह्मण में कहा गया है कि 'इस बृहत्साम के गायन से शासक सम्पन्न होता है तथा ओज, तेज़ और वीर्य बढ़ता है। 'राजसूय यज्ञ' समृद्ध होता है। राष्ट्र और दृढ़ होता है। -----
\
1. भारद्वाज कहते हैं अग्नि को देखो, यह मरणधर्मा मानवों में मौजूद अमर ज्योति है। यह अग्नि विश्वकृष्टि है अर्थात् सर्वमनुष्य रूप है। यह अग्नि सब कर्मों में प्रवीणतम ऋषि है, जो मानव में रहती है, उसे प्रेरित करती है ऊपर उठने के लिये। अत: पहचानो।
-----अर्थात स्वयं को आत्म को जानें स्वयं के अन्दर जो आत्मशक्ति, इच्छा शक्ति, दृड़ता, कर्मठता रूपी अग्नि है वही विश्वकृष्टि है वही प्रथम अग्नि है, उसे जानना चाहिए |
|
2. मानवी अग्नि जागेगी। विश्वकृष्टि को जब प्रज्ज्वलित करेंगे तो उसे धारण करने के लिये साहस और बल की आवश्यकता होगी। इसके लिये आवश्यक है कि आप सच्चाई पर दृढ़ रहें।
----सत्य व दृढ़ता पर स्थिर रहने से अंतर की आत्मशक्ति प्रज्वलित होती है |
\
3. ऋषि भारद्वाज कहते हैं- 'हम झुकें नहीं। हम सामर्थ्यवान के आगे भी न झुकें। दृढ़ व्यक्ति के सामने भी नहीं झुकें। क्रूर-दुष्ट-हिंसक-दस्यु के आगे भी हमारा सिर झुके नहीं'।
---सत्य पर दृढ रहने से इतनी आत्मशक्ति प्राप्त होती है एवं आप किसी भी स्थिति में अन्याय के आगे न झुकने की शक्ति प्राप्त कर पाते हैं |
\
4. ऋषि समझाते हैं कि जीभ से ऐसी वाणी बोलनी चाहिये कि सुनने वाले बुद्धिमान बनें।
----सदैव ज्ञान के प्रसार के लिए समर्पित रहना चाहिए | इसके लिए उत्तम वाणी, सत्य वचन एवं सदेच्छा युत व्यवहार रहना चाहिए |
\
5. हमारी विद्या ऐसी हो, जो कपटी दुष्टों का सफाया करे, युद्धों में संरक्षण दे, इच्छित धनों का प्राप्त कराये और हमारी बुद्धियों को निन्दित मार्ग से रोके।
-----विद्या व ज्ञान का उपयोग सदा समाज के सदुपयोग में होना चाहिए, आवश्यक श्री, वैभव, बल की प्राप्ति, दुष्टजनों के विरोध, अज्ञानता के निरोध हित होना चाहिए |
----- यह सामवेद के उत्तरार्चिक में अध्याय ३ ( ऋग्वेद- मण्डल१, अनुवाक १०, सूक्त ५२ ) के अंतर्गत है | इसके देवता इंद्र, दृष्टा ऋषि शयु बार्हस्पत्य हैं, अतिरात्र याग में यह एक पृष्ठस्त्रोत ( मूल) है | यहाँ वृहत्साम के मूल मन्त्र भावार्थ सहित प्रस्तुत हैं ----
वृहत्साम ----- डा श्याम गुप्त
============
वेदों में प्रायः हम किसी यज्ञ, अनुष्ठान, कर्म-कांड व घटना या कथाक्रम के आदि या अंत में एक वाक्यांश बहुधा पढ़ते हैं---‘फिर उन्होंने वृहत्साम गाये…..’ जिसका अर्थ स्पष्टतः नहीं मिलता परन्तु निश्चय ही वे विशिष्ट गायन होंगे |
============
वेदों में प्रायः हम किसी यज्ञ, अनुष्ठान, कर्म-कांड व घटना या कथाक्रम के आदि या अंत में एक वाक्यांश बहुधा पढ़ते हैं---‘फिर उन्होंने वृहत्साम गाये…..’ जिसका अर्थ स्पष्टतः नहीं मिलता परन्तु निश्चय ही वे विशिष्ट गायन होंगे |
----- गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं ---
वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्द्सामहम
मासानां मार्गशीर्षोsहमृतूनां कुसुमाकरः||१०/३५ विभूतियोग
-----साम अर्थात गायन करने योग्य सामवेद की श्रुतियों में, मैं वृहत्साम और वैदिक छंदों में गायत्री छंद मैं हूँ | बारह महीनों में मार्गशीर्ष ( दिसंबर-जनवरी के भाग ) और छः ऋतुओं में मैं वसंत हूँ |
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आरण्यक व ब्राह्मण-ग्रन्थों के अनुसार ऋचाओं के आधार पर स्वर प्रधान ऐसा गायन जो स्वर्गलोक, आदित्य, मन, श्रेष्ठत्व और तेजस को स्वर-आलाप में व्यंजित करता हो, समत्व भाव को प्रदर्शित करता हो '#बृहत्साम' कहा जाता है।
साम एवं वृहत्साम ----
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ऋग्वेद की जिन ऋचाओं को सामवेद में गाया जाता है? वे मनोहारी गीत हैं उन्हें #साम कहते हैं। इनका गायन एक विशिष्ट परम्परागत वैदिक पद्धति से किया जाता है जो अत्यंत मनोहारी होता है | गायन विशिष्ट पद्धति का होने के कारण अत्यन्त कठिन है? जिन्हें सीखने के लिए वर्षों तक गुरु के पास रहकर साधना करनी पड़ती है।
---- #साम अर्थात् सु-समन्वित स्वर, harmony, स्वरों की संगति से अभिव्यक्ति ‘साम’ या ‘राग’ का रूप ले लेती है। अतः ‘साम’ का अर्थ हुआ रागयुक्त अभिव्यक्ति अर्थात् गीत और काव्य। ‘साम’ का अर्थ ‘उद्गीथ’ अर्थात् ‘#गेयमन्त्र’।
---- वैदिक मन्त्रों से लेकर ललित निबन्ध तक सभी को साम-सम्पृक्त माना जा सकता है। सभी में कोई-न-कोई ‘साम’ प्रतिष्ठित है।
----- इसकी ही विस्तार-शक्ति (विराट या ‘ही’) और रूप-शक्ति (विराज या ‘श्री’) छान्दोग्य में वर्णित सारे सामों का ‘मूल साम’ रचती है।
-----उनमें एक साम वह है? जिसमें इन्द्र की सर्वेश्वर के रूप में स्तुति की गई है? जिसे बृहत्साम कहते हैं? -----‘#वृहत्साम’ पद में महत्त्वपूर्ण शब्द है ‘वृहत्’, जो इस ‘साम’ (संगीत) की विशिष्टता का बोध कराता है। यह विशेषण इस ‘साम’ को एक दिव्य परिवेश से जोड़ता है क्योंकि वृहत् यहाँ पर दिव्यता का वाचक है। ‘वृहत्’ का अर्थ परमात्मा और विश्वात्मा दोनों होता है। यह ‘विराट्’ का पर्यायवाची है अर्थात ==विराट के गान== ….
परम्परागत रूप से वृहत्साम संहिता के किसी विशेष भाग की संज्ञा न होकर सूर्य और विष्णु से जुड़े हुए मन्त्रों की एक गायन पद्धति का ही नाम है। सम्भवतः इसका प्रयोग यज्ञ के अनुष्ठान-कल्पों में और उनके बाहर भी प्रार्थना मूलक संगीत के रूप में होता था और आधुनिक कीर्तन-भजन आदि उसी प्रवृत्ति के विकसित रूप हैं।
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वृहत्साम व मुनि भारद्वाज ---
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ऋग्वेद के दसवें मण्डल में कहा गया है- 'यों तो समस्त ऋषियों ने ही यज्ञ का परम गुह्य ज्ञान जो बुद्धि की गुफ़ा में गुप्त था, उसे जाना, परंतु भारद्वाज ऋषि ने द्युस्थान (स्वर्गलोक)-के धाता, सविता, विष्णु और अग्नि देवता से ही बृहत्साम का ज्ञान प्राप्त किया'। यह बात भारद्वाज ऋषि की श्रेष्ठता और विशेषता दोनों दर्शाती है। उन्होंने आत्मसात किया था 'बृहत्साम'।
सामवेद के #रथन्तर आदि विभिन्न सामों में #वृहत्साम ( बृहत् नामक साम )प्रधान होने के कारण सबमें श्रेष्ठ है जिसमें परमेश्वर की इंद्र रूप में स्तुति की गयी है| अतिरात्र याग में यही पृष्ठ-स्त्रोत (=मुख्य ) है | इसी कारण भगवान श्री कृष्ण ने यहाँ वृहत्साम को अपना स्वरुप बताया है |
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तैत्तिरीय व ब्राह्मण-ग्रन्थ में वर्णित घटना इस प्रकार है- भारद्वाज ने सम्पूर्ण वेदों के अध्ययन का यत्न किया। दृढ़ इच्छा-शक्ति और कठोर तपस्या से इन्द्र को प्रसन्न किया। भारद्वाज ने प्रसन्न हुए इन्द्र से अध्ययन हेतु सौ वर्ष की आयु माँगी। भारद्वाज अध्ययन करते रहे। सौ वर्ष पूरे हो गये। अध्ययन की लगन से प्रसन्न होकर दुबारा इन्द्र ने फिर वर माँगने को कहा, तो भारद्वाज ने पुन: सौ वर्ष अध्ययन के लिये और माँगा। इन्द्र ने सौ वर्ष प्रदान किये। इस प्रकार अध्ययन और वरदान का क्रम चलता रहा। भारद्वाज ने तीन सौ वर्षों तक अध्ययन किया।
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इसके बाद पुन: इन्द्र ने उपस्थित होकर कहा-'हे भारद्वाज! यदि मैं तुम्हें सौ वर्ष और दे दूँ तो तुम उनसे क्या करोगे?' भारद्वाज ने सरलता से उत्तर दिया, 'मैं वेदों का अध्ययन करूँगा।' इन्द्र ने तत्काल बालू के तीन पहाड़ खड़े कर दिये, फिर उनमें से एक मुट्ठी रेत हाथों में लेकर कहा---
------'भारद्वाज, समझो ये तीन वेद हैं और तुम्हारा तीन सौ वर्षों का अध्ययन यह मुट्ठी भर रेत है। वेद अनन्त हैं। तुमने आयु के तीन सौ वर्षों में जितना जाना है, उससे न जाना हुआ अत्यधिक है।'
------अत: मेरी बात पर ध्यान दो- 'अग्नि है सब विद्याओं का स्वरूप। अत: अग्नि को ही जानो। उसे जान लेने पर सब विद्याओं का ज्ञान स्वत: हो जायगा |
---- इसके बाद इन्द्र ने भारद्वाज को सावित्र्य-अग्नि-विद्या का विधिवत ज्ञान कराया। भारद्वाज ने उस अग्नि को जानकर उससे अमृत-तत्त्व प्राप्त किया और स्वर्गलोक में जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया'| इन्द्र द्वारा अग्नि-तत्त्व का साक्षात्कार किया, ज्ञान से तादात्म्य किया और तन्मय होकर रचनाएँ कीं। यही रचनाएँ #वृहत्साम कहलाईं |
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ऋषि भारद्वाज बृहत्साम-गायक थे। वे चार प्रमुख साम-गायकों, गौतम, वामदेव, भारद्वाज और कश्यप में गिने जाते हैं।
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संहिताओं में ऋषि भारद्वाज के इस 'बृहत्साम' की बड़ी महिमा बतायी गयी है। काठक-संहिता में तथा ऐतरेय-ब्राह्मण में कहा गया है कि 'इस बृहत्साम के गायन से शासक सम्पन्न होता है तथा ओज, तेज़ और वीर्य बढ़ता है। 'राजसूय यज्ञ' समृद्ध होता है। राष्ट्र और दृढ़ होता है। -----
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1. भारद्वाज कहते हैं अग्नि को देखो, यह मरणधर्मा मानवों में मौजूद अमर ज्योति है। यह अग्नि विश्वकृष्टि है अर्थात् सर्वमनुष्य रूप है। यह अग्नि सब कर्मों में प्रवीणतम ऋषि है, जो मानव में रहती है, उसे प्रेरित करती है ऊपर उठने के लिये। अत: पहचानो।
-----अर्थात स्वयं को आत्म को जानें स्वयं के अन्दर जो आत्मशक्ति, इच्छा शक्ति, दृड़ता, कर्मठता रूपी अग्नि है वही विश्वकृष्टि है वही प्रथम अग्नि है, उसे जानना चाहिए |
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2. मानवी अग्नि जागेगी। विश्वकृष्टि को जब प्रज्ज्वलित करेंगे तो उसे धारण करने के लिये साहस और बल की आवश्यकता होगी। इसके लिये आवश्यक है कि आप सच्चाई पर दृढ़ रहें।
----सत्य व दृढ़ता पर स्थिर रहने से अंतर की आत्मशक्ति प्रज्वलित होती है |
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3. ऋषि भारद्वाज कहते हैं- 'हम झुकें नहीं। हम सामर्थ्यवान के आगे भी न झुकें। दृढ़ व्यक्ति के सामने भी नहीं झुकें। क्रूर-दुष्ट-हिंसक-दस्यु के आगे भी हमारा सिर झुके नहीं'।
---सत्य पर दृढ रहने से इतनी आत्मशक्ति प्राप्त होती है एवं आप किसी भी स्थिति में अन्याय के आगे न झुकने की शक्ति प्राप्त कर पाते हैं |
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4. ऋषि समझाते हैं कि जीभ से ऐसी वाणी बोलनी चाहिये कि सुनने वाले बुद्धिमान बनें।
----सदैव ज्ञान के प्रसार के लिए समर्पित रहना चाहिए | इसके लिए उत्तम वाणी, सत्य वचन एवं सदेच्छा युत व्यवहार रहना चाहिए |
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5. हमारी विद्या ऐसी हो, जो कपटी दुष्टों का सफाया करे, युद्धों में संरक्षण दे, इच्छित धनों का प्राप्त कराये और हमारी बुद्धियों को निन्दित मार्ग से रोके।
-----विद्या व ज्ञान का उपयोग सदा समाज के सदुपयोग में होना चाहिए, आवश्यक श्री, वैभव, बल की प्राप्ति, दुष्टजनों के विरोध, अज्ञानता के निरोध हित होना चाहिए |
----- यह सामवेद के उत्तरार्चिक में अध्याय ३ ( ऋग्वेद- मण्डल१, अनुवाक १०, सूक्त ५२ ) के अंतर्गत है | इसके देवता इंद्र, दृष्टा ऋषि शयु बार्हस्पत्य हैं, अतिरात्र याग में यह एक पृष्ठस्त्रोत ( मूल) है | यहाँ वृहत्साम के मूल मन्त्र भावार्थ सहित प्रस्तुत हैं ----
त्वमिदधि हवामहे सातौ वाजस्य कारव: |
त्वां वृत्रेष्विन्द्र सत्पतिं नरस्त्त्वां काष्ठास्वर्वतः ||१||
---हे इंद्ररुप परमेश्वर ! हम स्तोता अन्नवृद्धि के लिए आपका ही आह्वान करते हैं | विवेकशील मनुष्य भी शत्रुओं की शत्रुता से आक्रान्त होने पर, जब सब प्रयत्न करके भी हारने लगते हैं तो आपको ही पुकारते हैं |
त्वां वृत्रेष्विन्द्र सत्पतिं नरस्त्त्वां काष्ठास्वर्वतः ||१||
---हे इंद्ररुप परमेश्वर ! हम स्तोता अन्नवृद्धि के लिए आपका ही आह्वान करते हैं | विवेकशील मनुष्य भी शत्रुओं की शत्रुता से आक्रान्त होने पर, जब सब प्रयत्न करके भी हारने लगते हैं तो आपको ही पुकारते हैं |
स त्वं नश्चित्र वज्रहस्त धृष्णुया महस्तवानो अद्रिव: |
गामश्वं रथ्यमिन्द्र् सं किर सत्रा वाजं न जिग्युषे ||२||
---हे अतुल पराक्रमी ! हाथ में विचित्र वज्र धारण करने वाले, स्वयं के तेज से प्रकाशित इंद्ररूप परमेश्वर! आप हमें गोधन, रथायोग्य कुशल अश्व, अन्न तथा ऐश्वर्य प्रदान करें |
\\
वृहत्साम -एक विश्लेषण ---
***************************
आर्यों की मूल विचरण भूमि में जो सुमेरिया-बेबीलोन वंक्षु की घाटी से लेकर भारतीय सप्तसिन्धु तक विस्तृत थी, कोई सुपर्ण या तार्क्ष्य संज्ञावाली योद्धा और गोपालक जाति थी, जिसका इस गायन-पद्धति से विशेष सम्बन्ध था। इसीलिए कहा जाता है कि तार्क्ष्य या सुपर्ण विष्णु के साम का वाहन है। विष्णु जब तार्क्ष्य पर आसीन होकर चलते हैं तो हवा काटते हुए उसके दोनों पंखों की ध्वनि ‘रथन्तर’ और ‘वृहत्’ सामों की अनुगूँज रचती चलती है।
------- ‘वृहत्साम’ गायन-पद्धति निश्चय ही एक रीति-मुक्त और विधि निषेधों से अन्य सामो की तुलना में एक मुक्त और एक विशेष रीति या भंगिमा पर आधारित व्यापक पद्धति रही होगी, अन्यथा, उसकी यह सुदूरव्यापी भूमिका सम्भव नहीं हो पाती। गीता में इसका उल्लेख एक व्यापकतर संकेत देता है।
------- ‘वृहत्’ विष्णु या सूर्य के साम को एक पृथक सत्ता देता है। यह वृहत्साम सूर्य का साम है और यह सबसे बड़ा साम है। सूर्य का मूल रूप है द्यु-मण्डल का ‘सविता’। यह सविता ही द्वितीय मण्डल अन्तरिक्ष में द्वादश आदित्य और सोम बनकर अवतीर्ण है तथा पार्थिव मण्डल में अग्नि बनकर। अतः सविता का क्रियात्मक ‘साम’ द्यु (स्वर) अन्तरिक्ष (भुवः) पृथ्वी (भू) तक व्याप्त है। इसी से इसके ‘साम’ को ‘वृहत्साम’ कहते हैं।
------- सविता ही सगुण ब्रह्म का प्रथम व्यक्त रूप है। उसी का एक विकास है ‘विष्णु’ संज्ञा वाला आदित्य। बाद में विष्णु का रूप विकसित होते- होते इतना व्यापक हो गया कि सोम, अग्नि, शक्ति का प्रतिनिधि आदि देवता बन गया। इस प्रकार सविता या आदित्य से जुड़ा ‘वृहत्साम’ विष्णु का भी ‘वृहत्साम’ बन गया।
\
‘वृहत्साम’ एक प्रकार का मन्त्र गान है, जिसको विशेष ढंग से गाया जाता है। यह वैदिक साहित्य का कोई अंश नहीं परन्तु (वैदिक) गायन का ही प्रकार भेद।
\
अतः ‘बृहत्’ का साम वह साम है जो सारे सामों का ‘मूल साम’ है, जो प्रथम सगुण ब्रह्म सहस्रशीर्षा ( ‘पुरुष’ सूक्त –ऋग्वेद -जो बाद में अनन्तशाही नारायण के रूप में कल्पित किये गये) का ‘साम’ है और यही ---------एक अन्य वैदिक परम्परा के अनुसार द्यु-मण्डल में उद्भूत प्रथम सगुण परमात्मा विग्रह सविता का ‘साम’ है।
-------यही अन्तरिक्ष और धरती में आदित्य, साम और अग्नि के रूप में विभाजित होकर क्रिया विस्तार कर रहा है। अर्थात् सृष्टि-प्रसव और सृष्टि-विकास में अभिव्यक्त होती हुई भगवद्विभूति और लीला का ‘साम’ ही ‘वृहत्साम’ है।
------- भगवान की सारी अवतार कथाएँ एवं विभूतियोग को व्यक्त करनेवाला काव्य साहित्य और शिल्प उस ‘वृहत्साम’ की अभिव्यक्ति है।
\
‘वृहद्’ शब्द सारी सृष्टि लीला और अवतार लीला के मध्य स्थित दिव्य तत्त्व (divinity) का वाचक है। जिस प्रकार अन्तरिक्ष (भुव) और पृथ्वी (भू) के सारे देवमण्डल का मूल है ‘द्यु’ (स्वः) के सविता में, उसी तरह सारे देवताओं के सामों के मूल में है यह ‘सविता’ का या लोकप्रचलित शब्दावली में ‘सूर्य’ का वृहत्साम।
गामश्वं रथ्यमिन्द्र् सं किर सत्रा वाजं न जिग्युषे ||२||
---हे अतुल पराक्रमी ! हाथ में विचित्र वज्र धारण करने वाले, स्वयं के तेज से प्रकाशित इंद्ररूप परमेश्वर! आप हमें गोधन, रथायोग्य कुशल अश्व, अन्न तथा ऐश्वर्य प्रदान करें |
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वृहत्साम -एक विश्लेषण ---
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आर्यों की मूल विचरण भूमि में जो सुमेरिया-बेबीलोन वंक्षु की घाटी से लेकर भारतीय सप्तसिन्धु तक विस्तृत थी, कोई सुपर्ण या तार्क्ष्य संज्ञावाली योद्धा और गोपालक जाति थी, जिसका इस गायन-पद्धति से विशेष सम्बन्ध था। इसीलिए कहा जाता है कि तार्क्ष्य या सुपर्ण विष्णु के साम का वाहन है। विष्णु जब तार्क्ष्य पर आसीन होकर चलते हैं तो हवा काटते हुए उसके दोनों पंखों की ध्वनि ‘रथन्तर’ और ‘वृहत्’ सामों की अनुगूँज रचती चलती है।
------- ‘वृहत्साम’ गायन-पद्धति निश्चय ही एक रीति-मुक्त और विधि निषेधों से अन्य सामो की तुलना में एक मुक्त और एक विशेष रीति या भंगिमा पर आधारित व्यापक पद्धति रही होगी, अन्यथा, उसकी यह सुदूरव्यापी भूमिका सम्भव नहीं हो पाती। गीता में इसका उल्लेख एक व्यापकतर संकेत देता है।
------- ‘वृहत्’ विष्णु या सूर्य के साम को एक पृथक सत्ता देता है। यह वृहत्साम सूर्य का साम है और यह सबसे बड़ा साम है। सूर्य का मूल रूप है द्यु-मण्डल का ‘सविता’। यह सविता ही द्वितीय मण्डल अन्तरिक्ष में द्वादश आदित्य और सोम बनकर अवतीर्ण है तथा पार्थिव मण्डल में अग्नि बनकर। अतः सविता का क्रियात्मक ‘साम’ द्यु (स्वर) अन्तरिक्ष (भुवः) पृथ्वी (भू) तक व्याप्त है। इसी से इसके ‘साम’ को ‘वृहत्साम’ कहते हैं।
------- सविता ही सगुण ब्रह्म का प्रथम व्यक्त रूप है। उसी का एक विकास है ‘विष्णु’ संज्ञा वाला आदित्य। बाद में विष्णु का रूप विकसित होते- होते इतना व्यापक हो गया कि सोम, अग्नि, शक्ति का प्रतिनिधि आदि देवता बन गया। इस प्रकार सविता या आदित्य से जुड़ा ‘वृहत्साम’ विष्णु का भी ‘वृहत्साम’ बन गया।
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‘वृहत्साम’ एक प्रकार का मन्त्र गान है, जिसको विशेष ढंग से गाया जाता है। यह वैदिक साहित्य का कोई अंश नहीं परन्तु (वैदिक) गायन का ही प्रकार भेद।
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अतः ‘बृहत्’ का साम वह साम है जो सारे सामों का ‘मूल साम’ है, जो प्रथम सगुण ब्रह्म सहस्रशीर्षा ( ‘पुरुष’ सूक्त –ऋग्वेद -जो बाद में अनन्तशाही नारायण के रूप में कल्पित किये गये) का ‘साम’ है और यही ---------एक अन्य वैदिक परम्परा के अनुसार द्यु-मण्डल में उद्भूत प्रथम सगुण परमात्मा विग्रह सविता का ‘साम’ है।
-------यही अन्तरिक्ष और धरती में आदित्य, साम और अग्नि के रूप में विभाजित होकर क्रिया विस्तार कर रहा है। अर्थात् सृष्टि-प्रसव और सृष्टि-विकास में अभिव्यक्त होती हुई भगवद्विभूति और लीला का ‘साम’ ही ‘वृहत्साम’ है।
------- भगवान की सारी अवतार कथाएँ एवं विभूतियोग को व्यक्त करनेवाला काव्य साहित्य और शिल्प उस ‘वृहत्साम’ की अभिव्यक्ति है।
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‘वृहद्’ शब्द सारी सृष्टि लीला और अवतार लीला के मध्य स्थित दिव्य तत्त्व (divinity) का वाचक है। जिस प्रकार अन्तरिक्ष (भुव) और पृथ्वी (भू) के सारे देवमण्डल का मूल है ‘द्यु’ (स्वः) के सविता में, उसी तरह सारे देवताओं के सामों के मूल में है यह ‘सविता’ का या लोकप्रचलित शब्दावली में ‘सूर्य’ का वृहत्साम।
वृहत्साम का लोक व्यवहार रूप में अर्थ --
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‘वृहद्’ शब्द ‘समूह’ का भी वाचक है। बृहत्पति (बृहस्पति), प्रजापति; गणपति आदि परमात्मा वाचक शब्दों में वृहद्, प्रजा, गण आदि समानधर्मी शब्द हैं और इनका सरलार्थ ठहरता है जनसमूह या ‘लोक’। अतः ‘वृहत्साम’ का एक अर्थ ‘लोकसाम’ भी हुआ। वैसे भी ‘विश्व’ शब्द का अर्थ ‘विष्णु’ भी होता है। ‘ॐ’ प्रथम नाम है तो विश्व द्वितीय नाम। ‘विश्व’ अर्थात् ‘लोक’। इस प्रकार वृहत्साम की परिधि में लोक (समूह गण प्रजा वृहद) में प्रचलित तथा लोक द्वारा अभिव्यक्त समस्त दिव्य गीत परम्पराएँ तथा दिव्यकथा परम्पराएँ आ जाती हैं।
-----यों सारा आदिम काव्य और आदिम संगीत ही व्यक्तिकृत नहीं, समूहकृत अर्थात् ‘अपौरुषेय’ माना जाता है। परन्तु यह ‘दिव्य’ भी हो सकता है और ‘अदिव्य’ (सेक्यूलर) भी। अदिव्य भाग वृहत्साम नहीं हो सकता। अतः दिव्य सविता का साम ही वृहत्साम है |
----- एक तथ्य यह भी है --‘रथन्तर साम’ और ‘वृहत्साम’ का जोड़े के रूप में प्रायः उल्लिखित होना।
-----विष्णु का वाहन सुपर्ण ‘साम’ का भी वाहन है और उसके दोनों पक्षों से क्रमशः ‘रथन्तर साम’ और ‘वृहत्साम’ की ध्वनि निकलती चलती है। ‘रथन्तर साम’ का सम्बन्ध कर्मकाण्ड प्रधान संस्कृत-परम्परा से है तो वृहत्साम का लोक-संस्कृति में व्याप्त लोक परम्परा से।
--------‘रथन्तर’ या ‘रथन्तरण’ राजमार्ग को पकड़ कर की गयी यात्रा का द्योतक है तो ‘वृहद्’ राजमार्ग से हटकर आरण्यक और ग्राम्य पगडण्डियों पर मुक्त पगविहार का।
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अर्थात भारतीय कला और संगीत में कालान्तर में जो दो भेद- मार्गी और देशी किये गये उनके मूल में यही ‘रथन्तर’ और ‘वृहद’ का ही भेद है। ‘मार्ग’ का अर्थ होता है अभिजात, संस्कार-शिक्षित और क्लासिक पद्धति तथा ‘देश’ का अर्थ होता है लोकाश्रयी मुक्त पद्धति ‘रथन्तरण’ शब्द ‘मार्ग’ का संकेत देता है और ‘वृहत्’ शब्द विस्तृत देश-भूमि का।
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अतः सुपर्ण के पंखों से उत्पन्न रथन्तर साम व वृहत्साम के जोड़े का यही अर्थ है कि भारतीय संस्कृति में जन जीवन, लोक व्यवहार, शास्त्रीय व शासकीय जीवन में विशिष्ट व लोक, शास्त्रीय व देशीय सदैव साथ साथ मान्य, प्रचलित व व्यहवरित हैं |
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‘वृहद्’ शब्द ‘समूह’ का भी वाचक है। बृहत्पति (बृहस्पति), प्रजापति; गणपति आदि परमात्मा वाचक शब्दों में वृहद्, प्रजा, गण आदि समानधर्मी शब्द हैं और इनका सरलार्थ ठहरता है जनसमूह या ‘लोक’। अतः ‘वृहत्साम’ का एक अर्थ ‘लोकसाम’ भी हुआ। वैसे भी ‘विश्व’ शब्द का अर्थ ‘विष्णु’ भी होता है। ‘ॐ’ प्रथम नाम है तो विश्व द्वितीय नाम। ‘विश्व’ अर्थात् ‘लोक’। इस प्रकार वृहत्साम की परिधि में लोक (समूह गण प्रजा वृहद) में प्रचलित तथा लोक द्वारा अभिव्यक्त समस्त दिव्य गीत परम्पराएँ तथा दिव्यकथा परम्पराएँ आ जाती हैं।
-----यों सारा आदिम काव्य और आदिम संगीत ही व्यक्तिकृत नहीं, समूहकृत अर्थात् ‘अपौरुषेय’ माना जाता है। परन्तु यह ‘दिव्य’ भी हो सकता है और ‘अदिव्य’ (सेक्यूलर) भी। अदिव्य भाग वृहत्साम नहीं हो सकता। अतः दिव्य सविता का साम ही वृहत्साम है |
----- एक तथ्य यह भी है --‘रथन्तर साम’ और ‘वृहत्साम’ का जोड़े के रूप में प्रायः उल्लिखित होना।
-----विष्णु का वाहन सुपर्ण ‘साम’ का भी वाहन है और उसके दोनों पक्षों से क्रमशः ‘रथन्तर साम’ और ‘वृहत्साम’ की ध्वनि निकलती चलती है। ‘रथन्तर साम’ का सम्बन्ध कर्मकाण्ड प्रधान संस्कृत-परम्परा से है तो वृहत्साम का लोक-संस्कृति में व्याप्त लोक परम्परा से।
--------‘रथन्तर’ या ‘रथन्तरण’ राजमार्ग को पकड़ कर की गयी यात्रा का द्योतक है तो ‘वृहद्’ राजमार्ग से हटकर आरण्यक और ग्राम्य पगडण्डियों पर मुक्त पगविहार का।
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अर्थात भारतीय कला और संगीत में कालान्तर में जो दो भेद- मार्गी और देशी किये गये उनके मूल में यही ‘रथन्तर’ और ‘वृहद’ का ही भेद है। ‘मार्ग’ का अर्थ होता है अभिजात, संस्कार-शिक्षित और क्लासिक पद्धति तथा ‘देश’ का अर्थ होता है लोकाश्रयी मुक्त पद्धति ‘रथन्तरण’ शब्द ‘मार्ग’ का संकेत देता है और ‘वृहत्’ शब्द विस्तृत देश-भूमि का।
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अतः सुपर्ण के पंखों से उत्पन्न रथन्तर साम व वृहत्साम के जोड़े का यही अर्थ है कि भारतीय संस्कृति में जन जीवन, लोक व्यवहार, शास्त्रीय व शासकीय जीवन में विशिष्ट व लोक, शास्त्रीय व देशीय सदैव साथ साथ मान्य, प्रचलित व व्यहवरित हैं |
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