१७.बचपन...
‘पापा,आप छोड़
आयेंगे आशू को’,रीता ने पूछा|
‘हाँ, ठीक
है’, मैंने कहा|
खाना खाने के
बाद आशू कहने लगा,’मम्मा,जाना है ! नेहा आंटी के यहाँ|‘ उसके बेचारगी भरे चेहरे को देखकर मुझे
उलझन सी होने लगी|
‘हाँ
बेटा,जल्दी ले आऊंगी, प्रोमिज़ |’ रीता ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा|
पोते आशू को
डे-केयर में छोड़ने के बाद मुझे न जाने कैसी विचित्र, बेचारगी, मजबूरी व नैराश्य की
सी फीलिंग होने लगी| मैं सोचने लगा, बेचारा बच्चा,अभी तो स्कूल से आया था,खाना
खाने के बाद पुनः डे-केयर में, वह माँ के साथ रहना खेलना चाहता है| शायद यही
मजबूरी रीता की भी रही होगी,उसे आफिस का कार्य जो करना है जो बच्चे के दिन भर घर
पर रहते नहीं होपायेगा | मेड भी छुट्टी पर है अभी|
आज जिस
तरह आशू का कथन, प्रश्नवाचक स्वीकारोक्ति भाव, ’मम्मा जाना है !!आंटी के यहाँ’ उस
वस्तुस्थिति की स्वीकृति ही है कि शायद सब यही करते हैं, यही जीवन है और फिर उनकी
भी वही जीवन-पद्धति हो जाती है| अकेला जीना, रहना, भोगना | परिवार में भी अकेले|
यह जीवन भोगना तो है, सुख भोगना तो है पर सुख-चैन नहीं, जीवन जीना नहीं
१८.पुरुषार्थ ...
आधुनिक
विज्ञान, दर्शन, अद्यात्म व अनुभव किसी समारोह हेतु सभा-स्थल पर एकत्र हुए तो
परिचय प्रारम्भ हुआ |
युवा ऊर्जा
एवं ज्ञान से दीप्त विज्ञान ने बताया- मैं विज्ञान हूँ, प्रत्येक वस्तु व
तथ्य के बारे में प्रयोगों पर विश्वास रखता हूँ, विस्तृत प्रयोगों के पश्चात ही
प्रतिशत प्रतिफल के आधार पर निश्चित परिणाम के ज्ञान के पश्चात् ही सिद्धांत बनाता
हूँ... मानव के उन्नत व प्रगति के कृतित्व हेतु |
ललाट पर
दीर्घकालीन व्यवहारिक ज्ञान से अनुप्राणित अनुभव ने कहा- मैं तो जीवन के
लम्बे अनुभव के बाद नियम बनाता हूँ तत्पश्चात सिद्धांत एवं प्राणी को ज्ञान प्रदान
कर उन पर चलने की प्रेरणा देता हूँ |
सुदर्शन
व्यक्तित्व एवं शास्त्रीय ज्ञान से तेजस्वित दर्शन बोला- मैं तर्क व
अनुभवों को शास्त्रीय तथ्यों की तुला पर तौल कर प्राणी को परमार्थ हित व सत्य के
दर्शन कराता हूँ ताकि वह उच्च नैतिक आचरण एवं सत्य पर चले |
धीर-गंभीर वाणी
में अद्यात्म ने कहा– मैं परहित व परमार्थ कर्म को ईश्वर प्रेरणा व
ईश्वर-प्रणनिधान द्वारा जीव को सत्य व कल्याण पर चलने को प्रेरित करता हूँ |
वे वाद-विवाद व
तर्क-वितर्क द्वारा स्वयं को अन्य से श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे थे कि लगे कि एक
सुन्दर एवं तेजस्वी युगल ने प्रवेश किया |
अपना परिचय
दें श्रीमान, सभी ने कहा |
मैं कला
हूँ, प्रत्येक वस्तु,तथ्य व कृतित्व को समुचित रूप से कैसे किया जाय इसका ज्ञान
कराती हूँ ताकि वह सुन्दरतम हो| मैं ही श्रेष्ठ हूँ |
मैं ज्ञान
हूँ उसका साथी कहने लगा और मैं ही तो आप सब में अनुप्राणित हूँ, यदि मैं ही न रहूँ
तो विज्ञान, अनुभव, अद्यात्म, दर्शन, कला, सत्य का ज्ञान कैसे कर पायेंगे एवं अपने
को कैसे व्यक्त करेंगे| मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ|
वे आपस में पुनः तर्क-वितर्क में उलझ गए| तभी कर्मठता से
हृष्ट-पुष्ट काया वाले एक अन्य व्यक्ति ने प्रवेश किया एवं झगड़े का कारण जानकर
हँसते हुए बोला, ‘मैं ही आप सबको, संसार को व प्राणी को कृतित्व में प्रवृत्त करता
हूँ मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ |’
सबने साश्चर्य पूछा, आप कौन है श्रेष्ठ्वर ? ‘मैं कर्म
हूँ |’
तभी सौम्य
वेशधारी, ललाट पर चन्दन-लेप की शीतलता धारण किये हुए धर्म अवतरित हुआ और
कर्म को लक्ष्य करके कहने लगा, ‘परन्तु मित्र, तुम भी मेरे आधार पर चले बिना
प्राणी को परमार्थ भाव पर उन्मुख नहीं कर सकते| अतः मैं श्रेष्ठतम हूँ |
एक ओर
चुपचाप बैठे ‘प्राण’ ने वाद-विवाद में भाग लेते हुए कहा, मैं ही महानतम
हूँ,जिस जीव के हेतु आप हैं, मैं ही तो उसमें समाहित रहता हूँ, तभी वह जीव
अनुप्राणित होता है, जीव कहलाता है|
उसी समय प्रतिभा
से जगमगाते हुए आनन से महिमा मंडित एक अति तेजस्वी व्यक्तित्व ने प्रवेश किया, जिसके साथ एक छाया पुरुष भी चल रहा था| दोनों ही
अश्विनी बन्धुओं की भाँति एक ही रूप थे| एक कहने लगा, ’आप सब महान हैं परन्तु आपका
अपना स्वयं का अस्तित्व क्या है अतः झगडे का कोई आधार ही नहीं|
‘इसका क्या अर्थ?’ सभी ने एक साथ पूछा|
‘मैं ही आप
सबमें समाहित होकर एवं स्वयं में आप सबको समाहित करके सृष्टि के प्रत्येक कृतित्व
में प्रवृत्त होता हूँ तभी विश्व एवं विश्व का प्रत्येक कृतित्व आकार लेता है एवं
सत्यं, शिवं, सुन्दरं होता है|’
सुन्दरम..सुन्दरं....
आप कौन हैं श्रेष्ठ्वर, सभी एक साथ कहने लगे|
मैं पुरुषार्थ,
अपने साथी की आत्मा हूँ न...यह मानव है यह मेरा शरीर है|
साधुवाद...साधुवाद,
श्रेष्ठ है ..सत्य है ..कहते हुए वे सब उनमें प्रविष्ट होगये |
१९.पाल ले इक रोग नादां ...
अभी हाल में ही एक
ख़ास मित्र, बैचमेट, सीट पार्टनर, क्लासफेलो से भेंट
हुई, वार्तालाप का कुछ
अंश है,
‘ हैं, रिटायर होगये हो! लगते तो नहीं हो, अब क्या कर रहे हो? कुछ ज्वाइन किया।‘
नहीं, अब मैं कविता का
डाक्टर बन गया हूँ।
‘अरे वाह! मेरी सौत
को अभी तक साथ लगाये हुए हो, तभी वैसे के वैसे हो, हा ..हा...हा.| पर आजकल कविता को पूछता ही कौन है, रमा की पूछ है हर
तरफ | कोई पढ़ता भी है
तुम्हारी कविता?’
‘ यह तो सच कहा तुमने, रमा | अपने कथन, वाक्यों, उक्तियों से न जाने
कितने कविता, कथा, आलेखों के सूत्र दे देती हो मुझे| मुझे लगता है आज समाज में सारे
दुःख द्वंद्वों का कारण यही है कि हम साहित्य से दूर होते जारहे हैं |’
‘भागमभाग के इस वातावरण
में आज के पीढी को स्वभाषा कविता व साहित्य पढ़ने, लिखने, समझने, मनन करने की इच्छा, आकांक्षा व ललक ही नहीं रही है| अतिव्यस्तता में
युवा पीढी द्वारा मनोरंजन के विभिन्न अवांछित साधन भी उपयोग किये जाते हैं | यह जीवन के लिए जीवन आनंद की बलि चढ़ाई जा रही है| यह आज की पीढी की
संत्रासमय अनिवार्य नियति है|’
‘तो कवि महोदय क्या उपदेश है | ‘
‘ मैंने तो सभी को यही परामर्श देना
प्रारम्भ कर दिया है कि हुज़ूर, कविता पढ़ने व लिखने का रोग पाल लीजिये, सभी रोग-शोक की रामवाण औषधि है |
२०.रिमार्क...
कालिज से लौटने
पर बस स्टेंड के सामने से गुजरते हुए कुछ लड़कों के कमेन्ट सुनते हुए भी रमा और
वीणा आगे चलती गयीं| कुछ दूर चलने के
बाद दोनों खिलखिलाकर हंसने लगीं|
‘वाह ! क्या रिमार्क पास किया है, कैसा लगा रमा
!’, वीणा ने छेडते हुए कहा|
‘कैसे मूर्ख हैं, अपनी औकात भी नहीं देखते,’ रमा बोली|
‘अच्छा! तो औकात वाला कमेन्ट करेगा तो तुझे
अच्छा लगेगा?’ रमा कट कर रह गयी, बोली, ‘बकने दो, प्रशंसा ही तो कर रहा है|’
‘तो वहीं पर क्यों नहीं खिलखिलाई|’ वीणा ने मुस्कुराते हुए कहा|
‘अरे नहीं, फिर मान लेंगे ‘हंसी तो फंसी‘ और पीछे ही पड
जायेंगे| पीछा छुडाना ही
मुश्किल होगा|’
‘तो एक झापड ही रसीद कर देती |’
‘पता नहीं कौन
कैसा लफंगा हो| गुंडे-बदमाशों का
कोइ ईमान-धर्म तो होता नहीं है| बदला लेने के लिए कुछ भी कर सकते हैं|’ रमा कहने लगी|
‘तो फिर.....?’
‘यूं ही चलने दिया जाय | उपेक्षा से मनोबल गिरेगा तो स्वतः ही चुप
होजायंगे |’
‘हाँ, अधिकाँश शरीफों के लिए ठीक है, पर कुछ ढीठ लोग
इसे भी ‘मौनं स्वीकृत लक्षणम’ समझ लेते हैं और.....|’
‘मन तो करता है
कि चप्पलों से जम कर धुनाई कर दी जाय|’ रमा कहने लगी |
‘काटिय
जीभ जो बूत बसाई,’ वीणा बोली |
‘कान
मूँदि नतु चलिय पराई, ‘ रमा ने पूरा किया तो दोनों हंसने लगीं|
‘मेरे विचार में एसी स्थिति में उचित सबक देना ही चाहिए|’ वीणा कहने लगी,’हिम्मत करके ठोक ही देना चाहिए| आप आगे आकर हिम्मत करेंगे तो और भी लोग आगे
आयेंगे| भीड़ में से व राह
चलते लोग भी सहायता की हिम्मत करेंगे|‘ हिम्मते मर्द मददे खुदा ‘|
‘स्त्री में भी
एक मर्द होता है जिसे आवश्यकता पडने पर जागना ही चाहिए, दुर्गा, काली की भाँति|’
‘अगर दुश्मनी
मानलें तो जाने क्या करें ये लोग |’
‘हाँ, पर पानी सर से ऊपर आजाने पर या तो डूब कर मरो
या हाथ-पैर चलाकर| एक रास्ता तो
अपनाना ही पडेगा|’ वीणा ने कहा|
‘यह तो है’ रमा बोली,’जब डूबना ही है तो सबक सिखलाकर डूबना अधिक अच्छा है, आगे के लिए मिसाल तो बनती है|’
२१.सीट..
'नहीं कोई सीट खाली नहीं है|'
'प्लीज़ सर, बहुत आवश्यक काम है,कंपनी में इंटरव्यू है, जाना तो है ही|'
'अच्छा सोफ्टवेयर कंपनी में इंटरव्यू है, बड़ी सेलेरी मिलेगी| ठीक है मिल जायगी ५०० लगेंगे|'
'सर,अभी तो ज्वाइन करने जा रहे हैं, ५०० तो बहुत ज्यादा हैं, सेलेरी तो अगले महीने मिलेगी| अभी कहाँ|‘
'अच्छा ठीक है ३०० में काम हो जायगा| एसी ३ में चले जाओ|'
एक्सप्रेस ट्रेन के एसी कोच में टीटीई व किसी कंपनी में ज्वाइन करने जारहे प्रशांत के मध्य ये वार्तालाप होरहा था|
सुनकर श्रीमती जी बोलीं, 'भला इस तरह की बातें सुनकर, करके, झेलकर ये बच्चे, नौकरी आदि प्रारम्भ करेंगे तो क्या दिशा क्या सन्देश मिलेगा उन्हें| वे भी यही करेंगे| ये क्या सिखा रहे हैं हम अपनी युवा पीढी को!'
'हर जगह यही तो होरहा है',रमेश जी कहने लगे,'ये लोग भी तो अपने ऊपरवालों को इसी प्रकार चढ़ावा देकर लम्बी गाडी में पोस्टिंग लेते हैं,तो वे भी यही करते हैं|'
तभी प्रशांत व सुन्दरम की बातें सुनाई पडीं| सुन्दरम ने पूछा, कहाँ ज्वाइन करने जारहे हो ? प्रशांत चहक कर बोला, ‘अरे मैं तो दो साल से सर्विस में हूँ| वह तो बस यूंही टीटीई को वेवकूफ बनाया था| ५०० की बजाय ३०० में ही काम बन गया न|’
२२. भवचक्र ...
बाबाजी खाना तैयार है, खा लीजिये,चलिये। पोते आराध्य की आवाज सुनकर मैनें पढने की मेज से सिर उठाया। बेटा!
पापा आगये, मैने पूछा तो आराध्य ने बताया कि पापा तो बिज़ी हैं, देर से आयेंगे।‘
बेटे के पास तो समय ही नहीं होता पिता से बात करने का। जैसे स्त्रियों को सदैव सहारा-सराहना चाहिये; बचपन मे माता, पिता, भाई, तदुपरान्त पति-पुत्र; इसी प्रकार पुरुष को भी तो सहारा चाहिये होता है। बचपन में असहाय बालक के लिये मां-बहन, बाद में पत्नी-बेटी, वृद्धावस्था में बेटी-बहू आदि।
सेवानिवृत्ति के पश्चात मुझे लगता है में पुनः बचपन में आगया हूं। जैसे बचपन में अपने कमरे में कुर्सी पर बैठकर सोचते रहना,पढते–लिखते रहना,कभी-कभी गृहकार्य में हाथ बंटा देना,खाना-पीना या कुछ सामाजिक कार्य कर देना। उसी तरह मैं अब भी अपनी कुर्सी पर बैठकर सोचता,पढता,लिखता रहता हूं,कभी कोई समाज का कार्य व कभी-कभी गृहकार्य में हाथ बंटा देता हूं। पहले खाने-पीने, सहारे के लिये मां-बहन थीं, तदुपरान्त पत्नी व बेटी और अब वही कार्य पुत्रवधू, नाती-पोते कर रहे हैं।
मूलतः परिवार का मुखिया तो सदैव ही परिवार के पालन-पोषण की व्यवस्था में ही व्यस्त रहता है, इन सब से असम्पृक्त। वह तो अपने पारिवारिक दायित्व निर्वहन के रूप में, आर्थिक व्यवस्था में व्यस्त रहकर ही समाज, देश, राष्ट्र की सेवा में रत होता है। संवाद तो प्रायः दादी-बाबा, पोते-पोती ही आपस में करते हैं।
इसीलिये कहा जाता है कि प्रायः पोता ही बाबा के पदचिन्हों पर चलता है, पुत्र की अपेक्षा। जैसे पहले मेरे पिता इस भूमिका में थे, बाद में मैं स्वयं और अब वही दायित्व व कृतित्व मेरे पुत्र द्वारा निभाया जा रहा है। यह तो जग-रीति चक्र है, विष्णु का चक्र है,पालन-पोषण चक्र,संसार-चक्र है,जीवनचक्र, वंशचक्र, भवचक्र है।
यद्यपि आजकल आणविक परिवार में दादी-बाबा का महत्व घटता जारहा है। पिता–माता के दायित्व वहु-विधात्मक होने से पुत्र-पुत्रियों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया जारहा फ़लतः परिवार के पुत्र-पुत्री, वी पीढी प्रायः दिशा विहीन होती जारही है……..|
अभी भी सोच ही रहे हैं बाबाजी, खाना ठंडा होरहा है। मुझे भी भूख लग रही है, आराध्य की अधीरता भरी आवाज़ से मे्री तन्द्रा भंग हुई। मैने मुस्कुराकर आराध्य की ओर देखा,हां..हां चलो,हाथ धो लिये या नहीं।
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