२३. रथ चढि सिया सहित ---
अन्तर्राष्ट्रीय अर्बुद संघ के एशिया-चेप्टर की त्रिवेन्द्रम बैठक में मुझे ग्रास-नली के अर्बुद के उपचार पर वैज्ञानिक शोध आलेख प्रस्तुत करना था। साथी चिकित्सक डॉ.शर्मा को अगन्याशय के कैन्सर पर। विमान में बैठते ही डॉ शर्मा ने मन ही मन कुछ बुदबुदाया तो मैने पूछ लिया, ’क्या जप रहे हैं डॉ शर्मा?’ वे बोले, ‘राम चरित मानस की चौपाई "रथ चढि सिया सहित दोऊ भाई " ताकि यात्रा निर्विघ्न रहे ।‘
मैंने आश्चर्यचकित होते हुए हैरानी भरे स्वर में पूछा ‘--हैं आप इस मुकाम पर आकर भी, विज्ञान के इस युग में भी ऐसी अन्धविश्वास की बातें कैसे सोच सकते हैं?’
डा शर्मा हंसते हुए बोले, ’मैं तो जब गांव में साइकल से शहर स्कूल जाता था तब भी, फ़िर बस यात्रा, रेलयात्रा से लेकर अब विमानयात्रा तक सदैव ही यह उपाय अपनाता रहा हूं और यात्रा व अन्य सारे कार्य सफ़लता पूर्वक पूरे होते रहे हैं,
यह विश्वास की बात है।‘
‘क्या ये अन्धविश्वास नहीं है?’ मैंने पूछा।
‘यह विश्वास है’, वे बोले, बचपन में जब माता-पिता, बडे लोगों के कथन व विश्वास रूपी आस्था थी क्योंकि तब ज्ञानचक्षु कब थे। आज यह आस्था पर विश्वास है क्योंकि मैंने ज्ञान व अनुभव प्राप्ति के बाद, विवेचना-व्याख्या के उपरान्त अपनाया है|’
‘अच्छा तो ये स्वार्थ के लिये भगवान व आस्था का यूज़ या मिस यूज़ है।‘ मैंने हंसते हुए कहा, तो वे कहने लगे, ’हां,वस्तुतः तो हम स्वार्थ के लिये ही यह सब करते हैं। ’स्व’ के अर्थ में। स्व ही तो आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, आस्था, विश्वास है | जब हम ईश्वर को भज रहे होते हैं तो अपने स्व, आत्म, आत्मा, सेल्फ
को ही दृढ़ कर रहे होते हैं। अपने आप पर विश्वास कर रहे होते हैं। आत्मविश्वास को सुदृढ़ सुबल कर रहे होते हैं। विज्ञान इसे मनोविज्ञान कहता है जो दर्शन, धर्म, भक्ति है, मनोविज्ञान भी है, विश्वास है तो अन्तिम व सर्वश्रेष्ठ रूप में आस्था भी और आस्था व ईश्वर-कृपा की सोच से कर्तापन का मिथ्यादंभ व अहं भी नहीं रहता।
‘परन्तु मानलें कि एक ही स्थान के लिये साक्षात्कार आदि के लिये यदि सभी अभ्यर्थी यही चौपाई पढकर जायें तो।‘ मैंने हंसते हुए तर्क किया? वे भी हंसने लगे, बोले,’सफ़ल तो वही होगा जो अपना सर्वश्रेष्ट प्रदर्शित कर पायेगा।’ शेष परीक्षार्थी यदि वास्तव में आस्थावान हैं तो उन्हें यह सोचना चाहिये कि सफ़ल अभ्यर्थी की आस्था, कर्म, अनुभव व ज्ञान हमसे अधिक था। यह गुणात्मक सोच है। क्योंकि आस्था के साथ-साथ शास्त्रों मैं यह भी तो कथन हैं कि,.. ’न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंते मुखे मृगाः।’....एवं
’उद्योगिनी पुरुष सिंह मुपैति लक्ष्मी, देवेन देयमिति का पुरुषः वदन्ति।’
‘इसी बहाने लोग अपना सर्वश्रेष्ठ जान पायेंगे, प्रदर्शित कर पायेंगे, यहां नहीं तो अन्य स्थान पर सफ़ल होंगे। यहां सामाजिकता प्रवेश करती है। जब सभी आस्थावान होंगे, अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शित करने का प्रयत्न करेंगे, तो समाज व राष्ट्र-विश्व स्वयं ही समुन्नति की ओर प्रयाण करेगा। ‘
२४.शुक्र का पार गमन
रामप्रसाद जी चाय की चुस्कियों के साथ टीवी के
सम्मुख बैठे समाचारपत्र भी पढते जारहे थे | अधिकांश चैनलों पर
शुक्र के सूर्य से पारगमन को एक महत्वपूर्ण घटना बताया जारहा था | इसे देखने भारत
भर में स्कूल, कालिज, विभिन्न संस्थाएं व संस्थानों के बच्चों, कर्मचारियों एवं
सामान्य पब्लिक के लिए भी स्थान-स्थान पर दूरबीन, सोलर-फ़िल्टर, वाइड स्क्रीन आदि
लगाई गयीं थी|
वे समाचार-पत्र पढने
लगते हैं| प्रथम पृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में आईपीएल व सचिन तेंदुलकर के छक्कों की
चर्चा थी जिससे देश का नाम दुनिया में ऊंचा होता नज़र आ रहा था, दूसरी ओर
पेट्रोल-पम्प पर लगी कतारें व सड़क पर ट्रेफिक-जाम व आकाश छूती हुई कीमतों पर अनशन
करते लोगों के सचित्र समाचार भी थे|
मुख्यमंत्री द्वारा
वर्ष में तीसरी बार अपनी कुर्सी व सरकार बचाने हेतु विधायकों से मंत्रणा के समाचार के
साथ ही नोएडा में डकैती का समाचार |’
वे
टीवी चेनल बदलते हैं| एक नए सेटिलाईट की आकाश में स्थापना की जारही थी| स्थापना सफल होते ही
वैज्ञानिक, नेता, शासक सभी खुशी से उछल पड़े| अब आप टीवी और अधिक स्पष्ट देख सकते हैं, दुनिया भर के चेनल| अडवांस मोबाइल पर
कम्प्युटर के सभी कार्य किये जा सकते हैं| आपका घर सारी दुनिया
से जुड़ जायगा |
वे फिर समाचार-पत्र
देखने लगते हैं| राजधानी के ही समीपवर्ती सुदूर क्षेत्र में एक जून की रोटी के जुगाड हेतु
कम्मो द्वारा अपनी बच्ची को बेचा गया, के समाचार मन को उद्विग्न कर देते हैं| वे किसी स्कूल में
केजी में दाखिले हेतु २५ से ५० लाख तक डोनेशन माँगने का समाचार पढते हैं| अगले पृष्ठ पर
अरबपति ‘किलगेट ’‘कमोड’ को और अधिक उन्नत व सुविधाजनक बनाने हेतु निवेश करना चाहते हैं| किसी वृद्धजन का
इंटरव्यू छापा है जिन्हें दो वर्ष हुए सेवानिवृत्त हुए अभी तक पेंशन नहीं बंधी है| यह पढकर उन्हें
ध्यान आता है कि उन्हें तो दफ्तर के बाबू ने चार बार लौटाने
के बाद आज बुलाया है पेंशन-पत्र के लिए ११ बजे और साढ़े दस बज चुके हैं |
तभी श्यामलाल जी आजाते हैं, कहते हैं ‘अरे,चलिए-चलिए शुक्र, सूर्य को पार कर रहा है देखते हैं, सामने मैदान में
दूरबीन लगाई हुई है, सोलर फ़िल्टर भी है फिर यह सुन्दर दृश्य अगले जन्म में ही देखने को मिलेगा|’ रामप्रसाद जी
अचानक कह उठते हैं, ‘वह तो ठीक है पर क्या यह पारगमन देखकर, उन्नत-टीवी, मोबाइल, सचिन के छक्के या
मुख्यमंत्री की सरकार बच जाने से, बच्चों के डांस करने से, देश में रेप बंद
होजाएंगे, किसान आत्महत्या करना बंद कर देंगे, भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी और मेरी पेंशन
शीघ्र ही मिलने लगेगी!’
२५. गुड डॉक्टर या पोपुलर डॉक्टर ...
‘श्री! यार,कोई अच्छा पीडियाट्रीशियन डाक्टर
बताओ|’ फोन पर दीपक को अपने एक मित्र श्रीनिवास से बात करते हुए सुनकर मैंने
पूछा‘क्या डाक्टर भी अच्छे बुरे होते हैं? अरे डाक्टर तो डाक्टर होते हैं,मैंने
कहा|
तो फिर सब पोपुलर डाक्टर के पास ही क्यों
जाना चाहते हैं? दीपक कहने लगा,जब हम पैसा खर्च कर सकते हैं तो पोपुलर डाक्टर व
बडे हास्पीटल क्यों न जायं|’
क्या गारंटी है कि पोपुलर डाक्टर अच्छा ही
होगा? मैंने प्रश्न किया|
‘क्या मतलब, जो अच्छा होगा वही तो पोपुलर
होगा; बड़ी व पोपुलर संस्थाएं ही तो सेवाओं में अधिक ध्यान देती हैं| पोपूलारिटी ही
तो अच्छे विशेषज्ञ होने की निशानी है|’
मैंने
हंसकर कहा,’डाक्टर कोई जड़ संस्था थोड़े ही है, हर एक डाक्टर स्वयं में एक संस्था
होता है|
क्या वास्तव में पोपुलारिटी अच्छे
डाक्टर होने की गारंटी है| बचपन में हम किसी भी नज़दीकी डाक्टर जो कालोनी में होता
था उसी के पास चले जाते थे और ठीक भी होजाते थे| यदि आवश्यक होता तो डाक्टर स्वयं
ही अस्पताल या अन्य विशेषज्ञ के यहाँ भेज देते थे| सभी चिकित्सक समाज, मोहल्ले,
नगर की पोपुलर शख्शियत हुआ करते थे, जन जीवन से जुड़े| अच्छे डाक्टर व विशेषज्ञ कभी
विज्ञापन या पोपूलेरिटी के फेर में नहीं पड़ते थे| आज भौतिकता व महत्वाकांक्षा व धन
की महत्ता से उत्पन्न अनास्था व अश्रद्धा के युग में विज्ञापन आवश्यक व पॉपुलेरिटी
महत्वपूर्ण होगई है| जब भगवानों के, मंदिरों के विज्ञापन होने लगे हैं और
देवस्थानों के प्रसाद भी डाक से मिलने लगे हैं तो भगवान नंबर दो, चिकित्सक भी बचे
कैसे रह सकते हैं |
आज विज्ञापन, इंटरनेट पर सन्दर्भ लिखवाकर,
राजनैतिक संपर्कों का लाभ उठाकर बडे बड़े नर्सिंग होम खोलकर अच्छी अच्छी सुविधाएँ
टीवी, टेलीफोन, फ्रिज, एसी युक्त शानदार ५ स्टार की सुविधाओं वाले रूम्स देकर
पोप्युलर होजाना एक आम बात होगई है| तमाम हेल्थ-साइट्स, वाणिज्य-विपणन दृष्टिकोण
उग आये हैं| पूरा धंधा होगया है| कमीशन पर दुनिया के किसी भी भाग में, शहर में
चिकित्सा करा लीजिये| रोगी “उपभोक्ता” और
चिकित्सक व चिकित्सा प्रदायक ”सेवा दाता” होगया है| इलाज़ महंगे से
महँगा व सुविधापूर्ण हो, खर्चे की चिंता नहीं| प्रत्येक संस्थान में चिकित्सा
भत्ता, खर्चा, रीइम्बर्समेंट, चिकित्सा-बीमा आदि सुविधाएँ
अधिकाधिक खर्च करने व अनावश्यक रूप
से बड़े बड़े से अस्पताल चिकित्सक पर इलाज़ कराने को लालायित करती हैं| अब इलाज़ भी
स्टेटस-सिम्बल होगया है|’
मुझे याद आता है कि मेरे एक चिकित्सक मित्र
जो सरकारी सेवा में थे, बताया करते थे कि उनके कुछ अन्य साथी घर पर अनधिकृत
प्राइवेट प्रेक्टिस किया करते थे और उनपर तमाम रोगी जाया भी करते थे,वे पोपुलर भी
थे जबकि उनकी योग्यता व अनुभव सामान्य एवं अस्पताल व आफिस में रोगी के साथ व्यवहार
बिलकुल अच्छा नहीं होता था| जब यह बात वे अपने चिकित्सा अधीक्षक इंचार्ज ड़ा शर्मा
को बताते तो डॉ शर्मा कहा करते थे, ‘डॉक्टर! डोंट वरी,यू आर ए गुड डाक्टर, चिंता
क्या, तुम्हें अच्छी पगार मिल रही है, सारे प्रोमोशन होते हैं,रोगी आपकी प्रशंसा
ही करते हैं, कोई शिकायत नहीं करता,यही आपकी पोपूलेरिटी व कमाई हुई पूंजी है|
अच्छे चिकित्सक या विशेषज्ञ न रोगियों के, न
प्रभावशाली तीमारदारों के कहे पर चलते हैं न समझौता करते हैं, न रोगी के व पैसे के
पीछे भागते हैं| वे प्राय: तथाकथित पापूलर नहीं होते| पोप्यूलेरिटी बहुत से
हथकंडों से आती है व बहुत से समझौते भी करने पड़ते हैं| “यूं वांट टू बी ए
पोपुलर डाक्टर और गुड डाक्टर”|
२६.आत्म कथा...
मैं आत्म हूँ| समस्त
भूतों, जड़-जंगम, जीव में अवस्थित, उनका स्वयं, उनका‘अंतर’, सर्व भूतेषु आत्मा| भौतिक
विज्ञानी मुझे एटम या परमाणु कहते हैं, अंतिम-कण, प्रत्येक वस्तु का वह लघुतम अंश
जिससे वह बनी है| अध्यात्म मुझे ‘आत्म’ कहता है, प्रत्येक भूत में निहित | अतः मैं
एटम व परमाणु का भी ‘आत्म’ हूँ| मेरे बिना परमाणु भी क्रिया नहीं कर सकता| वह जड़
है मैं चेतन, मैं आत्म हूँ|
जब न
ब्रह्माण्ड था, न परमव्योम, न वायु, न काल, न ज्ञान, न सत, न असत; कुछ भी नहीं था|
चारों ओर सिर्फ अन्धकार ही व्याप्त था, केवल मैं चेतन ही एक अकेला स्वयं की शक्ति
से गतिशून्य होकर स्थित था| कहाँ, क्यों, कोइ नहीं जानता| क्योंकि मैं ही स्वयं असत
हूँ,मैं ही सत हूँ, मैं ही सर्वत्र व्याप्त स्वयंभू व परिभू हूँ| सब कुछ मुझमें ही
व्याप्त है| मैं आत्म हूँ|
मैं अपने परम
अव्यक्त रूप, असद रूप या नासद रूप में जब आकार रहित होता हूँ, ‘परब्रह्म’ कहलाता
हूँ| इस रूप में मैं ‘कारणों का कारण’ “कारण ब्रह्म” हूँ | मैं अगुण, अक्रिय,
अकर्मा, अविनाशी, सबसे परे-परात्पर एवं केवल दृष्टा हूँ जो सब दृष्टियों की दृष्टि
है| मैं आत्म हूँ| मेरे रूप को केवल मनीषी, आत्मानुभूति से ही जान पाते हैं और
वेद-रूप में गान करते हैं| मैं अक्रिय, असद, चेतन-सत्ता, स्वयंभू व परिभू हूँ| मैं
आत्म हूँ|
जब सृष्टि के
हित मेरा भाव-संकल्प “ॐ” रूप में आदिनाद बनकर उभरता है तो मैं अक्रिय, असत सत्ता
से सक्रिय-सद चेतन सत्ता के रूप में व्यक्त होकर‘सदब्रह्म’, परम-आत्मा, ईश्वर, सगुण
ब्रह्म या हिरण्यगर्भ कहलाता हूँ, जिसमें सबकुछ अन्तर्निहित है|
हिरण्यगर्भ रूप
में जब मैं सृष्टि को प्रकट करने की इच्छा करता हूँ तो “एकोsहं बहुस्याम” की ईशत
इच्छा पुनः ओम रूप में प्रतिध्वनित होकर मुझमें अन्तर्निहित अव्यक्त मूलप्रकृति, आदि-ऊर्जा
को व्यक्त रूप में अवतरित कर देती है और वह माया या आदि-शक्ति के रूप में प्रकट
होकर, क्रियाशील होकर जगत और प्रकृति की रचना के लिए ऊर्जा तरंगों व विभिन्न कणों
एवं भूतों की उत्पत्ति करती है और मैं प्रत्येक कण का आत्म बनकर उनमें प्रवेश कर
जाता हूँ–जड़, जंगम, चेतन सभी में|
जड़
रूप-सृष्टि में भौतिक विज्ञानी मुझे केवल एटम या परमाणु तक ही पहचानते हैं, यद्यपि
मैं परमाणु का भी चेतन आत्म हूँ| चेतन रूप-सृष्टि में मैं जीव, जीवात्मा, आत्मा या
चेतना के रूप में प्रवेश करता हूँ जिसे जीवन या जीवित-सत्ता कहा जाता है तथा
प्राणधारी या प्राणी भी| इस रूप में मैं आदिशक्ति के सांसारिक कार्यकारी रूप ‘माया’
के प्रभाव में विभिन्न अच्छे-बुरे सांसारिक कर्मों में लिप्त होता हूँ और जन्म-मरण
के अनंत चक्रों में घूमता हूँ, सुख-दुःख भोगता हूँ; जब तक अलिप्त कर्मों के कारण
मोक्ष अर्थात माया बंधन से छुटकारा न मिले| मैं आत्म हूँ|
मैं जीव, जीवात्मा
या प्राणी रूप में जब अपने बहुत से सत्कर्मों का संचय कर लेता हूँ तो प्रकृति की
सर्वश्रेष्ठ कृति, जिसे ज्ञान, मन, बुद्धि व संस्कार उपहार में मिलते हैं, मानव,
मैन, या आदम के रूप में जन्म धारण करता हूँ| इस रूप में मैं (आत्मा, जीव या चेतन
सत्ता) स्वयं को माया बंधन से मुक्त करके ‘मोक्ष’ प्राप्त
करने का प्रयत्न करता हूँ और प्राप्त होने पर स्वयं को
सत-व्यक्त ब्रह्म, हिरण्यगर्भ में लीन कर देता हूँ एवं परम-आत्म कहलाता हूँ| लय या
प्रलय के समय मैं पुनः ‘अनेक से एक’ होने की ईशत इच्छा करता हुआ पुनः प्रकृति व
माया को स्वयं में लीन करके अक्रिय, असत परमसत्ता, परब्रह्म बनकर अव्यक्त बन जाता
हूँ| मैं आत्म हूँ|
२७.कहानी की कहानी -
अब बताइये,आपके टीवी पर धारावाहिक कथा आरही है, साथ ही एक सूचना भी 'इस धारावाहिक में दिखाई गयी घटनाएँ व पात्र आदि,किसी भी देश, काल, पात्र, प्रदेश, समाज, वर्ग, जाति का प्रतिनिधित्व नहीं करते|
अब कहानी की
कहानी यूँ बनती है,
पहले वेद-उपनिषद् आदि में
घटनाओं का सत्य वर्णन किया जाता था, पौराणिक काल में सत्य को सोदाहरण
कथा रूप में लिखा जाने लगा ताकि सामान्य जन समझ सके व उचित राह पर चल सके| फ़िर आगे कथाओं, गाथाओं का जन्म हुआ
जो सत्य
व वास्तविक घटनाओं, पात्रों, चरित्रों के आधार पर
कहानियां एवं उपदेशात्मक लघुकथाएं थीं, 'एक था राजा…' 'एक समय’, 'काम्पिल्य नगरी में एक धनी सेठ…','एक सुंदर राजकुमारी.'.तथा महिला वर्ग की
व्रत आदि कहानियां जिनमें अंत में सदा, ‘जैसे इनके दिन फिरे सबके फिरें.’ की सामूहिक हित, सामाजिक सरोकार
भावना संप्रेष्य होती थी, जो समाज व व्यक्ति
का दिशा निर्देशन करती थीं| बाद में कल्पित चरित्र, घटनाओं आदि को आधार बनाकर कल्पित कथाएँ व गल्प, फंतासी आदि लिखी जाने लगीं
जिनमें सत्य से आगे बढ़ा चढ़ा कर लिखा जाने लगा परन्तु वह किसी न किसी समाज, देश, काल की स्थिति का वर्णन होती थीं और
बुराई पर अच्छाई की विजय का मूल सरोकार|
परन्तु आज हमें क्या
दिखाया जारहा है,पूर्ण असत्य कथा-कहानी, 'इस सीरियल के पात्र, घटनाएँ, किसी भी देश-काल, समाज, जाति का
प्रतिनिधित्व नहीं करते'
अर्थात पूरी तरह से
झूठी कहानी,
यहाँ तक कि कथा-कहानी आदि साहित्य में भी; ऊपर से तुर्रा यह कि हम साहित्य/समाज की सेवा कर रहे
हैं, नारी शोषण-उत्प्रीणन के विरोधी
स्वर उठा रहे हैं आदि आदि|
वाह
जी वाह! जब ये सब कहीं हो ही
नहीं रहा है तो आप विरोध अथवा सेवा किस की कर रहे हैं? पहले हवाई किले बनाना फ़िर तोड़ना और बीर-बहूटी का खिताब! या बस अपने देश, समाज की बुराई| क्या-क्या विसंगातियों के
साए में पल रहे हैं आजकल हम और हमारी पीढी,
कर्णधार और साहित्य भी |
२८.विवाह --
पांचवी कक्षा में
मैं जैन मंदिर वाले स्कूल में पढ़ता था| उन दिनों जूनियर कक्षाओं तक के स्कूल प्रायः
मंदिरों में ही हुआ करते थे| इस स्कूल में
लडके-लड़कियां साथ साथ पढ़ते थे| अधिकाँश लडकियां उम्र में मुझसे कुछ बड़ी ही थीं| माया गर्ग मानीटर थी और टाट-पट्टी पर मेरे ठीक सामने ही
बैठती थी | मेरे टिफिन बाक्स से खाना एवं अपने में से खिलाना उसका रोज
का क्रम था| यदि कभी कोई एक
टिफिन नहीं लाता था तो हम दोनों एक टिफिन से ही खा लेते थे चाहे आधा भूखा ही रह
जाना पड़े |
माया पढ़ने में बहुत
होशियार थी| कक्षा में हम एक
दूसरे के प्रतियोगी रहते थे| प्रारम्भ में मैं कक्षा में सबके सामने खड़े होकर उत्तर देने
में संकोच करता था, पर माया कोंच कोंच
कर कहती, हाथ उठा, बोल, तुम्हें जबाव आता है, बताते क्यों नहीं| अचानक ही उसने स्कूल
आना बंद कर दिया |
महीनों
बाद एक गली से गुजरते समय जब में म्यूनिसपैलिटी के नल पर पानी पीने लगा तो ठीक
सामने की बड़ी खिड़की से किसी ने एक मधुर आवाज़ में पुकारा ‘ श्याम, मैंने सिर उठाकर
देखा |
‘मैं माया हूँ’, वह खिड़की में आगे
रोशनी में आकर मुस्कुराई|
‘माया गर्ग’, आश्चर्य से मैं बोला, ‘तुम!
‘तुम्हें मैं
याद हूँ|’
‘हाँ, पर अचानक तुमने
स्कूल आना क्यों बंद कर दिया| मैंने समझा था तुम बीमार होगी|’
‘मेरी सगाई
होगई थी न, जल्दी ही विवाह होने
वाला है|’
विवाह ...मैं
अवाक, आश्चर्यचकित उसकी
तरफ देखता रह गया | वह साड़ी व बिंदी में
सुन्दर गुडिया लग रही थी | तभी अन्दर से किसी ने आवाज़ दी और वह हाथ हिलाती हुई चली गयी
|
छोटी सी गोली
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें