४२.मैनूं पिचाना जी ...
‘मैनूं पिचाना जी..... ‘
मैं लगभग 10 वर्ष बाद फिरोजपुर आया था| केंट बाज़ार में मिठाई की दूकान में खडा था कि बगल से एक मधुर सी आवाज आई| मैं एक क्षण को ठिठका फिर
उधर देख कर बोला, ‘ओये,’प्रेमजीत कौर! तू....! !.. तू तो वैसी की वैसी है|’
‘कैसी जी!’
‘होए, प्रेम...जीत...कौर....होर कैसी, तुम्हारा तो नाम ही ऐसा है, कोइ कैसे न पिचाने, स्वीट, स्वीट|’
प्रेमजीत कौर मेरी पेशेंट थी, ठेठ पंजाबी, तेज तर्रार, पंजाब वालों की भाँति, एक दम साफ़ दिल और दिलदार | प्रथम विजिट में मैंने पूछा, ‘तुम्हारा नाम.’
‘जी प्रेम..’
‘ये तो लड़कों का नाम है ..|’
‘जी प्रेमजीत कौर... | तुसी इधर के नहीं हो जी, इधर ऐसे ही नाम होंदे हैं जी| ‘
‘ओह! प्रेम में भी जीत, अच्छा नाम है, मैं मुस्कुराया|’
‘जी ..ई ...ई .’,..फिर वह खुलकर हंसी|
‘ कित्थे खोगये डाक्टर जी ....’
‘ओह, हाँ, मैं विचारों से बाहर आया..कैसी हो प्रेमजीतकौर, ठीक हो.. |’
‘जी हाँ, लो तुसी रसगुल्ला की मिठाई खाओ जी|’
‘क्यों!, किस खुशी में !’
‘ये मेरे सरदार जी, उसने एक सुन्दर, गौरवर्ण सरदार की और इशारा करके कहा, ‘दार जी, डाक्टर जी, इन्हांनूं साडा इलाज़ कीता सी|’
‘लकी हो’, मैंने हाथ मिलाते हुए कहा, त्वानूं प्रेम ..होर जीत ..होर कौर मिलगी जी..चंगा|’
‘ बड़े मजाकिया हो जी’, सरदार जी बोले, ‘लो तुसी होर रसगुल्ला खाओ जी|’
‘ हाँ हाँ, क्यों नहीं, मैं तो रसगुल्ला खान
वास्ते ही इस दूकान पर आया था |’
४३.नारी और नारी सम्मान ....
‘ लक्ष्मी, तूने मेरे व सुशांत के
नाईट क्लब में डांस का विडियो क्यों बनाया| किस की परमीशन से|’
‘तेरे परिवार को दिखाने के
लिए कि तू अधनंगे वस्त्रों में सब अधनंगों के साथ सेक्सी डांस कर रही
है| क्या ये सब परिवार की इजाज़त से कर रही है|’
‘तू कौन होती है मेरी इच्छा, मेरे वस्त्र, मेरा शरीर|’
‘हाँ पर पब्लिक प्लेस पर व
होटलों में दिखाने के लिए नहीं|’
‘ तूने क्या ठेका ले रखा है| अभी दोस्तों से कहकर तेरी ....|’
‘ चुप कर, अभी ये विडियो तेरे घर
भेजती हूँ| पुलिस को भी| बुला अपने हीरो टाइप दोस्तों को अभी जूडो-कराटे से उनकी खबर लेती
हूँ|’
‘तू ये सब क्यों कर रही है| तुझे क्या होगया है, ये विश्वासघात है|’
‘सुनो, मैं ‘नारी सम्मान संरक्षक
वाहिनी‘ नगर से नग्नता व अन्य गन्दगी हटाने हेतु खडी की गयी सक्षम नारियों के संगठन जिसे कई नागरिक सम्मान प्राप्त हैं, की सदस्य हूँ| हम स्त्रियों की सुरक्षा, अमर्यादित पुरुषों से रक्षा एवं समाज
व पुरुषों की नज़र में गिरते हुए सम्मान व उनकी साख को उठाने हेतु सक्रिय हैं| ‘
‘अच्छा रहेगा तू भी ज्वाइन
करले|’
४४.दादा –
छुट्टी होते ही मैं अपनी कक्षा से बाहर आया और सामने बड़े
भाई को खडा देखकर दूर से ही चिल्लाया ..दादा ss..., चारों ओर उनके क्लास फेलो व मेरे साथ के बच्चे खड़े थे, उन्हें बुरा लगा और भाई ने तुरंत नज़दीक आकर एक थप्पड़ गाल पर रसीद करके कहा ' कितनी बार कहा है भाई साहब कहा करो|’
मैं दूसरी कक्षा में था और मेरे बड़े भाई कक्षा ६ में | हम दोनों ही एक ही स्कूल में पढ़ते थे| मैं बड़े भाई को दादा कहा करता था जिसका परिणाम कि छोटे भाई बहन भी दादा कहने लगे थे | मेरी कक्षा व दादा की कक्षा ठीक आमने सामने थी, बीच में एक लम्बी गेलरी |
हम नए ही
गाँव से नगर में आये थे, जमीदारी समाप्त होगई थी और मेरे मिडिल पास पिताजी आगरा शहर में प्राइवेट एकाउन्टेंट
का काम करने लगे थे |
मेरे बड़े
भाई स्मार्ट होचले थे, उनको यह नागवार गुजरता था, दादा कहना, यह पुरातन पंथी बात लगती थी और कहीं सारे छोटे भाई बहन दादा ही न कहने लगें | अतः वे सदा मुझसे 'भाई साहब' कहने को कहते थे, परन्तु मेरे मुंह पर यह चढ़ता ही नहीं था |
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि उस क्षण के बाद कभी भी मेरे मुंह से दादा शब्द नहीं निकला | मैं भाई साहब कहने लगा और सभी छोटे भाई बहन उन्हें भाईसाहब ही कहते हैं| बाद में बड़े होने पर मुझे ज्ञात हुआ कि आगरा नगर में खलीफा और दबंग लोगों को दादा कहा जाता है |
४५.मैम साहब ...
कुसुम जी शादी के तुरंत बाद ही पति के साथ
पंजाब चली गयीं, जहां पति क्लास वन आफीसर थे| कुछ दिन बाद ही कुसुम जी के बड़े भाई सुरेन्द्र जी जो पास ही
के इंजी.कालिज में पढ़ रहे थे अपने एक ख़ास मित्र सहपाठी दिनेश के साथ
मिलने आये|
खाना बनाने की प्रक्रिया में कुसुम जी की
उंगली ज़रा जी झुलस गयी| घर स्थित सेवक ने तुरंत
फोन किया, ‘साहब जी, मेम साहब का हाथ जल गया है|’
‘ठीक है मैं आता हूँ उधर से
कहा गया|’
दिनेश हंसते हुए बोले, ‘यार, छोटी दी अभी कल तक तो
हमारे साथ खेलती थी, आज अनायास ही बिना कुछ किये ही मेमसाहब बन गयी| हम अभी पढ़ ही रहे हैं|’
४६.श्राद्ध....
‘क्या पापा अब तक तो आपके पुनर्जन्म सिद्धांत के
अनुसार बावाजी का कहीं और जन्म हो चुका होगा तो अब बाबाजी श्राद्ध खाने कैसे
आयेंगे| ये सब पंडितों ने अपने धंधे बनाये हुए हैं’, रमेश कहने लगा|
‘सही बात है बेटा, मृत पूर्वज खाने के लिए नहीं आते, है तो ये ढकोसला ही परन्तु ये कर्मकाण्ड भी एक पर्व की
भाँति होते हैं, ये मन की संतुष्टि की बात है बस, जिनमें पूर्वजों की स्मृतियाँ मन को प्रफुल्लित कर जाती हैं| घर का वातावरण कुछ प्रसन्न व सात्विक होजाता है और
पारिवारिक भाव-तत्व भी बना रहता है| इस बहाने घर के सदस्य, पारिवारिक लोग, नातेदार, मित्र आदि मिलकर सुख-दुःख भी बाँट लेते हैं| सबसे मिलना-जुलना भी होजाता है जो
आजकल दुष्प्राप्य है| हाँ पंडितों का भी इसी
प्रकार काम चलता रहता है| आखिर हम बर्थडे आदि भी तो
करते हैं,ये भी तो ढकोसले ही हैं, मन की प्रसन्नता के लिए मित्रों आदि को एकत्र करने के,खिलाने के,केक वाले, मिठाई वाले आदि लोगों के
धंधे चलने के अन्यथा बर्थडे मनाये बिना क्या व्यक्ति की उम्र आगे नहीं बढ़ेगी|‘ डा शर्मा कहते गए|
‘ ठीक है पापा, मैं पंडित जी को फोन करता हूँ’, रमेश बोला|
४७. गुणात्मक सोच –
‘यार, तुम तो हर बात में खुर-पेंच निकालते रहते हो, यह नकारात्मक सोच है, कुछ सकारात्मक सोच रखो|’
हाल में ही कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय ‘व्यभिचार अपराध नहीं ..’ पर विचार विमर्श के दौरान
मेरे यह कहने पर कि ‘यह तो व्यभिचार को बढ़ावा
देना है’, मेरे मित्र श्रीकांत का यह कथन था
‘क्या सकारात्मक बात है
इसमें’, मैंने पूछ लिया|
‘आप पुरुषों की ओर से
सोचिये, अब तक अन्य स्त्री से सम्बन्ध रखने पर केवल पुरुषों को ही
दोषी मान लिया जाता था जबकि वास्तव में तो दोनों का ही दोष होता है| जब बराबरी का ज़माना है तो केवल पुरुष ही दोषी क्यों हो|’
‘तो फिर दोनों को अपराधी
मान लेने का निर्णय क्यों नहीं दिया, माननीय ने| कृतित्व को अपराध मानने से ही मना कर दिया,क्यों |’
‘तो क्या निर्णय पूरी तरह से अनुचित है ?’
‘नहीं, ऐसा नहीं है|’ मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ’ इस तथाकथित व्यभिचार को आपके देश, समाज व शास्त्रों में भी कभी अपराध माना ही नहीं गया| बहु-विवाह, पत्नियां-उपपत्नियाँ, पालिताओं, सखियाँ और यहाँ तक कि
वैश्यावृत्ति आदि की प्रथाएं तभी तो प्रचलित रहीं|’
‘क्या बकवास कर रहे हो|’
‘यह क़ानून का विषय ही नहीं
है, यह तो हमारे यहाँ एक सामाजिक बुराई माना जाता था, कहाँ ऐसे व्यभिचारी व्यक्तियों-स्त्री-पुरुषों को समाज में सम्मान मिलता था| क़ानून से अधिक प्रभाव सामाजिक बंधनों का होता है| इसीलिये तो दोनों को अपराधी मान लेने का निर्णय नहीं दिया
गया|’
‘तुम कहना क्या चाहते हो’, श्रीकांत असमंजस में बोला|
‘यही कि तुम ठीक कह रहे हो
कि निर्णय उचित ही है|’
‘तो व्यर्थ की माथा-पच्ची की क्या आवश्यकता थी|’
‘मथे न माखन होय |’
‘मतलब |’
आवश्यकता थी, मैंने कहा, अन्यथा तुम समाज व शास्त्र
की बात को बीच में कहाँ लाने देते, सोच केवल सकारात्मक नहीं गुणात्मक
होनी चाहिए | तथ्य के सकारात्मक व नकारात्मक सभी पक्षों को पूर्ण रूप से
जानकर, गुणावगुण पर विचार करके ही स्वीकार करना चाहिए न कि केवल
एक पक्षीय अच्छी अच्छी बातें जानकर, जिसे आजकल सकारात्मक सोच
के नाम से बहु-प्रचारित किया जा रहा है, जो वस्तुतः पाश्चात्य वैचारिक चुटुकुला है|
फिर वही खुर-पेंच, तुम नहीं सुधरोगे यार |
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