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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 11 जुलाई 2023

डॉ. श्याम गुप्त की लघुकथायेँ 48 से 58 तक --- डॉ. श्याम गुप्त ....

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...





लघुकथायेँ 48 से 58 तक ---


 ४८.टाइल्स...

 

        रसोई घर में प्रवेश करते ही मुझे अपनी बेटी राशिका की बरबस याद आजाती है और साथ में उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा| जाने कितने शो रूम्स व डिजायनें देखकर चुनाव किया था बिटिया ने इन विशेष एब्सोल्यूट डिजायन वाली टाइल्स का | मकान बनाने की प्रक्रिया में किचिन, बाथरूम, फर्श आदि हेतु टाइल्स आदि का कितने धैर्य, लगन, रूचि, ममत्व व अधिकार से चयन किया था राशिका ने, जिन्हें त्याग कर एक दिन उसे जाना ही था, सभी की भांति |

        बचपन से युवावस्था तक न जाने कितनी काम्यता, ममत्व, मनोयोग, रूचि, धैर्य से सभी की सेवा, सहयोग से एकएक वस्तु के चुनाव, सजावट से, सर्जनात्मकता से घरोंदों का निर्माण करती है नारी और फिर सब कुछ त्यागकर चल देती है एक अनजान डगर पर, एक अन्य भाव के प्रेम की चाह व विश्वास में |

     यही तो निष्काम्यता, तप, साधना है, विराग है, योग है और यदि इसी चाह में उसे छला जाता है, उसके विश्वास, आशा व आस्था को छला जाता है, तो कितनी आत्मव्यथा, उत्प्रीडन व पीड़ा को आत्मसात करना होता होगा, इसकी कल्पना कहाँ की जा सकती है |

       अरे, इतनी देर से बेसिन के सामने खड़े दीवार को क्या घूरे जारहे हो | अचानक श्रीमती जी आवाज से मैं चौंक पड़ता हूँ, फिर मुस्कुराकर पूछता हूँ, ये टाइल्स राशिका सिलेक्ट कर के लाई थी न?                    ओह तो यह बात है, बेटी की याद आरही है | कह देते हैं कि दोनों कुछ दिन के लिए यहाँ आकर रह जायं |

 

 

 ४९.हैरी पॉटर....

       पापा हमें भी हैरी पाटरचाहिए दक्ष जिद करते हुए कहने लगा|

      पर वो तो व्यर्थ की फंतासी, जादू-टोने की कहानी वह भी अंग्रेज़ी में, अमेरिकन कहानी |’ सुरेश ने समझाते हुए कहा |

       दिला दीजिये नशीला जी कहने लगीं, ‘सभी बच्चे खरीद रहे हैं|’

       तो क्या, जो कार्य सभी कर रहे हैं वह उचित ही होगा! देश में कितने बच्चे अंग्रेज़ी जानते-समझते हैं| सुरेश कहने लगा, आखिर साहित्य का..बाल साहित्य का उद्देश्य क्या होता है? व्यक्ति या बालक को मनोरंजन के साथ कुछ सीख देना| शुद्ध मनोरंजन जैसी कोइ वस्तु नहीं होती|  इसीलिये भारतीय वांग्मय व अन्य कथाएं व फंतासीविक्रम-वैताल, चंद्रकांता, पंचतंत्र, हातिमताई, सिंहासन-बत्तीसी, सिन्दबाद आदि एक सीख लिए होती हैं|’

    निरर्थक फंतासी, जैसे यहाँहेरीपोटरअंधविश्वास, जादू-टोना, अज्ञान लिए होती हैं, मानसिक विकृति को जन्म देती है, मन ऋणात्मक वृत्तियों की ओर भागता है, जब तक उसे सकारात्मक, तार्किक या आधिकारिक आधार पर स्पष्टीकरण न प्रस्तुत किया जाय| जहां तक साहस आदि का प्रश्न है’, सुरेश आगे कहने लगा, ’सिर्फ साहस, निडरता, वास्तव में दुस्साहस आदि सिखाने हेतु निरर्थकता से इतना बड़ा समझौता..कदापि नहीं | इस दुसाहस को सीख कर ही तो अमेरिकी बच्चे स्कूलों में गोलियां चलाते हैं|’

     सच यही है, शर्मा जी बोले, ’पैसे की माया से ही अमेरिकन साहित्य छाता जारहा है, पैसे से सारे विश्व में प्रचार कराया जाता है| अन्यथा भारत में ही चालीस करोड़ बच्चों में मुश्किल से आठ करोड़ ही जानते होंगें हेरीपॉटर का नाम, वे भी अंग्रेज़ी स्कूल वाले| बस वही लोग प्रतिष्ठा-प्रभा हेतु यह सब करते रहते हैं| शेष तो सामान्य बच्चे आज भी हनुमान, अर्जुन आदि को ही पहचानते हैं, आगे की राम जाने|’

     हिन्दी का लेखक, शर्माजी पुनः कहने लगे,अर्थहीन फंतासी नहीं लिख पाता| प्रचारतंत्र को भी प्रश्रय नहीं दे पाता|  हमें अपने बच्चों को सत्साहित्य पढ़ने व खरीदने का परामर्श देना चाहिए| अपने वास्तविक सुचरित्रों की वास्तविक कथाओं के दृश्य-श्रव्य आदि विविध रूपों का साहित्य प्रस्तुत करना चाहिए जो हिन्दी व सभी स्थानीय भारतीय भाषाओं में हों|

    यह कैसे होसकता है कि एक पिता अपने बेटे को बीडी/ सिगरेट खरीद कर सुलगाकर लाने को कहे और बुझ जाने पर उसे डांटे,फिर अपेक्षा करे कि बेटा बीडी पीना न सीखे| 

    यह तो अंग्रेज़ी भाषा को स्कूली माध्यम से समाप्त करने पर ही हो सकता है|’,शर्मा जी बोले |

 

५०. कठिन डगर...

      बड़े सम्मान के अधिकारी होते हैं | मैं बड़ा भाई हूँ मिन्नी को मेंरा व भाभी का पहले सम्मान करना चाहिए |’

     हाँ बेटा बात तो सही है, उसे अवश्य ही सम्मान करना चाहिए |  परन्तु सम्मान, मान व सम्माननीय व माननीय में अंतर है| बहन, चाहे छोटी हो भाई के लिए माननीय होती है| ननद भाभी के लिए माननीय व पूज्य होती है, चाहे छोटी ही हो | भाई-भाभी, बहन के लिए सम्माननीय ही नहीं प्यारे भी होते हैं, शायद सर्वाधिक प्रिय| यह सम्मान से अधिक अटूट प्रेम का रिश्ता है| पहले पीछे की तो बात ही नहीं है|’

     क्यों?’, रोहित ने पूछ लिया|

     क्योंकि वे अपना घर-द्वार, परिवार-समाज, नगर छोड़ कर अन्य देश समाज परिवार में जाती हैं अनजान जगह| वह परिवार चाहे जाना पहचाना हो, मित्र परिवार हो पर होता अनजान ही है, जहां उसका अपना पक्ष लेने वाला कोई नहीं होता| उसे अकेले ही सबसे सामंजस्य करना होता है| लोग अच्छे हैं तो सब अच्छा अन्यथा मानव जीवन की सबसे कठिन डगर यही है|’

     पितृगृह में मान नहीं तो अन्य कहीं नहीं| श्वसुराल पक्ष में भी सभी शोषण से पीछे नहीं रहेंगे| यह सामाजिक व मनोवैज्ञानिक पक्ष है, फिर नारी के महिमा मंडन की बात भी तो है |’

     बड़े भाई से बात करने में झिझक भी रहती है | अपने श्वसुराल पक्ष की बात कैसे कहे | सदा मन में यही रहता है कि वह स्वयं स्थिति को सामंजस्यपूर्ण ढंग से नियंत्रित नहीं कर पाई, क्या वह अक्षम है|’

     बहनें कोमलमना होती हैं, भावुक, अपने मायके वालों को, भाई को कठिनाई में डालने से बचती हैं| मायके वालों से न परामर्श ले सकती हैं, न बुराई सह सकती हैं, न महिमा मंडन कर सकती हैं, विचित्र परिस्थिति में स्वयं ही झेलती रहती हैं|’

    .अतः बीच बीच में भाई व भाभी को भी स्वयं आगे बढकर खोज खबर लेते रहना चाहिए|’, शर्मा जी ने समझाते हुए कहा |


 ५१. डाकिया...

      ये क्या, ‘ये किसने भेजी हैं |’ डाकिया से दो पुस्तकों का एक पैकेट डिलीवरी लेते हुए रमा जी कहने लगीं|

      मैंने पैकेट लेकर देखते हुए माथा पीट लिया| मैंने कहा, ‘सुनिए, स्कूल में हम डाकिया पर कितने निबंध लिखा करते थे | उसकी सच्चरित्रता, ईमानदारी, सामाजिक सरोकार पर उसकी प्रशंसा में कसीदे पढ़े जाते थे |’ ‘ही इज आल्वेज़ ओन हिज़ टोज़...परन्तु आज समाज व मानव की अमानवीयता, संवेदनहीनता, अविश्वसनीयता तो देखिये, क्या कहा जाय...|’

      क्या हुआ’, रमाजी आश्चर्य से बोली|

     सात रु. की टिकट लगाई थी, दो रुपये की निकालकर रख ली, बाकी पर स्टाम्प-ठप्पा  लगाकर, भेजने वाले के पते पर, मुझे ही, देगया है|’      

 

५२.कोरोना काल गाथा ..

     चाय पीते हुए रमा जी बोलीं, आज ५ बजे ही आँख खुल गयीं फिर नींद आयी ही नहीं |मैंने कहा, हाँ भई हम भी तो जाग जाते हैं पड़े रहते हैं| हम तो कभी कहते नहीं|

    अच्छा तो अब हमारा बोलना भी अच्छा नहीं लगता|

    नहीं भई, हमारा ये मतलब नहीं,आप तीन दिन से लगातार यही कह रहीं हैं, इसलिए कहा |

       आप तो दिनभर लेपटोप में घुसकर बातें करते रहते हैं, हम किससे करें, वे बोलीं | थोड़ा किचेन में आ जाया करिए|

   अरे, चाय तो दोनों टाइम हम ही बनाते हैं|

   वह तो पहले भी करते थे,वे बोलीं|

   हमने चुप रहना ही उचित समझा| रिटायरमेंट काल में कोरोना काल घुसा आरहा है| कामबाली बाई को भी दो माह से बुलाया नहीं जा रहा| कहीं वर्तन माँजने का हुक्म न होजाय|

 

५३.सुव्यवस्था ...

      शुक्ल जी महानगर में कार्यरत बेटे के पास आये तो सब कुछ नियमित व व्यवस्थित था | पुत्र व पुत्रवधू दोनों अपने अपने कार्य पर चले जाते थे, गृहकार्य के लिए सेविकाएँ लगीं हुईं थीं| पुत्र के लिए दिनभर के लिए आया थी जो उसे खिलाती-पिलाती, स्कूल बस में भेजती, ले भी आती व समस्त दिनचर्या करती |

    पुत्रवधू जब घर आयी तो शुक्ल जी कहने लगे, ‘बेटा बहुत अच्छी तरह से व्यवस्था बनाई हुई है| कितना खर्च होजाता है इन पर ?’

   कुछ अधिक नहीं पापा’, लगभग २० हज़ार नर्स लेती है और १० -१० हज़ार सेविकाएँ | परन्तु सारा काम आसानी से मैनेज होता है |’

    यह तो बहुत खर्च होजाता है ‘, बेटा |

    कोई बात नहीं पापा, तीन लाख रवि की सेलेरी है और ढाई लाख मुझे मिलते हैं |’ कोइ कठिनाई नहीं होती |

   हाँ यह तो है’, शुक्ला जी बोले, ‘परन्तु, क्या एक बात सोचने लायक नहीं है ?’

    जी क्या !’

    जो बच्चा ढाई लाख की सक्षमता, समझ व औकात वाली स्त्री से पालन-पोषण का अधिकार लेकर संसार में आया था वह बीस हज़ार की औकात वाली स्त्री से पाला जारहा है | क्या यह संतान के साथ अन्याय नहीं है | साथ ही परिणामी स्वरुप में देश, समाज व संस्कृति के साथ आपराधिक अन्याय नहीं है | ‘



५४.नौकरी...

डॉक्टर ने चेक अप करके कहा, ‘आपका बेटा बिलकुल ठीक है | बच्चा एकाकीपन का शिकार है |’

तो, शालिनी ने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा |

क्या आप व आपके पति दोनों ही काम पर जाते हैं |’ डॉक्टर पूछने लगे |

जी,

बच्चा, दिन भर आया के पास रहता है | शायद आप उसे समय नहीं दे पाते |’

जी हाँ, |

तो बुरा न मानें आप नौकरी छोड़ दीजिये, घर पर रहकर बच्चे को समय दीजिये |’

 

५५. मुक्तिपथ पर---

 

प्रिय मित्र श्री प्रकाश,
    
तुमने पत्र में कहा है कि, तुमने पत्र द्वारा बताया कि तुम मुक्तिपथ पर हो| हाँ, हम जानते हैं कि तुम तो कलियुग के कृष्ण हो, पर विज्ञान के छात्र व आधुनिक चिकित्साशास्त्री होने पर भी ईश्वर, भक्ति, दर्शन, ज्ञान-अज्ञान, वैराग्य की बातें कैसे कर लेते हो और साथ ही यह अंधभक्ति, धर्मान्धता, हिन्दू-मुस्लिम भी क्यों ?

       हाँ, सच ही मैं अति आधुनिक विचारवादी, तार्किक, न्यायवादी, कभी पूजा न करने वाला, कठोर अनुशासन वादी, रूढ़ियाँ व लीक छोड़कर चलने वाला, उदारवादी होते हुए भी ईश्वर में आस्था रखता हूँ| मैं श्री कृष्ण का प्रशंसक, उपासक, साधक हूँ, भक्त हूँ। तुम जानते हो कि भक्ति की चरम अवस्था में भक्त, भगवन्लय हो जाता है। जैसा कि वेदान्त कहता है कि आत्मा अपने चरम ज्ञान के उत्कर्ष में ज्ञान और ज्ञाता, राग-विराग का भेद मिटा कर परमात्मलीन हो जाती है, तदाकार, तदनुरूप हो जाती है, द्वैत, अद्वैत में लय हो जाता है |’

 "जल में कुंभ कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी।
टूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तथ कथ्यो गियानी।।"
     
मैं अभी उस राह पर चलने को प्रयत्नशील हूँ। परिणाम तो वही जानता है।

      तुमने कहा, ‘अंधभक्ति, धर्मान्धता एवं हिन्दू-मुस्लिम की बातें क्यों ?’

      हाँ भई ! सच है, मैं समरसता में जीवन व्यतीत करना व अधिक झंझट में न पड़ने वाला व्यक्ति हूँ। परन्तु यदि बात मेरे देश, समाज, संस्कृति व मानवता की है तो मैं किसी भी हद तक जा सकता हूँ। कभी भी, किसी के भी साथ।

      तो हे कलियुग के श्रीदामा! हे ऊधो ! श्री प्रकाश जी, कहीं तुम गोपियों को सबक पढ़ाने मत पहुँच जाना। मेरा राग-विराग भाव उन पर व्यक्त मत कर देना। अब इस स्तर पर कहीं वे सब मिलकर भ्रमर-गीत में ताने देने लगीं तो मुश्किल होगी। जो जहां है वहीं ठीक है। मैं तो वैसे भी तुम्हारे अनुसार कृष्ण भाव हूँ - राग-विराग से परे।

       शेष मिलने पर।

                                                             कृष्ण गोपाल

 

५६.मानवता का प्रथम महासमन्वय -         
      
सभी कबीलों को एक करके समन्वित करने वाले दक्षिण भारतीय भूभाग के राजा शंभू चिंतित थे | उत्तर क्षेत्र से आये हुए मानवों से प्रारम्भिक झड़प के पश्चात ही उनके सेनापति इन्द्रदेव इस सन्देश के साथ आये कि वे आपस में मिलजुल कर परामर्श करने के इच्छुक हैं | अंतत उन्होंने मिलने का निश्चय किया |
      
पितामह! शम्भू जी पधारे हैं, इन्द्रदेव ने ब्रह्मा जी को सूचित किया |

       उन्हें सादर लायें इन्द्रदेव, वे हमारे अतिथि हैं, सुना है वे अति-बलशाली हैं साथ ही महाविद्वान् व कल्याणकारी शासक भीब्रह्मदेव बोले |

 


      निर्भीक मुद्रा में, हाथ में त्रिशूल, कमर में बाघम्बर लपेटे राजा शंभू का स्वागत करते हुए विष्णु बोले, आइये शम्भू जी, स्वागत है, आसन ग्रहण कीजिये, ’ये इंद्रदेव हमारे सेनापति और ये पितामह ब्रह्मदेव |
    
ओहो ! ब्रह्मदेव ! आदिपितावे तो हमारे भी पितृव्य हैं,शम्भु प्रणाम करते हुए, प्रसन्नता से बोलेअब भी स्मृति में सुमेरु-क्षेत्र ब्रह्मलोक की यादें हैं एवं वे स्मृतियाँ भी जब हम लोग इस क्षेत्र को छोड़कर दिति-सागर पार करके उत्तर सुमेरु क्षेत्र में जाकर बसे थे |.

      तो तुम पुत्र शंकर हो, रूद्र-शिव जो साधना हेतु सुमेरु से कुमारी-कंदम हेला द्वीप चले आये थे |’ तुम्हारी व तुम्हारे क्षेत्र एवं प्रजा की प्रगति देखकर मैं अति प्रसन्न हूँ |
       
जी पितामह, आप सब तो अपने ही लोग हैं, युद्ध की क्या आवश्यकता है, आज्ञा दें, परन्तु मेरे लोग कोई भी अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे |
     ,
शंभू जी, उचित कहा आपने, विष्णु बोलेसमन्वय, मिलजुल कर रहने पर ही उस क्षेत्र, प्रजा व संस्कृतियों का विकास होता है, सब अपनी अपनी संस्कृति अपनाते हुए मिल-जुल कर निवास करेंगे |

     स्वीकार है, शम्भू कहने लगे, यद्यपि विरोध होगा, सभी कबीलों, वर्गों को मनाना पडेगा परन्तु मैं सम्हाल लूंगा | प्रगति हेतु समन्वय तो आवश्यक ही है |
     आभार है शम्भू जी, विष्णु व इंद्र बोले, आपका यह कदम मानवता के इतिहास में स्वर्णिम निर्णय कहा जाएगा | हम मानव सभ्यता के इस प्रथम महासमन्वय, समन्वित संस्कृति को ज्ञान के प्रसार, प्रकाश की संस्कृति, विज्ञजनों की, विद्या रूप वैदिक-संस्कृति कहेंगे | भाषा व सभी ज्ञान का संस्कार आप करेंगे ताकि एक विश्ववारा श्रेष्ठ संस्कृति का निर्माण हो|

     सब मिलजुल कर रहें, आशीर्वाद है|’ ब्रह्मदेव ने प्रसन्नतापूर्वक सभी को आश्वस्त करते हुए कहा |
  
५७.सही राह पर...

       ओह! व्हाट अ गुड साईट इट इजअतुल उछल पडा, ‘ लहरें मानो परिहास करती हैं, खड़े रहो मूर्ख-अकर्मंण्यों की तरह, हम तो चलीं|”

     अनिल ने हंसते हुए कहा,” निर्जीव भी कहीं बोलते हैं|’

    मार्मिकं को मरान्दानामान्तरेण मधुवृतम “..सत्यं शिवम सुन्दरं की परिभाषा तुम वैज्ञानिक क्या जानो?“ अतुल बोला |

   वैज्ञानिक सत्य के बाद ही शिवं, सुन्दरम की बात बनती है विज्ञान ने ही तो प्रकृति के जाने कितने रहस्य खोजे हैं|अनिल ने कहा |

    अतुल कहने लगा, कल्पना तो विज्ञान में भी है| सपोज़ सच एंड सच इज इक्वल टू एक्स, मान ही लो | साहित्य की कल्पना, अंतर्बुद्धि वाली भावना ही तो समाज को उच्चादर्शों पर प्रतिष्ठित करती है, बिना शिवम् सुन्दरं के विज्ञान का सत्य विनाशकारी है |

    गलती उपयोग करने वालों की है|अनिल ने कहा, साहित्य की उन्नति भी तो विज्ञान के कारण ही हुई|

    ठीक ! ‘परन्तु आप यह भूल रहे हैं कि यदि साहित्य के रूप में प्राचीन ऋषियों, शास्त्रकारों, विद्वानों आदि की वाणियाँ, ग्रन्थ व साहित्य जहां से ज्ञान-विज्ञान का उद्गम है, न होते तो विज्ञान की उन्नति कहाँ से होती ? यदि वैदिक कर्मकांड विज्ञान है तो वैदिक व्यवहारिक व औपनिषदिक ज्ञान साहित्य |” अतुल बोला |

     हाँ यह तो है |’ अनिल बोला |

     अतुल कहने लगा, ‘साहित्य व विज्ञान सभ्यता के दो स्तम्भ हैं | जब भी उनका अनुचित व तादाम्य रहित उपयोग हुआ वहीं विकृति व विनाश हुआ |

        आल राईट....अचानक ही पानी में दो बड़े मच्छों के लड़ने की आवाज़ ने ध्यान भंग किया | चंद्रमा को सिर पर देखते हुए अतुल बोला, बहुत रात हुई, चलो, चलें |

     रास्ते में अनिल ने हंस कर पूछा , ‘वे मच्छ क्या कह रहे थे, कवि महाराज ?

देर आयद, दुरुस्त आयद“, अतुल बोला |

 

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५८.विश्वास और मित्रता ....

       'तुम तो एक दम घोड़े बेचकर सोरहीं थी, बेफिक्र । मैडम, ये ट्रेन है बैडरूम नहीं । सुना नहीं है-- "तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग ज़रा।"

                'प्रथम क्लास ऐसी है, कौन चोर आता है और गठरी में तो चोर जाने कब से लगा हुआ है ' , वह मुस्कुराई पर उसे चोरी करना आता ही नहीं |’

               'फिर भी यात्रा में इतना बेफिक्र नहीं सोना चाहिए।' मैंने सहज भाव में ही कहा।

                'तुम थे न तभी तो......'

                'इतना विश्वास है मुझ पर..|’

               'क्या हुआ है तुम्हें ? पता भी है क्या कह रहे हो।

                'अच्छा, स्त्री-पुरुष मित्रता में विश्वास पर तुम्हारे क्या विचार हैं ?'

              'वही, स्वस्थ मित्रता होनी चाहिए। जब तक एक दूसरे के बारे में पूर्ण ज्ञान न हो, नहीं होनी चाहिए। एक दम ख़ास विश्वासी मित्र के अलावा किसी के साथ एकांत में न जाना चाहिए न घूमना। एकांत में तो ख़ास मित्र के साथ भी नहीं। टाइम-टैस्टेड मित्र के साथ अकेले जा सकते हैं, तुम्हारे जैसे ,' उसने मुस्कुराते हुए कहा ।

                'और मेरे जैसा विश्वासी  मित्र धोका दे तो ?'

                'हरि इच्छा! मेरा भाग्य !  हमें तो अपना व्यवहार उचित प्रकार से मर्यादित रूप में संतुलित भावयुत, सोच समझ कर करना चाहिए, न कि केवल भावनाओं में बहकर, आ बैल मुझे मार    

                                                

 ----इति---

                                        


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