3. गीत – कालजयी हैं ....
आदि मानव ने जब खगवृंदों के कल-कंठों का गायन सुना होगा, नदियों-झरनों के नाद घोष में आत्मा की पुकार अनुभव की होगी, उन्मुक्त प्रकृति के प्रांगण में चांद-तारों की रोशनी में, फूलों की हंसी में सौंदर्य भाव बोध को आंकलित किया होगा, गीतों की वाणी तभी से थिरकने लगी होगी। वैदिक ऋषियों का वचन है कि 'तेने ब्रह्म हृदा य आदि कवये'- अर्थात कल्प के प्रारंभ में आदि कवि ब्रह्मा के हृदय में वेद का प्राकट्य हुआ था।
स्वर के आविर्भाव के साथ सृष्टि के सर्वाधिक भावुक प्राणी मानव ने मूक इंगितों के स्थान पर शब्दहीन ध्वन्यात्मक इंगितों, अर्थहीन ध्वनियों द्वारा प्रकृति के दृश्यों-रूपों से उत्पन्न भय मिश्रित रोमांच, सुखद आश्चर्यप्रद अनुभूति की मुग्धावस्था एवं उससे उत्पन्न श्रद्धा के स्व-भावों का स्वयं में ही अथवा आपस में सम्प्रेषण करना प्रारम्भ किया होगा | शिव के डमरू से उत्पन्न स्वर-ताल व अक्षर एवं माँ सरस्वती की वीणा ध्वनि से उद्भूत वाणी के बैखरी रूप की उत्पत्ति पर उन्मुक्त प्रकृति के प्रांगण में चांद-तारों की रोशनी व फूलों की हंसी में सौंदर्य का भावबोध के साथ प्रकृति के विभिन्न स्वर—संगीत, खगवृंदों के कल-कंठों का गायन, नदी की कल कल कल, झरने की झर झर झर, मेघ की घनन घनन घन, तडित की गर्ज़न के अनुकरण द्वारा विभिन्न स्वरों में ताल–लय बद्धता के साथ प्रसन्नता, रोमांच, आश्चर्य, श्रद्धा का प्रदर्शन करने लगा होगा | निश्चय ही यही संगीतमय उत्कंठित स्वर गीत के प्रथम स्वर थे, जिन्हें बाद में गीत की निर्गीत या बहिर्गीत कोटि में रखा गया जैसे आजकल – तराना |
इस प्रकार मानव ने जब सर्वप्रथम बोलना प्रारम्भ किया होगा तो वह गद्य-कथन ही था, तदुपरांत गद्य में गाथा | अपने कथन को विशिष्ट, स्व व पर आनन्ददायी, अपनी व्यक्तिगत प्रभावी वक्तृता व शैली बनाने एवं स्मरण हेतु उसे सुर, लय, प्रवाह, व गति देने के प्रयास में पद्य का, गीत का जन्म हुआ |
माँ सरस्वती के कठोर तप स्वरुप ब्रह्मा द्वारा वरदान में प्राप्त पुत्र ‘काव्यपुरुष’ के अवतरण पर मानव मन में लयबद्ध एवं विषयानुरूप गीत का आविर्भाव हुआ | आदिरूप में लोकगीतों का आविर्भाव पृथ्वी पर मानव जीवन के अस्तित्व के साथ ही हुआ होगा। सृष्टि के हर स्पन्दन में लय और संगीत विद्यमान है। नदियों की कल-कल, हवाओं की थिरकन, झरनों की अनुगूंज, भौरों की गुंजार, कोयल की तान, शिशुओं की मुस्कान, किसानों के श्रम, बादलों की गर्जन, दामिनी की चमक, पक्षियों की कलरव, आदि सबमें एक नैसर्गिक संगीत विद्यमान है। प्रकृति का यह आदिम संगीत मानव जीवन में ऊर्जा एवं ताजगी का संचार करता रहा है। प्रकृति के हर क्रिया-व्यापार में एक लय है और इस लय का भंग होना उथल-पुथल है, परिवर्तन है, जो प्राकृतिक आपदा के रूप में विनाश-महाविनाश भी होसकता है एवं परिवर्तन के रूप में प्रकृति का उन्नयन रूप भी |
गीत, काव्य की शायद सबसे पुरानी विधा है। गीत मनुष्य मात्र की भाषा है। महाकवि निराला ने गीतिका की भूमिका में कहा है - 'गीत-सृष्टि शाश्वत है। समस्त शब्दों का मूल कारण ध्वनिमय ओंकार है। इसी नि:शब्द - संगीत से स्वर-सप्तकों की भी सृष्टि हुई। समस्त विश्व, स्वर का पूंजीभूत रूप है।'
भारतीय गीतिकाव्य की परम्परा विश्व साहित्य में सबसे पुरातन है | ऋग्वेद के पूर्व भी गीत पूर्ण-परिपक्व व सौन्दर्यमय रहा होगा | वैदिक मन्त्रों में स्वर संबंधी निर्देश मिलने से एवं स्थान स्थान पर पुरा-उक्थों के कथन से यह प्रतीत होता है कि मौखिक गीत रचना परम्परा अवश्य रही होगी | मानव इतिहास के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में मानव इतिहास के सर्वप्रथम गीत पाए जाते हैं | वे गीत प्रकृति व ईश्वर के प्रति सुखद आश्चर्य, रोमांच एवं श्रद्धा भाव के गीत ही हैं | ऋषियों ने प्रकृति की सुकुमारिता व सौन्दर्य का सजीव चित्रण किया है जो भावमयता व अर्थग्रहण के साथ मनोज्ञ कल्पनाएँ हैं | ऋग्वेद ७/७२ में वैदिक कालीन एक प्रातः का वर्णन कितना सुन्दर व सजीव है ---
“विचेदुच्छंत्यश्विना उपासः प्र वां ब्रह्माणि कारवो भरन्ते |
उर्ध्व भानुं सविता देवो अश्रेद वृहदग्नयः समिधा जरन्ते ||”
----हे अश्वनी द्वय ! उषा द्वारा अन्धकार हटाने पर स्तोता आपकी प्रार्थना करते हैं (स्वाध्याय, व्यायाम, योग आदि स्वास्थ्य वर्धक कृत्य की दैनिक चर्या )| सूर्या देवता ऊर्ध गामी होते हुए तेजस्विता धारण कर रहे हैं | यज्ञ में समिधाओं द्वारा अग्नि प्रज्वलित हो रही है | ...तथा –
“एषा शुभ्रा न तन्वो विदार्नोहर्वेयस्नातो दृश्ये नो अस्थातु
अथ द्वेषो बाधमाना तमो स्युषा दिवो दुहिता ज्योतिषागात |
एषा प्रतीचि दुहिता दिवोन्हन पोषेव प्रदानिणते अणतः
व्युणतन्तो दाशुषे वार्याणि पुनः ज्योतिर्युवति पूर्वः पाक: ||”
----प्राची दिशा में उषा इस प्रकार आकर खड़ी होगई है जैसे सद्यस्नाता हो | वह अपने आंगिक सौन्दर्य से अनभिज्ञ है तथा उस सौन्दर्य के दर्शन हमें कराना चाहती है | संसार के समस्त द्वेष-अहंकार को दूर करती हुई दिवस-पुत्री यह उषा प्रकाश साथ लाई है, नतमस्तक होकर कल्याणी रमणी के सदृश्य पूर्व दिशि-पुत्री उषा मनुष्यों के सम्मुख खडी है | धार्मिक प्रवृत्ति के पुरुषों को ऐश्वर्य देती है | दिन का प्रकाश इसने पुनः सम्पूर्ण विश्व में फैला दिया है |
ऋग्वेद में प्रकृति के अतिरिक्त उर्वशी-पुरुरवा, यम-यमी , इंद्र-सरमा, अगस्त्य-लोपामुद्रा, इंद्र-इन्द्राणी के रूप में विभिन्न भावों की सूक्ष्म व्यंजनायें, नारी ह्रदय की कोमलता, दुर्बलता, काम-पिपासा, आशा, निराशा, विरह वेदना सभी के संगीत-गीत की अभिव्यक्ति हुई है | यही सृष्टि के प्राचीनतम गीत हैं जिनकी पृष्ठभूमि पर परवर्ती काल में समस्त विश्व में काव्य का विकास हुआ, लोकगीतों-गीतों के विविध भाव-रूपों में | यजु, अथर्व एवं साम वेद में इनका पुनः विक्सित रूप प्राप्त होता है| साम तो स्वयं गीत का ही वेद है यथा- ऋषि कहता है ”
ओ3म् अग्न आ याहि वीतये ग्रृणानो हव्य दातये |
नि होता सत्सि बर्हिषि ||” साम 1 .... हे तेजस्वी अग्नि (ईश्वर) आप ही हमारे होता हो, समस्त कामना पूर्तिकारक स्त्रोता हो, हमारे ह्रदय रूपी अग्निकुंड ( यज्ञ ) हेतु आप ही गीत हो आप ही श्रोता हो |
पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के उड़ते समय उसके पंखों से सामवेद के मन्त्रों की रागमयी ध्वनि हुआ करती है। उनकी उड़ान की संगतियों एवं परों की गतियों की विभिन्न विधाओं आरोह, अवरोह, समानगति, समगति आदि की लयात्मक समन्वयता से विभिन्न छंद एवं राग उत्पन्न होते हैं | विष्णु, विश्व अणु अर्थात विश्व की क्रियाओं कलापों की लयात्मकता, जीवन की उड़ान के विभिन्न भाव-पथ ही गीत की उत्पत्ति के कारण-रूप हैं | जीवन के विभिन्न रस-भावों के अनुभव से गीत की उत्पत्ति होती है | यह लयात्मकता शब्द की उड़ान से उत्पन्न होती है | शब्द को गरुड़ माना गया है जो सुपर्ण अर्थात् ( काव्य रूपी ) सुन्दर पंखों वाला ( आह्लादक, आनंद प्रदायक है ) है, जिसमें अप्रतिम सामर्थ्य है अमरावती ( भावाकाश- अंतर्मन-परा वाणी ) से अमृत-कलश लाने की शक्ति ( परमानंद प्रदायक भाव उत्पन्न करने की ) से सम्पन्न है।
'अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापति:' की सनातन मान्यता को जीते हुए, 'कविर्मनीषीपरिभूस्वयंभू' की उपनिषद् सूक्ति की प्रामाणिकता के प्रति श्रद्धायुत व्यक्ति ही गीत-रचना के समय ऋतम्भरा प्रज्ञा, और वैखरी, मध्यमा तथा अपरा से ऊपर स्थित परा-वाणी से संयुक्त हो पता है | तभी गीति-चेतना सदानीरा नदी की भांति मानस में प्रवाहित होती है |
वैदिक गीत स्वर-प्रधान थे| लौकिक संस्कृत में लयसाम्य और नाद-सौन्दर्य आधारित गीत परंपरा प्राप्त होती है | लौकिक काव्य परम्परा का श्रीगणेश आदिकवि बाल्मीकि से माना जाता है| यहीं से काव्य में वर्णानात्मकता के स्थान पर गीति-काव्यात्मकता का प्रवेश हुआ | विश्व की सर्वप्रथम मानवीय कथा उर्वशी-पुरुरवा की विरह कथा एवं क्रोंच वध की घटना के कारण आदिकवि में पीड़ा-संवेदना द्वारा उत्पन्न काव्य के कारण ही परवर्ती काल में काव्य में कवियों में ‘ वियोगी होगा पहला कवि ...’ जैसी एकल धारणा बनी, जो पूर्ण सत्य नहीं है | वस्तुतः पूर्ण सत्य यही है कि प्रथम गीत/कविता प्रकृति के सुखद आश्चर्य मिश्रित रोमांच के कारण ही रची गयी एवं गीत में भावों व रसोद्द्वेगों की उत्सर्जना विभिन्न संवेदनाओं, सुख-दुःख, प्रेम, श्रृंगार, सौन्दर्य, आश्चर्य, शौर्य सभी गीतों में उद्भूत होती है |
प्रारंभिक लौकिक काव्य में गीत की अनिवार्य शर्त छंद एवं लयात्मकता रही है आदि कवि वाल्मीकि से लेकर अब तक गीत इसी रूप में पहचाना जाता रहा है। इसके पूर्व वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएं, जो गीत ही मानी जाती हैं लयबद्ध रचनाएँ ही हैं | उन ऋचाओं की एक सुनिश्चित गायन पद्धति निर्धारित थी, जिसे आरोह-अवरोह-स्वरित के नाम से चिन्हित किया गया था। अर्थात वह केवल लय पर आधारित काव्य था।
परवर्ती लौकिक काव्य में गीत की शर्तें छंद संतुलन और अंत्यानुप्रास (तुकान्त) मानी गयीं । परन्तु लोकगायकों के लोकगीतों व जनकाव्य में स्वर की महत्ता आरोह-अवरोह-स्वरित बनी रही तथा मात्रा व वर्ण संख्या व तुकांत की कठोर अनिवार्यता नहीं थी |
बाद में सनातन गीत की अनिवार्य शर्त ‘लय’ को साधने के लिए छंद और तुकान्त को साधन बनाया गया, जो संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परम्परा तक बखूबी निर्वाह किया जाता रहा। लेकिन हिन्दी काव्य में, मात्रिक छंद के रुढ़ प्रयोग और भाषाई जटिलता के कारण यह छंद रूपी साधन तो बना रहा, किन्तु साध्य लय पीछे छूटती गयी। यह स्पष्ट है कि वैदिक साहित्य से लेकर अद्यतन नवगीत तक लय ही एकमात्र ज़रूरी शर्त रही है गीत की और यह भी, कि राग आधारित गेय गीत तथा मुद्रित गीतपाठ के बीच सम्बन्ध का सेतु भी लय ही है।
स्वर, पद और ताल से युक्त जो गान होता है वह गीत कहलाता है। गीत, साहित्य की एक लोकप्रिय विधा है। इसमें एक मुखड़ा तथा कुछ अंतरे होते हैं। प्रत्येक अंतरे के बाद मुखड़े को दोहराया जाता है। गीत में एक ही भाव, एक ही विचार एक ही अवस्था का चित्रण होता है | लम्बे गीतों में भाव सौन्दर्य स्थिर नहीं रह पाता अतः वे संक्षिप्त ही होने चाहिए |
गीत मन की मुक्तअवस्था की अभिव्यक्तिहै। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कविता की परिभाषा देते हुए लिखा है - 'जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्तावस्था के लिए वाणी जो विधान करती है उसे कविता कहते हैं।'
गीतों की सबसे लोकप्रिय शैली लोकगीत है। 'लोकगीत' का अर्थ है लोक परिवेश से जन्मा एवं वहीं की गायन शैली मे गाया जाने वाला गीत। यानी एक ऐसा गीत जो लोकरंग एवं लोकतत्वों को अपने में समाहित किए हो और लोककंठों द्वारा लोकधुनों में गाया जाए। गीत मानव जीवन का स्वर है, मनुष्य की स्वयं तथा लोक पर जययात्रा का प्रारंभिक चरण । पाश्चात्य दार्शनिक हीगेल ने गीत के सम्बन्ध मे लिखा है -'गीत सृष्टि की एक विशेष मनोवृत्ति होती है। इच्छाविचार और भाव उसके आधार होते हैं।'लोकगीतों में गेयता प्रमुख होती है।
भगवतशरण उपाध्याय के विचार से गीतकाव्य की साधारण परिभाषा के अनुसार, गीत कविता की वह विधा है जिसमें स्वानुभूति प्रेरित भावावेश की आर्द्र और कोमल आत्माभिव्यक्ति होती है इसी सन्दर्भ में केदार नाथ सिंह कहते हैं- 'गीत कविता का एक अत्यन्त निजी स्वर है ग़ीत सहज, सीधा, अकृत्रिम होता है।' तथा अमरकोश के अनुसार --सुस्वरं सरसं चैव सरागं मधुराक्षरं/ सालंकारं प्रमाणं च षडविधं गीतलक्षणं । महादेवी वर्मा की निगाह में साधारणतः गीत व्यक्तिगत सीमा में तीव्र दुख-सुखात्मक अनुभूति का वह शब्द-रूप है जो अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय हो सके।
भावों एवं विचारों के सुन्दर समन्वय के साथ-साथ गीतात्मकता का सही सन्तुलन सफल गीत रचना की अनिवार्यता है। छंदशास्त्रों के नियमों को ध्यान में रखकर भी गीत लिखे जाते हैं और उन्मुक्त गायन के भाषा से भी गीतों की रचना होती है। जीवनगत भावों से गहरे संबंधित होने के कारण गीतों की रचना-प्रक्रिया जटिल होती है। भावावेश के क्षणों में छंदों के शास्त्रीय बंधन आवश्यक नहीं रह जाते तथापि लयात्मकता एवं संगीतात्मकता का तत्व सतत् बना रहता है। खासकर लोकगीतों में तो यह धारा अविछिन्न बनी रहती है और छंद शास्त्र के अज्ञानी बने रहकर भी लोक कवि मस्ती में, अपनी धुन में गाए जाता है और अमृत रस का संचार किए जाता है।
गीत संपूर्ण मानवीय संवेदना के सर्वोत्तम निचोड़ की सार्थक और संगीतात्मक अभिव्यक्ति है। गीत जब व्यक्तिपरक उद्गार बन जाता है तब भी वह समाज के सामूहिक संवेग का ही प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए गीत का मर्म वही समझ सकता है जो उसकी आत्मपरकता में अंतर्निहित मानवीयता की आवाज से भिज्ञ हो | डा नगेन्द्र के अनुसार - “गीत वास्तव में काव्य का सबसे तरल रूप है व वाणी का द्रव है क्योंकि इसका माध्यम स्वर है जबकि छंद का लय ..”
गीत की सबसे बड़ी अनिवार्यता उसकी लय है, उसमें विद्यमान गेयता है। निराला ने कविता को छन्दों के बन्धन से मुक्तहोने का जो कार्य किया है वह भी एक आवश्यकता थी। लेकिन निराला ने कविता में अन्त:संगीत की अनिवार्यता को भी नहीं नकारा। निराला-रचित मुक्तछंद की कविताओं में अन्त:गीत-संगीत सर्वथा विद्यमान है। इसी भाव पर डा रंगनाथ मिश्र सत्य द्वारा सातवें दशक में स्थापित अगीत कविता भी अपनी स्वर-लयबद्धता सहित अन्तः संगीत-गीत से आप्लावित है |
कुछ विद्वानों द्वारा गीति और गीत को एक मानने से भ्रम की स्थित उपन्न हुई है| गीति पद्य-काव्य विधा है जिसमें संगीत, अनुभूति और रस का संगम रहता है, यह एक व्यापक अवधारणा है, जिसमें गीत, अनुगीत, समगीत, प्रगीत, गीतिका, अगीत आदि सब समाये होते हैं
समकालीन गीतिकाव्य : संवेदना और शिल्प में लेखक डॉ. रामस्नेही लाल शर्मा यायावर गीत का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि गीत किसी कथात्मकता का मोहताज नहीं होता. वह भाव केंद्रित होता है,
उसकी गेयता संगीतमय भी होती है और संगीत रहित भी| वह प्रसंग निरपेक्ष स्वत: पूर्ण, भाव प्रवण, टेक आधारित, वैयक्तिक, युगीन यथार्थ से प्रभावित तथा अनेक उपरूपों में बुना हुआ होता है |
गीत के विषय-वस्तु एवं रस-प्रधानता आधारित कई भेद होते हैं- श्रृंगार गीत, वीर रस के गीत, करुणासिक्त गीत, देशप्रेम के गीत, छायावादी, रहस्यवाद के गीत, निर्वेद के गीत, प्रगतिशील गीत, विजय- गीत, युद्ध-गीत आदि | प्रगीत का अर्थ है गीति काव्य | सांस्कृतिक भ्रमवश गीत और प्रगीत में अंतर नहीं माना जाता, प्रगीत में लयात्मकता शब्दों एवं कवि व गायक के हाव-भाव, प्रस्तुतीकरण से आती है और वाद्यों के बिना ही संगीत फूटता है| प्रगीत में सौन्दर्य शब्दों के तत्वों से आता है, जबकि गीत में यह संगीत की शास्त्रीयता से पैदा होता | प्रगीत युग बोध पर आत्मानुभूति और वैयक्तिकता को वरीयता देता है, वह टेक अंतरा आदि का कट्टर अनुयायी नहीं होता | गीत की जीवन में व्याप्ति सर्वाधिक है|
इस प्रकार गीत की मूल विशेषताएं है ---
१.कवि की भावना की पूर्ण व व्यापक अभिव्यंजना ..
२.स्वतः स्फुरणा एवं भावावेशयुत अवस्था...
३.एक पद में एक ही भाव की विवृत्ति ..
४.संगीतात्मकता एवं
५. निर्बन्धता |
गीत, प्रत्येक युग में मनुष्य के साथी रहे हैं। लोकजीवन अगर कहीं अपने नैसर्गिक रूप में आज भी सुरक्षित है तो वह है गीतों में। जब तक लोक रहेगा एवं लोक जीवन रहेगा तब तक गीतों में लोकजीवन का स्पन्दन विद्यमान रहेगा एवं भविष्य में जब कभी भी सरस कविताओं की बात होगी तो उसमें गीतों का स्थान सर्वोपरि रहेगा।
आधुनिक युग में गीतों के भविष्य के बारे में प्रश्न चिन्ह लगाए जाते रहे हैं | परन्तु प्रश्न उठाने वाले भूल जाते हैं कि मानव की मूलवृत्ति में प्रेम, श्रृंगार, पीड़ा आदि भाव हैं, जब तक प्रकृति में सौंदर्य है, जगत में संवेदना का प्रवाह है, तब तक गीतों का अस्तित्व विद्यमान रहेगा। यह बात पृथक है की गीत युगानुसार अपना स्वरुप बदलते रहे हैं सजग रचनाकार सदैव परिष्कार और नवता के प्रति आग्रहशील रहते हैं यह साहित्य व काव्य का धर्म भी है | सृजनशील व्यक्ति प्रयोगशील होता है | कवि की प्रतिभा एक पूर्व निश्चित ढाँचे में संतुष्टि नहीं पाती, वह नूतन आयामों को खोजकर अभिव्यक्ति के नवीन शिल्पों, भावों, विधानों व कथावस्तु में तृप्ति पाती है| सच्चे साहित्यकार परम्परा एवं नव-प्रयोग के सामंजस्य से आगे बढ़ते हैं | आदिकाल से अधुनातन युग तक काव्य में प्रवृत्यात्मक परिवर्तन निरन्तर होता रहा है, लोकप्रियता के आधार पर कभी किसी एक काव्यरूप को प्रमुखता मिली तो कभी दूसरे को किन्तु गीत और गीतेतर कविता का विवाद इसी शताब्दी के पाँचवे दशक की उपज है। यह टकराव भी तथाकथित छांदसिक और अछांदसिक काव्य रूपों के बीच अधिक है जो केवल तुकांत छंदों को छंद समझने के भ्रम व अज्ञान के कारण है । भरत ने अत्यंत व्यापक रूप में वाक् तत्व को शब्द और काल तत्व को छन्द कहा है.....“छन्दहीनो न शब्दोSजस्त नच्छन्द शब्दवजजातम्।---अर्थात कोई शब्द या ध्वनि छन्द रहित नहीं और न ही कोई छन्द शब्द रहित है क्योंकि ध्वनि काल के बिना व्यक्त नहीं होती काल का ज्ञान ध्वनि के बिना संभव नहीं | आज की मुक्तछंद कविता को कोई 'नई कविता` नहीं कहता।
वैदिक गीत स्वर-प्रधान थे एवं छन्दों में वर्णानात्मकता प्रधान थे | लौकिक संस्कृत में लयसाम्य और नाद-सौन्दर्य युत छंद आधारित गीत परंपरा थी | लौकिक काव्य परम्परा से काव्य में वर्णानात्मकता के स्थान पर गीति-काव्यात्मकता का प्रवेश हुआ | परन्तु लय साधने हेतु गीतों व छंदों में तुकांत का प्रयोग सनातन परम्परा से प्रारम्भ हुआ| जो संस्कृत से हिन्दी में आने पर वार्णिक व मात्रिक छंद की रूढ़िवादिता के कारण धीरे-धीरे अप्रचलित होने लगी | यद्यपि तुकांत वार्णिक व मात्रिक छंदों युत गीतों का प्रयोग महाकाव्यों की लम्बी कवितायें एवं शास्त्रीय काव्य में ही रहा | लोकगीतों में तुकांत की अनिवार्यता कभी पूर्णरूप से स्थापित नहीं हुई अपितु केवल लय ही गीतों का मूलतत्व बना रहा | जो महादेवी, प्रसाद, सुमित्रानंदन पन्त आदि तक संक्षिप्त गीतों के रूप में चलती रही |
वास्तव में छायावाद के पश्चात के युग में अर्थात सत्तर के दशक में समाज की भांति साहित्य भी ठिठका हुआ था | स्वतंत्रता के पश्चात साहित्य में अंग्रेज़ी साहित्य एवं अन्य विदेशी साहित्य के प्रभाववश एवं समाज में स्वतंत्र चेतना की उत्पत्ति परन्तु विशिष्ट साहित्यिक दिशा के बिना साहित्य भी समाज की भांति दिशाहीन था ? महाकाव्यों के काल में काव्य व गीत ग्रंथों के लिए या कवियों विद्वानों की अन्तः काव्य-गोष्ठियों हेतु लिखे जाते थे अथवा छोटे संक्षिप्त लोकगीत खेतों, समारोहों या विशिष्ट पर्वों आदि में गायन हेतु | खुली काव्य-प्रतियोगिताएं आदि भी कई कई दिन तक चलने वाली होती थीँ। मंच पर कवि सम्मलेन, गोष्ठियां आदि नहीं होती थी| अतः महादेवी-प्रसाद-पन्त के संक्षिप्त भावसौन्दर्य प्रधान छायावादी गीतों के बाद, निराला के अतुकांत छंदों व गीतों की क्रान्ति के समय तक गीतों की महत्ता व उपादेयता स्पष्ट दिखाई देती रही |
छायावादोत्तर युग में बच्चन, नीरज आदि के विलंवित लम्बे लम्बे गीतों के काल में, खुले मंच पर कविता व कवि सम्मेलनों के प्रादुर्भाव के कारण जिनमें लम्बे गीतों को सुनने का किसी के पास समय नहीं था अपितु मंच हेतु हलके-फुल्के काव्य, हास्य-कविता आदि के प्रादुर्भाव के साथ ही विभिन्न सामयिक वस्तु-विषयों का कविता में प्रवेश के कारण गीतों का प्रभाव कम हुआ| कोई भी काव्य-चेतना यदि एक कालखंड से ही आबद्ध होकर रह जाए तो उससे आत्म-विकास ही अवरुद्ध नहीं होता, पूरे परिवेश की गतिशीलता से उसका परिचय भी छूट जाता है। यही कारण है कि रूढ़ गीत इस बिंदु पर जड़ीभूत हुआ परन्तु यह गीत की गतिशीलता एवं मृत्युंजय रूप ही है कि वह पारंपरिक रूप बनाए रहते हुए भी अतुकांत गीत विधा अगीत एवं तुकांत गीत विधा नवगीत के नए रूप में प्रतिष्ठित हुआ |
यह भी कहा गया कि प्रगतिवादी और नई कविता के दौर में भी बच्चन और नीरज अपने गीतों की धूम मचाते रहे किन्तु परम्परा का विकास नहीं हो पाया। इसका मूल कारण यही है कि वे लम्बे गीत थे| गीतों का लंबा होना एक दुर्गुण है इसमें भाव एक नहीं रह पाते और श्रोता भावों की भूलभुलैया में खोजाता है और भूल जाता है की वह क्या सुन रहा था | इन सभी कारणों से कविता जगत में विभिन्न प्रकार के आन्दोलनों का प्रवेश हुआ जो अकविता,नयी कविता,गद्यगीत,अतुकांत गीत एवं उसका संक्षिप्त रूप अगीत तथा तुकांत-गीत के संक्षिप्त रूप नवगीत का अवतरण हुआ| ग़ज़ल विधा के लोकप्रिय होने से भी गीतों की चमक पर प्रभाव पड़ा और यहाँ तक कहा जाने लगा कि ‘गीत मर गया’ परन्तु इस सब के बाबजूद भी हिन्दी में लोक व पारंपरिक गीत परम्परा की अजस्र धारा निरंतर प्रवाहमान रही और आज भी प्रवाहमान है | परम्परा से हटकर तुकांत व अतुकांत गीतों की एवं कविता की नवीन धाराओं के रूप में अतुकांत गीत की धारा अगीत एवं तुकांत गीत की धारा नवगीत ही आज जीवित हैं| अन्य सभी धाराएं काल के गाल में समा चुकी हैं|
अगीत अतुकांत गीत का संक्षिप्त रूप है जो गीत की मुख्य शर्त लय पर ही आधारित सामायिक आवश्यकता – संक्षिप्तता एवं तीब्र भाव-सम्प्रेषण के आधार दोहे व शेर की तर्ज़ पर रचा गया है | अगीत का एक सुनिश्चित छंद विधान “ अगीत साहित्य दर्पण “ ( ले.डा श्यामगुप्त, प्रकाशक-अखिल भारतीय अगीत परिषद्, लखनऊ) प्रकाशित होचुका है एवं तुकांत गीति विधा के भांति ही इसके विभिन्न प्रकार के विविध छंद भी सृजित किये जाचुके हैं | आज यह गीत की एक सुस्थापित विधा है |
नवगीत तो वास्तव में मूल रूप से गीत ही है गीत के पारंपरिक रूप का पुनर्नवीनीकरण | गीत और नवगीत में काव्यरूपतामक अंतर नहीं है। यह कोई नवीन विधानात्मक तथ्य भी नहीं है अपितु
पारंपरिक गीत को ही मोड़-तोड़ कर लिख दिया जाता है | इसमें मूलतः तो तुकांतता का ही निर्वाह होता
है और मात्राएँ भी लगभग सम ही होती हैं, कभी-कभी मात्राएँ असमान व अतुकांत पद भी आजाता है | इसे गीत का सलाद या खिचडी भी कहा जा सकता है | इसका स्पष्ट तथ्य-विधान भी नहीं मिलता तथा प्रायः कवि अपने निजी (ज़्यादातर काल्पनिक) अवसाद-आल्हाद को ऐकान्तिक भाव में गाता दिखाई देता है | वस्तुतः यह है पारंपरिक गीत ही जिसे टुकड़ों में बाँट कर लिख दिया जाता है | उदाहरणार्थ---- एक नवगीत का अंश है—
“जग ने जितना दिया
लेलिया /उससे कई गुना
बिन मांगे जीवन में
अपने पन का /जाल बुना |
थोपा गया
माथ पर पर्वत
हमने कहाँ चुना | --मधुकर अस्थाना का नवगीत
इसे १२-१४ या २६ मात्राओं- वाला सामान्य गीत की भाँति लिखा जा सकता है –-
जग ने जितना दिया, ११
लेलिया उससे कई गुना | १५
बिन मांगे जीवन में, १२
अपने पन का जाल बुना |१४
या
जग ने जितना दिया, लेलिया उससे कई गुना, २६
बिन मांगे जीवन में, अपने पन का जाल बुना| २६
टेक- थोपा गया माथ पर १२
पर्वत हमने कहाँ चुना || १४
या
थोपा गया माथ पर पर्वत हमने कहाँ चुना | २६
जग ने जितना दिया लेलिया उससे कई गुना || २६ --------कुछ अन्य उदाहरण देखें ---
टुकड़े टुकड़े / टूट जाएँगे १६
मन के मनके
दर्द हरा है १६ = ३२
ताड़ों पर / सीटी देती हैं
गर्म हवाएँ २४
जली दूब-सी तलवों में चुभती / यात्राएँ २४
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ २४
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है? ३२ ---- पूर्णिमा वर्मन का नवगीत ..
--- सीधा -सीधा २४ / ३२ मात्राओं का पारंपरिक गीत है ... इसे ऐसे लिखिए....
ताड़ों पर सीटी देती हैं गर्म हवाएं , २४
जली दूब सी तलवों में चुभती यात्राएं | २४
पुनर्जन्म लेकर आती हैं दुर्घटनाएं | २४
धीरे धीरे ढल जाएगा वक्त आज तक, कब ठहरा है , ३२
टुकड़े-टुकड़े टूट जायंगे मन के मनके, दर्द हरा है |
३२
कहने का अर्थ है कि गीत आज भी जीवित है, अपने पारंपरिक रूप में भी एवं विविध नवीन रूपों में भी | वर्तमान में श्री जगमोहनलाल कपूर ‘सरस, नन्दकुमार मनोचा, विनोद चन्द्र पांडे ‘विनोद’, शिव भजन ‘कमलेश’, रामाश्रय सविता, डा अपर्णा चतुर्वेदी, सुषमा सौम्या, बालसोम गौतम, शीलेन्द्र चौहान, डा रंगनाथ मिश्र सत्य, डा योगेश गुप्त, मधुकर अष्ठाना, रामदेव लाल विभोर, निर्मल शुक्ल, श्यामकिशोर श्रीवास्तव आदि अनेकों गीतकार अपने गीतों से सरस्वती का भण्डार भर रहे हैं| भविष्य में या साहित्य के इतिहास में जब कभी लयबद्ध या तुकांत सहज, सुरुचिपूर्ण गेय साहित्य, छंदों या कविता की बात होगी तो गीतों-लोकगीतों का नाम सर्वोपरि रहेगा एवं गीत के दोनों नवीन रूपों अगीत एवं नवगीत का भी महत्वपूर्ण उल्लेख अवश्य किया जाएगा | सजग रचनाकार सदैव परिष्कार और नवता के प्रति आग्रहशील रहे हैं, अभिव्यक्ति के हिसाब से परिष्कृत रचना ही साहित्य में स्थान बना पाती है| पारम्परिक गीतों से गीत के इन नये स्वरूपों की समन्वित पहचान बनी | यही कारण है, कि गीत के मर जाने की बात की गयी । गीत के नये प्रारूपों, अगीत व नवगीत, दोनों विधाओं ने न केवल प्रतिकार व जोर शोर से विरोध किया अपितु स्वयं को सक्षम व प्रभावशाली रूप में साहित्य व समाज के सम्मुख विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया |
. आज यदि हम किसी पत्रिका या पत्र या अंतरजाल पत्रिकाओं या अंतरजाल पर चिट्ठों ( ब्लोग्स-आदि ) को उठाकर देखें तो विविध रूप में कविताओं आदि के साथ साथ गीत अपने विविध रूप रंगों यथा - प्राचीन गीत, आधुनिक गीत, वैयक्तिक गीत, राष्ट्रीय गीत, श्रृंगार गीत, प्रगतिवादी गीत, नवगीत, अगीत ,प्रचार गीत, लोक शैली के गीत एवं ग़ज़ल गीत, गीतिका आदि में अपनी छटा विखेरता हुआ मिलता है | कुछ गीतों के उदाहरण देखें –----
मान भरे मौसम के, चेहरे उतरे फूलों के |
फैला जहर हवाओं में, दिन फिरे बबूलों के |
सच ने खाई मात, हौसले बढे गुनाहों के
हम प्यादे होगये बिना मंजिल की राहों के | ...गीत-सोम ठाकुर ( दैनिक जाग.)
“टूट रहा मन का विश्वास
संकोची हैं सारी /मन की रेखाएं
रोक रहीं मुझको,/ गहरी बाधाएं
अन्धकार और बढ़ रहा,
उलट रहा सारा आकाश ||” --- डा रंगनाथ मिश्र सत्य (अगीत )
लोलुप भ्रमरों की बातें क्या ,
ललचाते अतुलित शूरवीर
इस तन की कृपा प्रणय भिक्षा
हित कितने ही पद दलित हुए |
पर आज मुझे क्यों लगता है ,
संगीत फूटता कण कण से || -- (लयबद्ध षट्पदी अगीत—डा श्याम गुप्त )
जब से गीत / छुए हैं तुमने
अधरों पर भीगी थिरकन है
जब से लय / भर दी है तुमने
साँसों में भीनी सिहरन है | --नवगीत –निर्मल शुक्ल
नारी, तुम सदा ठगी जाती!
कैशोर्य उमंग और तरंगें
एक ज्वाला पर सहस्र पतंगे।
तन के उभार और गहराई
नर दृष्टि उधर दौडी आई।।
लक्ष अहेरियों में फँस जाती।
नारी तुम ! सदा ठगी जाती।।--- सुधा शर्मा का गीत (रचनाकार से )
अनेक अवरोधों के बाद भी गीत आज तक अपनी चमक दिखा रहा है| गीत अपने आप को सुनाने के लिए भी होता है यह विस्तारवादी नहीं होता| गीत का श्रृंगार है-शालीनता और संक्षिप्तता | लय आधारित होना अथवा संगीतमय लोकगीतों का ध्रुव पद पर आधारित होना गीत की विशेषता है जो इसे गीत बनाती है| गीत जो मृत्युंजय है, कालजयी है |-
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क्रमश-आलेख- 4...