....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
इतना तो खतावार हूँ मैं.... जीवन दृष्टि काव्य संग्रह से.....
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं,
दिल में उठते हुए भावों का तलबगार हूँ मैं ||
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं,
दिल में उठते हुए भावों का तलबगार हूँ मैं ||
काम दुनिया के हर रोज़ चला करते हैं,
साज जीवन के हर रोज़ सजा करते हैं|
शब्द रस रंग सभी उर में सजे होते हैं,
ज्ञान के रूप भी हर मन में बसे होते हैं |
भाव दुनिया के हवाओं में घुले रहते हैं,
गीत तो दिल की सदाओं में खिले रहते हैं |
उन्हीं बातों को लिखा करता, कलमकार हूँ मैं,
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं ||
प्रीति की बात ज़माने में सदा होती है,
रीति की बात पै दुनिया तो सदा रोती है |
बदले इंसान व तख्तो-ताज ज़माना सारा,
प्यार की बात भी कब बात नई होती है |
धर्म ईमान पै कुछ लोग सदा कहते हैं,
देश पै मरने वाले भी सदा रहते हैं |
उन्हीं बातों को कहा करता कथाकार हूँ मैं ,
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं ||
बात सच सच मैं जमाने को सुनाया करता,
बात शोषण की ज़माने को बताया करता |
धर्म साहित्य कला देश या नेता कोई ,
सब की बातें मैं जन जन को सुनाया करता |
लोग बिक जाते हैं, उनमें ही रंग जाते हैं,
भूलकर इंसां को सिक्कों के गीत गाते हैं|
बिक नहीं पाता, इतना तो खतावार हूँ मैं,
दिल की सुनता हूँ, इसका तो गुनहगार हूँ मैं|
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं,
दिल में उठते हुए भावों का तलबगार हूँ मैं ||
साज जीवन के हर रोज़ सजा करते हैं|
शब्द रस रंग सभी उर में सजे होते हैं,
ज्ञान के रूप भी हर मन में बसे होते हैं |
भाव दुनिया के हवाओं में घुले रहते हैं,
गीत तो दिल की सदाओं में खिले रहते हैं |
उन्हीं बातों को लिखा करता, कलमकार हूँ मैं,
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं ||
प्रीति की बात ज़माने में सदा होती है,
रीति की बात पै दुनिया तो सदा रोती है |
बदले इंसान व तख्तो-ताज ज़माना सारा,
प्यार की बात भी कब बात नई होती है |
धर्म ईमान पै कुछ लोग सदा कहते हैं,
देश पै मरने वाले भी सदा रहते हैं |
उन्हीं बातों को कहा करता कथाकार हूँ मैं ,
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं ||
बात सच सच मैं जमाने को सुनाया करता,
बात शोषण की ज़माने को बताया करता |
धर्म साहित्य कला देश या नेता कोई ,
सब की बातें मैं जन जन को सुनाया करता |
लोग बिक जाते हैं, उनमें ही रंग जाते हैं,
भूलकर इंसां को सिक्कों के गीत गाते हैं|
बिक नहीं पाता, इतना तो खतावार हूँ मैं,
दिल की सुनता हूँ, इसका तो गुनहगार हूँ मैं|
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं,
दिल में उठते हुए भावों का तलबगार हूँ मैं ||
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें