ब्लॉग आर्काइव
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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...
- shyam gupta
- Lucknow, UP, India
- एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त
गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009
टूथ-ब्रश वनाम नीम की दातुन .
आज प्रात जब मैं टहलने निकला तो पहले एक घर से एक लडकी मुहं मैं टूथ-ब्रश दबाये दातुन करती हुई सामने आई । मैं यह सोचते हुए जा रहा था की हम क्यों व्यर्थ मैं अनायास ही एक रसायन एवं प्लास्टिक जैसी बस्तु को मुहँ मैं चवाते है ? आगे चलकर एक मजदूर बाप-बेटे के मुहं मैं नीम की दातुन चवाते हुए दर्शन हुए ,अचानक विचार आया की अगर सभी लोग नीम की दातुन करने लग जाएँ तो शायद अरबों रुपयों की व विदेशी मुद्रा की भी बचत होगी और दांतों की भी सुरक्षा की गारंटी । फ़िर सोचा की दातुन कहाँ से आयेगी , कौन पेड़ से तोडेगा ? विचार हुआ की यह भी एक धंधा हो सकता है मंदी मैं । जैसे तमाम बच्चे , औरतें ,आदमी -तेल, पेस्ट , व्यर्थ की अंगरेजी पुस्तके आदि- आदि घर -घर बेचते घूमते हैं , या दूध ,अखबार आदि डालते हैं , वैसे ही नीम की डालोंसे दातुन तोड़ कर घर -घर बेचीं जा सकतीं हैं। है न लोकल अर्थ व्यवस्था व लघु -उद्योग की बात । बताएं क्या बात मैं दम है?
शिक्षा व राजनीति
क्या राजनीति शिक्षा को ख़राब कर रही है ? एक यक्ष प्रश्न है ? वस्तुतः यह एक दुश्चक्र होता है । भारत के स्वतंत्र होते ही प्रारंभ होगया था , चाहे अज्ञान- वश या सकारण अभिप्रायः वश --आप ध्यान दें किप्रारंभ से ही भारत का शिक्षा -मंत्री एक विशिष्ट जाति या सम्प्रदाय का रहा है , जो भारतीय भाव भूमि, उसकी बारीकियों , उसके इतिहास व मानव धर्म व्यवहारिता , नैतिकता आदि से अनजान थे । अतः तेजी से आगे बढ़ने ,अनुपयोगी सेकुलर वाद की अवधारणा के कारण शिक्षा में भारतीयता , आत्मवाद , उद्देश्यपूर्ण ज्ञान , मानववाद , विश्वबंधुत्व की उचित व्याख्या , अध्यात्म आदि को शिक्षा मैं कोई स्थान नहीं दिया गया । बस टेक्नीकल , बाजारबाद , शासन करने वाली राजनीति , जल्दी -जल्दी अमीर होने की होड़ वाली ,अभारतीय शिक्षा को तरजीह दी गयी । परिणाम स्वरुप राजनीति भ्रष्ट हुई और वह राजनीति अब शिक्षा को भ्रष्ट करके समस्त पीढी को भ्रष्ट कर रहीहै। यही दुश्चक्र तोड़ना होगा ।
अमीरी , गरीबी बेचना .
लोग उदाहरण देते हैं किगरीबी कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि जिसे सहेज कर रखाजाये, अगर बेच कर कुछ कमाई होजाए तो क्या बुरा है ?, हर चीज़ को बाज़ार मैं लाने का ही तो मामला है सब।
गरीबी दिखाने के लिए , करोड़पति बनने की क्या आवश्यकता है? लाटरी , जुआ आदि के ग़लत चलन को बढावा देने की क्या आवश्यकता है? किसी को गरीबों व गरीवी हटाने की चिंता नहीं है। बस अपनी गरीबी हटाने की चिंता है।
गरीबी दिखाने के लिए , करोड़पति बनने की क्या आवश्यकता है? लाटरी , जुआ आदि के ग़लत चलन को बढावा देने की क्या आवश्यकता है? किसी को गरीबों व गरीवी हटाने की चिंता नहीं है। बस अपनी गरीबी हटाने की चिंता है।
मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009
स्लम डाग मिलोनेअर --को ८ आस्कर .
आख़िर कार उनहोंने यह सिद्ध कर ही दिया किहिन्दी मैं नहीं , अंगरेजी मैं ही उपन्यास लिखें ,अंगरेजी मैं ही फ़िल्म बनाएं , अंगरेजी डायरेक्टर ही बनाए ,चाहे हिन्दुस्तानी कहानी /फ़िल्म मसाला हो , तभी कोई पुरस्कार मिलेगा ? हिन्दी या भारत बालों को फ़िल्म बनाना आता ही नहीं।
भारतीय संगीत तो सदा से सर्वोपरि है ही ,उसे प्रमाण की कब आवश्यकता थी।
भारतीय संगीत तो सदा से सर्वोपरि है ही ,उसे प्रमाण की कब आवश्यकता थी।
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
महा शिवरात्रि पर विशेष .
शिव का अर्थ है 'कल्याण ', शिव कल्याण के देवता हैं। विष्णु -पालक हैं , ब्रह्मा -सृष्टि के । वास्तव मैं यह तीन -सृष्टि, समाज, व संसार की नियामक शक्तियां हैं। तथा ये सदा ही समाज मैं रहते हैं। शिव -भावः --अर्थात वे शक्तियां जो सहज एवं सबका कल्याण ही चाहतीं हैं, चाहे वह जैसा भी हो , उनके स्वयं के कर्मों का वे स्वयं ही फैसला करें। ये लोग या भाव या शक्तियां, विचार शिव की भांति भोले -भंडारी की तरह सब का ही समन्वय व भला सोचते व करने की कोसिस करते हैअधिक आगे के सोच विचार के सब को वरदान दे देते हैं। समताबादी सब चलता है, ये भी तो मानव हैं ,आदि सोचवाले संगठन ,व्यक्ति शिव ही हैं।
परन्तु विष्णु -भावः अर्थात -शासन ,धर्म आदि नियामक सत्ताएं, संस्थायें, व लोग व विचार -जिन्हें समाज चलाना है, जो आज या भविष्य मैं मानव या संसार के व्यवहार आदि के उत्तरदायी ठहराया जायेगा , वे हर तरह के साम, दाम, दंड, विभेद द्वारा ,व्यक्ति व समाज को नियमित करने के लिए कठोर ,सुद्रढ़ नियमों पर चलाने का प्रयत्न करते हैं ।
ब्रह्मा --अर्थात -शाश्वत नियम-नीति , क़ानून बनाने वालीं संस्थायें या लोग व सत्ताएं या विचार -समाज को
कायदे मैं रखने वाले तथ्य देते हैं।
शक्ति - अर्थात विशेसग्य ,प्रोफेशनल लोग ,संस्थायें, व विचारशीलता भाव -जो उपरोक्त तीनों को कल्याण कारी मार्ग पर चलने को प्रेरित व राहें बतातीं हैं । तभी सभी देवताओं की शक्ति रूप पत्नियां लक्ष्मी ,पार्वती व ब्रह्माणी हैं । शक्ति -अर्थात विशेसग्य -पॉवर ,इनर्जी के विना कोई कार्य नहीं कर सकता ।
शिव -देवाधिदेव हैं क्योंकि प्रत्येक कार्य मैं जब तक कल्याण -भाव नहीं सम्मिलित होगा ,वह कार्य -अकर्म ही माना जायेगा । प्रत्येक कार्य को -ब्रह्मा, विष्णु ,महेश की भांति -सत्यम, शिवम्, सुन्दरम होना चाहिए , तभी वह 'कृतित्व ' होता है। अतः समाज के तीनों विभागों को आपस मैं तालमेल से कार्य करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को भी इन सभी की आराधना करनी मम चाहिए । तभी तो राम चरित मानस मैं राम कहते हैं-- ।
मम -द्रोही ,शिव दास , शिव - द्रोही , मम दास ,
ते नर करहिं कल्प भर ,घोर नरक मंह वास।
यही शिवत्व -तत्व है। भारतीय व हिंदुत्व की सामाजिकता -भाव , समन्वयता -भाव ,विश्वत्व भाव ।
परन्तु विष्णु -भावः अर्थात -शासन ,धर्म आदि नियामक सत्ताएं, संस्थायें, व लोग व विचार -जिन्हें समाज चलाना है, जो आज या भविष्य मैं मानव या संसार के व्यवहार आदि के उत्तरदायी ठहराया जायेगा , वे हर तरह के साम, दाम, दंड, विभेद द्वारा ,व्यक्ति व समाज को नियमित करने के लिए कठोर ,सुद्रढ़ नियमों पर चलाने का प्रयत्न करते हैं ।
ब्रह्मा --अर्थात -शाश्वत नियम-नीति , क़ानून बनाने वालीं संस्थायें या लोग व सत्ताएं या विचार -समाज को
कायदे मैं रखने वाले तथ्य देते हैं।
शक्ति - अर्थात विशेसग्य ,प्रोफेशनल लोग ,संस्थायें, व विचारशीलता भाव -जो उपरोक्त तीनों को कल्याण कारी मार्ग पर चलने को प्रेरित व राहें बतातीं हैं । तभी सभी देवताओं की शक्ति रूप पत्नियां लक्ष्मी ,पार्वती व ब्रह्माणी हैं । शक्ति -अर्थात विशेसग्य -पॉवर ,इनर्जी के विना कोई कार्य नहीं कर सकता ।
शिव -देवाधिदेव हैं क्योंकि प्रत्येक कार्य मैं जब तक कल्याण -भाव नहीं सम्मिलित होगा ,वह कार्य -अकर्म ही माना जायेगा । प्रत्येक कार्य को -ब्रह्मा, विष्णु ,महेश की भांति -सत्यम, शिवम्, सुन्दरम होना चाहिए , तभी वह 'कृतित्व ' होता है। अतः समाज के तीनों विभागों को आपस मैं तालमेल से कार्य करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को भी इन सभी की आराधना करनी मम चाहिए । तभी तो राम चरित मानस मैं राम कहते हैं-- ।
मम -द्रोही ,शिव दास , शिव - द्रोही , मम दास ,
ते नर करहिं कल्प भर ,घोर नरक मंह वास।
यही शिवत्व -तत्व है। भारतीय व हिंदुत्व की सामाजिकता -भाव , समन्वयता -भाव ,विश्वत्व भाव ।
रविवार, 22 फ़रवरी 2009
हिन्दी भाती नहीं या मिलती नहीं ? हिन्दुस्तान २०-०२-०९
सत्य यही है की युवाओं को बताया ही नहीं गया की अच्छा साहित्य या साहित्य होता ही क्या है ,कार्पोरेट सेक्टर पर लिखी 'ब्रेक के बाद ' या चेतन भगत व शिव खेडा की कितावें साहित्य नहीं अपितु युवाओं को उड़ान व सपने बेच कर अपना धंधा कर उल्लू सीधा करने का बाजारवाद है , अंग्रेजियत का हिन्दीकरण है । साहित्य --असाहित्य ,साहित्य ,व सत्साहित्य होता है। प्रोफेशनल , विषय पर या बाज़ार मैबेचने के लिए ही लिखागया तथा फ़िल्म हिट होनेपर देवदास आदि का बिकना सब -असाहित्य बढावा है । शोभा डे ,खुसबंत सिंह आदि वास्तव मैं कनेक्ट फेक्टर ही हैं ,साहित्यकार नहीं । युवा वन सिटिंग बुक चाहते हैं हिन्दी मै । क्यों हों ?साहित्य समाज को कुछ देने वाला , सुधार की बात ,आप क्या ग़लत कर रहे हैं ,बताने वाला होता है । टाइम पास करने को नहीं । सत्साहित्य -आपको क्या करना चाहिए -क्या नहीं ,यह कहता है ,वन सिटिंग तमासा नहीं ,जो असाहित्य होता है।
क्या ही खूब कहा है आलोचक वीरन्द्र यादव ने साहित्य और पल्प मैं अन्तर रहना ही चाहिए । साहित्य तेजी से नहीं बदल सकता और क्यों बदले वह कोई फेशन या अंग प्रदर्शन या कपडा नहीं है जो आपको अच्छा लगने के लिए बदलता रहे । वह समाज को स्थायित्व देने वाला अंग है । सही है लेखक का काम मार्केटिंग व प्रचार करना नहीं है , पब्लिशरों का है ,पर वे तो धंधे मैं लगे हैं ,चाहे अपना देश, अपनी भाषा ,अपनी संस्कृति को ही क्यों न बेचना पड़े ।
सब धंधे का , बाज़ार का, पैसे का खेल है , क्योंकि हमारी पीढी ने तेज़ी से दौड़ , के चक्कर मैं अगली
पीढी को ,साहित्य, संस्कृति , देश, राष्ट्र , सही -ग़लत का चुनाव करने की द्रष्टि प्रदान नहीं की। हमारी पीढी को जो अच्छा लगता है वह करती जाती है और जब ग़लत होता है तो हम चिल्लाने के सिवा और कुछ नहीं कर पाते । इसे कहते हैं अपने पेरों पर कुल्हाडी मारना । अब तो चेतें । हिन्दी साहित्य पढ़ें और युवा अपनी पहली पीढी को
क्षमा करके स्वयं को सुधारें ,अपनी अगली पीढी के लिए।
क्या ही खूब कहा है आलोचक वीरन्द्र यादव ने साहित्य और पल्प मैं अन्तर रहना ही चाहिए । साहित्य तेजी से नहीं बदल सकता और क्यों बदले वह कोई फेशन या अंग प्रदर्शन या कपडा नहीं है जो आपको अच्छा लगने के लिए बदलता रहे । वह समाज को स्थायित्व देने वाला अंग है । सही है लेखक का काम मार्केटिंग व प्रचार करना नहीं है , पब्लिशरों का है ,पर वे तो धंधे मैं लगे हैं ,चाहे अपना देश, अपनी भाषा ,अपनी संस्कृति को ही क्यों न बेचना पड़े ।
सब धंधे का , बाज़ार का, पैसे का खेल है , क्योंकि हमारी पीढी ने तेज़ी से दौड़ , के चक्कर मैं अगली
पीढी को ,साहित्य, संस्कृति , देश, राष्ट्र , सही -ग़लत का चुनाव करने की द्रष्टि प्रदान नहीं की। हमारी पीढी को जो अच्छा लगता है वह करती जाती है और जब ग़लत होता है तो हम चिल्लाने के सिवा और कुछ नहीं कर पाते । इसे कहते हैं अपने पेरों पर कुल्हाडी मारना । अब तो चेतें । हिन्दी साहित्य पढ़ें और युवा अपनी पहली पीढी को
क्षमा करके स्वयं को सुधारें ,अपनी अगली पीढी के लिए।
बाप रे बाप -नक्कारखाना --हिन्दुस्तान २०-०२-२००९
क्या बात है ! भारतीय पिता न हुआ , हर भारतीयता की तरह जल्लाद , लुटा पिटा मूर्ख विषय होगया । यह वास्तव मैं ही नक्कारखाना है। पिटाई स्ट्रेस -बस्टरकी तरह है, भारतीय पिताके लिए । यानी यह भी परम्परा है तथा भारतीय जो गरियाने के ही काविल है सभी भारतीय बातों की तरह । कब उतारें गे अंगरेजी का काला चश्मा ? यदि सदा से ही भारतीय बाप पीटते आए हैं तो बच्चे आज अधिक क्यों बिगड़ रहे हैं ? लेखक महोदय आज कितने बाप पीट पाते हैं बच्चों को ? क्या योरोपीय व अमेरिका मैं बच्चों को पीटने पर क़ानून बनाने का यह अर्थ नहीं है की वहाँ बच्चों पर ज्यादा कडाई व जुल्म किए जाते हैं ? फ़िर भी सभी पश्चिमी देशों में बच्चे बिगडे हुए हैं । अगर पिता , माता , गुरु आदि की रोक-टोक व अवश्यक्तावश पिटाई भी ,भारत मैं भी रुक गयी तो यहाँ भी स्कूली बच्चे गोली चलाने लगेंगे , यह प्रारम्भ भी हो रहा है आप के जैसे लेखों से। पुनः सोचिये भारतीय चश्मे से जो बीस हज़ार साल का अनुभव वाला है , नाकि पश्च चश्मा जो अभी ३०० वर्ष का ही है।
मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009
आधुनिक मनु-स्मृति --श्याम स्मृति
वह दिन रात ,जी तोड़कर ,
सुख चैन छोड़कर ,
सुख साधन के ,
उपकरण बनाने मैं जुटा है ;
ताकि जी सके सुख चैन से।
वह कमाता था ,चार पैसे ,
खाने को दो रोटी ।
अब वह कमाता है ,
चार सौ रुपये ,
पर खा पाटा है ,
वही दो रोटी।
वह दिन रात खटती थी ,
पति /पुरुषः की गुलामी मैं।
आज वह मुक्त है ,
सिनेमा /टी.वीआर्टिस्ट है ;
दिन देखती है न रात ,
हाड तोड़ श्रम करती है ,
अंग प्रदर्शन करती है ,
पैसे की / पुरूष की गुलामी मैं।
वह बंधन मैं थी ,
बंटकर,
माँ ,पुत्री ,पत्नी के रिश्तों मैं ।
अब वह मुक्त है ,बटने के लिए
किश्तों मैं ।
वे चलते थे ,
पिता के ,अग्रजों के पदचिन्हों पर ,
ससम्मान ,सादर ,सानंद ,
आग्यानत होकर ,
देश, राष्ट्र ,समाज उन्नति हित ;
सुपुत्र कहलाते थे ।
आज वे पिता को ,अग्रजों को ,
मनमर्जी से चलाते हैं ;
एन्जॉय करने के लिए ,
अवग्यानत होकर ,
स्वयं को अडवांस बताते हैं ,
'सन्नी ' कहलाते हैं।
सुख चैन छोड़कर ,
सुख साधन के ,
उपकरण बनाने मैं जुटा है ;
ताकि जी सके सुख चैन से।
वह कमाता था ,चार पैसे ,
खाने को दो रोटी ।
अब वह कमाता है ,
चार सौ रुपये ,
पर खा पाटा है ,
वही दो रोटी।
वह दिन रात खटती थी ,
पति /पुरुषः की गुलामी मैं।
आज वह मुक्त है ,
सिनेमा /टी.वीआर्टिस्ट है ;
दिन देखती है न रात ,
हाड तोड़ श्रम करती है ,
अंग प्रदर्शन करती है ,
पैसे की / पुरूष की गुलामी मैं।
वह बंधन मैं थी ,
बंटकर,
माँ ,पुत्री ,पत्नी के रिश्तों मैं ।
अब वह मुक्त है ,बटने के लिए
किश्तों मैं ।
वे चलते थे ,
पिता के ,अग्रजों के पदचिन्हों पर ,
ससम्मान ,सादर ,सानंद ,
आग्यानत होकर ,
देश, राष्ट्र ,समाज उन्नति हित ;
सुपुत्र कहलाते थे ।
आज वे पिता को ,अग्रजों को ,
मनमर्जी से चलाते हैं ;
एन्जॉय करने के लिए ,
अवग्यानत होकर ,
स्वयं को अडवांस बताते हैं ,
'सन्नी ' कहलाते हैं।
रविवार, 15 फ़रवरी 2009
डार्विनवाद , जो जीवे सो खेले फाग - हिन्दुस्तान १५.२.०९
म्रणाल पांडे लिखतीं हैं कि गाँवके किसान परम्परावादी खेती छोड़कर प्रयोगमुखी खेती कर रहे हैं। यह एक अच्छी बात है । परन्तु वे इस बहाने भारतीय परम्पराबादको कोसती हैं कि इससे हम रीड़ हीन अमीवाबन जायेंगे , हम कहते हैं कि हम सबल परम्परा वाले लोग हैं पर चुनौती की घड़ी मैं सींग पूँछ दिखाकर घोंघा बसंत बन जाते हैं ; अर्थात वही ढाक के तीन पात ; अर्थात भारत की सांस्कृतिक विविधता, एकता व परम्परा पर आक्षेप का पुराना सिलसिला। उनका ज्ञान सतही है। वाक्यों के अर्थ --शाव्दिक, भावार्थ, वास्तविक अर्थ ,व तात्विक चार प्रकार से होते हैं। वही परम्परा के लिए भी है।
परम्परा दो प्रकार से समझ नी चाहिए --अज्ञान- अर्थात सांसारिक बस्तुपरक भाव मैं। एवं ज्ञान -अर्थात मानवता ,विचारशीलता , शास्त्रीयता , नीति, समाज , नियम- निषेध , उचित- अनुचित के निर्णय के लिए ।
ज्ञान के भाव -व्यवहार मैं -परम्पराओं के तहत चलना ,उन पर विशवास करना उचित है, क्योंकि वे अनुभव , तत्थ्य ज्ञान व व्यवहारिक ज्ञान की कसौटी पर लंबे समय तक कसने पर बनातीं हैं। परन्तु सांसारिक-भौतिक बस्तुओं के -अर्थ, व्यापार, खेती ,विपणन ,क्रय ,कानून , आदि मैं परम्पराएं --समय ,स्थान , आवश्यकता ,नवीन आविष्कार के साथ प्रगतिवादी व अग्रगामी होनी चाहिए । यही परम्परा का तात्विक अर्थ है। यही भारतीयताहै, जो अति शक्तिशाली है। सत्य ही है हम क्यों बगैर सोचे समझे ,भारतीयता की कसौटी पर कसे उदारवादी अर्थ व्यवस्था व भू मंडली करण के समुन्दर मैं क्यों उतरें। बाज़ार का हाल तो आप देख ही चुकीं हैं, भारत पर ही सबसे कम असर है, सारी दुनिया डूबी। यह भारतीय परम्परा का ही कमाल था। डार्विनवाद , भौतिक वाद के लिए है , न कि मानव व्यवहार के लिए । वैसे अब यह भी पुरानीबात होगई, अब डार्विनवाद भी सर्वमान्य नहीं रहा।
घबराइये नहीं मृणालजी , न हम अमीवा बनेंगे ,न लुप्त होंगे । क्योंकि --
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन दौरे -जहाँ हमारा।।
परम्परा दो प्रकार से समझ नी चाहिए --अज्ञान- अर्थात सांसारिक बस्तुपरक भाव मैं। एवं ज्ञान -अर्थात मानवता ,विचारशीलता , शास्त्रीयता , नीति, समाज , नियम- निषेध , उचित- अनुचित के निर्णय के लिए ।
ज्ञान के भाव -व्यवहार मैं -परम्पराओं के तहत चलना ,उन पर विशवास करना उचित है, क्योंकि वे अनुभव , तत्थ्य ज्ञान व व्यवहारिक ज्ञान की कसौटी पर लंबे समय तक कसने पर बनातीं हैं। परन्तु सांसारिक-भौतिक बस्तुओं के -अर्थ, व्यापार, खेती ,विपणन ,क्रय ,कानून , आदि मैं परम्पराएं --समय ,स्थान , आवश्यकता ,नवीन आविष्कार के साथ प्रगतिवादी व अग्रगामी होनी चाहिए । यही परम्परा का तात्विक अर्थ है। यही भारतीयताहै, जो अति शक्तिशाली है। सत्य ही है हम क्यों बगैर सोचे समझे ,भारतीयता की कसौटी पर कसे उदारवादी अर्थ व्यवस्था व भू मंडली करण के समुन्दर मैं क्यों उतरें। बाज़ार का हाल तो आप देख ही चुकीं हैं, भारत पर ही सबसे कम असर है, सारी दुनिया डूबी। यह भारतीय परम्परा का ही कमाल था। डार्विनवाद , भौतिक वाद के लिए है , न कि मानव व्यवहार के लिए । वैसे अब यह भी पुरानीबात होगई, अब डार्विनवाद भी सर्वमान्य नहीं रहा।
घबराइये नहीं मृणालजी , न हम अमीवा बनेंगे ,न लुप्त होंगे । क्योंकि --
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन दौरे -जहाँ हमारा।।
करीव से देखें --हमारी परम्पराएं. -हिन्दुस्तान १५.२.०९
काली, दुर्गा, शिव ,देवी, देवता , रजा- महाराजा -- कब शराव का पान करते थे? कहाँ लिखा है? राम- सीता आदि के उदाहरण भी असत्य व प्रक्षिप्त है.यह एक बहुत बड़ी बहस का मुद्दा है।
फिलहाल हम यह मान भी लें की राम ने सीता को मैरेयतथा कथित सुरा , पिलाई ; तो वह उनका व्यक्तिगत मामला था, क्योंकि वह अपने घर मै व बेडरूम की बात है। सभी जानते हैं की अपने कपडों के अन्दर सब नंगे होते है। सभी अपनी पत्नी या प्रेमिका के साथ सोते हें उसकी इच्छा से , पर अपने कमरे मै , बाहर पब, होटल, सड़क आदि सार्वजनिक जगह पर नहीं। यह समाज व क़ानून के ख़िलाफ़ है।
सुरा , शराब नहीं है । फ़िर सुरा की दुकानें होने से ,सुरा पान अच्छाई थोड़े ही बन जायेगा ,कब?, कहाँ?, किसने? शराव को अच्छा कहा है? कब व किस युग व काल व समाज मैं शराब को मान्यता मिली है?
कौटिल्य के अर्थशास्त्र मैं ८४ तरह की सुरा का वर्णन -- वह सब आज भी चिकित्सशास्त्रों , व होटलों की बुक्स मैं मिल जायेगा , इससे क्या? क्या शराव पीना अच्छा होजायेगा? बुराइयां, बुरे लोग, बुरी बस्तुएं समाज व संसार मैं सदा ही रहतीं हैं, इससे वे अच्छी व अपनाने योग्य थोड़े ही बन जातीं हैं।
यह एक व्यर्थ का आलेख है , जो सिर्फ़ लिखने ,छपने व धंधे के लिए है। या भारतीय, व हिन्दू विरोधी प्रचार का भाग , न की कोई सार्थक तत्त्व के लिए। सम्पादकों , समाचार पत्रों को ऐसे सतही ज्ञान के आलेखों से बचना चाहिए।
फिलहाल हम यह मान भी लें की राम ने सीता को मैरेयतथा कथित सुरा , पिलाई ; तो वह उनका व्यक्तिगत मामला था, क्योंकि वह अपने घर मै व बेडरूम की बात है। सभी जानते हैं की अपने कपडों के अन्दर सब नंगे होते है। सभी अपनी पत्नी या प्रेमिका के साथ सोते हें उसकी इच्छा से , पर अपने कमरे मै , बाहर पब, होटल, सड़क आदि सार्वजनिक जगह पर नहीं। यह समाज व क़ानून के ख़िलाफ़ है।
सुरा , शराब नहीं है । फ़िर सुरा की दुकानें होने से ,सुरा पान अच्छाई थोड़े ही बन जायेगा ,कब?, कहाँ?, किसने? शराव को अच्छा कहा है? कब व किस युग व काल व समाज मैं शराब को मान्यता मिली है?
कौटिल्य के अर्थशास्त्र मैं ८४ तरह की सुरा का वर्णन -- वह सब आज भी चिकित्सशास्त्रों , व होटलों की बुक्स मैं मिल जायेगा , इससे क्या? क्या शराव पीना अच्छा होजायेगा? बुराइयां, बुरे लोग, बुरी बस्तुएं समाज व संसार मैं सदा ही रहतीं हैं, इससे वे अच्छी व अपनाने योग्य थोड़े ही बन जातीं हैं।
यह एक व्यर्थ का आलेख है , जो सिर्फ़ लिखने ,छपने व धंधे के लिए है। या भारतीय, व हिन्दू विरोधी प्रचार का भाग , न की कोई सार्थक तत्त्व के लिए। सम्पादकों , समाचार पत्रों को ऐसे सतही ज्ञान के आलेखों से बचना चाहिए।
पिंक चड्डी आन्दोलन -निशा सुसान का इन्टरव्यू .
कोई उद्देश्य नहीं ,चड्डी के नाम के पीछे भी वे कोई अभिप्राय नहीं बता पातीं हैं , आगे का भी आपको कुछ नहीं पता , सब जान सकते हैं कि मानसिकता मैं जो बात गहरी जमी होती है जुवा न पर आ ही जाती है। जब मानसिकता मैं चड्डी , पब, देह , होटल आदि बने रहेंगे तो चड्डी के अलावा और क्या सूझेगा?
उनका कहना है -अच्छे व्यवहार की शर्तें , माता, पिताव समाज तय करता है। जो लडकियां पब मैं शराव पीने जातीं हैं , वे या तो माता -पिता से छिपकर या उनके माता- पिता भी वैसे ही होते हैं और वे क्या मना कर पायेंगे । क्या राम सेना के लोग समाज के लोग नहीं हैं? आज पुलिस , सरकार , राज्य किस बुराई को रोक पाती है? जब ये असफल होते हैं तभी सामाजिक संगठनों को व जन समुदाय को सब अपने हाथ मैं लेना पड़ता है । सामाजिक बुरी या अच्छाई के लिए जन समुदाय का ही कोई अंग खडा होता है। क्यों सिगरेट, सफाई, परिवार नियोजन आदि के लिए ऐक्ट्रेस, हीरो , हीरोइन्स से टी वी आदि पर कहलवाया जाता है?क्या वे समाज, या माता ,पिता हैं या सरकार , या पुलिस या ठेकेदार। ; क्यों शराव के ख़िलाफ़ मंत्रीजी क़ानून बनाते हैं? यदि निश्चय करने व टोकने का अधिकार सिर्फ़ कानून को है तो आपको किसी को गुंडा कहने का अधिकार किसने दिया? कानून को अपना काम करने दीजिये ,पर स्वयं आपका ही कानून पर विश्वास नहीं है, बस हिन्दू संगठन जो कहें usakaa virodh karnaa , व अपना नाम व अखवार मैं छाजाने का ही उपक्रम है यह सब।
उनका कहना है -अच्छे व्यवहार की शर्तें , माता, पिताव समाज तय करता है। जो लडकियां पब मैं शराव पीने जातीं हैं , वे या तो माता -पिता से छिपकर या उनके माता- पिता भी वैसे ही होते हैं और वे क्या मना कर पायेंगे । क्या राम सेना के लोग समाज के लोग नहीं हैं? आज पुलिस , सरकार , राज्य किस बुराई को रोक पाती है? जब ये असफल होते हैं तभी सामाजिक संगठनों को व जन समुदाय को सब अपने हाथ मैं लेना पड़ता है । सामाजिक बुरी या अच्छाई के लिए जन समुदाय का ही कोई अंग खडा होता है। क्यों सिगरेट, सफाई, परिवार नियोजन आदि के लिए ऐक्ट्रेस, हीरो , हीरोइन्स से टी वी आदि पर कहलवाया जाता है?क्या वे समाज, या माता ,पिता हैं या सरकार , या पुलिस या ठेकेदार। ; क्यों शराव के ख़िलाफ़ मंत्रीजी क़ानून बनाते हैं? यदि निश्चय करने व टोकने का अधिकार सिर्फ़ कानून को है तो आपको किसी को गुंडा कहने का अधिकार किसने दिया? कानून को अपना काम करने दीजिये ,पर स्वयं आपका ही कानून पर विश्वास नहीं है, बस हिन्दू संगठन जो कहें usakaa virodh karnaa , व अपना नाम व अखवार मैं छाजाने का ही उपक्रम है यह सब।
शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009
ल.वि.वि. ,फूल और वलेंटाइन डे--
ल.वि.वि। प्रशासन ने परिसर मैं गुलदस्ता लाने पर प्रतिबन्ध लगाया है।, क्यों ? यदि यही काम हिंदू संगठन करें तो इन प्रगतिबादी लोगो को ग़लत लगता है। यदि वि.वि। चाहता है तो कहीं कुछ उचित होगा। इधर कोई राजेन्द्र घोड्पकरकहते हैं की श्री राम सेना के लोग आदमी नहीं , उनका विरोध शराब से नहीं महिलाओं से है, मुझे तो एइसे लोग ही आदमी नहीं लगते, जो यह भी नहीं सोच पाते कियदि पहले किसी ने कोई कार्य नहीं किया तो वह आगे नहीं किया जायेगा , क्या एइसे लोग अपनी बेटियों व बहुओं को शराब पीने व बेचने पबों मैं भेजते हैं? ये लोग सिर्फ़ इसलिए लिखते हैं कि अखवार मैं छपे । सब बाज़ारबाद का धंधा है।
दूसरे तरफ़ अखिलेश आर्येंदु लिखते हैं कि लाभ शुभ है या नहीं यह देखना ही चाहिए , सामाजिक। आर्थिक, मानसिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक, अध्यात्मिक और मानवीय व्यवस्था को शुभ व संतुलित रखने के लिए हर हाल मैं शुभ को ही लाभ बनाना होगा। बधाई के पात्र हैं साफ- साफ़ लिखने वाले।
पल्लवी भटनागर- मनोचिकित्सक ल.वि.वि। कहती हैं पहले न लव मर्रिजें अधिक होतीं थीं ,न तलाक - बहुत सारगर्भित आलेख है,महिलायों की उच्छ्सृन्ख्लता बढ़ने से ही समाज मैं गन्दगी फेलती है, और हवा देने वाले ऐसे ही प्रगतिवादी लोग ।
शास्त्रों का कथन है कि मनोरंजन कभी भी कमाई का साधन नहीं होना चाहिए ,अतः खेल, व मनोरंजन के साधन सिर्फ़ व्यक्तिगत मनोरंजन तक ही सीमित रहने चाहिए , बाज़ार मैं नहीं आने चाहिए , इधर पहली बार कुड़ी-डी.जे। ,एवं टीवी। चेनलों पर बच्चों के उल जुलूल प्रोग्रामों का सिलसिला अर्थात वही धंधा -करने का धंधा , चाहे जो भी करना पड़े .
यह सिर्फ़ बाज़ार बाद ही है और कुछ नहीं । सामाजिक सरोकार से किसे मतलब है ? लाभ होना चाहिए --शुभ हो या न हो !
दूसरे तरफ़ अखिलेश आर्येंदु लिखते हैं कि लाभ शुभ है या नहीं यह देखना ही चाहिए , सामाजिक। आर्थिक, मानसिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक, अध्यात्मिक और मानवीय व्यवस्था को शुभ व संतुलित रखने के लिए हर हाल मैं शुभ को ही लाभ बनाना होगा। बधाई के पात्र हैं साफ- साफ़ लिखने वाले।
पल्लवी भटनागर- मनोचिकित्सक ल.वि.वि। कहती हैं पहले न लव मर्रिजें अधिक होतीं थीं ,न तलाक - बहुत सारगर्भित आलेख है,महिलायों की उच्छ्सृन्ख्लता बढ़ने से ही समाज मैं गन्दगी फेलती है, और हवा देने वाले ऐसे ही प्रगतिवादी लोग ।
शास्त्रों का कथन है कि मनोरंजन कभी भी कमाई का साधन नहीं होना चाहिए ,अतः खेल, व मनोरंजन के साधन सिर्फ़ व्यक्तिगत मनोरंजन तक ही सीमित रहने चाहिए , बाज़ार मैं नहीं आने चाहिए , इधर पहली बार कुड़ी-डी.जे। ,एवं टीवी। चेनलों पर बच्चों के उल जुलूल प्रोग्रामों का सिलसिला अर्थात वही धंधा -करने का धंधा , चाहे जो भी करना पड़े .
यह सिर्फ़ बाज़ार बाद ही है और कुछ नहीं । सामाजिक सरोकार से किसे मतलब है ? लाभ होना चाहिए --शुभ हो या न हो !
शनिवार, 7 फ़रवरी 2009
कला प्रदर्शनी --हिन्दुस्तान ०७-०२-०९.
कम्पोजीशन -टू , मूड-थ्री , सेंड - स्टोन ; वही कलाकृति हिन्दुस्तान मैं सोच विचार अंग्रेजी मैं , अंग्रेजी गुलामी व हीन -भावना से हम कब मुक्त होंगे ? कब कलाकार आदि भारतीय बनेंगे ? व्यर्थ के अपरिपक्व चित्रों द्वारा कला का अपमान करते व सहते रहेंगे। एक मात्र पेंटिग 'स्तव्ध 'ही यथार्थ चित्रकारी है सीता विस्वकर्मा जी बधाई की पात्र हैं । दर्पण पर लगी धूल को बार -बार हटाना पड़ता है। तभी नए युगबोध व सामयिक अर्थ प्राप्त होते हैं ,व प्रगति की भूमिका बनते हैं। हम कब सुधरेंगे ,कब अपने स्वयं के विचार बनायेंगे ?, गुलामी से मुक्त होंगे?
पब ,प्रेम और सेना --हिन्दुस्तान --०७-०२-२००९
लेखक ने लिखा है कि लड़कियों पर अत्याचार करने वाले ---- ये तथाकथित प्रगतिवादी नहीं सोच पाते कि -पब में जाने वाली ,शराव पीने वालीं ,नग्न नृत्य करने वालीं लड़कियां नहीं -शूर्पन्खायें होतीं हैं, ताडका - होतीं हैं। दंड देना अत्यावश्यक है। बुराई को नव कालिका स्तर पर ही समाप्त करदेना ही अच्छे राज्य ,समाज व शाशन का कर्तव्य है , अन्यथा जड़ों के जम जाने पर स्वीकारने की मजबूरी लगने लगती है। ताडका का बध, शूर्पनखा का दंड का यही अर्थ है। वास्तविक ज्ञानी ,विचारक , चिन्तक व समाज सुधारक सोचें ,मनन करेंव समाज व मानवता को सही दिशा का युगवोधप्रदान करें
वसंतोत्सव , होली आदि का अर्थ - यह नहीं है किसड़कों पर हाथ मैं हाथ दाल कर घूमें व पब मैं शरावपियें । अति -स्वच्छंदता एवं खेलों पर अत्यधिक महत्व देने के कारण ही रोमन तथा मध्यकालीन प्राच्य भारतीय संस्कृति का विनाश सम्भव हुआ । क्या हम फ़िर वहीं जाना चाहते हैं ।
वसंतोत्सव , होली आदि का अर्थ - यह नहीं है किसड़कों पर हाथ मैं हाथ दाल कर घूमें व पब मैं शरावपियें । अति -स्वच्छंदता एवं खेलों पर अत्यधिक महत्व देने के कारण ही रोमन तथा मध्यकालीन प्राच्य भारतीय संस्कृति का विनाश सम्भव हुआ । क्या हम फ़िर वहीं जाना चाहते हैं ।
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