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अब और देखिये ---ये अखवार वाले ७३ साल से बदलाव का सपना नव जवानों के साथ देखरहे हैं ,अब सलाम भी कर रहे हैं परन्तु देश वहीं का वहीं है।अपितु नीचे और नीचे जा रहा है । ये कहानियां हम ६२ वर्ष से सुन रहे हैं।ये जितने भी युवाओं के चित्र अखवार दे रहे हैं,सब मुंह में चांदी -सोने की चाम्मच लेकर पैदा हुए हैं ,कोई संघर्ष करके नहीं आए है "विक्रम टीले पर चढ़ा ,ग्वालाविक्रम होय"; क्या हुआ जो आज बड़ी-बड़ी मंजिलें हैं,माल्स हैं,मोबाइल,टीवी,ऐ सी हैं,--कीचड,गन्दगी,बदबूदार नालियां,रास्ते ,पानी भरी सड़कें,उफनते सीवर ,मुख्य सडकों पर कूदे के ढेर पर घूमते सूअर तो वही हैं बल्कि पहले से अधिक (मैंने बचपन में शहरों में इतनी गन्दगी नहीं देखी ,सड़कें ,गलियाँ साफ़-सुथरी होतीं थीं। आपको भी याद होगा) ही हैं। वही राजनीति की दशा व दिशा? अतः ये सब कहानियां भ्रामक हैं ।
हमें न युवा,न प्रोढ़ ,न वृद्ध --हमें चाहिए संसकारित,संयमी,स्वयं को,आत्म व संसार दोनों को समुचित रूप से जानने वाले अच्छे इंसान। वे चाहे युवा हों,प्रोढ़ या वृद्ध ---अच्छे इंसान चाहिए। वस्तुतः होना ये चाहिए----युवा ,कार्य करें ;प्रौढ़ ,निर्देशन करें वअनुभवी वृद्ध लोग मंतव्य,मन्त्र,व दिशा ज्ञान दें।
किसी कार्य के क्रितत्व की प्रक्रिया यह होनी चाहिए---गुरुजन ( माता,पिता, गुरु )-ज्ञान का प्रकाश ,राह दिखाते हैं; मनुष्य को स्वयं दीपक लेकर चलना होता है (अप्प दीपो भव) ;एवं स्वयं के अनुभव,पठन-पाठन व शास्त्रादि के ज्ञान से नियमित (कन्फर्म) करके कर्तव्य निर्धारण करना होता है। कक्षा में भी शिक्षक दिशा देता है ,क्षात्र को स्वयं ही आगे बढ़कर, पुस्तकों से परामर्श से विषय पक्का करना होता है।