ब्लॉग आर्काइव
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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...
- shyam gupta
- Lucknow, UP, India
- एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त
सोमवार, 31 अगस्त 2009
सलाम नौजवान -७३ साल से --हाल वही का वही ?
अब और देखिये ---ये अखवार वाले ७३ साल से बदलाव का सपना नव जवानों के साथ देखरहे हैं ,अब सलाम भी कर रहे हैं परन्तु देश वहीं का वहीं है।अपितु नीचे और नीचे जा रहा है । ये कहानियां हम ६२ वर्ष से सुन रहे हैं।ये जितने भी युवाओं के चित्र अखवार दे रहे हैं,सब मुंह में चांदी -सोने की चाम्मच लेकर पैदा हुए हैं ,कोई संघर्ष करके नहीं आए है "विक्रम टीले पर चढ़ा ,ग्वालाविक्रम होय"; क्या हुआ जो आज बड़ी-बड़ी मंजिलें हैं,माल्स हैं,मोबाइल,टीवी,ऐ सी हैं,--कीचड,गन्दगी,बदबूदार नालियां,रास्ते ,पानी भरी सड़कें,उफनते सीवर ,मुख्य सडकों पर कूदे के ढेर पर घूमते सूअर तो वही हैं बल्कि पहले से अधिक (मैंने बचपन में शहरों में इतनी गन्दगी नहीं देखी ,सड़कें ,गलियाँ साफ़-सुथरी होतीं थीं। आपको भी याद होगा) ही हैं। वही राजनीति की दशा व दिशा? अतः ये सब कहानियां भ्रामक हैं ।
हमें न युवा,न प्रोढ़ ,न वृद्ध --हमें चाहिए संसकारित,संयमी,स्वयं को,आत्म व संसार दोनों को समुचित रूप से जानने वाले अच्छे इंसान। वे चाहे युवा हों,प्रोढ़ या वृद्ध ---अच्छे इंसान चाहिए। वस्तुतः होना ये चाहिए----युवा ,कार्य करें ;प्रौढ़ ,निर्देशन करें वअनुभवी वृद्ध लोग मंतव्य,मन्त्र,व दिशा ज्ञान दें।
किसी कार्य के क्रितत्व की प्रक्रिया यह होनी चाहिए---गुरुजन ( माता,पिता, गुरु )-ज्ञान का प्रकाश ,राह दिखाते हैं; मनुष्य को स्वयं दीपक लेकर चलना होता है (अप्प दीपो भव) ;एवं स्वयं के अनुभव,पठन-पाठन व शास्त्रादि के ज्ञान से नियमित (कन्फर्म) करके कर्तव्य निर्धारण करना होता है। कक्षा में भी शिक्षक दिशा देता है ,क्षात्र को स्वयं ही आगे बढ़कर, पुस्तकों से परामर्श से विषय पक्का करना होता है।
धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष की अवधारणा ---यूँही थोथा ज्ञान या दर्शन नहीं हैं ,ये पूर्ण वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक तथ्य हैं । ये मनुष्य के मानस पर गहन वैज्ञानिक प्रभाव छोड़ते हैं ,उन्हें नियमित,संयमित करते हैं। जीवन,राष्ट्र,समाज व व्यक्ति को संयमित व सुचारू रूप से चलने ,उन्नति की और अग्रसर होने ,दशा व दिशा निर्देशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लोग जीवन की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं देते रहते हैं ,परन्तु ये अवधारणा जीवन काविज्ञान है,वास्तविक ज्ञान है जो तमाम अंधविश्वासों ,भ्रांतियों,कुंठाओं आदि की दीवारों को ढहा देता है। मानव को संसार व ज्ञान दोनों में सामंजस्य के साथ जीने की कला सिखाता है। जैसा ईशोपनिषद में कहा है-"विद्यान्चाविद्या च यस्तद वेदोभाय्ह सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाम्रितमनुश्ते ॥ "अर्थात जो संसार व ज्ञान दोनों को समान रूप से जानता है वह मृत्यु को पार करके अमृतत्व (मोक्ष)प्राप्त करता है।
धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष चारों पुरुषार्थों का कितना सरल विवेचन व वैज्ञानिक व्याख्या दी गयी है ललिता सहस्रनाम के संलग्न आलेख में,पढ़ें ।
रविवार, 30 अगस्त 2009
क्या होगया है मीडिया की समझ को --
डाक्टरों ने पकडी हार्ट अटैक की नब्ज़ -शीर्षक से लगता है कि हार्ट अटैक पर काबू पालिया गया ,जबकि आप समाचार पढेंगे तो पता चलता है कि ,शरीर में दवा प्रवेश कराने का नवीन तरीका ईजाद किया गया है ,नसें (खून ले जाने वाली शिराए ) न मिलाने की स्थिति में दवाएं सीधा बोने-मेरो में डाली जा सकती है। अब इस भ्रामक समाचार का क्या किया जाय ?
अन्य समाचार में दूल्हे के साथ बैठने वाले "सह वाला " में श्री योगेश प्रवीण जिन्हें इतिहासविद बताते हैं (अखवार वाले) उन्हें 'सह ' और 'शाह' में अन्तर ही नही पता ,जो सह शब्द की उत्पत्ति बादशाह से कहने लगे। सह का सीधा अर्थ हिन्दी का साथ रहने वाला है । पर दूर की कौडी जो लानी है। हद है भई | आप ही सोचिये।
रविवार, 23 अगस्त 2009
गणपति वन्दना --
शनिवार, 22 अगस्त 2009
दो टूक-पाकिस्तान-जनता और दोस्ती--हि.२२-८-०९
अक्सर लोग ,मीडिआ ,नेता आदि कहते रहते हैं--खेल,कला आदि दोस्ती बढाते हैं आदि-आदि । आज ’दो तूक’ में यही कहा है। पर दो टूक तो यही है कि--यदि यही बात है तो ६२ वर्षों से पाकिस्तान से खेल रहे हैं, अब तक क्या हुआ????
हुज़ूर ! वालीवूड, क्रिकेट ,यास्कूल के बच्चों केडेलिगेसनों क्या होता है, ये सब तो घूमने,पैसे कमाने के धन्धे हैं, दोस्ती से क्या मतलव -अपना मतलव गांठना ही है। दोस्ती के लिये तो राज्नैतिक व नैतिक साहस,और आत्म-विश्वास व आत्मिक साहस की आवश्यकता है ,वो कब आयेगी????
मंगलवार, 18 अगस्त 2009
आहार-विचार -,मांसाहार --अनहद,हिंदुस्तान -दैनिक --०९-०८-०९ --------
आहार-विचार के बारे में श्री अखिलेश आर्येंदु का आलेख विचारणीय है -->
कुछ डा श्याम गुप्त के दोहे भी पढ़ें ---
है उपलब्ध निरोग-हित,विविध शाक आहार |
क्यों खाएं रोगी बनें,निन्दित मांसाहार|
यम् ओ नियम शरीर हित,आचार-व्यवहार।
रहे चिकित्सा-ज्ञान ही,इन सबका आधार।
परम अपावन प्राप्ति विधि,प्राणी बध संताप ।
बध की क्रिया देखकर,कभी न खाएं मांस।
कूड़ा-करकट खाँय हम, कुक्कुट यों बतरायं ।
क्या मज़बूरी मनुज की ,जो वे हम को खायं।
जंगल तजि गाँवों बसे, भाये शाकाहार।
नगर बसे पुनि शाक तजि , रुचै मांस आहार।
अनुमोदक,क्रय-विक्रयी,चीरे,बधे,पकाय ।
खायं,परोसें ये सभी,घातक पाप कमायं ।
अति आहार महान दुःख,अनाहार अति कष्ट ।
रितभुक,मितभुक,हितभुक,सदा रहें संतुष्ट ।
अन्न जो जैसा खाइए, तैसी संतति होय।
दीप भखे अंधियार को ,काजल उत्पति होय॥
कुछ डा श्याम गुप्त के दोहे भी पढ़ें ---
है उपलब्ध निरोग-हित,विविध शाक आहार |
क्यों खाएं रोगी बनें,निन्दित मांसाहार|
यम् ओ नियम शरीर हित,आचार-व्यवहार।
रहे चिकित्सा-ज्ञान ही,इन सबका आधार।
परम अपावन प्राप्ति विधि,प्राणी बध संताप ।
बध की क्रिया देखकर,कभी न खाएं मांस।
कूड़ा-करकट खाँय हम, कुक्कुट यों बतरायं ।
क्या मज़बूरी मनुज की ,जो वे हम को खायं।
जंगल तजि गाँवों बसे, भाये शाकाहार।
नगर बसे पुनि शाक तजि , रुचै मांस आहार।
अनुमोदक,क्रय-विक्रयी,चीरे,बधे,पकाय ।
खायं,परोसें ये सभी,घातक पाप कमायं ।
अति आहार महान दुःख,अनाहार अति कष्ट ।
रितभुक,मितभुक,हितभुक,सदा रहें संतुष्ट ।
अन्न जो जैसा खाइए, तैसी संतति होय।
दीप भखे अंधियार को ,काजल उत्पति होय॥
रविवार, 16 अगस्त 2009
उठो कवि तुम्ही अब ये झंडा उठाओ ----स्वतन्त्रता दिवस पर-डा .श्याम गुप्त का गीत---
बहुत लिख चुके,प्यार के गीत नज्में ;
बहुत गा चुके प्यार के वादे-रस्में।
कोई मस्त है बादियों घाटियों में,
कोई गीत कोई अगीत सुनाये।
उलझ कर रहे छंद में रस में तुक में,
बहुत से अलंकाए हमने सजाये।
बहुत खूब फागुन की मस्ती में झूमे,
बहुत प्रेयसी की निगाहों में डूबे।
बहुत सी लिखीं हमने पैरोडियाँ भी ,
कीं चटखारे लेकर व्यंग्योक्तियाँ भी।
बहुत व्यंग्य हमने किए दूसरों पर,
ओ लीं राज नेताओं पर चुटकियाँ भी ।
मगर क्या दिया देश को यह बताओ,
मिला क्या किसे सोच कर तो बताओ ,
समय आज है हम लिखें शोषितों पर,
समय है सामाजिक विषमता दिखाएँ।
बुराई जो जन जन के मन में बसी है,
अपनों के मन में रची है बसी है।
उसे हम सुनाएँ उसे हम बताएं,
बुराई सभी के दिलों से मिटायें।
क्यूं लेता है रिश्वत भला आज कोई,
क्यों देता है रिश्वत भला आज कोई।
क्यों बेटी कोई आज रह जाती क्वारी,
क्यों बेटी कोई आज जल जाती प्यारी ?
क्यों पढ़ लिख के जंजीर वे खीचते हैं,
सरे आम सडकों पे वे खीचते हैं।
अमीरों के बेटे बड़ों के जमाई,
कहीं बैंक लूटी क्यों गाडी उठाई ?
समस्या भला किस तरह ये मिटायें,
पहल हो भला कौन आगे को आए?
इन्हीं सब समस्याओं पर क्यों न गायें,
भला कौन रोकेगा,यदि हम उठाएं ।
उठो कवि! तुम्हीं अब ये झंडा उठाओ,
सुधारों का दर्पण सभी को दिखाओ!
बहुत गा चुके प्यार के वादे-रस्में।
कोई मस्त है बादियों घाटियों में,
कोई गीत कोई अगीत सुनाये।
उलझ कर रहे छंद में रस में तुक में,
बहुत से अलंकाए हमने सजाये।
बहुत खूब फागुन की मस्ती में झूमे,
बहुत प्रेयसी की निगाहों में डूबे।
बहुत सी लिखीं हमने पैरोडियाँ भी ,
कीं चटखारे लेकर व्यंग्योक्तियाँ भी।
बहुत व्यंग्य हमने किए दूसरों पर,
ओ लीं राज नेताओं पर चुटकियाँ भी ।
मगर क्या दिया देश को यह बताओ,
मिला क्या किसे सोच कर तो बताओ ,
समय आज है हम लिखें शोषितों पर,
समय है सामाजिक विषमता दिखाएँ।
बुराई जो जन जन के मन में बसी है,
अपनों के मन में रची है बसी है।
उसे हम सुनाएँ उसे हम बताएं,
बुराई सभी के दिलों से मिटायें।
क्यूं लेता है रिश्वत भला आज कोई,
क्यों देता है रिश्वत भला आज कोई।
क्यों बेटी कोई आज रह जाती क्वारी,
क्यों बेटी कोई आज जल जाती प्यारी ?
क्यों पढ़ लिख के जंजीर वे खीचते हैं,
सरे आम सडकों पे वे खीचते हैं।
अमीरों के बेटे बड़ों के जमाई,
कहीं बैंक लूटी क्यों गाडी उठाई ?
समस्या भला किस तरह ये मिटायें,
पहल हो भला कौन आगे को आए?
इन्हीं सब समस्याओं पर क्यों न गायें,
भला कौन रोकेगा,यदि हम उठाएं ।
उठो कवि! तुम्हीं अब ये झंडा उठाओ,
सुधारों का दर्पण सभी को दिखाओ!
शुक्रवार, 14 अगस्त 2009
जन्माष्टमी पर विशेष, क्रष्ण- लीला---तत्वार्थ-दही हांडी
क्रष्ण लीला-- गौधन चोरी
माखन की चोरी करें,नित प्रति नन्द किशोर ,
कुछ खाते कुछ फ़ेंकते मटकी देते फ़ोड ।
मटकी देते फ़ोड ,सखाओं को घर घर लेजाते,
चुपके मटकी तोड, सभी गोधन फ़ैलाते ।
देते यह सन्देश श्याम ’ समझें ब्रजवासी,
स्वयम बनें बलवान ,दीन हों मथुरा वासी॥
गोकुल वासी क्यों गये ,अर्थ् शास्त्र में भूल,
माखन दुग्ध नगर चला,गांव में उडती धूल ।
गांव में उडती धूल,गोप बछडे सब भूखे,
नगर होंय सम्पन्न ,खांय हम रूखे सूखे ।
गगरी देंगे तोड,श्याम’ सुनलें ब्रज वासी,
यदि मथुरा लेजायें,गोधन गोकुल वासी॥
मंगलवार, 11 अगस्त 2009
कुछ मुक्त-छंद--
गुण -धर्म-धन--
अभ्युदय में क्षमा, धैर्य है धन विपत्ति में,
वाक-चतुरता सभा मध्य,अभिरुचि धन यश में;
शूरवीरता-युद्ध,गहन रुचि शास्त्र-अध्ययन-
उत्तम जन में स्वतः भाव, होते हैं ये गुण ।।
कुन्डली (छह त्याग)-
-
चाहत है ऐश्वर्य की, तो इन छह को त्याग ,
निद्रा, तन्द्रा ,क्रोध, भय, आलस रूपी राग ।
आलस रूपी राग, कार्य में देरी करना ,
सबको दीजे त्याग,लोक हित रत यदि रहना।
इन दोषों को त्याग,’श्याम,श्रुति सम्मत मत है,
रिद्दि, सिद्दि, श्री की जीवन में जो चाहत है ॥
कुन्डली (नीति-व्यवहार)--
चलें नीति व्यवहार पर, छह का करें न त्याग,
सत्य, दान, कर्मण्यता, धैर्य-भाव अनुराग ।
धैर्य-भाव अनुराग, गुणों में दोष खोजना ,
क्षमा भाव अति सुखद,फ़लित हों सभी योजना।
ये छह गुण हों साथ, श्याम, नित फ़ूलें,फ़लें,
चाहें सुख ओ शान्ति, नीति-व्यवहार पर चलें ॥
सदा सौभाग्यवती रहो--का अर्थार्थ -------
आजकल नारी -विमर्श पर तमाम सीरिअल्स देख कर ,उसमें महिलाओं को बड़ी-बूड़ी औरतों द्वारा ' सुहाग अचल रहे ',अखंड सौभाग्य वती भवः ' सदा सुहागिन रहो ' के आर्शीवाद देख कर मेरे मन में एक विचित्र सा विचार आया की आख़िर इसका अर्थ क्या है ? ध्यान से विवेचना करने पर तो मुझे यह ,स्त्रियों के विरुद्ध ही लगा। इस का अर्थ निकलता है की-पति से पहले तुम्हारी मृत्यु हो । तभी तो सदा सुहागिन रहोगी । हालांकि भारतीय नारी सदा पति से पहले ही मृत्यु की कामना करतीं आईं हैं ,पर भला क्यों सदा नारी ही पहले म्रत्यु को वरणकरे ,ये कहाँ का न्याय है । पुरूष को भी तो आर्शीवाद दिया जा सकता है -'सदा सपत्नी जियो' ।
परन्तु इस पुरूष आर्शीवाद का यह भी अर्थ लगाया जासकता है कि- पुरूष एक पत्नी के मरते ही दूसरी ले आए ! अतः इसे संशोधित किया जाय 'सदा उसी पत्नी के साथ जियो ' । एक पत्नी-व्रत होना भी पुरूष के लिए एक सत्कर्म कहा है जिसे बहुत से लोग जल्दी-जल्दी पत्नियां बदल कर सदा एक के ही साथ रहना चरितार्थ कर सकते हैं।
पुनः सदा सुहागिन पर आयें तो और आगे विचार करनेपर मुझे एक अन्य गहराई ज्ञात हुई ; स्त्री हो या पुरूष ,अकेले रहजाने के बाद बड़ी दुर्गति होती है , पहले म्रत्यु को प्राप्त होने वाला तो सुख से जाता है,खुशी-खुशी,पर बाद में जाने वाला -कोई अपना ख़ास रोने वाला भी नहीं,जीवनको चैन-सुख से बीतने की गारंटी भी नहीं । यद्यपि आजकल एसा नहीं है परन्तु पहले क्योंकि पुरूष ही धन कमाने का स्रोत होते थे अतः उनकी मृत्यु के बाद स्त्रियों को कठिन दौर से गुजरना पङता था।
एक अन्य विचार भी है कि स्त्री की मृत्यु पश्चात पुरूष तो पुनः विवाह को राजी होजाते हैं,परन्तु स्त्रियाँ अधिक भावुक होने के कारण तैयार नहीं होतीं ।
अतः अर्थार्थ के बाद मुझे लगा कि -वस्तुत आर्शीवाद उचित ही है । आपका क्या ख्याल है।
परन्तु इस पुरूष आर्शीवाद का यह भी अर्थ लगाया जासकता है कि- पुरूष एक पत्नी के मरते ही दूसरी ले आए ! अतः इसे संशोधित किया जाय 'सदा उसी पत्नी के साथ जियो ' । एक पत्नी-व्रत होना भी पुरूष के लिए एक सत्कर्म कहा है जिसे बहुत से लोग जल्दी-जल्दी पत्नियां बदल कर सदा एक के ही साथ रहना चरितार्थ कर सकते हैं।
पुनः सदा सुहागिन पर आयें तो और आगे विचार करनेपर मुझे एक अन्य गहराई ज्ञात हुई ; स्त्री हो या पुरूष ,अकेले रहजाने के बाद बड़ी दुर्गति होती है , पहले म्रत्यु को प्राप्त होने वाला तो सुख से जाता है,खुशी-खुशी,पर बाद में जाने वाला -कोई अपना ख़ास रोने वाला भी नहीं,जीवनको चैन-सुख से बीतने की गारंटी भी नहीं । यद्यपि आजकल एसा नहीं है परन्तु पहले क्योंकि पुरूष ही धन कमाने का स्रोत होते थे अतः उनकी मृत्यु के बाद स्त्रियों को कठिन दौर से गुजरना पङता था।
एक अन्य विचार भी है कि स्त्री की मृत्यु पश्चात पुरूष तो पुनः विवाह को राजी होजाते हैं,परन्तु स्त्रियाँ अधिक भावुक होने के कारण तैयार नहीं होतीं ।
अतः अर्थार्थ के बाद मुझे लगा कि -वस्तुत आर्शीवाद उचित ही है । आपका क्या ख्याल है।
सोमवार, 10 अगस्त 2009
डा. श्याम गुप्त की गज़ल-
आये सुरभि बयार से छूकर के चल दिये।
नयनों में सावन मास थे भादों सजा दिये।
मस्ती भरी उस रात का क्या वाकया कहें,
दामन में अम्नो-चेन सब जग के समा लिये।
पहलू में कायनात थी तन-दीप थे जले,
सुरभित गुलाव रूह में कितने खिला दिये।
हमने वफ़ा की राह में जो रख दिये कदम,
तुम राह चल सके नहीं पर हम चला किये।
शिकवा-गिला नहीं,ये है यादों का सिल सिला,
राहें जुदा हैं जब भला तो क्या गिला किये।
अब तो किसी भी बात का कोई गिला नहीं,
दिल ने तुम्हारी याद के दीपक जला लिये।
बस आरजू है ’श्याम की, इतना जो कर सको,
राहों में जब मिला करो,बस मुस्कुरा दिये ॥
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