बह रही है नदिया, अब-
धीरे धीरे धीरे,
सहमी-सहमी, सूखी-सूखी सी-
रूठी-रूठी सी;
किसी सपोले की भांति रेंगती हुई,
नाले की तरह ।
कहां गई वो अजस्र-प्रवाह नीर-धारा,
सहस्फ़ण की भांति फ़ुफ़कारती हुई,
अज़गर की भांति विशाल;
बाढ के द्रश्य और जल प्लावन;
होते थे तैराकी के मेले ॥
२.
कम सन्साधन,
अधिक दोहन;
न नदिया में जल,
न बाग-बगीचों के नगर।
न कोकिल की कूक,न मयूर की नृत्य -सुषमा;
कहीं अना बृष्टि , कहीं अति बृष्टि ;
किसने भ्रष्ट किया-
प्रकृति -सुन्दरी का यौवन॥
3 टिप्पणियां:
हमीं ने कचरा ,पालिथीन डाल-डाल कर.....
क्या बात है! , बहुत सही पहुंचे , राजेश जी, धन्यवाद।
आप की इस बेहतरीन रचना में कहीं न कहीं हम अपने आप को भी खड़ा पाते हैं
श्रेय बहुत से लोगों को जाता है उसमें हम आप भी हो ही सकते हैं
बधाई स्वीकारें इस सुंदर प्रस्तुती पर
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