----मैने टिप्पणी में सलाह दी थी कि पहले लेखक कथा को अच्छी तरह पढे ,अर्थ समझे ; कथा में प्रेम चन्द ने रूढियों को नकारा है, नकि मन्त्र की प्रशन्सा की है, कहां -छुटभैया यह ब्लोग लेखक और कहां प्रेम चन्द---राई व पहाड का अन्तर है।
----और सदा की भांति स्वयम घोषित ,स्वयम्भू विद्वान, ब्लोग के मालिक ने वह टिप्पणी छापी ही नहीं; और उस पर तुर्रा यह कि हम वैग्यानिक-सोच को बढावा दे रहे हैं। सार्थक,युक्ति-युक्त सोच को ही बढावा नहीं तो विग्यान कैसा, कहां, साहित्य में यह गुट बाज़ी कहां तक...? हमारी जैसी नहीं कहेंगे तो हम छापेंगे ही नहीं....वही पुराना तेरा बहाना...
------आप ही सोचिये, समझिये ,बताइये..
8 टिप्पणियां:
जब तक कहानी को नही समझेंगे ,उसके संदेश को कैसे समझ पायेंगे ? मंत्र कहानी तो इंसानियत का संदेश देती है । आप की टिप्पणी तो छापना चाहिये था
गुप्त जी, यदि टिप्पणी शालीन भाषा में है तो विचार चाहे कितने भी विपरीत क्यों न हों उसे न छापना कायरता और असहिष्णुता ही है. ऐसे आत्ममुग्ध ब्लॉगों पर टिप्पणी न देने का नियम बना लिया है मैंने. ब्लागजगत पर कुछ स्वयंभू विद्वान और विशेषज्ञ बैठे हैं जो "बौद्धिक ब्राह्मणवाद" से इस कदर पीड़ित हैं कि अपने से इतर हर वस्तु और विचार उन्हें हेय, अछूत और उपेक्षा योग्य ही प्रतीत होता है. वे तर्कों नहीं, कुतर्कों पर आश्रित हैं. आपकी समझाइश का इन पर कोई असर शायद ही होगा.
शायद इसे ही कहते हैं
..."मेरी मर्ज़ी"
निशाचर जी ने सही कहा कि टिप्पणी से ज्यादा टिप्पणीकर्ता की भावना देखी जाती है। गुप्ता जी आप हमेशा उल्टी-सीधी टिप्पणी करते हैं, इसलिए जानबूझकर आपकी टिप्पणी नहीं प्रकाशित की गयी थी।
और जहाँ तक प्रेमचंद की "मंत्र" कहानी की बात है,आप फिर एक बार उसे ध्यान से पढें। अनजाने में ही सही प्रेमचंद ने उस कहानी में यह प्रतिपादित किया है कि मंत्र से सांप काटे का इलाज होता है, जोकि पूरी तरह से असत्य है।
गलत बात हमेशा गलत होती है, चाहे वह किसी ने कही हो। गलत बात की आलोचना होनी ही चाहिए। लेकिन आलोचना शिष्ट रूप में हो और शालीन शब्दों में। और "तस्लीम" ने इस बात का ध्यान रखा है। यदि आप इस बात का ध्यान रखते, तो आपकी टिप्पणी भी अवश्य प्रकाशित की जाती।
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भीड़ है कयामत की, फिरभी हम अकेले हैं।
इस चर्चित पेन्टिंग को तो पहचानते ही होंगे?
कुछ ब्लोगर स्वाभाविक हिट्स और सहज प्रतिक्रया प्राप्त कर आत्ममुग्धता के शिकार हो रहे हैं यह भी एक कारण है जरुरी बहस सम्पूर्ण नहीं हो पाती. यहाँ लेखक ही सम्पादक और प्रकाशक है इसकी जिम्मेदारी बहुत कम ब्लोगर समझते हैं.
शिष्टाचार तो यही है की किसी भी आगंतुक के विचारों का सम्मान करते हुए उसको उत्तर दिया जाये. आत्ममुग्धता, व्यक्तिगत-आक्षेप आदि से निकल कर संयमित और मर्यादित रहकर कोई भी बहस पूर्ण हो सकती है.
कुछ ब्लोगों पर इसकी कमी दिखती है. गुप्त जी, ऐसे ब्लोगों से दूर ही रहा जाये तो मानसिक शान्ति है. लेकिन क्या करें दुष्प्रचार को बर्दाश्त करना भी मुश्किल है.
अर्शिया जी आप के कथन के अनुसार ही, कहानीकार की भावना देखनी चाहिये, पूरी कहानी फ़िर से पढिये, भावना देखिये ,कहानी में ऊंच नीच भावना की बात कही गयी है। आप को मेरी टिप्पणी को हमेशा उल्टी सीधी कह रहीं हैं( ? ) इसी का अर्थ है कि आप विपरीत विचारों को नही सुनना चाहते। शिष्ट व शालीन आप किसे कहते हैं बताएं ।क्या यह कथन कि प्रेम चन्द व ब्लोग लेखक की तुलना राई व पर्वत समान है उसे इस तरह की भ्रामक व अशिष्ट-कथ्य-कहानी पोस्ट नहीं करनी चाहिये--अशालीन है।
सही कहा है कहाँ "मुंशी प्रेम चंद" और कहाँ ब्लोगर बिलकुल अकाट्य बात कही है !!!
पहेलियां खेलने के लिये साहित्य या ब्लोग नहीं होते, कुछ काम-धाम की बातें कीजिये न ।
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