( घनाक्षरी छंद)
१।
दहन सी दहकै, द्वार देहरी दगर दगर ,
कली कुञ्ज कुञ्ज क्यारी क्यारी कुम्हिलाई है।
पावक प्रतीति पवन , परसि पुष्प पात पात ,
जरै तरु गात , डारी डारी मुरिझाई है ।
जेठ की दुपहरी सखि, तपाय रही अंग अंग ,
मलय बयार मन मार अलसाई है।
तपैं नगर गाँव ,छावं ढूंढ रही शीतल ठावं ,
धरती गगन 'श्याम' आगि सी लगाई है।।
२।
सुनसान गलियाँ वन बाग़ बाज़ार पड़े ,
जीभ को निकाल श्वान हांफते से जारहे।
कोई पड़े ऐसी कक्ष कोई लेटे तरु छाँह ,
कोई झलें पंखा कोई कूलर चलारहे |
जब कहीं आवश्यक कार्य से है जाना पड़े ,
पोंछते पसीना तेज कदमों से जारहे।
ऐनक लगाए ,श्याम छतरी लिए हैं हाथ,
नर नारी सब ही पसीने से नहा रहे॥
३
.टप टप टप टप अंग बहै स्वेद धार ,
जिमि उतरि गिरि श्रृंग जलधार आई है ।
बहे घाटी मध्य , करि विविध प्रदेश पार,
धार सरिता की जाय, सिन्धु में समाई है।
श्याम खुले केश, ढीले ढाले वस्त्र तिय देह,
उमंगें उरोज उर उमंग उमंगाई है।
ताप से तपे हैं तन, ताप तपे तन मन,
निरखि नैन नेह, नेह-निर्झर नहाई है॥
४.
छुपे तरु कोटर छाँह , चहकें न खग वृन्द ,
सारिका ने शुक से भी चौंच न लड़ाई है।
बाज और कपोत बैठे , एक ही तरु डाल,
मूषक औ विडाल भूलि बैठे शत्रुताई है।
नाग मोर एक ठांव , सिंह मृग एक छाँव ,
धरती मनहूँ तपो भूमि जस सुहाई है।
श्याम, गज-ग्राह मिलि, बैठे सरिता के कूल,
जेठ की दुपहरी साधु भाव जग लाई है॥
५.
गली गली गाँव गाँव ,हर मग ठांव ठांव ,
जन जन ,जल, शीतल पेय हैं पिलारहे।
कहीं हैं मिष्ठान्न बंटें, कहीं है ठंडाई घुटे,
मीठे जल की भी कोऊ प्याऊ लगवा रहे।
राह रोकि हाथ जोरि, ठंडा जल भेंट करि ,
हर तप्त राही को ही ठंडक दिलाराहे।
भुवन- भाष्कर धरिकें मार्तंड रूप ,श्याम'
उंच नीच भाव मनों मन के मिटा रहे॥
1 टिप्पणी:
धन्यवाद उम्मीद जी व माधव ..
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