ब्लॉग आर्काइव

डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

मेरी फ़ोटो
Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

कर्णाटक महिला सेवा समिति ,बन्गलोर----.एक अभिनव संस्था


<--समिति भवन
वर्त्तमान
पदाधिकारी-->
कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति, चामराज पेट ,बंगलौर की स्थापना स्व.पी आर श्री निवास शास्त्री जी ने गांधीजी के आदर्शों पर चलते हुए , महिलाओं को संगठित करके १९५३ में की थी। यह महिलाओं द्वारा संचालित एक स्वैक्षिक संस्था है जो कर्नाटक के लगभग २७ जिलों में राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रचार -प्रसार में संलग्न है। यह संस्था भारत में एक मात्र ऐसी स्वायत्त शासी संस्था है जो पूर्ण रूप से महिलाओं द्वारा ही संचालित है। इसका संचालन कार्यकारिणी समिति द्वारा होता है एवं बुज़ुर्ग ,सक्रिय महिलाओं का मार्गदर्शन मिलता है।वर्तमान में यह संस्था एक बडे तीन मंज़िले भवन में सुश्री शान्ता बाई के संरक्षण में चलरही है जो एक कुशल अधिकारी , हिन्दी बोलने में पटु व मिलनसार महिला हैं, उन्होंने सारा संस्थान बडे प्रेम से दिखाया एवं समिति के उद्देश्य व क्रिया-कलापों का ब्योरा दिया।
समिति का उद्देश्य हिन्दी प्रचार के साथ भारत की एकता बनाये रखना व प्रान्तीय व अन्य भाषाओं के सहयोग से हिन्दी का विकास करना है। समिति का मुख्य कार्य हिन्दी प्रचार,साहित्य काप्रकाशन,हिन्दी की परीक्षायें लेना व उनके लिये पुस्तकें छापना तथा महिलाओं को ट्रेनिंग देना है। इसके लिये समिति -हिन्दी सुबोध, प्रथमा, मध्यमा, उत्तमा , भाषा भूषण व भाषा प्रवण--की डिग्री देती है। हिन्दी विषयों पर शोध-एम फ़िल, पी एच डी भी कराई जाती है। संस्था अपनी मासिक पत्रिका"हिन्दी प्रचार वाणी" भी प्रकाशित करती है जिसमें हिन्दी भाषा व साहित्य संबन्धी उच्चकोटि के लेख व अन्य साहित्य हो्ता समिति विश्वविध्यालय स्तर की व हिन्दी से कन्नड व कन्नड से हिन्दी की पुस्तकें अनुवाद कराकर भी प्रकाशित करती है। समिति के पांच पुस्तकालय भी हैं जिनमें विविध विषयों की लगभग २५००० पुस्तकें है। समिति का अपनास्वयं का मुद्रणालय ( प्रिन्टिंग प्रेस) भी है एवं अपना कम्प्यूटर विभाग भी है जिनका समस्त कार्य महिलायें ही देखती व करती हैं। समिति १८ वर्ष से ’ हिन्दी शिक्षक प्रशिक्षण’ कार्यक्रम अपने सात हिन्दी प्रशिक्षण कालेजों द्वारा चलारही है।

रविवार, 29 अगस्त 2010

हिन्दी नागप्पा ---कर्नाटक में हिन्दी के अलख निरंजन .....


<--युवा नागप्पा जब वे गांधीजी से मिले

<---हिन्दी नागप्पा ....
बेंगलूरू पहुँच कर मैंने डा ललिताम्मा , अव प्रा प्रोफ एवं विभागाध्यक्ष , हिन्दी विभाग ,मैसूर वि वि से फोन पर संपर्क किया , उन्होंने तुरंत ही पुनः फोन करके कहा कि तुरंत आयें हमारे गुरूजी नागप्पा जी की प्रथम बर्षी है, सारे साहित्यकार भी एकत्र होंगे | बहाँ पहुंचकर ललिताम्बा जी ने कई हिन्दी विद्वानों से मुलाक़ात कराई कहा कि अब आप हिन्दी में बात करिए | मुझे कर्नाटक में हिन्दी व नागप्पा जी के बारे में और अधिक जानने की इच्छा हुई।
गांधीजी ने हिन्दी के प्रचार के लिए अपने पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण भेजा । गांधीजी के रचनात्मक कार्यों की आंधी में उन दिनों हज़ारों नवजवान बहगये, लोगों ने अपना वर्ग, स्वर्ग अपवर्ग छोड़ा। उन्हीं नौजवानों में कर्नाटक के नागराज नागप्पा भी थे जिन्होंने हिन्दी का क्षेत्र चुना । बेलगावं सम्मलेन में उन्होंने गांधीजी के दर्शन किये और फिर हिन्दी के होकर रहगये। उस समय युवक नागराज नागप्पा गणित ( सांख्यकीय ) में बी कर चुके थे तथा कहीं भी अच्छी नौकरी पा सकते थे परन्तु उन्होंने दक्षिण भाषा प्रचार सभा से राष्ट्र भाषा परिक्षा पास की तथा काशी जाकर वनारस हिन्दू वि वि से हिन्दी में एम् किया, जहां उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल ,श्याम सुन्दर दास जैसे हिन्दी के महारथियों के चरणों में बैठकर हिन्दी सीखी। । इस प्रकार वे दक्षिण भारत में हिन्दी से एम् करने वाले प्रथम विद्वान् बने।
१९३५ में इंदौर सम्मलेन में गांधीजी व आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के परामर्श पर वे पुनः अगस्त्य की भांति दक्षिण लौटे एवं मद्रास में हिन्दी प्रचारक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। धारवाड़ , मैसूर,आदि कर्नाटक के सभी कालेजों में हिन्दी पठन पाठन, शोध आदि प्रारम्भ करने में उन्हीं का योगदान था । यद्यपि कन्नड़ के कवि-कुल गुरु व राष्ट्र कवि के वी पुटप्पा ( कु वें पू ) हिन्दी के पक्षधर नहीं थे परन्तु नागप्पा जी ने उन्हें भी मना कर हिन्दी का ध्वज फहराया। इस प्रकार सारे कर्नाटक व दक्षिण भारत में अपने अथक परिश्रम से जन जन में हिन्दी के प्रसार-प्रचार के प्रणेता बन कर वे 'हिन्दी नागप्पा" के नाम से प्रसिद्ध हुए । उनके शिष्य- शिष्याओं , प्रसंशकों की संख्या समस्त दक्षिण भारत कर्नाटक व देश भर में फ़ैली है। सेवा निवृत्ति के बाद भी वे कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति से जुड़े रहे एवं 'भाषा पीयूष' नामक पत्रिका प्रारम्भ की। वे भारत सरकार के विभिन्न संस्थानों के अध्यक्ष, परामेश समितियों के सदस्य व केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा के अध्यक्ष रहे। उन्हें देश भर से तमाम पुरस्कार व सम्मान भी प्राप्त हुए | २००२ ई में ९० वर्ष की आयु में पूर्ण करने पर उन्हें 'पूर्ण-कुंभअभिनन्दन ग्रन्थ भी समर्पित किया गया।
नागप्पा जी तुलसी दास के अनन्य भक्त प्रशंसक थे। उनके मुंह से दोहे चौपाई धडाधड निकलते थे। अतः उन के बारे में ' नागप्पा जी हिन्दी --कहियत भिन्न भिन्न ' कहाजाता है। एसे हिन्दी नागप्पा ०६-०७-२००९ को स्मृति-शेष हो गए। डा वी वेंकटेश साहित्यालंकार का कथन है--
" ना नागप्पा नमस्तुभ्यं , अमित सुबल सम्पन्नम
ज्ञान उर्वर कर्नाटक क्षेत्रे -संजात धीमनतम
सुललित हिन्दी भाषा कल्पतरु रोपसमुद्भव
प्रणतोअस्मि आचार्य नानागुरुवर्य कीर्तिशेषं "

शनिवार, 28 अगस्त 2010

गोत्र के बारे में पढ़ें -सुबोध कुमार की व्याख्या------


Aryasamaj

कृण्वन्तो विश्वमार्यम्

By--subodhkumar

--सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा मे निषिद्ध माना जाता है.गोत्र शब्द का प्रयोग वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता. सपिण्ड (सगे बहन भाइ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10वें मण्डल के 10वें सूक्त मे यम यमि जुडवा बहन भाइ के सम्वाद के रूप में आख्यान द्वारा उपदेश मिलता है.
यमी अपने सगे भाई यम से विवाह द्वारा संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है.परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा विवाह प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है,और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते है, सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)
पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें पापी कहते हैं)
इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
अष्टाध्यायी के अनुसार अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “, एक पुरखा के पोते,पडपोते आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी.
यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.
सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन!! “—मनु-५/६०.

सगापन तो सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है. और घनिष्टपन जन्म और नाम के ज्ञात ना रहने पर छूट जाता है.
आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार inbreeding multiplier अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का वर्धक गुणांक इकाई से यानी एक से कम सातवीं पीढी मे जा कर ही होता है, गणित के समीकरण के अनुसार,
अंत:प्रजनन विकार गुणांक= (0.5)raised to the power N x100, ( N पीढी का सूचक है,)
पहली पीढी मे N=1,से यह गुणांक 50 होगा, छटी पीढी मे N=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बडा रहता है. सातवी पीढी मे जा कर N=7 होने पर ही यह अंत:पजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है, मतलब साफ है कि सातवी पीढी के बाद ही अनुवांशिक रोगों की सम्भावना समाप्त होती है.
यह एक अत्यंत विस्मयकारी आधुनिक विज्ञान के अनुरूप सत्य है जिसे हमारे ऋषियो ने सपिण्ड विवाह निषेध कर के बताया था; सगोत्र विवाह से शारीरिक रोग , अल्पायु , कम बुद्धि, रोग निरोधक क्षमता की कमी, अपंगता, विकलांगता सामान्य विकार होते हैं. भारतीय परम्परा मे सगोत्र विवाह न होने का यह भी एक परिणाम है कि सम्पूर्ण विश्व मे भारतीय सब से अधिक बुद्धिमान माने जाते हैं.सपिण्ड विवाह निषेध भारतीय वैदिक परम्परा की विश्व भर मे एक अत्यन्त आधुनिक विज्ञान से अनुमोदित व्यवस्था है. पुरानी सभ्यता चीन, कोरिया, इत्यादि मे भी गोत्र /सपिण्ड विवाह अमान्य है. परन्तु मुस्लिम और दूसरे पश्चिमी सभ्यताओं मे यह विषय आधुनिक विज्ञान के द्वारा ही लाया जाने के प्रयास चल रहे हैं. एक जानकारी भारत वर्ष के कुछ मुस्लिम समुदायों के बारे मे भी पता चली है. ये मुसलमान भाई मुस्लिम धर्म मे जाने से पहले के अपने हिंदु गोत्रों को अब भी याद रखते हैं, और विवाह सम्बंध बनाने समय पर सगोत्र विवाह नही करते.

आधुनिक अनुसंधान और सर्वेक्षणों के अनुसार फिनलेंड मे कई शताब्दियों से चले आ रहे शादियों के रिवाज मे अंत:प्रजनन के कारण ढेर सारी ऐसी बीमारियां सामने आंयी हैं जिन के बारे वैज्ञानिक अभी तक कुछ भी नही जान पाए हैं.
मेडिकल अनुसंधानो द्वारा , कोरोनरी हृदय रोग, स्ट्रोक, कैंसर , गठिया, द्विध्रुवी अवसाद (डिप्रेशन), दमा, पेप्टिक अल्सर, और हड्डियों की कमजोरी. मानसिक दुर्बलता यानी कम बुद्धि का होना भी ऐसे विकार हैं जो अंत:प्रजनन से जुडे पाए गए हैं
बीबीसी की पाकिस्तानियों पर ब्रिटेन की एक रिपोर्ट के अनुसार, उन के बच्चों मे 13 गुना आनुवंशिक विकारों के होने की संभावना अधिक मिली, बर्मिंघम में पहली चचेरे भाई से विवाह के दस बच्चों में एक या तो बचपन में मर जाता है या एक गंभीर विकलांगता विकसित करता है. बीबीसी ने यह भी कहा कि, पाकिस्तान में ब्रिटेन, के पाकिस्तानी समुदाय में प्रसवकालीन मृत्यु दर काफी अधिक है. इस का मतलब यह है कि ब्रिटेन में अन्य सभी जातीय समूहों. के मुकाबले मे जन्मजात सभी ब्रिटिश पाकिस्तानी शिशु मौते 41 प्रतिशत अधिक पाई गयी. इसी प्रकार Epidermolysis bullosa अत्यधिक शारीरिक कष्ट का जीवन, सीमित मानवीय और संपर्क शायद त्वचा कैंसर से एक जल्दी मौत भीआनुवंशिक स्थितियों की संभावना बताती है.

माना जाता है, कि मूल पुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र हुए, भृगु, अंगिरा, मरीचि और अत्रि. भृगु के कुल मे जमदग्नि, अंगिरा के गौतम और भरद्वाज,मरीचि के कश्यप,वसिष्ट, एवं अत्रि के विश्वामित्र हुए; ----
इस प्रकार जमदग्नि, गौतम, भरद्वाज, कश्यप, वसिष्ट, अगस्त्य और विश्वामित्र ये सात ऋषि आगे चल कर गोत्रकर्ता या वंश चलाने वाले हुए. अत्रि के विश्वामित्र के साथ एक और भी गोत्र चला बताते हैं. इस प्रकार के विवरण से प्राप्त होती है कि--आदि ऋषियों के
आश्रम के नाम ,अपने नाम के साथ गुरु शिष्य परम्परा, पिता पुत्र परम्परा आदि के साथ, अपने नगर, क्षेत्र, व्यवसाय समुदाय के नाम भी जोड कर बताने की प्रथा चल पडी थीं. परन्तु वैवाहिक सम्बंध के लिए सपिंड की सावधानी सदैव वांछित रहती है. आधुनिक काल मे जनसंख्या वृद्धि से उत्तरोत्तर समाज, आज इतना बडा हो गया है कि सगोत्र होने पर भी सपिंड न होंने की सम्भावना होती है. इस लिए विवाह सम्बंध के लिए आधुनिक काल मे अपना गोत्र छोड देना आवश्यक नही रह गया है. परंतु सगोत्र होने पर सपिण्ड की परीक्षा आवश्यक हो जाती है.यह इतनी सुगम नही होती. सात पीढी पहले के पूर्वजों की जानकारी साधारणत: उपलब्ध नही रह्ती. इसी लिए सगोत्र विवाह न करना ही ठीक माना जाता है.
इसी लिए 1955 के हिंदु विवाह सम्बंधित कानून मे सगोत्र विवाह को भारतीय न्याय व्यवस्था मे अनुचित नही माना गया. परंतु अंत:प्रजनन की रोक के लिए कुछ मार्ग निर्देशन भी किया गया है.
वैदिक सभ्यता मे हर जन को उचित है के अपनी बुद्धि का विकास अवश्य करे. इसी लिए गायत्री मंत्र सब से अधिक महत्वपूर्ण माना और पाया जाता है.
निष्कर्ष यह निकलता है कि सपिण्ड विवाह नही करना चाहिये. गोत्र या दूसरे प्रचलित नामों, उपाधियों को बिना विवेक के सपिण्ड निरोधक नही समझना चाहिये.

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

बेंगलूरू में झंडारोहण---१५ अगस्त, २०१०.......


<--एक जज्बा यह भी--बडा पाव बेच रहे हैं तो क्या ................................... ..................... तीन लाख गुलाबों से बना बंगलूरू में इंडिया गेट
.
-रंगोली.................... निवासियों से विचार विमर्श करते हुए डा श्याम गुप्त............ निर्विकार व सुषमा गुप्ता जी...


<- --बापू की अर्चना
<------.झंडा रोहण.... .....................१५ अगस्त २०१० को में बंगलौर में था | वहां मैंने देखा कि झंडारोहण समारोह हमारे यहाँ उत्तर भारत की अपेक्षा अधिक प्रभाव पूर्ण व परम्परागत ढंग से मनाया जाता है | डालर कालोनी , जे पी नगर के निबासियों की समिति द्वारा एक पार्क में यह आयोजन किया गया। समस्त कालोनी वासी स्त्रियाँ व पुरुष एकत्र हुए । तिरंगे के सम्मुख बापू महात्मा गांधीजी का चित्र व उसके सामने फल-फूलों से सजी थाली राखी गयी । स्त्रियों द्वारा उनके सम्मुख रंगोली भी सजाई गयी । समिति के अध्यक्ष द्वारा झंडारोहण किया गया तत्पश्चात सामूहिक राष्ट्रगान के बाद स्त्रियों द्वारा राष्ट्र भक्ति का गीत गाया गया एवं बंगलोर आवास विकास के कमिश्नर की पत्नी द्वारा गांधीजी की आरती तथा वन्दना की गयी, प्रसाद वितरण भी किया गया

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

भाई बहन --व राखी ---

भाई और बहन का प्यार कैसे भूल जाएँ ,
बहन ही तो भाई का प्रथम सखा होती है
भाई ही तो बहन का होता है प्रथम मित्र ,
बचपन की यादें कैसी मन को भिगोती हैं
बहना दिलाती याद,ममता की, माँ की छवि,
भाई में बहन छवि,पिता की संजोती है
बचपन महकता ही रहे सदा यूंही श्याम,
बहन को भाई उन्हें बहनें प्रिय होती हैं

भाई बहन का प्यार,दुनिया में बेमिसाल ,
यही प्यार बैरी को भी राखी भिजवाता है
दूर देश बसे हों, परदेश या विदेश में हों,
भाइयों को यही प्यार खींच खींच लाता है
एक एक धागे में बंधा असीम प्रेम बंधन,
राखी की त्यौहार 'रक्षाबंधन' बताता है
निश्छल अमिट बंधन,'श्याम धरा-चाँद जैसा,
चाँद इसीलिये, चन्दा मामा कहलाता है।।

रंग बिरंगी सजी राखियाँ कलाइयों पै ,
देख -देख भाई , हरषाते इठलाते हैं
बहन है जो लाती मिठाई भरी प्रेम रस,
एक दूसरे को बड़े प्रेम से खिलाते हैं
दूर देश बसे जिन्हें राखी मिली डाक से,
बहन की ही छवि देख देख मुस्काते हैं
अमित अटूट बंधन है ये प्रेम रीति का,
सदा बना रहे 'श्याम' मन से मनाते हैं

बेंगलूरू में हिन्दी---एक अवलोकन----

२६ जुलाई २००१० को मैं लखनऊ से बंगलौर पहुंचा | अगीत विधा के संस्थापक , अ भा अगीत प , लखनऊ के संस्थापक अध्यक्ष डा रंग नाथ मिश्र 'सत्य' जी के सन्दर्भ से मैंने डा ललितम्बा , अव प्राप्त प्रोफ़ व हेड, हिन्दी विभाग मैसूर वि वि से फोन पर सम्पर्क किया। सुखद आश्चर्य हुआ कर्नाटक में हिन्दी प्रदेश के व हिन्दी के व्यक्तियों से लोग बडे आदर व प्रेम से मिलते हैं; जब ललितम्बा जी ने दूसरे दिन ही मुझे स्वयं फ़ोन करके - कर्नाटक में हिन्दी के पुरोधा व संस्थापक स्व नागराज नागप्पा, जिन्हें कर्नाटक में " हिन्दी नागप्पा" के नाम से जाना जाता है- की प्रथम बरसी पर आयोजित समारोह में आने का आमंत्रण बडे आग्रह के साथ दिया, रास्ते का विवरण दिया एवं कई बार फ़ोन करके कहां हैं,पूछा भी जब तक मैं वहां पहुंच नहीं गया। आयोजन के पश्चात वहां अन्य हिन्दी के विद्वानों से मुलाकात वडे सौहार्दपूर्ण माहोल में हुई, कुछ अन्य विद्वान व साहित्यकार अन्य प्रदेशों से भी आये थे।
कर्नाटक में हिन्दी की स्थिति जानने की इच्छा से और अधिक जानकारी प्राप्त करने पर मुझे यह समझ में आया कि कर्नाटक में हिन्दी के प्रचार व प्रसार का कार्य मूलतः हमारे हिन्दी भाषी प्रान्तों की अपेक्षा अधिक होरहा है, हों सकता है यह स्वाभाविक आवश्यकता के कारण हो, परन्तु श्लाघ्य है ।कुछ असंतोष की भावनायें भी प्रतीत हुईं कि हिन्दी प्रदेश व केन्द्र हिन्दी की ओर अधिक ध्यान नहीं दे रहे एवम हिन्दी राष्ट्र भाषा क्यों नहीं बन पारही, तथा हिन्दी साहित्य में गिरावट व पढ़ने वालों की कमी के प्रति चिंता भी हैं |
मुख्यत: बन्गलोर में तीन संस्थाए हिन्दी के प्रचार प्रसार में संलग्न हैं---
.मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद एवं अखिल कर्नाटक हिन्दी साहित्य एकेडेमी, राजाजी नगर--जिसके कर्ता धर्ता श्री राम संजीवैया जी बडे मिलन सार सह्रिदयी व्यक्ति हैं। वे मासिक हिन्दी पत्रिकाभी निकालते हैं जो हिन्दी भाषा व साहित्य के उत्थान से ओत प्रोत उच्चकोटि के साहित्यिक आलेखों व साहित्य से परिपूर्ण होती है। इसके साथ ही हिन्दी की विभिन्न परीक्षाएं, एवं शोध कार्य भी किये जाते हैं।
२.कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति , जय नगर--के कर्ता धर्ता श्री वी रा देवगिरि जी भी बडे प्रेम-भाव से मिले एवं अपना संस्थान दिखाया। यह संस्थान भी 'भाषा-पीयूष' नाम से एक हिन्दी त्रैमासिक प्रकाशित करता हैं |हिन्दी प्रचार -प्रसार के लिए परीक्षाएं वे शोध कार्य भी ।
३।कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति, चामराज पेट--- पूर्णतया महिलाओं द्वारा संचालित यह संस्था शायद भारत में एकमात्र ऐसी संस्था हैं जो महिलाओं में हिन्दी के प्रचार/ प्रसार के लिए कटिबद्ध हैं। संस्था की संस्थापिका सदस्य व प्रधान सुश्री शांता बाई एक कर्मठ व योग्य महिला हैं जिन्होंने बड़े प्रेम से सारा संस्थान दिखाया| संस्थान का अपना स्वयं का प्रिंटिंग प्रेस भी हैं जो महिला कर्मियों द्वारा ही संचालित हैं | यह संस्थान हिन्दी की परीक्षाएं , शोध, एम् फिल, पी एच डी भी कराती हैं एवं स्वायत्तशासी संस्था हैं |संस्थान 'हिन्दी प्रचार वाणी ' नामक हिन्दी मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी करता हैं।
हम उत्तर भारतीय समझते हैं कि दक्षिण में हिन्दी बोली व भाषा की स्थिति अधिक अच्छी नहीं हैं, परन्तु मुझे एसा महसूस हुआ कि यहाँ हिन्दी अधिक शुद्ध व परिष्कृत बोली जाती हैं एवं सभी पत्रिकाओं में विशुद्ध हिन्दी में व उच्च कोटि के साहित्यिक व हिन्दी के समर्थन में विद्वतापूर्ण आलेख प्रस्तुत होते हैं। शायद अभी हिन्दी वेल्ट उत्तर भारत की भांति बाज़ार वाद का अधिक प्रभाव नहीं हैं।

सोमवार, 16 अगस्त 2010

आजादी के साथ साथ ...पछुआ बयार ..डा श्याम गुप्त की कविता ( ब्रज भाषा ) ....

सखि चलि रही पछुआ बयार ,
पुरवैया कैसें चलै |
सब छीनी बसंत बहार,
पुरवैया अब न झलै |.........सखि ..... ||

साडी लहंगा फ़रिया ओढनी,
कतहुं न दीखि परै।
जीन्स टाप पतलून शर्ट मे ,
बिटिया बहू फ़िरै ।

केक पेस्ट्री टोस्ट चाय, औ-
आमलेट कौ कलेऊ ।
दरिया सतुआ हलुआ की नहिं,
कोऊ पूछ करै ।

लस्सी ठंडाई खस केसर-
शर्वत काको भाय ।
दूध नाम ते लरिका रोवें,
आइसक्रीम ललचाय ।

कोल्ड ड्रिन्क ठन्डी- बीयर कौ
नित प्रति दौर चलै ॥..... ...सखि....॥

ऊन्चे मौल में जांय सनीमा
नित बाज़ार करें।
नित होटल नित डांस पार्टी,
नित नव रूप धरें ।

भजन कीर्तन कथा रमायन,
अब कैसिट ते सुनिहें।
काव्य कला साहित्य शास्त्र,औ-
गीता कोऊ न गुनिहै

नेता अफ़सर देश के हित में,
अमरीका चलि जावैं ।
खेत गावं खलिहान की बातें ,
सीखि वहीं ते आवैं ।

हिन्दी सीखन कों यूरप कौ,
दौरम दौर चलै ।.....सखि.......॥

सांचु न्याय ब्रत नेम धरम, अब-
काहू को न सुहाय ।
कारे धन की खूब कमाई,
पीछें सब जग धाय ।

बडौ खराब जमानौ आयौ ,
सब चीखें चिल्लावैं ।
भ्रष्टाचारी चोर अधर्मी,
इक दूज़े को बतावैं ।

अपने घर की ओर न झांकें,
सोई करम करैं ।
अपनी धरती, संस्कार , सब-
हम आपुहि बिसरैं ।

जब तक हम आपुहि न सुधरिहैं,
पुरवैया क्यों चलै ।
सखि चलि रही पछुआ बयार,
महंगाई कैसे घटै।
सब छीनी बसंत बयार,
पुरवैया कैसे चलै ।.......सखि......॥

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

डा श्याम गुप्त की बाल -कविता --लहरा लहरा बढ़ते जाएँ ....

उठा तिरंगा....
स्वाभिमान से शीश उठाकर ,
ऊंचाई के आसमान पर ।
उठा तिरंगा हाथों में हम,
फहरा फहरा चढ़ते जाएँ |

हम हैं गोप गोपिका सुमिरें ,
गोवर्धन धारी कान्हा को।
वह गोविन्द हो सखा हमारा ,
जिसने पूजा धरती माँ को।

धन औ धान्य प्रगति करने को,
हम उसके राही बन जाएँ।
उठा तिरंगा हाथों में हम ,
आसमान पर चढाते जाएँ।

कठिन परिश्रम करें लगा मन ,
सभी सफलता वर सकते हैं।
दृढ इच्छा से कार्य करें तो,
सूरज -चाँद पकड़ सकते हैं।

द्वेष भाव , आतंक भाव तज,
आगम-निगम विचार सुनाएँ ।
जग को शान्ति-मन्त्र देने को ,
गीता वाक्य प्रसार कराएं |

विश्व शान्ति महकाते जाएँ ,
आसमान पर चढ़ते जाएँ।
उठा तिरंगा हाथों में हम,
आसमान पर चढ़ते जाएँ ॥

डा श्याम गुप्त का आलेख...प्राचीन भारत में शल्य चिकित्सा...

प्राचीन भारत में शल्य चिकित्सा

( डा श्याम गुप्त )

प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली अपने समय में अपने समयानुसार अति उन्नत अवस्था में थी। भारतीय चिकित्सा के मूलतः तीन अनुशासन थे—

१. काय चिकित्सा( मेडीसिन)—जिसके मुख्य प्रतिपादक ऋषि - चरक ,अत्रि, हारीति व अग्निवेश २. शल्य चिकित्सा-- मुख्य शल्यक थे - धन्वन्तरि, सुश्रुत, औपधेनव, पुषकलावति.

३. स्त्री एवम बाल रोग- जिसके मुख्य ऋषि कश्यप थे ।

डा ह्रिश्च बर्ग ( जर्मनी) का कथन है—“ The whole plastic surgery in Europe had taken its new flight when these cunning devices of Indian workers became known to us. The transplaats of sensible skin flaps is also Indian method.” डा ह्वीलोट का कथन है-“ vaccination was known to a physician’ Dhanvantari”, who flourished before Hippocrates.” इन से ग्यात होती है, भारतीय चिकित्सा शास्त्र के स्वर्णिम काल की गाथा ।

रोगी को शल्य-परामर्श के लिये उचित प्रकार से भेजा(रिफर) जाता था। एसे रोगियों से काय –चिकित्सक(फिजीसियन) कहा करते थे—“ अत्र धन्वंतरिनाम अधिकारस्य क्रियाविधि । “---अब शल्य चिकित्सक इस रोगी को अपने क्रियाविधि में ले ।

सुश्रुत के समय प्रयोग होने वाली शल्य –क्रिया विधियां------

१. आहार्य-- ठोस वस्तुओंको शरीर से निकालना( Extraction-foren bodies).

२. भेद्य – काटकर निकालना ( Excising).

३. छेद्य – चीरना ( incising)

४. एश्य—शलाका डालना आदि ( Probing )

५. लेख्य—स्कार, टेटू आदि बनाना ( Scarifying )

६. सिव्य—सिलाई आदि करना (suturing)

७. वेध्य—छेदना आदि (puncturing etc)

८. विस्रवनिया---जलीय अप-पदार्थों को निकालना( Tapping body fluids)

शल्य क्रिया पूर्व कर्म ( प्री-आपरेटिव क्रिया)--- रात्रि को हलका खाना, पेट, मुख, मलद्वार की सफ़ाई, ईश-प्रार्थना, सुगन्धित पौधे, बत्तियां –नीम, कपूर. लोबान आदि जलाना ताकि कीटाणु की रोकथाम हो।

शल्योपरान्त कर्म—रोगी को छोडने से पूर्व ईश-प्रार्थना, पुल्टिस लगाकर घाव को पट्टी करना,, प्रतिदिन नियमित रूप से पट्टी बदलना जब तक घाव भर न जाय, अधिक दर्द होने पर गुनुगुने घी में भीगा कपडा घाव पर रखा जाता था।

सुश्रुत के समय प्रयुक्त शल्य-क्रिया के यन्त्र व शस्त्र—(Instuments & Equppements)-

कुल १२५ औज़ारों का सुश्रुत ने वर्णन किया है---( देखिये संलग्न- चित्र-१,२,३, )

(अ)—यन्त्र—( अप्लायन्स)—१०५—स्वास्तिक(फ़ोर्सेप्स)-२४ प्रकार; सन्डसीज़( टोन्ग्स)-दो प्रकार; ताल यन्त्र( एकस्ट्रेक्सन फ़ोर्सेप्स)-दो प्रकार; नाडी यन्त्र-( केथेटर आदि)-२० प्रकार; शलाक्य(बूझी आदि)-३० प्रकार; उपयन्त्र –मरहम पट्टी आदि का सामान;--कुल १०४ यन्त्र; १०५ वां यन्त्र शल्यक का हाथ ।

(ब)—शस्त्र-( इन्सट्रूमेन्ट्स)—२०—चित्रानुसार.

इन्स्ट्रूमेन्ट्स सभी परिष्क्रत लोह ( स्टील ) के बने होते थे।, किनारे तेज, धार-युक्त होते थे , वे लकडी के बक्से में ,अलग-अलग भाग बनाकर सुरक्षित रखे जाते थे ।

अनुशस्त्र—( सब्स्टीच्यूड शस्त्र)—बम्बू, क्रस्टल ग्लास, कोटरी, नेल, हेयर, उन्गली आदि भी घाव खोलने में प्रयुक्त करते थे ।

निश्चेतना ( एनास्थीसिया)—बेहोशी के लिये सम्मोहिनी नामक औषधियां व बेहोशी दूर करने के लिये संजीवनी नामक औषधियां प्रयोग की जाती थीं ।



3अनुलग्नक
praachi-shaly-instr-1.jpgpraachi-shaly-instr-1.

instr-2.jpginstr-२.

instr-3.jpginstr-३.