शीत - ऋतु----
१. (श्याम घनाक्षरी --३० वर्ण , १६-१४, अंत दो गुरु -यगण)
थर थर थर थर , कांपें सब नारी नर,
आई फिर शीत ऋतु , सखि वो सुजानी |
सिहरि सिहरि उड़े ,जियरा पखेरू सखि ,
उर मांहि उमंगाये , पीर वो पुरानी |
बाल वृद्ध नारी नर, धूप बैठे तापि रहे ,
धूप भी है कुछ , खोई सोई अलसानी |
शीत की लहर तीर भांति तन बेधि रही,
मन उठै प्रीति की ,वो लहर अजानी ||
२.( श्याम घनाक्षरी -३० वर्ण ,१६-१४, अंत दो गुरु - मगण)
बहु भांति पुष्प खिलें, कुञ्ज क्यारी उपवन,
रंग- विरंगी ओढे, धरती रजाई है |
केसर अबीर रोली,कुंकुंम ,मेहंदी रंग,
घोल के कटोरों में, भूमि हरषाई है |
फैलि रहीं लता चहुँ और मनमानी किये,
द्रुम चढीं शर्मायं ,मन मुसुकाई हैं |
तिल मूंग बादाम के लड्डू घर घर बनें ,
गज़क मंगोड़ों की बहार सी छाई है ||
३.( मनहरण घनाक्षरी -३१ वर्ण ,१६-१५,अंत लघु-गुरु -रगण )
ठंडी ठंडी भूमि नंगे पाँव लगे हिमशिला ,
जल छुए लगे छुआ बिजली का तार है |
कठिन नहाना नल लगे जैसे सांप कोई,
काँप रहा तन चढ़ा जूडी का बुखार है |
शीत में तुषार से है मंद रवि प्रभा हुई,
पत्तियों पै बहे ओस जैसे अश्रु धार है |
घर बाग़ वन जला आग बैठे लोग जैसे,
ऋषि मुनि करें यज्ञ विविधि प्रकार हैं ||
-----डा श्याम गुप्त , के--३४८, आशियाना , लखनऊ-२२६०१२ .
2 टिप्पणियां:
आपसे वार्तालाप कर व आपकी पुस्तकों की गूढ़ता जान आनन्द आ गया। रही सही कसर इन कविताओं ने पूरी कर दी। आभार।
प्रवीण जी, सुखद अनुभव रहा आपसे मुलाकात एवं परस्पर विचार विनिमय का...
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