अब इसे संत-महिमा न कहा जाय तो क्या कहा जायगा कि शिरडी जो एक छोटा सा स्थान था आज साईं-महिमा के कारण एक उन्नत, स्थानीय जनता के लिए अर्थ-प्राप्ति,उद्योग-धंधे का साधन बन चुका है | ऊंचे ऊंचे भवनों से विस्तृत होता जारहा है | यही तो महिमा है संतों की, संत-स्थानों की, तीर्थों की, ईश-स्थानों की |
यह भारतीय अर्थ-शास्त्र का अर्थ-चक्र है | विपणन व स्वतंत्र अर्थ व्यवस्था का क्रम जो किसी भी आर्थिक मंदी-तेजी, बाज़ार -गिरावट से प्रभावित नहीं होता यही तो संत-महिमा, ईश-कृपा व तीर्थों का सांस्कृतिक आधार है ; व्यवहारिक पक्ष है...धर्म-चक्र के साथ अर्थ का क्रम ...| धर्म अर्थ काम व मोक्ष का संतुलित व्यवहारिक क्रम...जैसा ईशोपनिषद में कहा गया है....
"विद्यान्चाविद्यां च यस्तदवेदोभय सह | अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विध्ययामृतमश्नुते ||"----अर्थात अज्ञान (संसार, कर्म ) और ज्ञान (धर्म , ईश्वरीय भाव )दोनों को साथ साथ लेकर चलना चाहिए| संसार से मृत्यु को पार किया जाता है और ज्ञान से अमृत की प्राप्ति होती है |
परन्तु मानवीय लालच क्या नहीं करता | "अति सर्वत्र वर्ज्ययेत "...वह लालच संतों आदि को भी बदनामी की राह पर लेजाता है| जो साईं-बाबा श्रृद्धा-सबूरी, धैर्य का अनुसरण व गुणगान और उपदेश देते देते ,एक चोगे, पगड़ी व एक लोटे के साथ जीवन गुजारते रहे , उन्हें आज उनके अनुयायी अपने आर्थिक लाभ-धंधे के लिए सोने के मुकुट के साथ स्वर्ण-सिंहासन पर आसीन कर रहे हैं |
वहीं अन्य देव स्थानों की भांति दुकानदारों ने अपने एजेंट रख छोड़े हैं जो प्रशासन की स्पष्ट नीति-निर्देशों की कमी व अक्षमता के कारण दर्शनार्थियों को ठगने से भी नहीं चूकते | जहां अन्य देव स्थानों पर 5/ 10/ 15/ रुपये का प्रसाद व अन्य पुष्प आदि मिलाजाते हैं वहीं यहाँ ३५१/ का सामान जबरास्ती दिया जारहा है |
मंदिर के अन्दर ही शनिदेव , गणेश व शिव आदि के मंदिर भी स्थापित कर दिए गए हैं ताकि धंधा आगे बढ़ता रहे, अन्य स्थानों का धंधा भी यहीं रहे जैसे एक दुकानदार अपने यहाँ सभी सामान रख लेता है कि ग्राहक कहीं और न जाय | मंदिर के अन्दर ही खाने-पीने का सामान भी होना धंधे को केन्द्रित करने के सामान ही है| आखिर फोटो लेने को क्यों मना है,इसमें कौन सा सुरक्षा-बिंदु है , हाँ लोग यहाँ आने की बजाय घर पर ही दर्शन न करने लगें व कलेंडर बिकना कम न होजायं यह भाव होसकता है |
दर्शन के लिए ढाई घंटे खड़े रहना जहां धैर्य की सीख देता है व कार्य-मुक्ति के कारण तनाव कम करता है जो इन स्थानों का दार्शनिक व चिकित्सकीय पहलू भी है | परन्तु क्या ढाई घंटे खड़े रहना स्वयं में ही तनाव नहीं है |
वस्तुतः कोइ भी संस्थान, देव-स्थान -संस्थान, तंत्र अधिक बड़ा व फैलाव वाला होना ही नहीं चाहिए | इससे अनास्था, अनाचार, भ्रष्टाचार को प्रश्रय मिलता है | अस्पतालों, कंपनियों व सरकारों के लिए भी यह सच है |
6 टिप्पणियां:
यह सिर्फ शिर्डी की कथा नहीं,बल्कि हर धार्मिक स्थान,हर धार्मिक संस्था व्यापार कर रही है.
जब तक कोई धर्म आत्मा जीवित रहती है तब तक तो धर्म रहता है ,उनके अवसान के बाद व्यापार शुरू हो जाता है.
आस्था का मन्दिर आस्था का स्रोत बने।
सही कहा सेग्बोब जी...हर धार्मिक स्थान-संस्था एक महत उद्देश्य के साथ प्रारम्भ होती है...और मानवीय लालच के कारण पतन को प्राप्त होना प्रारम्भ कर देती है....
---बुराई जड संस्थाओं सन्स्थानों में नही....बुराई की जड चेतन मनुष्य में ही होती है....
धन्यवाद प्रवीण जी...आस्था के मन्दिर तो आस्था के श्रोत ही होते हैं परन्तु मानवीय लालच उन्हें अनास्था में ढकेल देता है....
तीर्थ स्थानों की महिमा का अपना महत्व है, लेकिन वहाँ मनुष्य की धार्मिक भावनाओं का व्यावसायिक दोहन नहीं होना चाहिए. खेद का विषय है कि आज हमारे समाज में इसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है. धर्म के नाम पर सार्वजनिक भूमि और सार्वजनिक संपत्ति पर अवैध कब्जे भी हो रहे हैं. शिरडी के सत्य साईं बाबा तो एक महान और दिव्य विभूति थे . हम लोग उनकी पूजा -वन्दना ज़रूर करें , पर पूजा-आरती तभी सार्थक होगी,जब हम उनके बताए मार्ग पर चलकर मानवता की भलाई के लिए कुछ कर दिखाएँ. बहरहाल आपने एक अच्छा विषय उठाया है. चिंतन-परक आलेख के लिए आभार.
सत्य बचन करुण जी...यह व्यवसायिक दोहन ही तो समस्त बुराइयों की जड है....महान व दिव्य विभूतियों ने कब कहा कि उनके बताये रास्ते पर चलने की अपेक्षा उनके मन्दिर आदि बनवाये जांय, हर गली चौराहे पर उनकी मूर्तियां बनाकर पूजा की जाय....
एक टिप्पणी भेजें