....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
मैं रेस्ट हाउस के बरांडे में कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ, सामने आम के पेड़ के नीचे बच्चे पत्थर मार- मार कर आम तोड़ रहे हैं | कुछ पेड़ पर चढ़े हुए हैं, बाहर बर्षा की हल्की-हल्की बूँदें (फुहारें) गिर रहीं हैं ... सामने पहाडी पर कुछ बादल रेंगते हुए जारहे हैं | कुछ साधनारत योगी की भांति जमे हुए हैं..... निरंतर बहती हुई पर्वतीय नदी की धारा 'चरैवेति -चरेवैति ' का सन्देश देती हुई प्रतीत होती है, बच्चों के शोर में मैं मानो अतीत में खोजाता हूँ ....गाँव में व्यतीत छुट्टियां, गाँव के संगी साथी .... बर्षा के जल से भरे हुए गाँव के तालाव पर कीचड में घूमते हुए..... मेढ़कों को पकड़ते हुए , घुटनों -घुटनों जल में दौड़ते हुए ..... मूसलाधार बर्षा के पानी में ठिठुर-ठिठुर कर नहाते हुए ; एक-एक करके सभी चित्र मेरी आँखों के सामने तैरने लगते हैं | सामने अभी-अभी पेड़ से टूटकर एक पका आम गिरा है, बच्चों की अभी उस पर निगाह नहीं गयी है.... बड़ी तीब्र इच्छा होती है उठाकर चूसने की अचानक ही लगता है जैसे मैं बहुत हल्का होगया हूँ और बहुत छोटा..... दौड़कर आम उठा लेता हूँ ..वाह! क्या मिठास है ! ....मैं पत्थर फेंक-फेंक कर आम गिराने लगता हूँ... कच्चे-पक्के , मीठे-खट्टे .....अब पेड़ पर चढ कर आम तोड़ने लगता हूँ .....पानी कुछ तेज बरसने लगा है, मैं कच्ची पगडंडियों पर नंगे पाँव दौड़ा चला जारहा हूँ , कीचड भरे रास्ते पर....... पानी और तेज बरसने लगता है..... बरसाती नदी अब अजगर के भांति फेन उगलती हुई फुफकारने लगी है....... पानी अब मूसलाधार बरसने लगा है .....सारी घाटी बादलों की गडगडाहट से भर जाती है... और मैं बच्चों के झुण्ड में इधर-उधर दौड़ते हुए गारहा हूँ ---
""बरसो राम धडाके से , बुढ़िया मरे पडाके से ""
" साहब जी ! मोटर ट्राली तैयार है ", अचानक ही बूटा राम की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूट जाती है, .....सामने पेड़ से गिरा आम अब भी वहीं पडा हुआ है..... बच्चे वैसे ही खेल रहे हैं | मैं उठकर चलदेता हूँ वरांडे से वाहर ,हल्की-हल्की फुहारों में.... सामने से दौलत राम व बूटा राम छाता लेकर दौड़ते हुए आते हैं , ' साहब जी ऐसे तो आप भीग जाएँगे ' और मैं गंभीरता ओढ़ कर बच्चों को, पेड़ को .आम को व मौसम को हसरत भरी निगाह से देखता हुआ टूर पर चल देता हूँ |
मैं रेस्ट हाउस के बरांडे में कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ, सामने आम के पेड़ के नीचे बच्चे पत्थर मार- मार कर आम तोड़ रहे हैं | कुछ पेड़ पर चढ़े हुए हैं, बाहर बर्षा की हल्की-हल्की बूँदें (फुहारें) गिर रहीं हैं ... सामने पहाडी पर कुछ बादल रेंगते हुए जारहे हैं | कुछ साधनारत योगी की भांति जमे हुए हैं..... निरंतर बहती हुई पर्वतीय नदी की धारा 'चरैवेति -चरेवैति ' का सन्देश देती हुई प्रतीत होती है, बच्चों के शोर में मैं मानो अतीत में खोजाता हूँ ....गाँव में व्यतीत छुट्टियां, गाँव के संगी साथी .... बर्षा के जल से भरे हुए गाँव के तालाव पर कीचड में घूमते हुए..... मेढ़कों को पकड़ते हुए , घुटनों -घुटनों जल में दौड़ते हुए ..... मूसलाधार बर्षा के पानी में ठिठुर-ठिठुर कर नहाते हुए ; एक-एक करके सभी चित्र मेरी आँखों के सामने तैरने लगते हैं | सामने अभी-अभी पेड़ से टूटकर एक पका आम गिरा है, बच्चों की अभी उस पर निगाह नहीं गयी है.... बड़ी तीब्र इच्छा होती है उठाकर चूसने की अचानक ही लगता है जैसे मैं बहुत हल्का होगया हूँ और बहुत छोटा..... दौड़कर आम उठा लेता हूँ ..वाह! क्या मिठास है ! ....मैं पत्थर फेंक-फेंक कर आम गिराने लगता हूँ... कच्चे-पक्के , मीठे-खट्टे .....अब पेड़ पर चढ कर आम तोड़ने लगता हूँ .....पानी कुछ तेज बरसने लगा है, मैं कच्ची पगडंडियों पर नंगे पाँव दौड़ा चला जारहा हूँ , कीचड भरे रास्ते पर....... पानी और तेज बरसने लगता है..... बरसाती नदी अब अजगर के भांति फेन उगलती हुई फुफकारने लगी है....... पानी अब मूसलाधार बरसने लगा है .....सारी घाटी बादलों की गडगडाहट से भर जाती है... और मैं बच्चों के झुण्ड में इधर-उधर दौड़ते हुए गारहा हूँ ---
""बरसो राम धडाके से , बुढ़िया मरे पडाके से ""
" साहब जी ! मोटर ट्राली तैयार है ", अचानक ही बूटा राम की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूट जाती है, .....सामने पेड़ से गिरा आम अब भी वहीं पडा हुआ है..... बच्चे वैसे ही खेल रहे हैं | मैं उठकर चलदेता हूँ वरांडे से वाहर ,हल्की-हल्की फुहारों में.... सामने से दौलत राम व बूटा राम छाता लेकर दौड़ते हुए आते हैं , ' साहब जी ऐसे तो आप भीग जाएँगे ' और मैं गंभीरता ओढ़ कर बच्चों को, पेड़ को .आम को व मौसम को हसरत भरी निगाह से देखता हुआ टूर पर चल देता हूँ |
8 टिप्पणियां:
बचपन की याद दिला दी आपने बहुत सुन्दर सहज रचना बधाई आपको
मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं आपके साथ हैं !
उमंगों के आगे है कर्तव्य का राह।
ये तो मन की बात है मानो तो बच्चे मानो तो जवान या अगर मान लो तो भरी जवानी में बूढ़े
धन्यवाद...पांडे जी...हाँ कर्तव्य-पथ तो आवश्यक है ही...
--धन्यवाद शर्मा जी व आशुतोष ....
आपने अपनी स्मृतियों के अहसासों का अहसास करवाया.अच्छा लगा.
धन्यवाद राकेश जी...
स्मृतियाँ तो मन की लहरें है,
फिर फिर दस्तक दे देती हैं |
insan ne apni hi sankoch ki chahrdiwari me khud ko kaid kar rakha hai...aur jeevan ki in chhoti chhoti aur mahatvpoorn khushiyon se khud ko vanchit kar diya hai...bhavpoorn...
धन्यवाद कविता जी...
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