....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
वहीं दूसरी ओर स्त्री -पुरुष स्वच्छंदता के अनुचित परिणाम आने लगे...तो नैतिकता के प्रश्न उठे एवं स्त्री-पुरुष दोनों के लिए ही नैतिकता , शुचिता के नियम बने | धर्म, अध्यात्म , योग, ब्रह्मचर्य आदि भाव पुरुषों के लिए बने, ताकि स्त्रियों की अमर्यादा भाव व यौवन-काम की उद्दाम भावनाओं को पुरुष- निर्लिप्तता द्वारा भी मर्यादित किया जा सके..... गंगा अवतरण व शिव का उसे अपनी जटाओं में बाँध लेना सिर्फ नदी कथा नहीं अपितु नारी के उद्दाम वेग को योग द्वारा नियंत्रण की कथा भी है.... क्योंकि अनुभव में स्त्रियाँ अधिक हानि उठाने वाली स्थिति में होती थीं अतः मर्यादा, आचरण, शुचिता के बंधन अधिक कठोर होने लगे कुलीन, शिक्षित व सदाचारी स्त्रियों ने स्वयं ही त्याग, भक्ति, सतीत्व आदि के उदात्त भाव स्वीकार किये व राजनैतिक और परिस्थितियों वश वे पुरुष की परमुखापेक्षी व बंधन में होती गयीं, और समाज पूर्ण रूप से पुरुष अधिकारत्व समाज में परिवर्तित होता गया. |
पुरुष सत्तात्मक समाज में भी नारी की स्थिति कोई दासी की नहीं रही, अपितु सलाहकार की आदरणीय स्थिति थी | देखा जाय तो प्रारंभ से ही मूलतः समाज व्यवस्था की तीन धाराएं दिखाई पडती हैं----आदम को फल देने वाली व भटकाकर स्वर्ग से च्युत कराने वाली घटना पाश्चात्य देशों व अरब देशों में है जबकि भारत में यह घटना मनु , इडा व श्रृद्धा की आदरणीय भाव की कथा है | अतः मूलतः पाश्चात्य समाज में नारी को अपराधी, शैतान की कृति आदि माना जाता रहा वहीं भारत में वह सदा आदरणीय रही | इस प्रकार ....
----प्रथम धारा --जिसमें योरोप, अमेरिका, द अमेरिका, चीन, अफ्रीका, मध्य एशिया आदि भाग थे ...जिनमें मूलतः स्त्री सतात्त्मक समाज होने पर भी, अडम्स व ईव की कथा के कारण स्त्री को गर्हित समझा जाता रहा व युद्धों में उन्हें लूट, उपयोग व उपभोग की सामग्री व वलात्कार व अत्याचार के योग्य समझा जाता रहा|
----द्वितीय धारा----जिसमें मूलतः भूमध्य सागर के समीपवर्ती देश, अरब भूमिखंड , उत्तरी अफ्रीकी देश आदि थे , जिनमें मूलतः पुरुष सत्तात्मक समाज होने पर भी आदम व हव्वा --कथा के कारण ..स्त्री को उपभोग, लूट व वलात्कार की सामग्री समझा जाता रहा और अत्याचारों का सिलसिला रहा |
---तृतीय धारा.....जो सिर्फ भारतीय उप महादीपीय भूखंड में रही....जहां आदि कथा आदम -हब्बा की न होकर मनु-इडा-श्रृद्धा की है ...जो अनुशासन, विद्वता व श्रृद्धा भावना की प्रतीक हैं.....अतः भारत में पुरुष प्रधान समाज होने पर भी सदैव से ही नारी विद्वता, कला की प्रतीक व आदर का पात्र रही | भारत में भी -द.भारत में स्त्री- सत्तात्मक व्यवस्था -स्त्री व्यवस्थात्मक परिवार में परिवर्तित होकर आज भी चल रही है वहीं अधिक उन्नत होने पर उत्तर भारत में पुरुष परिवार नियामक व्यवस्था बनी ---परन्तु दोनों व्यवस्थाओं में ही स्त्री आदर का पात्र रही | उसे कभी भी पाश्चात्य देशों की भाँति शैतान की कृति नहीं समझा गया......यह इस बात का द्योतक है की मनुष्य अपनी प्राचीन व्यवस्थाओं के साथ उत्तर भारत से पहले समस्त उत्तर- पश्चिम व पूर्व की दुनिया में फैला एवं आगे प्रगति से दूर रहने के कारण पुरा-युग में रहा (इसी प्रकार दक्षिण भारत में ) परन्तु अपने मूल स्थान उत्तर भारतीय भूखंड में नए नए उन्नत व्यवस्थाओं की स्थापना करता रहा.... | इसीलिये आज भी भौतिकता व उससे सम्बंधित भोग पूर्ण उन्नति पाश्चात्य व्यवस्था का भाव रहा जबकि धर्म, अध्यात्म, मानवता के भाव के साथ साथ उन्नति भारतीय भूभाग का मूल चरित्र रहा |
------- यूं तो पुरुष सत्तात्मक समाज में मानव सर्वाधिक उन्नति की और अग्रसर हुआ| परन्तु फिर भी प्रारम्भ से ही ईश्वर सत्ता को चुनौती के साथ साथ, आसुरी-भाव व दैवीय-भावों के द्वंद्व प्रारम्भ होने से अनाचार , अत्याचार , द्वंद्व आदि प्रारम्भ होगये थे | परन्तु नारी मूलतः स्वतंत्र व आदरणीय थी | हाँ स्त्रियों द्वारा प्रेम भक्ति के कारण स्वयं की ओढी हुई --त्याग, श्रृद्धा, भक्ति, पति पारायणता की सतीत्व भावना ( यह सामंती- युग की सती प्रथा नहीं थी ) की नींव पड़ने लगी थी | साथ ही साथ आसुरी-भाव समाज में स्त्री स्वच्छंदता भी चलती रही | राम की शबरी, अहल्या प्रसंग व कृष्ण-राधा का प्रेम प्रसंग और कुब्जा प्रसंग व द्रौपदी का सखा भाव इसी प्रेम भक्ति स्वतन्त्रता व आदर भाव के उदारहरण माने जा सकते हैं | स्वयंवर आदि प्रथाएं भी इसी का प्रतीक हैं | यद्यपि.राजनैतिक कारणों से या प्रेम -प्रसंगों के कारण स्वयंबर प्रथा व आठ प्रकार के विवाह अस्तित्व में आये परन्तु स्त्रियों के अधिकार सीमित होने प्रारम्भ होगये थे....स्त्रियों के सदैव पिता, पति व पुत्र की सुरक्षा में रहने के उपक्रम भी उपस्थित हुए | शर्तों पर स्वयंवर----सीताके लिए धनुष-यज्ञ , द्रौपदी के लिए मछली की आँख भेदन आदि शर्तें मूलतः स्त्री की स्वायत्तता पर अंकुश का ही प्रतीक हैं |
वहीं दूसरी ओर स्त्री -पुरुष स्वच्छंदता के अनुचित परिणाम आने लगे...तो नैतिकता के प्रश्न उठे एवं स्त्री-पुरुष दोनों के लिए ही नैतिकता , शुचिता के नियम बने | धर्म, अध्यात्म , योग, ब्रह्मचर्य आदि भाव पुरुषों के लिए बने, ताकि स्त्रियों की अमर्यादा भाव व यौवन-काम की उद्दाम भावनाओं को पुरुष- निर्लिप्तता द्वारा भी मर्यादित किया जा सके..... गंगा अवतरण व शिव का उसे अपनी जटाओं में बाँध लेना सिर्फ नदी कथा नहीं अपितु नारी के उद्दाम वेग को योग द्वारा नियंत्रण की कथा भी है.... क्योंकि अनुभव में स्त्रियाँ अधिक हानि उठाने वाली स्थिति में होती थीं अतः मर्यादा, आचरण, शुचिता के बंधन अधिक कठोर होने लगे कुलीन, शिक्षित व सदाचारी स्त्रियों ने स्वयं ही त्याग, भक्ति, सतीत्व आदि के उदात्त भाव स्वीकार किये व राजनैतिक और परिस्थितियों वश वे पुरुष की परमुखापेक्षी व बंधन में होती गयीं, और समाज पूर्ण रूप से पुरुष अधिकारत्व समाज में परिवर्तित होता गया. |
फिर भी भारत में स्त्रियों की अवस्था दासी की भांति नहीं थी, यह सीता व राधा के चरित्र से समझा जा सकता है कि उनमें विरोध के स्वर तो हैं पर असामाजिकता के तत्व नहीं अपितु स्वयं ओढी हुई प्रेम-दास्य भावना है, जबकि विश्व के अन्य सभी समाजों में स्त्रियों को मानवी मानने में भी शक था, उन्हें शैतान की कृति, पापी समझा जाता था एवं हर प्रकार से तिरस्कार व अत्याचार के योग्य | मिश्र, बेबीलोन आदि की संस्कृतियाँ व नेफ्रेतीती आदि की कथाओं के प्रसंगों, से यह समझा जा सकता है |
---चित्र साभार....
-----क्रमश ...भाग --६
---चित्र साभार....
-----क्रमश ...भाग --६
2 टिप्पणियां:
सुगढ़ व्याख्या।
सर बहुत ही उपयुक्त संयोजन - नारी के रूप और भारत दर्शन पर
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