....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
भाग -दो
( अन्य भारतीय ज्ञान व विद्याओं की भाँति भारतीय चिकित्सा विज्ञान भी अत्यंत विकसित था । गुलामी के काल में अन्य ज्ञान व विध्याओं की भाँति सुनियोजित षडयंत्र व क्रमिक प्रकार से इसका भी प्रसार व विकास भी रोका गया ताकि एलोपेथिक आदि पाश्चात्य चिकित्सा को प्रश्रय दिया जा सके । अतः भारत के इतिहास के अन्धकार काल में आयुर्वेद का कोई उत्थान नहीं हुआ अपितु निरंतर गिरावट होती रही । हर्ष का विषय है की आज भारत के नए भोर के साथ आयुर्वेद भी नए नए आयाम छू रहा है। आयुर्वेद के नाम से जाना जाने वाला यह आदि चिकित्सा विज्ञान है, जिसके सारभूत सिद्धांतों से विश्व के सभी चिकित्सा-विज्ञान प्रादुर्भूत हुए हैं । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लगभग सभी अंग-उपांग आयुर्वेद में पहले ही निहित हैं। यद्यपि आजकल आयुर्वेद "प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति' के संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होता । इस क्रमिक पोस्ट द्वारा हम आयुर्वेद के इस विशद ज्ञान को संक्षिप्त में वर्णन करेंगे । )
भाग -दो
आयुर्वेद का अर्थ, मूल दर्शन-सिद्धान्त एवं प्राणी-मानव व उसके प्रत्येक संघटक का संक्षिप्त परिचय ----
आयुर्वेद का अर्थ प्राचीन आचार्यों की व्याख्या और इसमें आए हुए 'आयु' और 'वेद' इन दो शब्दों के अर्थों के अनुसार बहुत व्यापक है। आयुर्वेद के आचार्यों ने 'शरीर, इंद्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग' को आयु कहा है। अत आयुर्वेद के सिद्धान्तों को जानने के लिये इन सभी को जानना आवश्यक है । इन चारों के संपत्ति (सद्गुण ) या विपत्ति (दुर्गुण ) के अनुसार आयु के अनेक भेद होते हैं, किंतु संक्षेप में इसे चार प्रकार का माना गया है :
आयु….
(१) सुखायु : किसी प्रकार के शीरीरिक या मानसिक विकास से रहित होते हुए, ज्ञान, विज्ञान, बल, पौरुष, धन-धान्य, यश, परिजन आदि साधनों से समृद्ध व्यक्ति को "सुखायु' कहते हैं।
(२) दुखायु : इसके विपरीत समस्त साधनों से युक्त होते हुए भी, शरीरिक या मानसिक रोग से पीड़ित अथवा निरोग होते हुए भी साधनहीन या स्वास्थ्य और साधन दोनों से हीन व्यक्ति को "दु:खायु' कहते हैं।
(३) हितायु : स्वास्थ्य और साधनों से संपन्न होते हुए या उनमें कुछ कमी होने पर भी जो व्यक्ति विवेक, सदाचार, सुशीलता, उदारता, सत्य, अहिंसा, शांति, परोपकार आदि आदि गुणों से युक्त होते हैं और समाज तथा लोक के कल्याण में निरत रहते हैं उन्हें हितायु कहते हैं।
(४) अहितायु : इसके विपरीत जो व्यक्ति अविवेक, दुराचार, क्रूरता, स्वार्थ, दंभ, अत्याचार आदि दुर्गुणों से युक्त और समाज तथा लोक के लिए अभिशाप होते हैं उन्हें अहितायु कहते हैं।
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वेद …..शब्द का मूल अर्थ है ..ज्ञान…. सत्ता, लाभ, गति, विचार, प्राप्ति, ज्ञान और ज्ञान के साधन आदि भी इसके अर्थ होते हैं,….।
शरीर…
१-रचना---(एनाटोमी) समस्त प्रक्रियाओं व चेष्टाओं, इंद्रियों, मन ओर आत्मा के आधारभूत पन्च भौतिक पिंड को शरीर कहते हैं। मानव शरीर के स्थूल रूप में छह अंग हैं; दो हाथ, दो पैर, शिर और ग्रीवा, तथा अंतराधि (मध्यशरीर) । इन अंगों के अवयवों को -प्रत्यंग कहते हैं,यथा---मूर्धा (हेड), ललाट, भ्रू, नासिका, अक्षिकूट (ऑर्बिट),) कर्ण (कान),गंड (गाल), जिह्वा (जीभ), स्तन आदि ।
इनके अतिरिक्त आन्तरिक अन्गों --हृदय, फुफ्फुस (लंग्स), यकृत (लिवर), प्लीहा (स्प्लीन), आमाशय (स्टमक), पित्ताशय (गाल ब्लैडर), वृक्क (गुर्दा, किडनी), वस्ति (यूरिनरी ब्लैडर), क्षुद्रांत (स्मॉल इंटेस्टिन), स्थूलांत्र (लार्ज इंटेस्टिन), गुदा (रेक्टम) आदि को ..कोष्ठांग कहते हैं ।
सिर में सभी इंद्रियों और प्राणों के केंद्रों का स्थान मस्तिष्क (ब्रेन)है।
आयुर्वेद ( एवं गर्भोपनिषद ) के अनुसार सारे शरीर में ३००८ अस्थियां हैं, तथा संधियाँ (ज्वाइंट्स) २००, स्नायु (लिंगामेंट्स) ९००, शिराएं (ब्लड वेसेल्स, लिफ़ैटिक्स ऐंड नर्ब्ज़) ७००, धमनियां (क्रेनियल नर्ब्ज़) २४ और उनकी शाखाएं २००, पेशियां (मसल्स) ५०० (स्त्रियों में २० अधिक) तथा सूक्ष्म स्त्रोत ३०,९५६ व साडे चार करोड रोम और १०७ मर्म स्थान हैं।
२-धातुयें व क्रिया-शास्त्र-( फ़िज़िओलोजी) --- आयुर्वेद के अनुसार शरीर में रस (बाइल ऐंड प्लाज्मा), रक्त, मांस, मेद (फ़ैट), अस्थि, मज्जा (बोन मैरो) और शुक्र (सीमेन), ये सात धातुएं हैं। -----
-----आहाररूप में लिया हुआ पदार्थ पाचकाग्नि,( आमाशय व आन्त्रों में पाचन क्रिया digestion )- भूताग्नि ( शरीर के आन्तरिक तन्त्र में रासायनिक प्रक्रियायें---एसीमिलेशन ) और विभिन्न धात्व अग्नियो ( धातुओं के स्वयं के आन्तरिक रासायनिक प्रक्रिया –internal mileu ) द्वारा परिपक्व होकर अनेक परिवर्तनों (chemical changes) के बाद पूर्वोक्त धातुओं के रूप में परिणत होकर इन धातुओं का पोषण करता है। ……..इस पाचनक्रिया में आहार का जो सार भाग होता है उससे रस धातु का पोषण होता है और जो व्यर्थ-भाग बचता है उससे मल (विष्ठा) और मूत्र बनता है। ……यह रस हृदय से होता हुआ शिराओं( circulation system) द्वारा सारे शरीर में पहुँचकर प्रत्येक धातु और अंग को पोषण प्रदान करता है। ………धात्वग्नियों से पाचन होने पर… रस आदि धातु के सार भाग से रक्त आदि धातुओं एवं शरीर का भी पोषण होता है तथा धातुओं के स्वयं के व्यर्थ भाग से मलों (शरीर द्वारा त्याज्य भाग) की उत्पत्ति होती है…. जैसे रस से कफ; रक्त पित्त; मांस से नाक, कान और नेत्र आदि के द्वारा बाहर आनेवाले मल; मेद से स्वेद (पसीना); अस्थि से केश तथा लोम (सिर के और दाढ़ी, मूंछ आदि के बाल) और मज्जा से आंख का कीचड़ मलरूप में बनते हैं। शुक्र में कोई मल नहीं होता, उसके सारे भाग से ओज (बल) की उत्पत्ति होती है।
इन्हीं रस आदि धातुओं से अनेक उपधातुओं की भी उत्पत्ति होती है, यथा रस से दूध, रक्त से कंडराएं (टेंडंस) और शिराएँ, मांस से वसा (फ़ैट), त्वचा ,मेद से स्नायु (लिंगामेंट्स), अस्थि से दांत, मज्जा से केश और शुक्र से ओज नामक उपधातु की उत्पत्ति होती है।
ये धातुएं और उपधातुएं विभिन्न अवयवों में विभिन्न रूपों में स्थित होकर शरीर की विभिन्न क्रियाओं में उपयोगी होती हैं। जब तक ये उचित परिमाण और स्वरूप में रहती हैं और इनकी क्रिया स्वाभाविक रहती है तब तक शरीर स्वस्थ रहता है और जब ये न्यून या अधिक मात्रा में तथा विकृत स्वरूप में होती हैं तो शरीर में रोग की उत्पत्ति होती है।
शरीर की उत्पत्ति---उचित परिस्थिति में शुद्ध रज और शुद्ध वीर्य का संयोग होने और उसमें आत्मा का संचार होने से माता के गर्भाशय में शरीर का आरंभ होता है। इसे ही गर्भ कहते हैं। माता के आहारजनित रक्त से अपरा (प्लैसेंटा) और गर्भनाड़ी के द्वारा, जो नाभि से लगी रहती है, गर्भ पोषण प्राप्त करता है। यह गर्भोदक( प्लेसेन्तल सैक) में निमग्न रहकर उपस्नेहन द्वारा भी पोषण प्राप्त करता है तथा प्रथम मास में कलल (जेली) और द्वितीय में घन होता है? तीसरे मास में अंग प्रत्यंग का विकास आरंभ होता है। चौथे मास में उसमें अधिक स्थिरता आ जाती है तथा गर्भ के लक्षण माता में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगते हैं। इस प्रकार यह माता की कुक्षि में उत्तरोत्तर विकसित होता हुआ जब संपूर्ण अंग, प्रत्यंग और अवयवों से युक्त हो जाता है, तब प्राय: नवें मास में कुक्षि से बाहर आकर नवीन प्राणी के रूप में जन्म ग्रहण करता है।
----गर्भोपनिषद के अनुसार………रितुकाले सम्प्रयोगादक रात्रौषितं कललं भवति , सप्त रात्रौषितं बुद्बुद भवति, अर्ध मासान्तरे पिण्डो भवति..। सप्त मासान्तरे जीवेन संयुक्तो भवति…अष्ठं मासे सर्व लक्षणो सम्पूर्ण भवति ।
इंद्रिय--- मानव शरीर कुछ अवयवों से सिर्फ़ कार्य-विशेष ही सम्पन्न होता है उनमें उस कार्य के लिए शक्तिसंपन्न एक विशिष्ट सूक्ष्म रचना होती है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन बाह्य विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए क्रमानुसार कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका ये अवयव इंद्रियाश्रय अवयव (विशेष इंद्रियों के अंग) कहलाते हैं और इनमें स्थित विशिष्ट शक्तिसंपन्न सूक्ष्म वस्तु को इंद्रिय कहते हैं। ये क्रमश: पाँच हैं-श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना और घ्राण। इन पांचों इंद्रियों को ज्ञानेंद्रिय कहते हैं। इनके अतिरिक्त विशिष्ट कार्यसंपादन के लिए पांच कमेंद्रियां भी होती हैं, जैसे- पैर, हाथ, जिह्वा, गुदा और शिश्न (स्त्रियों में भग)। इन इंद्रियों की अपने कार्यों में मन की प्रेरणा से ही प्रवृत्ति होती है। मन से संपर्क न होने पर ये निष्क्रिय रहती है।
मन------ जिसे ११वीं इन्द्रिय भी कहाजाता है। मन अत्यंत सूक्ष्म होता है, अत्यंत द्रुतगति वाला और प्रत्येक इंद्रिय का नियंत्रक होता है। किंतु यह स्वयं भी आत्मा के संपर्क के बिना अचेतन होने से निष्क्रिय रहता है।
------प्रत्येक व्यक्ति के मन में सत्व, रज और तम, ये तीनों प्राकृतिक गुण होते हुए भी इनमें से किसी एक की सामान्यत: प्रबलता रहती है और उसी के अनुसार व्यक्ति -सात्विक, राजस या तामस होता है, किंतु समय-समय पर आहार, आचार एवं परिस्थितियों के प्रभाव से अन्य गुणों का भी प्राबल्य हो जाता है। इसका ज्ञान प्रवृत्तियों के लक्षणों द्वारा होता है, यथा राग-द्वेष-शून्य यथार्थद्रष्टा मन सात्विक, रागयुक्त, सचेष्ट और चंचल मन राजस और आलस्य, दीर्घसूत्रता एवं निष्क्रियता आदि युक्त मन तामस होता है। इसीलिए सात्विक मन को शुद्ध, सत्व या प्राकृतिक माना जाता है और रज तथा तम उसके दोष कहे गए हैं।
------आत्मा से चेतनता प्राप्त कर प्राकृतिक या सदोष मन अपने गुणों के अनुसार इंद्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त करता है और उसी के अनुरूप शारीरिक कार्य होते हैं। आत्मा -मन के द्वारा ही इंद्रियों और शरीर के अन्गों को प्रवृत्त करता है, क्योंकि मन ही उसका करण (इंस्ट्रुमेंट) है। केनोपनिषद में प्रश्न है…”केनेषितं पतति प्रेषितं मन:-“---मन किस के द्वारा प्रेरित होकर कार्य करता है…..उत्तर है –“श्रोतस्य श्रोत मनसो मनो..” जो मन का भी मन है ..अर्थात आत्मा ।
आत्मा
आत्मा पंचमहाभूत और मन से भिन्न, चेतनावान्, निर्विकार और नित्य है तथा साक्षी स्वरूप है, क्योंकि स्वयं निर्विकार तथा निष्क्रिय है। इसके संपर्क से सक्रिय किंतु अचेतन मन, इंद्रियों और शरीर में चेतना का संचार होता है और वे सचेष्ट होते हैं। आत्मा में रूप, रंग, आकृति आदि कोई चिह्न नहीं है, किंतु उसके बिना शरीर अचेतन होने के कारण निश्चेष्ट पड़ा रहता है और मृत कहलता है तथा उसके संपर्क से ही उसमें चेतना आती है तब उसे जीवित कहा जाता है और उसमें अनेक स्वाभाविक क्रियाएं होने लगती हैं; जीवन के लक्षण, जैसे श्वासोच्छ्वास, कटे हुए घाव भरना आदि… मन की गति, एक इंद्रिय से हुए ज्ञान का दूसरी इंद्रिय पर प्रभाव होना (जैसे आँख से किसी सुंदर, मधुर फल को देखकर मुँह में पानी आना), विषयों का ग्रहण -इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख, प्रयत्न, धैर्य, बुद्धि, स्मरण शक्ति, अहंकार आदि शरीर में आत्मा के होने पर ही होते हैं; आत्मारहित मृत शरीर में नहीं होते। अत: ये आत्मा के लक्षण कहे जाते हैं, आत्मा का इन लक्षणों से अनुमान मात्र किया जा सकता है। मानसिक कल्पना के अतिरिक्त किसी दूसरी इंद्रिय से आत्मा का प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है।
यह आत्मा नित्य, निर्विकार और व्यापक होते हुए भी पूर्वकृत( या पूर्वजन्मकृत) शुभ या अशुभ कर्म के परिणामस्वरूप जैसी योनि में या शरीर में, जिस प्रकार के मन और इंद्रियों तथा विषयों के संपर्क में आती है वैसे ही कार्य होते हैं। उत्तरोत्तर अशुभ कार्यों के करने से उत्तरोत्तर अधोगति होती है तथा शुभ कर्मों के द्वारा उत्तरोत्तर उन्नति होने से, मन के राग-द्वेष-हीन होने पर, मोक्ष की प्राप्ति होती है।
पन्चमहाभूत और आयुर्वेद का दर्शन------ भारतीय दार्शनिक सिंद्धांत के अनुसार संसार के सभी भौतिक –अभौतिक पदार्थ …पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों के संयुक्त होने से बनते हैं। इनके अनुपात में भेद होने से ही उनके भिन्न-भिन्न रूप होते हैं। इसी प्रकार शरीर के समस्त धातु, उपधातु और मल भी यही भौतिक पदार्थ हैं। शरीर के समस्त अवयव और सारा शरीर पंच-भौतिक ही है। ये सभी अचेतन हैं। जब इनमें आत्मा का संयोग होता है तब उसकी चेतनता में इनमें भी चेतना आती है।
आयुर्वेद और नैतिष्ठकी चिकित्सा—एक विशिष्टता--
---- आत्मा निर्विकार है, किंतु मन, इंद्रिय और शरीर में विकृति हो सकती है और इन तीनों के परस्पर सापेक्ष्य होने के कारण एक का विकार दूसरे को प्रभावित करता है। इन्हें प्रकृतिस्थ रखना या विकृत होने पर प्रकृति में लाना या स्वस्थ करना परमावश्यक है। तभी दीर्घ सुख और हितायु की प्राप्ति होती है, जिससे क्रमश: आत्मा को भी जन्म मृत्यु और भवबंधनरूप रोग से मुक्ति पाने में सहायता मिलती है, जो आयुर्वेद में नैतिष्ठकी चिकित्सा कही गई है। । विचारों, रहन–सहन, सन्स्क्रिति, समाज के नीति नियमन द्वारा स्वास्थ्य व चिकित्सा आयुर्वेद का एक विशिष्ट चिकित्सा भाव है। गर्भिणी माँ को अच्छे विचार, कथायें , सुन्दर चित्र दिखाना , प्रसन्न रखने में यही भाव है ।
------क्रमश: भाग तीन ...अगले अन्क में...
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