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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

टेसू-झांझी ...भारतीय लोक-संस्कृति और बालमन का मनोविज्ञान--बाल खेल सांझी और टेसू व झांझी...डा श्याम गुप्त

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 
भारतीय लोक-संस्कृति और बालमन का मनोविज्ञान--बाल खेल सांझी और टेसू व झांझी .... 
                            (  डा श्याम गुप्त   )                                       
         आजकल उच्चशिक्षा प्राप्त माता-पिता बच्चों पर बहुत ही अधिक ध्यान देते हैं ..जो प्राय: विदेशी शैली की नक़ल पर छोटेपन से ही..टेनिस, वास्केट बाल, नकली लेपटोप व आर्ट के लिए महंगे ड्राइंग की कापी, आर्ट-पेपर व कलर-बोक्स या ड्राइंग बोर्ड आदि खर्चीले खेल-खिलोनों के रूप में होता है और मूलतः स्टेटस –सिम्बल भी होता है | 
        आज के बच्चे भी कीमती वीडियो गेम, कम्प्यूटर में ज्यादा व्यस्त रहते हैं। उन्हें  नहीं मालूम कि टेसू और झांझी की क्या परंपरा है, माता-पिता को भी नहीं पता कि सस्ते व संस्कार जनक खेलों का क्या महत्त्व है । टेसू पहले सिर्फ पांच रुपये में मिल जाता था, अब महंगाई में भी सिर्फ दस रुपये में मिल जाता है।
        खेल-खेल में कलात्मक गतिविधियों द्वारा बच्चों को कैसे संस्कारित करना है यह भारतीय लोक- समुदाय अच्छी तरह समझता था।  शायद तभी कुछ ऐसे अवसर जुटाये जाते थे जिन पर बालक-बालिकायें अपनी सृजनात्मक प्रवृत्तियों को तुष्ट भी कर सकें और उन्हें अपनी परम्पओं का भान भी हो सके। ऐसा ही एक बाल खेल-उत्सव, सांझी और टेसू व झांझी है | जो प्रायः सारे उत्तर भारत में मनाया व खेला जाता है | यद्यपि अन्य खेलों-प्रथाओं की भांति यह भी एक लुप्त होती हुई प्रथा है |
       क्वार माह का पितृपक्ष यद्यपि सभी शुभ कार्यो के लिये पूरे भारत भर में अनुपयुक्त माना जाता है परन्तु लोक कला की दृष्टि से ये दिन अत्यन्त महत्वपूर्ण कहे जा सकते है। इन्हीं दिनों सदियों पुरानी सांझी खेलने की परम्परा नन्हें-नन्हें हाथों से अपने वर्तमान रुप में उद्घटित होती है।  वास्तव में यह बाल लोकोत्सव, बाल सुलभ रचनात्मक प्रवृतियों का पारम्परिक मूर्त रुप है जिसमें छोटी छोटी बालिकाएं गीत गाती हुई प्रत्येक संध्या को गोबर, रंग बिरेंगे फूल और चमकदार पन्नी के टुकड़ों से दीवार पर सांझी के विभिन्न रुपाकर रचती है, दूसरी सुबह उन्हें मिटाती है और फिर शाम को नये कल्पना-चित्र बनाती है। रुपगत स्थानीय विशेषताओं के साथ सांझी बनाने की यह परम्परा सारे उत्तर भारत में प्रचलित है| यह शायद दक्षिण भारत के रंगोली की परम्परा से भी मेल खाती है |
          पितृपक्ष के आरंभ से ही क्वांरी लड़कियों द्वारा सांझी खेली जाती है और गांव नगरों के मुहल्लों के घरों की दीवारें वीथिकायों का रुप लेती हैं फिर नौ दिन के नौरते में लड़कियां सुअटा( या सुगना) की प्रतिमा बना कर खेलती है।
         दशहरे से शुरु होता है लड़कों का खेल टेसू  दशहरे के दिन से ही...” मेरा टेसू यहीं अड़ा खाने को मांगे दही बड़ा,  दही बड़े में पन्नी, धर दो एक अठन्नी...”  आदि गीत गाते हुए लड़कों की टोलियां गली मुहल्लों मे हाथ में टेसू लिये घूमती फिरती हैं। 
 
 


           टेसू व झांझी
       सांझी

       
                  

                                लडकियां झांझी लेकर गाती हुए निकलती हैं |  झाँझी को सलोनी सी लड़की के रूप में और टेसू को युवक के रूप में माना जाता है। दशहरे की शाम से ही सब बच्चे टेसू व झांझी लेकर गीत गाते हुए घर घर जाते हैं जहां उन्हें पैसे आदि पुरस्कार दिए जाते हैं|
      टेसू का यह त्योहार अत्यन्त प्राचीन समय से ही मनाया जाता रहा है इसका आरंभ महानवमी से हो जाता है और इसका समापन शरद-पूर्णिमा को टेसू और सांझी के विवाह के साथ होता है। समापन के उपरान्त टेसू व झांझियों को किसी नदी  व नहर में विसर्जित किया जाता है।
    प्रायः सांझी के गीत व्यवस्थित और निश्चित विषय वस्तु को लेकर चलते है। जबकि टेसू के गीत मात्र तुकबन्दियां होती हैं जिसका कारण शायद लडकियों के लड़कों की बजाय अधिक कल्पनाशील व कलात्मक-रचनात्मक प्रवृत्ति से युक्त होने से है | यथा---
 टेसू के गीत ....
इमली की जड़ से निकली पतंग
नौ सौ मोती नौ सौ  रंग
एक रंग मांग लिया
चल घोड़े सलाम किया|
मारौ है भई मारौ है,
दिल्ली जाय पुकारौ है |
एक रोट मोटा
दे सांझी में सोटा
सोटा गिरा ताल में
दे दारी के गाल में |

आगरे की गैल में छोकरी सुनार की
भूरे भूरे बाल उसकी नथनी हजार की
अपने महल में ढोलकी बजाती
ढोलकी की तान अपने यार को सुनाती
यार का दुपटटा साड़े सात की निशानी
देखो रे लोगो वो हो गई दिवानी।



टेसू के भई टेसू के
टेसू खूब मचाये शोर |
उड़ गए तीतर रह गए मोर
सड़ी डुकरिया लै गए चोर
चोरन के जब खेती भई
खाय डुकटटो मोटी भई।


टेसू की गय्या हाय रे दैया
अस्सी डला भुष खाय |
बड़े ताल का पानी पिए
 हिंगन बटेश्वर जाय |


सांझी के गीत
सांझी मेरे फूल पचासी तेरे डोरा
जतन निकालो सांझीबाई को डोला |
इनमें और इनमें कोन से भइया गोरे
इनमें में और जिनमें हेमलता बाई को डोला |
सांझी तेरे ................................
गोरे भइया, गोरे गुलेल कन्ठी जोड़े |
सांझी ...................................
जतन निकला मोरे भैया का डोला
भाई को डोला, बबली बाई का डोला |
मेरी मैया जिन बोले बोल
हम परदेसी कोयलिया
आज बसेंगे उन आए
उड़ जायेगें दोऊ पंख लगाए
हम परदेसी कोयलीया
मेरी भाभी जिन बोले बोल
उड़ जोयेंगे अंधियारी रैन
अधपर छाई झोपड़ी
उड़ जायेंगे दोऊ पंख लगाए
हम परदेसी कोयलिया

        लडकियों की अपनी एक अलग ही बात होती है, जब कोई झेंझी देखने को कहता है तो कहती हैं कि बहुत शर्मिली झेंझी है, देखने के लिये 11 या 21 रुपये लगेंगे।  यह सुनकर लोग पैसे देकर सुन्दर सुन्दर झांझी-गीत सुनते हैं | ----                
 'लाल झण्डी हरी झण्डी, लहर लहराय रही
 उसमें बैठी झेंझी रानी, क्या पल्लु झलकाय रही' |

'अंगना में बोली कोयल, पिछवाड़े बोले मोर,
चली है प्यारी झेंझी, हम सबसे मुखड़ा मोड़,  
पापा रोए मम्मी भी रोए, सखियाँ रोयें जोर,
अंगना में खड़ा टेसू, आशा की लगी डोर,
चली है प्यारी झेंझी हम सबसे मुखड़ा मोड़'।“

         लड़कों की टोली में प्राय: एक टेसू होता है वहीं टोली की अधिकांश लड़कियों के पास अलग- अलग झांझी होती है सभी अपनी अपनी झांझी कपड़े से ढके घर घर घूमती हैं । प्रायः टेसू घर के दरवाजे पर ही रुक जाता है पर  झांझी घर के भीतर आंगन में भी जा सकती हैं। लड़कियों अपनी-अपनी झांझी लेकर नृत्य करती है। अन्य लड़कियां गीत गाती जाती है।
     टेसू की मुख्य आकृति का ढांचा तीन लकड़ियों को जोड़ कर बनाया गया स्टेण्ड होता है  जो मूलतः मनुष्य की आकृति का खिलौना होता है जिस पर बीच में दीया, मोमबत्ती रखने का स्थान होता है। कहीं कहीं टेसू रामलीला में रावण के जलने की लकड़ी पर बनाया / बिठाया जाता है, कहीं कहीं केवल टेसू का सिर बनाया जाता है उस पर गेरु पीली मिट्टी, चूना और काजल से रंगाई की जाती है। बांस की तीलियों में पतंगी कागज की झालर भी चिपका देते है। कहीं टेसू की मुखाकृति भयंकर राक्षस जैसी होती है तो कहीं साधारण मनुष्य जैसी |
            झांझी मिट्टी की रंग-बिरंगी एक छोटी मटकी होती है जिसमें स्थान स्थान पर छेद करके अनेक डिजाइन बनाये जाते हैं। इसमें थोड़ा रेत या राख भर कर दीपक रख दिया जाता है। रात के अन्धेरे में छिद्रों से छन छन कर बाहर आता प्रकाश उडती हुई राख के साथ बहुत सुन्दर लगता है। और इसे झांझी का हंसना कहा जाता है जब सभी लड़कियां एक साथ नृत्य करती हैं वह दृश्य बहुत ही सुन्दर होता है ।
           टेसू-झांझी की लोक-कथाएं व मान्यताएं ---
१ – टेसू ..कुंती के क्वारी अवस्था का( महाभारत के प्रसिद्द कर्ण से अन्यथा ) एक पुत्र बबरावाहन भी था..जो अत्यंत उपद्रवी होने के कारण श्रीकृष्ण ने चक्र से सर काट कर पेड़ पर रख दिया था परन्तु फिर भी शांत न होने पर अपनी माया से बनाई सांझी के साथ उसका विवाह रचाया तब वह शांत हुआ|
- टेसू – बर्बरीक हैं | महाभारत के दौरान पांडवों की तरफ से युद्ध करने आए महाबलशाली भीम के पुत्र  घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक ने बिना सोचे समझे दोनों पक्षों का विनाश शुरू कर दिया। दोनों तरफ से सेना तेजी से घटने लगी। यह देखकर भगवान कृष्ण  ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया। कहा जाता है कि बबरीक के कटे सिर ने एक ऊंची पहाड़ी से पूरा युद्ध उसी अवस्था में देखा। युद्ध समाप्त हो जाने के उपरांत बबरीक के कटे सिर की प्रार्थना पर भगवान कृष्ण ने उसका विवाह निश्चित किया और कहा कि अब इसी दिन के बाद से विवाह संस्कार शुरू हुआ करेंगे। इन्हें खाटू-श्याम के नाम से भी पूजा जाता है |
 बब्रावाहन -३     पिछले जन्म में भगवान का एक बहुत बड़ा भक्त था | एक ॠषि के शाप से वह अगले जन्म में राक्षस बना। हिन्दू लोक समुदाय में इसे टेसू के रुप में माना जाता है। तथा विवाहों का आरंभ होने से पहले टेसू और सांझी का विवाह  रचाया जाता है ताकि जो शकुन-अपशकुन और विघ्न बाधाऐं आनी हैं, इन्हीं के विवाह में आजाये और बाद में लोगों के बेटे -बेटियों के विवाह अच्छी तरह सम्पन्न हो सकें।
४-- किसी गांव में एक ब्राह्मण परिवार था, सबसे छोटे भाई की पत्नी मर चुकी थी, उसे बड़े भाइयों की पत्नियाँ बहुत परेशान करती थी इससे दुखी होकर वह अपनी पुत्री को लेकर घर छोड़कर दूसरे गांव चला गया| उस जंगल में एक राक्षस रहता था जो उस ब्राह्मण की रुपवान कन्या पर मोहित हो गया। उसने लड़की से विवाह करने की इच्छा प्रकट की। ब्राह्मण ने राक्षस से कहा कि विवाह तो हो जायेगा परन्तु कुछ रस्में पूरी करनी पड़ेगी इसलिये कुछ दिन का समय लगेगा। पहले मेरी लड़की सोलह दिन गोबर की थपलियां बनाकर खेलेगी | राक्षस चला गया |इस बीच ब्राह्मण ने अपने परिवार के लोगों को सहायता के लिये बुलाने का पत्र लिख दिया। क्वार माह के यह सोलह दिन सोलह श्राद्ध के दिन माने जाते हैं। और इन दिनों ब्राह्मण की लड़की जो गोबर की थपलियों से खेल खेली वह सांझी या चन्दा-तरैया कहलाया और वहीं से | सांझी खेलने की परम्परा का आरम्भ हुआ।  सोलह दिन बीतने पर राक्षस आया परन्तु ब्राह्मण के परिवार वाले नहीं पहुंच पाये इस लिये उसने फिर बहाना बनाया कि अब उसकी लड़की नौ दिन मिट्टी के गौर बनाकर खेलेगी। राक्षस नौ दिन बाद वापस आने का कह कर फिर चला गया। तभी से यह नौ दिन नौरता कहलाये और इन दिनों सुअटा खेलने की प्रथा शुरु हुई। नौ दिन भी खत्म हो गये पर ब्राह्मण के परिवार वाले नहीं आ पाये और राक्षस फिर आ गया, तब ब्राह्मण ने उससे कहा,  अब पांच दिन तुम और मेरी बेटी घर घर भीख मांगोगे तब शरद पूर्णिमा के दिन तुम्हारी शादी हो सकेगी। राक्षस इस बात के लिये भी मान गया। तभी से दशहरे से शरद पूर्णिमा तक उस राक्षस के नाम पर टेसू और ब्राह्मण की लड़की के नाम पर सांझी मांगने की प्रथा का आरंभ हुआ।  इस प्रकार जब भीख मांगते पांच दिन बीत गये और ब्राह्मण के परिवार के लोग नहीं आये तो ब्राह्मण निराश हो गया और उसे अपनी पुत्री का विवाह राक्षस से करने के अलावा कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया तो शरद पूर्णिमा के दिन उसने विवाह निश्चित कर दिया। लेकिन अभी विवाह के साढ़े तीन फेरे ही पड़े थे कि ब्राह्मण के परिवार के लोग आ गये और उन्होने उस राक्षस को मार डाला। और क्योंकि उनकी लड़की का आधा विवाह राक्षस से हो चुका था इसलिये उसे भी भ्रष्ट मान कर उन्होने उसे भी मार डाला इसीलिये टेसू और सांझी का पूरा विवाह नहीं होने दिया जाता, उन्हें बीच में ही तोड़ दिया जाता है। ब्राह्मण के भाइयों ने सोचा न उनका छोटा भाई घर छोड़ कर भागता और न ही उनके कुल को इस प्रकार दाग लगता इसलिये सारी खराबी का कारण वही है और उन्होनें उस ब्राह्मण को भी मार डाला। इसीलिये नोरता में मिटटी के गौर बनाकर खेला जाने वाला सूअटा टेसू के विवाह के बाद उस ब्राह्मण पिता के प्रतीक सुअटा के रुप में अन्तिम दिन फोड़ दिया जाता है।
५-  एक दुष्ट प्रवृति का राक्षस था जो बालिकाओं को परेशान करता था अतः उसके सिर को देवी मां ने जगह-जगह छेद दिया। इस कारण झांजी राक्षस के सिर की प्रतीक भी होती है जिसमें जगह जगह छिद्र होते हैं।






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