....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
..प्रायः यह कहा जाता है कि भारतीय -जनमानस धार्मिक व दार्शनिक विचार-तत्वों पर नायक-पूजा में , उनके पीछे चलने में अधिक विश्वास रखते हैं| इसीलिये भारतीय तेजी से प्रगति नहीं कर पारहे हैं | प्रायः पारंपरिक ज्ञान व शिक्षा में विश्वास न रखने वाले अधुना-विद्वान् भी यह कहते पाए गए हैं कि हमें कुछ ऐसा तरीका, तंत्र या शैली विक्सित करना चाहिए जो सिद्धांतों, विश्वासों एवं नियमों पर आधारित नहीं हो |
इस के परिप्रेक्ष्य में फिर यह भी कहा जा सकता है कि तो फिर किसी को इन विद्वानों के कथन पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए | वस्तुतः जब तक हमारे अंतर में पहले से ही मौजूद पारंपरिक ज्ञान, विश्वास, विचारों व सिद्धांतों के प्रति श्रृद्धा व विश्वास नहीं होते एवं हम उनको पूर्णरूपेण एवं गहराई से जानने एवं समझने योग्य नहीं होपाते | तो हम उन्हें उचित यथातथ्य रूप से विश्लेषित करके वर्त्तमान देश-कालानुसार एवं अपने स्वयं के विचारों और नवीन प्रगतिशील विचारों के अनुरूप नहीं बना सकते ; जो संस्कृति व सभ्यता की प्रगति हेतु आवश्यक होता है ....
"जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ|
हों बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ |"
अतः क्या आवश्यक है ......
१. स्वयं अपने ही विचारों पर चलकर अति-तीब्रता से प्रगति हेतु अनजान -अज्ञानान्धकार में प्रवेश करके पुनः पुनः हिट एंड ट्रायल के आधार पर चलें .....अथवा ..
२. पहले से ही उपस्थित अनुभवी, ज्ञानी पुरखों के सही व उचित धार्मिक व सांस्कृतिक ज्ञान के मार्ग पर..(. जो समय से परिपक्व एवं इतने समय से जीवन संघर्ष में बने हुए होने से स्वयं-सिद्ध हैं).... शनैः-शनैः स्थिर परन्तु उचित गति से प्रगति के पथ पर चलना ..
हमें सोचना होगा.....
इस के परिप्रेक्ष्य में फिर यह भी कहा जा सकता है कि तो फिर किसी को इन विद्वानों के कथन पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए | वस्तुतः जब तक हमारे अंतर में पहले से ही मौजूद पारंपरिक ज्ञान, विश्वास, विचारों व सिद्धांतों के प्रति श्रृद्धा व विश्वास नहीं होते एवं हम उनको पूर्णरूपेण एवं गहराई से जानने एवं समझने योग्य नहीं होपाते | तो हम उन्हें उचित यथातथ्य रूप से विश्लेषित करके वर्त्तमान देश-कालानुसार एवं अपने स्वयं के विचारों और नवीन प्रगतिशील विचारों के अनुरूप नहीं बना सकते ; जो संस्कृति व सभ्यता की प्रगति हेतु आवश्यक होता है ....
"जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ|
हों बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ |"
अतः क्या आवश्यक है ......
१. स्वयं अपने ही विचारों पर चलकर अति-तीब्रता से प्रगति हेतु अनजान -अज्ञानान्धकार में प्रवेश करके पुनः पुनः हिट एंड ट्रायल के आधार पर चलें .....अथवा ..
२. पहले से ही उपस्थित अनुभवी, ज्ञानी पुरखों के सही व उचित धार्मिक व सांस्कृतिक ज्ञान के मार्ग पर..(. जो समय से परिपक्व एवं इतने समय से जीवन संघर्ष में बने हुए होने से स्वयं-सिद्ध हैं).... शनैः-शनैः स्थिर परन्तु उचित गति से प्रगति के पथ पर चलना ..
हमें सोचना होगा.....
2 टिप्पणियां:
पथ मध्यमार्ग ही अपनाया जाये, पथ से अधिक भटकने का भय नहीं रहेगा।
सही पांडे जी....
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