....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ-क्रमशः - भाग दो
प्रथम भाग के तीन मन्त्रों में मानव के मूल कर्तव्यों को बताया गया था कि ...सबकुछ ईश्वर से नियमित है एवं वह सर्वव्यापक है ,अतः जगत के पदार्थों को अपना ही न मानकर , ममता को न जोड़कर सिर्फ प्रयोगाधिकार से भोगना चाहिए | कर्म करना आवश्यक है परन्तु उसे अपना कर्त्तव्य व धर्म मानकर करना चाहिए , आत्मा के प्रतिकूल कर्म नहीं करना चाहिए एवं किसी की वस्तु एवं उसके स्वत्व का हनन नहीं करें |
इस द्वितीय भाग में मन्त्र 4 से 8 तक में ब्रह्म विद्या के मूल तत्वों एवं ब्रह्म के गुणों का वर्णन है ....
अनेजदेकं मनसो ज़वीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वंमर्षत|
तद्धावतोsन्यान्यत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति||..४
वह ब्रह्म अचल,एक ही एवं मन से भी अधिक वेगवान है तथा सर्वप्रथम है, प्रत्येक स्थान पर पहले से ही व्याप्त है | उसे इन्द्रियों से प्राप्त (देखा, सुना,अनुभव आदि ) नहीं किया जा सकता क्योंकि वह इन्द्रियों को प्राप्त नहीं है | वह अचल होते हुए भी अन्य सभी दौड़ने वालों से तीब्र गति से प्रत्येक स्थान पर पहुँच जाता है क्योंकि वह पहले से ही सर्वत्र व्याप्त है | वही समस्त वायु, जल आदि विश्व को धारण करता है |
तदेज़ति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके |
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ||...५ ..
वह ब्रह्म गतिशील भी है अर्थात सब को गतिदेता परन्तु वह स्थिर भी है क्योंकि वह स्वयं गति में नहीं आता | वह दूर भी हैक्योंकि समस्त संसार में व्याप्त ..विभु है और सबके समीप भी क्योंकि सबके अंतर में स्थित प्रभु भी है | वह सबके अन्दर भी स्थित है एवं सबको आवृत्त भी किये हुए है , अर्थात सबकुछ उसके अन्दर स्थित है |
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति |
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ||...६...
जो कोई समस्त चल-अचल जगत को परमेश्वर में ( एवं आत्म-तत्व में ) ही स्थित देखता समझता है तथा सम्पूर्ण जगत में परमेश्वर को ( एवं आत्म तत्व को ) ही स्थित देखता समझता है वह भ्रमित नहीं होता , घृणा नहीं करता अतःआत्मानुरूप कर्मों के न करने से निंदा का पात्र नहीं बनता |
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवा भू द्विजानतः |
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: ||...७....
जब व्यक्ति यह उपरोक्त मर्म जाना लेता है कि आत्मतत्व ही समस्त भूतों....चल-अचल संसार में व्याप्त है वह सबको आत्म में स्थित मानकर सबको स्वयं में ही मानकर अभूत .अर्थात एकत्व -भाव होजाता है | ऐसे सबको समत संसार को एक सामान देखने समझाने वाले को न कोई मोह रहता है न शोक ...वह ममत्व से परे परमात्म-रूप ही होजाता है | उसका ध्येय ईश्वरार्पण |
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-
मस्नाविरंशुद्धमपापविद्धम |
कविर्मनीषी परिभू स्वयन्भूर्याथातथ्यतो
sर्थान- व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः ||....८....
और वह ईश्वर परि अगात ,,,सर्वत्र व्यापक, शुक्रं....जगत का उत्पादक, अकायम...शरीर रहित, अव्रणम ...विकार रहित ,अस्नाविरम ..बंधनों से मुक्त, पवित्र,पाप बंधन से रहित कविः...सूक्ष्मदर्शी , ज्ञानी, मनीषी, सर्वोपरि, सर्वव्याप्त ( परिभू). स्वयंभू ....स्वयंसिद्ध , अनादि है | उसने प्रजा अर्थात जीव के लिए समाभ्य अनादिकाल से यातातथ्यतः अर्थात यथायोग्य ..ठीक ठीक कर्मफल का विधान कर रखा है, सदा ही सबके लिए उचित साधनों व अनुशासन की व्यवस्था करता है |
अर्थात...... आखिर कोई ब्रह्म के, उसके गुणों के, ब्रह्म विद्या के बारे में क्यों जाने ? ईश्वर को क्यों माने ,इसका वास्तविक जीवन में क्या कोई महत्व है ? वस्तुतः हमारा, व्यक्ति का, मानव मात्र का उद्देश्य ब्रह्म को जानना, वर्णन करना ज्ञान बघारना आदि ही नहीं अपितु वास्तव में तो ब्रह्म के गुण जानकर, समस्त संसार को ईश्वरमय एवं ईश्वर को संसार मय....आत्ममय ..समस्त विश्व को एकत्व जानकर मानकर , ईश्वर व आत्मतत्व का एकत्व जानकर विश्वबंधुत्व के पथ पर बढ़ना, समत्व से ,समता भाव से कर्म करना एवं वर्णित ईश्वरीय गुणों को आत्म में, स्वयं में समाविष्ट करके शारीरिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति द्वारा ...व्यष्टि, समष्टि, राष्ट्र, विश्व व मानवता की उन्नति ही इस विद्या का ध्येय है |
----------- क्रमशः.... भाग तीन...अगले अंक में ....
ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ-क्रमशः - भाग दो
प्रथम भाग के तीन मन्त्रों में मानव के मूल कर्तव्यों को बताया गया था कि ...सबकुछ ईश्वर से नियमित है एवं वह सर्वव्यापक है ,अतः जगत के पदार्थों को अपना ही न मानकर , ममता को न जोड़कर सिर्फ प्रयोगाधिकार से भोगना चाहिए | कर्म करना आवश्यक है परन्तु उसे अपना कर्त्तव्य व धर्म मानकर करना चाहिए , आत्मा के प्रतिकूल कर्म नहीं करना चाहिए एवं किसी की वस्तु एवं उसके स्वत्व का हनन नहीं करें |
इस द्वितीय भाग में मन्त्र 4 से 8 तक में ब्रह्म विद्या के मूल तत्वों एवं ब्रह्म के गुणों का वर्णन है ....
अनेजदेकं मनसो ज़वीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वंमर्षत|
तद्धावतोsन्यान्यत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति||..४
वह ब्रह्म अचल,एक ही एवं मन से भी अधिक वेगवान है तथा सर्वप्रथम है, प्रत्येक स्थान पर पहले से ही व्याप्त है | उसे इन्द्रियों से प्राप्त (देखा, सुना,अनुभव आदि ) नहीं किया जा सकता क्योंकि वह इन्द्रियों को प्राप्त नहीं है | वह अचल होते हुए भी अन्य सभी दौड़ने वालों से तीब्र गति से प्रत्येक स्थान पर पहुँच जाता है क्योंकि वह पहले से ही सर्वत्र व्याप्त है | वही समस्त वायु, जल आदि विश्व को धारण करता है |
तदेज़ति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके |
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ||...५ ..
वह ब्रह्म गतिशील भी है अर्थात सब को गतिदेता परन्तु वह स्थिर भी है क्योंकि वह स्वयं गति में नहीं आता | वह दूर भी हैक्योंकि समस्त संसार में व्याप्त ..विभु है और सबके समीप भी क्योंकि सबके अंतर में स्थित प्रभु भी है | वह सबके अन्दर भी स्थित है एवं सबको आवृत्त भी किये हुए है , अर्थात सबकुछ उसके अन्दर स्थित है |
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति |
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ||...६...
जो कोई समस्त चल-अचल जगत को परमेश्वर में ( एवं आत्म-तत्व में ) ही स्थित देखता समझता है तथा सम्पूर्ण जगत में परमेश्वर को ( एवं आत्म तत्व को ) ही स्थित देखता समझता है वह भ्रमित नहीं होता , घृणा नहीं करता अतःआत्मानुरूप कर्मों के न करने से निंदा का पात्र नहीं बनता |
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवा भू द्विजानतः |
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: ||...७....
जब व्यक्ति यह उपरोक्त मर्म जाना लेता है कि आत्मतत्व ही समस्त भूतों....चल-अचल संसार में व्याप्त है वह सबको आत्म में स्थित मानकर सबको स्वयं में ही मानकर अभूत .अर्थात एकत्व -भाव होजाता है | ऐसे सबको समत संसार को एक सामान देखने समझाने वाले को न कोई मोह रहता है न शोक ...वह ममत्व से परे परमात्म-रूप ही होजाता है | उसका ध्येय ईश्वरार्पण |
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-
मस्नाविरंशुद्धमपापविद्धम |
कविर्मनीषी परिभू स्वयन्भूर्याथातथ्यतो
sर्थान- व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः ||....८....
और वह ईश्वर परि अगात ,,,सर्वत्र व्यापक, शुक्रं....जगत का उत्पादक, अकायम...शरीर रहित, अव्रणम ...विकार रहित ,अस्नाविरम ..बंधनों से मुक्त, पवित्र,पाप बंधन से रहित कविः...सूक्ष्मदर्शी , ज्ञानी, मनीषी, सर्वोपरि, सर्वव्याप्त ( परिभू). स्वयंभू ....स्वयंसिद्ध , अनादि है | उसने प्रजा अर्थात जीव के लिए समाभ्य अनादिकाल से यातातथ्यतः अर्थात यथायोग्य ..ठीक ठीक कर्मफल का विधान कर रखा है, सदा ही सबके लिए उचित साधनों व अनुशासन की व्यवस्था करता है |
अर्थात...... आखिर कोई ब्रह्म के, उसके गुणों के, ब्रह्म विद्या के बारे में क्यों जाने ? ईश्वर को क्यों माने ,इसका वास्तविक जीवन में क्या कोई महत्व है ? वस्तुतः हमारा, व्यक्ति का, मानव मात्र का उद्देश्य ब्रह्म को जानना, वर्णन करना ज्ञान बघारना आदि ही नहीं अपितु वास्तव में तो ब्रह्म के गुण जानकर, समस्त संसार को ईश्वरमय एवं ईश्वर को संसार मय....आत्ममय ..समस्त विश्व को एकत्व जानकर मानकर , ईश्वर व आत्मतत्व का एकत्व जानकर विश्वबंधुत्व के पथ पर बढ़ना, समत्व से ,समता भाव से कर्म करना एवं वर्णित ईश्वरीय गुणों को आत्म में, स्वयं में समाविष्ट करके शारीरिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति द्वारा ...व्यष्टि, समष्टि, राष्ट्र, विश्व व मानवता की उन्नति ही इस विद्या का ध्येय है |
----------- क्रमशः.... भाग तीन...अगले अंक में ....
3 टिप्पणियां:
धन्यवाद तुषार राय जी.....
सर्वव्याप्त गुण...सृष्टि का मूल..
हाँ पांडे जी...सर्व व्याप्त गुण वाले -- ईश्वर, आत्मतत्व व मनोकाश सृष्टि के मूल....
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