....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
श्याम स्मृति-----
अति-भौतिकता जनित भोगवादी संस्कृति व जन-क्रांतियाँ ----
अज्ञान जनित है यह भावना, यह सोच एवं सदियों से पाली हुई धारणा, भ्रामक है सत्य से दूर तथ्य है | राम की
लंका विजय न तो राम की रावण पर विजय थी न अयोध्या की लंका पर, न उत्तर की दक्षिण पर, देव शक्तियों की दैत्यों पर | वास्तव में यह जनता की, जन समूह की, सामान्य व्यक्ति की ; तानाशाही व् निरंकुशता पर अधिसत्ता पर जनसत्ता की विजय थी | एक क्रान्ति थी जनता द्वारा निरंकुश तानाशाही के विरुद्ध | वस्तुतः यह मानवीय मूल्यों की आसुरी प्रवृत्तियों पर विजय थी |
राम
की सेना न तो अयोध्या की सेना थी न किसी उत्तर प्रांत की वह तो विन्ध्याचल के दक्षिणी प्रदेशों के मूल निवासियों की जनवाहिनी थी जिसे राम ने निर्भयता का पाठ पढ़ाकर, शस्त्र संचालन व सैन्य कौशल सिखाकर तैयार किया था| यहाँ तक कि लंकावासी भी राम की इस स्वतन्त्रता की दीवानी फौज में थे | यह तो एक
जनक्रांति थी जो सदैव ही समय के अंतर में निहित होती है एवं पलती-घुमड़ती रहती है और उचित अवसर एवं नेतृत्व मिलने पर बरस पड़ती है | रावण नीतिवान था, विद्वान् था, वेदों व शास्त्रों का ज्ञाता वेदों का भाष्यकर्ता; परन्तु फिर भी उसका
पतन हुआ..क्यों? क्योंकि
वह भोगवादी संस्कृति
का मानने वाला
था |
क्या विद्वता, नीतिज्ञता व भौतिक उन्नति ही मानवता के लिए हेतु है? नहीं.... यदि सभ्यता, विद्वता, बुद्धिमानी ही संस्कृति व भौतिक उन्नति का अर्थ केवल अर्थ-संग्रह व बल-संग्रह ही रह जाय जिसमें सामान्यजन ही महत्वहीन होकर रह जाय तो ऐसी सत्ता व संस्कृति अवश्य ही पतन को प्राप्त होगी| यही रामायणकाल में हुआ, यही महाभारत काल में| रोम, मिश्र, यूनान आदि का भी वही हश्र हुआ | आधुनिक युगमें भी सभी भोगवादी सत्ताओं-तानाशाहों का भी अंततः वही हश्र हुआ| यदि हम समय रहते नहीं चेतेंगे तो वही हश्र वर्त्तमान भोगवादी संस्कृति का भी होने जा रहा है|
आज हमारी सारी विद्वता, नीति
व उन्नति अर्थशास्त्र
पर केन्द्रित व
आधारित होगई है| प्रत्येक व्यक्ति कार, कोठी, अधिकाधि सुख-विलास के साधन, यथासंभव शीघ्रताशीघ्र मुद्रा-संचय में रत है| उसे केवल साध्य की चिंता है साधन चाहे जो भी जैसा भी हो | और भोगवादी संस्कृत कभी मानवता पर आधारित नहीं होकती | योग वशिष्ठ में राम का आशय है कि अत्यधिक धन कभी भी मानवता आधारित सत्य-पथ से नहीं एकत्र किया जा सकता |
और
महाभारत क्या सिर्फ दो परिवारों की लड़ाई थी या धर्म की अधर्म से ? पांडवों की न तो कोइ सेना थी न धन-साधन | वे तो अकिंचन थे | परन्तु यह भी निरंकुशता, तानाशाही व अधिसत्ता के अभिमान स्वरुप उत्पन्न विकारों के विरुद्ध जनसत्ता की, जनसामान्य की लड़ाई थी, एक
जन-क्रान्ति थी जिसमें उन सभी लोगों, राज्यों, सत्ताओं ने भाग लिया जो वर्तमान अधिसत्ता के विरुद्ध खड़े हुए थे जिसके लिए अर्जुन व भीम आदि ने विभिन्न वनवास व गुप्तवास के समय घूम घूम कर जनमानस को तैयार किया था | कृष्ण पहले से ही इस विचार-धारा के पक्षधर, पोषक व एक प्रकार से सूत्रधार थे जो गोकुल से प्रारम्भ हुई | वही ...जमीन तैयार थी, नेतृत्व की आवश्यकता थी जो मिली पांडवों व कृष्ण के रूप में |
कृष्ण ने
गांधारी से कहा
था,” युद्ध होते रहेंगे
चाहे कोई भी
युग हो |” जब-जब अधिसत्ता, जनसत्ता को पीड़ित-उपेक्षित करेगी अधर्म...धर्म को प्रवंचित करेगा तब-तब क्रान्ति होगी चाहे वह राम-रावण युग हो या महाभारत युग, फ्रांस की क्रान्ति, विश्व-युद्ध हो, सत्तावन की भारतीय क्रान्ति हो या सन उन्नीस सौ व्यालिस का भारतीय स्वाधीनता संग्राम |
2 टिप्पणियां:
अति की परिणिति युद्ध में ही होती है
सत्य बचन.....
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