....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
पीर मन की
जान लेते
पीर मन
की तुम अगर,
तो न
भर निश्वांस
झर-झर अश्रु
झरते।
देख लेते
जो द्रगों के
अश्रु कण
तुम ,
तो नहीं
विश्वास के
साये बहकते ।
जान जाते तुम
कि तुमसे
प्यार कितना,
है हमें,ओर तुम
पे है
एतवार कितना ।
देख लेते
तुम अगर
इक बार
मुडकर ,
खिल खिला
उठतीं कली
गुन्चे महकते।
महक उठती
पवन,खिलते कमल
सर में,
फ़ूल उठते
सुमन करते
भ्रमर गुन
गुन ।
गीत अनहद
का गगन्
गुन्जार देता
,
गूंज उठती
प्रकृति में वीणा
की गुन्जन
।
प्यार की
कोई भी
परिभाषा नहीं है
,
मन के
भावों की
कोई भाषा नहीं
है ।
प्रीति की
भाषा नयन
पहिचान लेते
,
नयन नयनों
से मिले
सब जान
लेते ।
झांक लेते
तुम जो
इन भीगे दृगों में,
जान जाते पीर
मन की,
प्यार मन
का।
तो अमिट
विश्वास के
साये महकते,
प्यार की
निश्वांस के
पन्छी चहकते
॥
1 टिप्पणी:
बहुत ही सुन्दर हैं, विश्वास के ये शब्द।
एक टिप्पणी भेजें