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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

हम, तब और अब... दृष्टिकोण व चरित्र ...डा श्याम गुप्त

                                        ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



                 जब आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय मानव मन में पदार्पण कर जाते हैं तो उसका दृष्टिकोण स्व-केंद्रित होजाता है और निष्ठा सत्य व ईश्वर के अपेक्षा आत्म-निष्ठ होजाती है | तब .मन की यह स्थिति होती  है कि –
                         “सच बोलने की चाहत तो बहुत थी लेकिन,
                           क्या  करें हिम्मत ही न  हम जुटा पाए  |”


             इस दृष्टिकोण में हम इतने किन्कर्तव्यविमूढ होजाते हैं कि चाहते हुए भी उचित समय पर तदनुरूप अनीति, अनैतिकता, अकर्म, दुष्कर्म अनाचार आदि का विरोध नहीं कर पाते | यह एक प्रकार का असुरक्षा भाव जनित  आत्मरक्षार्थ भाव की उत्पत्ति के कारण होता है|
             हम तब ( आज से युगों-सदियों पहले ) भी ऐसे ही थे ..आज भी 
             महाभारत में द्रौपदी चीर-हरण ...के समय महापराक्रमी भीष्म आदि अनेकों लोगों के लिए भी यही सच है कि ..विभिन्न आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय के कारण ही कहना चाहकर भी कोई  विरोध नहीं कर पाया | महापराक्रमी भीष्म की भी महान कहलाने की इच्छा ही तो विरोध न कर पाने का कारण थी | यद्यपि बाद में लोगों ने, पराक्रमियों ने बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञाएँ कीं, निभाईं गयीं, युद्ध हुआ |
            आज दिल्ली वलात्कार केस में भी ...दो घंटे तक दो घायल प्राणी सड़क पर पड़े रहे परन्तु मोटर, कार, बसें, पैदल-यात्री  निकलते रहे परन्तु किसी ने तुरंत अपने आप  सहायता का फैसला नही  लिया | इसी भय एवं आत्म-निष्ठता भाव के कारण सत्य व ईश्वर भाव को भुला दिया जाने के कारण| बाद में वही हम सब लोग एकत्रित होकर नारे लगाते रहे , मोमबत्ती जलाते रहे, कड़ी ठण्ड में भी नहीं डगमगाए टीवी के सामने, रेलियाँ भी करते रहे....| दूरदर्शन पर बहसें, वार्ताएं भी हुईं | विभिन्न वक्तव्य भी आये इसी आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय के कारण उत्पन्न आत्मरक्षार्थ भाव हित कि कहीं हम पीछे न रह जायं | |
               अन्य व्यवहारों, कलापों के बारे में भी यही सच है कि हम बदले नहीं, वहीं के वहीं हैं | भौतिक उन्नति से, अट्टालिकाओं में निवास, वस्त्राभूषणों  से, महानगरों से भी मानव–आचरण बदला नहीं है | तब हम तलवारों से लड़ते थे, विरोधी को युद्ध में तलवारों से मौत के घाट उतारा करते थे, आज  भी विरोधी का मुंह बंद करने, अपने स्वार्थ साधन हेतु कलम की तलवार से , झूठ ,चरित्र हनन आदि द्वारा मरणासन्न किया जाता है ...अपितु आज भी हत्या द्वारा भी | तब तलवार से युद्ध होता था आज वाकयुद्ध होता है, वार्ताएं, बहसें , आलेखबाज़ी |
         अर्थात मानव वस्तुतः पहले भी वही था आज भी वही है | यह क्यों होता है ? क्यों मानव में यह दृष्टिकोण एवं आत्मरक्षार्थ भाव की उत्पत्ति होती है| वही आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय के कारण वह सत्य व ईश्वर से दूर होजाता है |

          परन्तु आगे प्रश्न  यह है कि उसमें ये आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय क्यों उत्पन्न होते है | क्योंकि वास्तव में वह अपने आचरण व व्यवहार में सत्य व ईश्वर को भुला कर  उनसे से दूर होजाता है.... हम सब कुछ हैं, हम सब कुछ कर सकते हैं, मानव ही अपना भाग्यविधाता है इस  अतिशय  सोच के कारण  ...  भी उसमें आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय आदि भाव उत्पन्न होते हैं| यहीं व्यवहारिक दृष्टिकोण की अपेक्षा चरित्र की महत्ता व्यक्त होती है जो सत्य, निष्ठा, अनुशासन, आचरण-शुचिता,एवं ईश्वर पर विश्वास से उत्पन्न होती है | यह एक क्रमिक –चक्रीय व्यवस्था  है .......| शायद इसे ही कर्म-फल या भाग्य  कहते हैं एवं शुचि-कर्मों, सत्य, धर्म व आचरण ,आत्म-विवास के साथ-साथ ,.... ईश्वर में आस्था का  यही महत्ता है|

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

भीष्म तो नमक की दुहाई दे दिये, दो घंटे तक बिना ध्यान दिये निकल जाने वाले किसका नमक खाये हुये थे।

shyam gupta ने कहा…

सही व उचित प्रश्न है पांडे जी....
----वास्तव में प्रश्न तो किसी पर भी उठाये ही जा सकते हैं....यद्यपि वह तो एक ही परिवार की बात थी,भीष्म तो फिर भी उस परिवार का नमक खाए हुए थे उनके लिए दोनों बराबर थे ....
---परन्तु यहाँ तो सब अनजाने थे किसी पर कोइ दबाव नहीं था फिर वे क्यों कर्तव्य से चुके ..सिर्फ स्वार्थवश....
---- भीष्म का दोष निश्चय ही आज के लोगों से कम ही माना जायगा...