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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

श्रुतियों व पुराण-कथाओं वैज्ञानिक तथ्य--अंक-4....कृष्ण और गोपिकाएं तथासीरध्वज जनक का हल जोतना और जमीन से सीता की उत्पत्ति...डा श्याम गुप्त...

                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

श्रुतियों व पुराण-कथाओं वैज्ञानिक तथ्य--अंक-4....कृष्ण और गोपिकाएं तथासीरध्वज जनक का हल जोतना और जमीन से सीता की उत्पत्ति-


    श्रुतियों व पुराण-कथाओं में भक्ति-पक्ष के साथ व्यवहारिक-वैज्ञानिक तथ्य
       श्रुतियों व पुराणों एवं अन्य भारतीय शास्त्रों में जो कथाएं भक्ति भाव से परिपूर्ण व अतिरंजित लगती हैं उनके मूल में वस्तुतः वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक पक्ष निहित है परन्तु वे भारतीय जीवन-दर्शन के मूल वैदिक सूत्र ...’ईशावास्यम इदं सर्वं.....’ के आधार पर सब कुछ ईश्वर को याद करते हुए, उसी को समर्पित करते हुए, उसी के आप न्यासी हैं यह समझते हुए ही करना चाहिए .....की भाव-भूमि पर सांकेतिक व उदाहरण रूप में काव्यात्मकता के साथ वर्णित हैं, ताकि विज्ञजन,सर्वजन व सामान्य जन सभी उन्हें जीवन–व्यवस्था का अंग मानकर उन्हें व्यवहार में लायें |...... स्पष्ट करने हेतु..... कुछ उदाहरण एवं उनका वैज्ञानिक पक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है ------ )


 कृष्ण और गोपिकाएं-- वैदिक अलंकारिक भाषा  में सविता (महा-सूर्य) व उनकी की किरणों  व अन्य अंतरिक्ष-पिंडों के... अन्तरिक्षीय ( कोस्मिक ) गतिक-सम्बन्ध के नृत्य का मूर्त व सांसारिक रूपक हैं | जो समकालीन तांत्रिक प्रभावों की नकारात्मकता के अप्रभावीकरण हेतु इस पौराणिक मानवीकृत कथा रूप में स्वीकृत की गयी |  वैदिक ज्ञान को भक्तिमय रूप में देखें.....

          इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण :(ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० )
        ---अर्थात यह ओज प्रदायक सोम विभिन्न आराधनाओं अर्थात विधियों से प्राप्त किया गया है  हे महान ! आप इसका पान करें , हम आपका आवाहन/ भजन करते हैं |

......जिसका भक्ति भाव पूर्ण अर्थ कर दिया गया...------ओ राधापति श्रीकृष्ण ! जैसे गोपियाँ तुम्हें भजती हैं वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं। उनके द्वारा सोमरस पान करो।

           विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य  राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ .  २ २.  ७).
 
          ------अर्थात वह परमात्मा सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा, किसी से भी विभेद\भेदभाव न करने वाला है जो विविध प्रकार व उपायों से पृथ्वी को संपन्न करता है एवं सविता-तारामंडल आदि उसके नेत्र आदि हैं |

-----जिसका भक्ति भाव में अर्थ किया गया है.-------ओ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा जो राधा को गोपियों में से ले गए हमारी रक्षा करो।

          त्वं नृचक्सम वृषभानुपूर्वी : कृष्नास्वग्ने अरुषोविभाही (ऋग्वेद )
 
      ----अर्थात आप ही आकाशी नक्षत्र मंडल हैं जो बलवान सूर्य, वृषभानु, के अवतरित होने से पूर्व रात्रिमें कृष्ण-अग्नि के रूप में प्रकाशित (विद्यमान) रहते हैं...
 

--------जिसको राधा के पिता वृषभानु से जोड़ दिया गया है (-----यह कह कर ...इस मन्त्र में श्री राधा के पिता वृषभानु का उल्लेख किया गया है जो अन्य किसी भी प्रकार के संदेह को मिटा देता है ,क्योंकि वही तो राधा के पिता हैं। )
 राधा---
 सर्व प्रथम ऋग्वेद के --भाग /मंडल१- में----राधस शब्द का प्रयोग हुआ है,जिसको बैभवके अर्थ में प्रयोग कियागया है।
ऋग्वेद-/--में-’  सुराधा’ शब्द श्रेष्ठ धनों से युक्त के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। सभी देवों से उनकीसंरक्षक शक्ति काउपयोग कर धनों की प्रार्थना , प्राक्रतिक सानों का उचित  उपयोग की प्रार्थना की गई है।
 ऋग्वेद -/५२/४०९४ में ’--- राधो’ आराधना’ शब्द शोधकार्यों के लिये भी प्रयोग किये गये हैं,    वस्तुतः रिग्वेदिक  यजुर्वेद  अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधा शब्द की व्युत्पत्ति =रयि(संसारऐश्वर्य,श्री,वैभव) +धा(धारक,धारण करने वालीशक्ति) ,से हुई हैअतः जब उपनिषद व संहिताओं के ग्यान मार्गीकाल में सृष्टि के कर्ता का ब्रह्म वपुरुष,परमात्मा,(कृष्ण) रूप वर्णन हुआ तो समस्त संसार की धारक चित-शक्ति,ह्लादिनी शक्ति,परमेश्वरी(राधाका आविर्भाव हुआ;

सोलह हज़ार रानियाँ----
 
-------संगीत विशेषज्ञ मानते हैं कि ब्रज में सोलह हज़ार राग रागनिंयों का निर्माण हुआ था। जिन्हें कृष्णकी रानियाँ भी कहा जाता है|
त्रिगुणात्मक प्रकृति से प्रकट होती चेतना सत्ता!
            श्रीकृष्ण आत्मतत्व के मूर्तिमान रूप हैं। मनुष्य में इस चेतन तत्व का पूर्ण विकास ही आत्म तत्व की जागृति है। जीवन प्रकृति से उद्भुत और विकसित होता है अतः त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में श्रीकृष्ण की भी तीन माताएँ हैं। 1- रजोगुणी प्रकृतिरूप देवकी जन्मदात्री माँ हैं, जो सांसारिक माया गृह में कैद हैं। 2- सतगुणी प्रकृति रूपा माँ यशोदा हैं, जिनके वात्सल्य प्रेम रस को पीकर श्रीकृष्ण बड़े होते हैं। 3- इनके विपरीत एक घोर तमस रूपा प्रकृति भी शिशु-भक्षक सर्पिणी के समान पूतना माँ है, जिसे आत्म तत्व का प्रस्फुटित अंकुरण नहीं सुहाता और वह वात्सल्य का अमृत पिलाने के स्थान पर विषपान कराती है। यहाँ यह संदेश प्रेषित किया गया है कि-------- प्रकृति का तमस-तत्व चेतन-तत्व के विकास को रोकने में असमर्थ है।
गोवर्धन धारण कथा --इस कथा का आध्यात्मिक संकेत यह है कि गो अर्थात इंद्रियों का वर्धन (पालन-पोषण) ) अर्थात इंद्रियों में क्रियाशील प्राण-शक्ति के स्रोत परमेश्वर पर हमारी दृष्टि होना चाहिए।  
     "यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्व्यं म्रजे॥" --------अर्थात यमुना के किनारे गाय,घोडों आदि धनों कावर्धन(व्रद्धि वउत्पादनआराधना सहित करें।
    गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिवः
    नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः
------कृष्ण= = क्र =कार्य=कर्म
-----राधो = = अराधना, राधन , शोध , नियमितता , साधना .....
---अर्थात ब्रज में ज्ञान व कर्म की साधना पूर्ण शोधों से गौ आदि कृषि कर्म की उन्नति हुई .....   

गोपियों के साथ रासलीला के वर्णन में मन की वृत्तियां ही गोपिकाओं के रूप में मूर्तिमान हुई हैं और प्रत्येक वृत्ति के आत्म-रस से सराबोर होने को रासलीला या रसनृत्य के रूप में चित्रित किया गया है। इससे भी उच्च अवस्था का- प्रेम और विरह के बाह्य द्वैत का एक आंतरिक आनंद में समाहित हो जाने की अवस्था का वर्णन 'महारास' में हुआ है।
--------नंद के घर में कृष्ण को खिलाने के लिए, उनकी सेवा करने के लिए, जिस प्रकार ग्राम भर की गोपियाँ जमघट लगाए बैठी रहती हैं, वह कृष्ण के प्रति उनका वात्सल्य है। गोपी से तात्पर्य केवल युवती बाला ही नहीं है, जो किसी युवा से प्रेम करती है। 
     वृन्दावन के गोपाल इतने धनी नहीं हैं कि इतनी सी बात से उन्हें कोई अंतर न पड़ता हो। गोपियों को नगर में जा कर दूध, दही,मक्खन बेच कर अपनी आजीविका भी अर्जित करनी है। कंस का शासकीय कर भी चुकाना है। अत: वे दूध दही बहाने में उदार नहीं हो सकते।... दूसरी ओर कंस की रानियाँ दुग्ध सरोवर में स्नान करती हैं। वृन्दावन के गोपाल अपने बच्चों के मुख से दूध बचा कर कंस की रानियों के स्नान के लिए भेजने को बाध्य हैं। ... कृष्ण इस अत्याचार को कैसे स्वीकार कर लें। शासन के अत्याचार के प्रति उनका प्रतिरोध मटकियाँ फोड़ कर दूध बहा देने में है। दूध गोपालों का है। उनके बच्चे दूध को तरसें और कंस की रानियाँ दुग्ध सरोवर में स्नान करें, यह असहनीय है।इसीलिए कृष्ण को मक्खन चुराने, मटकियाँ फोड़ने और दूध बहाने की लीला भी करनी पड़ती है। 
          ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप','गोपति', और 'गोपा' शब्द -----गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण हें। इन त्रिपाद-क्षेपी विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स और भूरिश्रृंगा-अनेक सींगोंवाली गउएँ हैं ।कदाचित इन गउओं के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है। इस आलंकारिक वर्णन में अनेक विद्वानों ने विष्णु को सूर्य माना है, जो पूर्व दिशा से उठकर अन्तरिक्ष को नापते हुए तीसरे पाद-क्षेप में आकाश में फैल जाता है। कुछ लोगों ने ग्रह-नक्षत्रों को ही गोपी कहा है, जो सूर्य मण्डल के चारों ओर घूमते हैं|


.सीरध्वज जनक का हल जोतना और जमीन से सीता की उत्पत्ति---  जनक जो एक कृषिप्रधान देश का सिरमौर राजा था एवं स्वयं भी हल चलाता था, सीरध्वज..अर्थात हल जोतने में ध्वज रूप... अन्न, धन-धान्य प्रधान, कृषि प्रधान देशों में सिरमौर  | राजा के स्वयम श्रम में भाग लेने से, श्रम के महत्त्व का उदाहरण बनने से  ....खेत जोतने से... लक्ष्मी अर्थात धन, संपत्ति  सम्पन्नता की प्राप्ति हुई... जो तत्पश्चात ..कन्या प्राप्ति के रूपक द्वारा राम की पत्नी सीता ( सीता अर्थात हल के फाल से उत्पन्न, पालक -विष्णु पत्नी लक्ष्मी के अवतार ) के रूप में लोक में प्रतिष्ठित हुई |



2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

तथ्यों की इतनी गहरी परख, मन प्रसन्न हो गया।

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद पांडे जी ....भारतीय शास्त्रीय तथ्य हैं ही इतने गहरे.....