....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
सरस्वती नदी रहस्य एवं भारत की मूल प्रागैतिहासिक नदियाँ ---(डा श्याम गुप्त)
किसी देश या भौगोलिक क्षेत्र के आदि, प्रागैतिहासिक, एतिहासिक ज्ञान व
स्थिति एवं सांस्कृतिक संरचना के ज्ञान हेतु उस क्षेत्र की नदियों का इतिहास
अत्यंत महत्वपूर्ण है | भारत के सन्दर्भ में भारत की मूल प्रागैतिहासिक नदियाँ ---सरस्वती,
सिन्धु, यमुना, गोमती, ब्रह्मपुत्र, गंगा एवं नर्मदा के उद्गम, प्रवाह व विलय के
इतिहास, इनके कालानुसार प्रवाह परिवर्तन एवं वर्तमान स्थिति इनके वैज्ञानिक,
भौगोलिक, एतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक व दार्शनिक, साहित्यिक विवरणों पर गहन
दृष्टिपात एवं उनके परस्पर समन्वित अध्ययन से भारतीय उपमहाद्वीप की वास्तविक
स्थिति का ज्ञान एवं विभिन्न विवादित बिन्दुओं पर विचार किया जा एकता है |
इन नदियों से सम्बंधित कुछ अनसुलझे प्रश्न
व विवरण, कथाएं आदि इस प्रकार हैं ---
१. सरस्वती नदी के किनारे आदि सभ्यता का
विकास व उसकी विलुप्ति ..क्या वास्तव में यह कोई नदी थी या कल्पना. ..सिन्धु व
सरस्वती का अंतर्संबंध ....क्या सरस्वती ही सिन्धु का पूर्व रूप है --- मानारोवर
क्षेत्र एवं सप्त-सिन्धु क्षेत्र में प्रथम मानव व प्रथम मानव-सभ्यता की उत्पत्ति ....
२, यमुना की प्राचीनता व गंगा से पूर्व
उपस्थिति ...वर्तमान में बंगाल में ब्रह्मपुत्र का यमुना के नाम से प्रवाह ..एवं
संगम–प्रयाग में सरस्वती की उपस्थिति ..
3. ब्रह्मपुत्र नदी के विभिन्न काल में
विपरीत दिशाओं में प्रवाह व मार्ग परिवर्तन ....
४. गोमती नदी को आदि-गंगा नाम से पुकारा
जाना ...
५. नर्मदा का आदि नदी एवं नर्मदा घाटी
में प्रथम जीव व आदि मानव की उत्पत्ति ...
६. सिन्धु घाटी सभ्यता ( या हरप्पा या
सरस्वती घाटी सभ्यता या सिन्धु-सरस्वती सभ्यता )
इन प्रश्नों के अनसुलझे उत्तरों को हम ढूँढने का प्रयत्न करेंगे ----
(क) ऋग्वेद में --- नदियाँ -----
--- - मंडल -१ सू
१६४/१७५२- सरस्वती ---वाणी विद्या कला की देवी----नदी नहीं ...
----मंडल-३ सू-३०..विपाशा,
सिन्धु, सरयू ..नदियाँ
----३३८५ –उतत्या सद्य आर्या
सरयोरिन्द्र पारतः| अर्णो चित्ररथ बधी: || ---सरयू किनारे बसी अर्ण व
चित्ररथ नामक आर्य शासकों को इंद्र ने तत्काल मार दिया |
----३३७९-उत सिन्धु विवात्यं
वितस्थानामधिक्षामि | परिष्ठा इंद्र मायया |---आपने समस्त जल को तथा
परिपूर्ण रूप से भरी हुई बेग से प्रवाहित सिन्धु को अपनी माया (
बुद्धि-कौशल) से धरती पर सब जगह स्थापित किया | ----यहाँ पर सिधु नदी नहीं अपितु समस्त जल धाराओं का
सन्दर्भ है …..
मंडल-५ –सू-५२ -४०३३---परुष्णी नदी ...वायु की लहरों
को कहा गया है जिसमें मरुद्गण (मेघ ) रहते हैं |
--मं.५, सू-५२-४०९४ ---यमुना
---गाय, घोड़ों का शोधन –निराधो =निश्चिंतता से आराधना ..
--मं५-सू.५३—४१०३ –सरयू ...रसा,
अनितभा, कुभा, सिन्धु –हमें न देखें ..
--मं -५ , सू-६१-गोमती के
किनारे रथवीति का निवास ---
मंडल-६-सू -४५--४८०२ –गंगा ...अधि वृबु: पणीनां
वर्षिष्ठे मूर्धन्तस्थात| उरु कक्षो न: गांड्.गय: || ---वृबु ने पणियों (
व्यापारियों, असुरों ) के बीच ऊंचा स्थान प्राप्त किया | वे गंगा के ऊंचे तटों के
समान महान हुए |
मं -६ सू-६१-- सरस्वती नदी के किनारे दिवोदास
द्वारा सभ्यता की स्थापना ---
“ उत न: प्रिया प्रियासु सप्तस्वसा
सुजुष्य | सरस्वती स्तोम्या भूत ||--प्रियजनों में अतिप्रिय सात बहनों (धाराओं या
सहायक नदियों– वाणी के सप्त स्वरों सरगम) से युक्त, सरस्वती स्तुत्य हैं|
----स्वर्ग व पृथ्वी को अपने तेज से
भरने वाली --- अर्थात स्वर्ग में भी थी .....
-------ऋग्वेद मन्त्र १०:७५:५
एवं ३:२३:४ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शतुद्री (सतलज), परुशणी
(रावी), असिक्नी (चेनाब), वितस्ता, आर्जीकीया
(व्यास) एवं सिन्धु, पंजाब की ये सभी नदियाँ सरस्वती की सहायक
नदियाँ थीं।
---------ऋग्वेद मन्त्र ६:६१:१०,१२; ७:३६:६
में सरस्वती को सात बहनों वाली और सिन्धु नदी की माता कहा गया है।
(ब) ६
प्रागैतिहासिक नदियाँ का संक्षिप्त वर्णन----
सरस्वती ---
-------विलुप्त सरस्वती की जीवनगाथा
में अंतर्निहित भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के उदय की गाथा ऋग्वेद मन्त्र ६:६१:१०,१२; ७:३६:६
में सरस्वती को सात बहनों वाली और सिन्धु नदी की माता कहा गया है। इन मंत्रो से प्रकट होता है कि ऋग्वेदिक काल में सरस्वती सदानीरा महानदी थी, जो हिमालय की हिमाच्छादित शिखाओं से अवतरित होकर
आज के पंजाब, हरियाणा,
पश्चिमी राजस्थान, सिंध
प्रदेश व गुजरात क्षेत्र को सिंचित कर शस्य-श्यामला बनती थी।
------इस सन्दर्भ में ऋग्वेद मन्त्र १०:७५:५
एवं ३:२३:४ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शतुद्री (सतलज), परुशणी
(रावी), असिक्नी (चेनाब), वितस्ता, आर्जीकीया
(व्यास) एवं सिन्धु, पंजाब की ये सभी नदियाँ सरस्वती की सहायक
नदियाँ थीं।
--------पिछले कुछ वर्षों में उपग्रह से लिए गए चित्रों
के माध्यम से वैज्ञानिकों ने एक ऐसी विशाल नदी के प्रवाह-मार्ग का पता
लगा लिया है जो किसी समय पर भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र
में बहती थी। उपग्रह से लिए गए चित्र दर्शाते हैं कि कुछ स्थानों पर यह
नदी आठ किलोमीटर चौड़ी थी और कि यह चार हज़ार वर्ष पूर्व सूख गई थी।
-------किसी
प्रमुख नदी के किनारे पर रहने वाली एक विशाल प्रागैतिहासिक सभ्यता की खोज
ने इस प्रबल होते आधुनिक विश्वास को और पुख़्ता कर दिया है कि सरस्वती नदी
वास्तविक नदी थी |
--------इस नदी के प्रवाह-मार्ग पर एक हज़ार से
भी अधिक पुरातात्त्विक महत्व के स्थल मिले हैं और वे ईसा पूर्व तीन हज़ार वर्ष पुराने हैं। इनमें से एक स्थल उत्तरी राजस्थान में प्रागैतिहासिक
शहर कालीबंगन है। इस स्थल से कांस्य-युग के उन लोगों के
बारे में महत्वपूर्ण जानकारी का ख़ज़ाना मिला है जो वास्तव
में सरस्वती नदी के किनारों पर रहते थे।
--------पुरातत्त्वविदों ने पाया है कि
इस इलाक़े में पुरोहित, किसान, व्यापारी तथा
कुशल कारीगर रहा करते थे। इस क्षेत्र में पुरातत्त्वविदों को बेहतरीन क़िस्म की मोहरें भी मिली हैं जिन पर लिखाई के
प्रमाण से यह संकेत मिलता है कि ये लोग साक्षर थे। यद्यपि इन मोहरों की
गूढ़-लिपि ( चित्र लिपि )का अर्थ अभी तक नहीं निकाला जा
सका है।
------आज सिंधु घाटी की सभ्यता( हरप्पा
या अब सरस्वती घाटी सभ्यता )
प्राचीनतम सभ्यता जानी जाती है। ------------वास्तव में यह सभ्यता एक
बहुत बड़ी सभ्यता का अंश है, जिसके अवशिष्ट चिन्ह उत्तर में हिमालय की
तलहटी (मांडा) से लेकर नर्मदा और ताप्ती नदियों तक और उत्तर प्रदेश
में कौशाम्बी से गांधार (बलूचिस्तान) तक मिले हैं। अनुमानत: यह पूरे
उत्तरी भारत में थी। यदि इसे किसी
नदी की सभ्यता ही कहना हो तो यह उत्तरी भारत की नदियों की सभ्यता है। इसे
कुछ विद्वान प्राचीन सरस्वती नदी की सभ्यता या फिर सरस्वती-सिन्धु सभ्यता कहते हैं। कालांतर में बदलती
जलवायु और राजस्थान की ऊपर उठती भूमि के कारण सरस्वती नदी सूख गयी।
वैदिक
धर्मग्रंथों के अनुसार धरती पर नदियों की कहानी सरस्वती से शुरू होती है। सरस्वती नदी वैदिक काल में इतनी पवित्र समझी
जाती थी कि परवर्ती काल में इसको विद्या, बृद्धि तथा वाणी की देवी के रूप में माना गया।
इस नदी का उद्गम हर की दून ग्लेशियर में यमुनोत्री के पास है। सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती सर्वप्रथम पुष्कर में
ब्रह्म सरोवर से प्रकट हुई। पुराणों के
अनुसार आदिम मनु स्वायंभुव का निवास स्थल सरस्वती
नदी के तट पर था। कहा जाता है कि कार्तिकेय
(शिव के पुत्र जिनका एक नाम स्कंद भी है) को सरस्वती के तट पर देवताओं की सेना का सेनापति
(कमांडर) बनाया गया था। चंद्रवंशी राजकुमार पुरुरवा
को उनकी भावी पत्नी उर्वशी भी यहीं मिली थी। सरस्वती
के बारे में कुछ तथ्य विशिष्ट हैं----
१.ऋग्वेद
के नदी सूक्त १०-७५ में सरस्वती को यमुना के पूर्व व सतलज के पश्चिम में
बहता बताया है..|
२.प्रयाग (इलाहाबाद ) में त्रिवेणी
संगम ----
३. दृषवती नदी--सरस्वती और दृश्वती परवर्ती काल में ब्रह्मावर्त की पूर्वी
सीमा की नदियां कही गई हैं। --दृषदवती (=ब्रह्मपुत्र ) व
दृष्टावती (=सरस्वती-यमुना की सहायक नदी-जो आदिकाल की पश्चिमोन्मुखी ब्रह्मपुत्र
की अवशेष नदी हो सकती है )–दो पृथक नदियाँ हैं ....
4.यमुना सबसे प्राचीन नदी – एवं कालान्तर से सरस्वती-यमुना- गंगा का
एक दूसरे की सहायक की भांति स्थिति -- भारत कोश के अनुसार - पहिले दो वरसाती नदियाँ 'सरस्वती' और
'कृष्ण
गंगा' मथुरा के पश्चिमी
भाग में प्रवाहित होकर यमुना में गिरती
थीं, जिनकी स्मृति में यमुना के
सरस्वती संगम और कृष्ण गंगा नामक धाट हैं।–अर्थात कभी सरस्वती व गंगा स्वयं, यमुना की सहायक नदियाँ थीं ...शास्त्रों के अनुसार यमुना, सरस्वती नदी की
सहायक नदी रही है। जो बाद में गंगा में मिलने लगी। सरस्वती का उद्गम स्थल
की प्लक्ष-प्रस्रवन के रूप में पहचान की गयी है जो जमुनोत्री के पास ही स्थित
है | – महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र
तीर्थ सरस्वती नदी के दक्षिण और दृष्टावती नदी के उत्तर में स्थित है|
५.स्कन्द पुराण के अनुसार आदिकाल में समुद्र तट
पर स्थित अवन्ती राज्य के उत्तरी भाग उज्जयिनी में ब्रह्माणि हंसवाहिनी सरस्वती
नदी अवस्थित थी जो आज ब्रह्माणी नदी है |
ऋग्वेद तथा अन्य पौराणिक वैदिक ग्रंथों
में दिये सरस्वती नदी के सन्दर्भों के आधार पर कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि हरियाणा से
राजस्थान होकर बहने वाली मौजूदा सूखी हुई घग्घर-हकरा नदी प्राचीन
वैदिक सरस्वती नदी
की एक मुख्य सहायक नदी थी, जो
५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी। ऋग्वेद
में सरस्वती नदी को नदीतमा की
उपाधि दी गयी है। वैदिक सभ्यता
में
सरस्वती ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी।
इसरो द्वारा किये गये शोध से
पता चला है कि आज भी यह नदी हरियाणा, पंजाब और राजस्थान से
होती हुई भूमिगत रूप में प्रवाहमान है| -----'ततो विनशनं
गच्छेन्नियतो नियताशन: गच्छत्यन्तर्हिता यत्र मेरूपृष्ठे सरस्वती... अर्थात मेरुपृष्ठ से निकलने वाली सरस्वती विनशन
स्थान में अन्तर्निहित होगई एवं केवल मेरुपृष्ठ तक सीमित रह गयी -- अर्थात पुनः
स्वर्ग में प्रवेश ... |
शतपथ ब्राह्मण में विदेघ (विदेह) के
राजा माठव का मूलस्थान सरस्वती नदी के तट पर बताया गया है और कालांतर
में वैदिक सभ्यता का पूर्व की ओर प्रसार होने के साथ ही माठव के विदेह
(बिहार) में जाकर बसने का वर्णन है। इस कथा से भी सरस्वती
का
तटवर्ती
प्रदेश वैदिक काल की सभ्यता का मूल केंद्र प्रमाणित होता है।
महाभारत में अनेक स्थानों पर सरस्वती का उल्लेख है। श्रीमद भागवत में यमुना तथा दृषद्वती
के साथ इसका उल्लेख है| मेघदूत
में कालिदास ने सरस्वती का ब्रह्मावर्त के अंतर्गत वर्णन
किया है | पारसियों के धर्मग्रंथ जेंदावस्ता में सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है।
हड़प्पा
सभ्यता की अधिकाँश बस्तियां सरस्वती के तट पर पायी जाती हैं अतः अब शोधों से सिद्ध
होगया है कि हड़प्पा सभ्यता मूलतः सरस्वती सभ्यता थी |
आधुनिक
खोजों के अनुसार लगभग ५००० वर्ष पूर्व अरावली पर्वत श्रेणियों के
उठने से उत्पन्न भूगर्भीय एवं सागरीय हलचलों में राजस्थान की भूमि उठने से यमुना
जो दृशवती की सहायक नदी थी पूर्व की ओर बहकर गंगा में मिल गयी तथा सतलज आदि अन्य
नदियाँ पश्चिम की ओर सिन्धु में मिल गयीं सरस्वती
के विशाल जलप्रवाह द्वारा समस्त भूमि पर उत्पन्न जलप्रलय ने स्थानीय सभ्यता का
विनाश किया एवं स्वयं नदी सूख कर विभिन्न झीलों में परिवर्तित होगई | सरस्वती
का अर्थ है सरोवरों वाली नदी | हरियाणा व राजस्थान के विभिन्न सरोवर व झीलें ब्रह्मसर,
ज्योतिसर, स्थानेसर,खतसर,रानीसर,पान्डुसर; पुष्कर सरस्वती के प्राचीन प्रवाह-मार्ग में ही
हैं... इस प्रकार सरस्वती
विलुप्त होगई एवं द्वापर युग में सरस्वती में जल प्रवाह कम रह जाने से पर राजस्थान का थार मरुस्थल एवं कच्छ का रन बन गए| द्वापर
के अंत में सागरीय हलचल में गुजरात जो सागर में एक द्वीप था उस पर बसी द्वारका समुद्र में समा गयी |
गंगा-यमुना के संगम के संबंध में
केवल इन्हीं दो नदियों के संगम का वृत्तांत रामायण, महाभारत, कालिदास तथा प्राचीन पुराणों
में मिलता है। परवर्ती पुराणों तथा
हिन्दी आदि भाषाओं के साहित्य में त्रिवेणी का उल्लेख है। कुछ लोगों का मत
है कि गंगा-यमुना की संयुक्त धारा का ही नाम सरस्वती है। अन्य लोगों को विचार है कि पहले प्रयाग में संगम स्थल पर एक
छोटी-सी नदी आकर मिलती थी जो अब लुप्त हो गई है। 19 वीं
शती में, इटली के निवासी
मनूची ने
प्रयाग के किले की चट्टान से नीले पानी की सरस्वती नदी को निकलते देखा था। यह नदी
गंगा-यमुना के संगम में ही मिल जाती थी|
कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित
हो गई, फिर भी लोगों की धारणा है कि प्रयाग में वह अब
भी अन्तर्निहित होकर बह रही है| मनुसंहिता से स्पष्ट है सरस्वती और दृषद्वती के बीच का भूभाग ही
ब्रह्मावर्त कहलाता था। ऋग्वेद के नदी सूक्त में सरस्वती का उल्लेख है ----
इमं मे गंगे
यमुने सरस्वती शुतुद्रि सतोमंसचता परुष्णया,
असिक्न्या
मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये
श्रृणुह्या सुषोभया'|
कुछ मनीषियों का विचार है कि ऋग्वेद में सरस्वती वस्तुत: मूलरूप में सिंधु का ही
पूर्व रूप है। क्योंकि गंगा, यमुना
सरस्वती के अलावा ये सभी पांच नदियाँ आज सिन्धु की सहायक नदियाँ हैं छटवीं
द्रषद्वती है, सिन्धु नदी का नाम
नहीं है | ऋग्वेद ७.३६.६ में सरस्वती को सप्तसिन्धु नदियों की जननी बताया
गया है | इस प्रकार इसे सात बहनें वाली नदी कहा गया है –
“उतानाह प्रिया प्रियासु सप्तास्वसा, सुजुत्सा सरस्वती स्तोभ्याभूत ||
सातवीं बहन सिन्धु होसकती है जो उस समय तक छोटी नदी रही होगी | सरस्वती के सूखने पर पांच सहायक नदियों
से आपलावित होकर आज की बड़ी नदी बनी | सरस्वती
और दृषद्वती परवर्ती काल में ब्रह्मावर्त की पूर्वी सीमा की नदियां कही गई
हैं।
चित्र3. –सिन्धु, सहायक नदी की भांति सरस्वती
में समाहित होते हुए ....( पूर्व-महाभारत काल ) सरस्वती के लुप्त होने पर सिन्धु
ने वर्त्तमान रूप लिया ......
प्रथम आर्यावर्त के विषय में मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में इस प्रकार है -
आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु
पश्चिमात् ।
तयोरेवान्तर गिर्योरार्थावर्तं
विदुर्बुधाः ॥
------मनु० अ० श्लोक-२२
उत्तर
में हिमालय, दक्षिण
में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र है । इस
देश का व इस भूमि का नाम आर्यावर्त है, क्योंकि आदि सृष्टि से इसमें आर्य लोग निवास करते रहे
हैं,
परन्तु इसकी अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक (सिन्धु) और पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी है । इन चारों के बीच में जितना देश है उसको आर्यावर्त कहते हैं और जो
इसमें सदा से रहते हैं उनको भी आर्य कहते हैं । इसकी सीमा के विषय में
मनु ने लिखा है -
सरस्वती दृषद्वत्योर्देव
नद्योर्यदन्तरम् ।
तं देव निर्मितं देशं ब्रह्मावर्त
प्रचक्षते ॥
----मनु०
२।१७॥
अर्थात् सरस्वती के पश्चिम में, अटक
नदी, पूर्व में, दृषद्वती
जो नेपाल के पूर्व भाग पहाड़
से निकलकर बंगाल और आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम की ओर होकर दक्षिण के
समुद्र में मिली है, जिसको ब्रह्मपुत्र नदी कहते हैं और जो उत्तर के
पहाड़ों से निकल कर दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में आ मिली है । हिमालय
की मध्य रेखा से दक्षिण और पहाड़ों के अन्तर्गत रामेश्वर पर्यन्त,
विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन
सबको आर्यावर्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त वा ब्रह्मवर्त को देव अर्थात् विद्वानों
ने बसाया । विद्वानों और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त व
ब्रह्मवर्त कहलाया ।
सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी
और मैदानों से होती हुई अरब सागर में जाकर विलीन हो जाती थी। मानसरोवर
से निकलने वाली सरस्वती हिमालय
को पार करते हुए हरियाणा,
पंजाब व राजस्थान से होकर बहती थी और
कच्छ के रण में जाकर अरब सागर में मिलती थी। उत्तरांचल के रूपण ग्लेशियर से उद्गम के उपरांत
यह जलधार के रूप में आदि-बद्री तक बहकर आती थी फिर आगे चली जाती थी| तब सरस्वती के
किनारे बसा राजस्थान भी हरा भरा था। उस समय यमुना,
सतलुज व घग्गर इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ थीं। बाद में सतलुज व यमुना ने भूगर्भीय हलचलों के कारण अपना
मार्ग बदल लिया और सरस्वती से दूर हो गईं| महाभारत
में सरस्वती नदी को प्लक्षवती, वेद-स्मृति, वेदवती आदि नामों से
भी बताया गया ही | पारसियों के धर्मग्रंथ जेंदावस्ता
में सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है। ऋग्वेद) में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। यह
नदी सर्वदा जल
से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर उत्पत्ति होती थी। सरस्वती आज की गंगा की तरह उस समय की विशालतम नदियों में से एक थी। उत्तर
वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत कुछ सूख चुकी थी। तब
सरस्वती नदी में पानी बहुत कम था। लेकिन बरसात के मौसम में इसमें पानी आ
जाता था। भूगर्भी बदलाव की वजह से सरस्वती नदी का
पानी
गंगा
में चला गया,
कई
विद्वान मानते हैं कि इसी वजह से गंगा के पानी की महिमा हुई, भूचाल आने के कारण जब
जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना
में गिर गया। इसलिए यमुना में सरस्वती का जल भी
प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना
गया|
सरस्वती
को सिधु क्षेत्र में नारा (
महान जल प्रवाह व संग्रह...नार =जल ) कहा जाता है = नारायण..= नारा का अयन ...
कच्छ क्षेत्र में खिरसर नामक स्थान है =क्षीरसागर ...अर्थात इसी स्थान पर जब
गुजरात आदि एक टापू था कच्छ के स्थान पर सागर था ..इसी को नारायण ( नार +अयन =जल
निवास ) का निवास क्षीरसागर था |
------महाभारत के अनुसार--बलराम ने द्वारका से मथुरा तक की यात्रा सरस्वती
नदी से की थी और लड़ाई के बाद यादवों के पार्थिव अवशेषों को इसमें बहाया गया
था यानी तब इस नदी से यात्राएं भी की जा सकती थीं।
-----महाभारत (शल्य पर्व) में सरस्वती नामक 7 नदियों का उल्लेख किया गया है। एक सरस्वती नदी यमुना के साथ बहती हुई गंगा से मिल जाती थी। ब्रजमंडल की अनुश्रुति के अनुसार एक सरस्वती नदी प्राचीन हरियाणा राज्य से ब्रज में आती थी और मथुरा के निकट अंबिका वन में बहकर गोकर्णेश्वर महादेव के समीपवर्ती उस स्थल पर यमुना नदी में मिलती थी जिसे 'सरस्वती संगम घाट' कहा जाता है। सरस्वती नदी और उसके समीप के अंबिका वन का उल्लेख पुराणों में हुआ है।
रेगिस्तान में उतथ्य मुनि के शाप से भूगर्भित होकर सरस्वती लुप्त हो गई और पर्वतों पर ही बहने लगी। सरस्वती पश्चिम से पूरब की ओर बहती हुई सुदूर पूर्व नैमिषारण्य पहुंची। अपनी 7 धाराओं के साथ सरस्वती कुंज पहुंचने के कारण नैमिषारण्य का वह क्षेत्र 'सप्त सारस्वत' कहलाया। यहां मुनियों के आवाहन करने पर सरस्वती 'अरुणा' नाम से प्रकट हुई। अरुणा सरस्वती की 8वीं धारा बनकर धरती पर उतरी। अरुणा प्रकट होकर कौशिकी (आज की कोसी नदी) से मिल गई।
-----अपनी
पूर्वजा पौराणिक देवी सरस्वती के मृत्युलोक में अवतीर्ण होने के स्थान
को शोण के निकट वर्णित करते हुए बाण ने
शोण को दंडकारण्य
और विंध्य से उद्गत नदी माना है --अर्थात सरस्वती किसी कालमें
मानसरोवर से सीधी दक्षिण की ओर बहकर पटना के समीप
एवं उससे पहले प्रयाग में अवतरित होती थी
(गंगा से पहले) यमुना में मिलकर .... |
त्रिवेणी -बंगाल में हुगली के समीप छोटा कस्बा है त्रिवेणी जो हिन्दुओं
का प्राचीन धर्मस्थल है यहाँ भागीरथी नाम से गंगा तीन धाराओं में बंट कर सागर
में विलीन होती है |--–सरस्वती, गंगा
व यमुना...इसे मुक्तवेनी कहा जाता है जबकि प्रयाग की
सरस्वती, गंगा, यमुना -त्रिवेणी को युक्तवेनी कहा जाता है|
अर्थात सरस्वती की उपस्थिति दोनों स्थान पर है| अर्थात कभी सरस्वती स्वतंत्र रूप में या यमुना के साथ बंगाल
की खाड़ी में गिरती थी |
सिंध नदी ----
सिंध नदी उत्तरी
भारत की तीन बड़ी नदियों में से एक हैं। इसका उद्गम बृहद् हिमालय
में कैलाश से 62.5 मील उत्तर में सेंगेखबब के स्रोतों में है। अपने उद्गम
से निकलकर तिब्बती पठार की चौड़ी घाटी में से होकर, कश्मीर की सीमा को पारकर,
दक्षिण पश्चिम में पाकिस्तान के रेगिस्तान और सिंचित भूभाग में बहती
हुई, कराँची के
दक्षिण में अरब सागर में
गिरती है।
सिंधु
की पांच उपनदियां हैं।
इनके नाम हैं: वितस्ता, चन्द्रभागा,
ईरावती, विपासा एंव शतद्रु. इनमें शतद्रु सबसे
बड़ी उपनदी है| वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे जम्मू व कश्मीर की राजधानी श्रीनगर स्थित
है। इनके अतिरिक्त गिलगिट, काबुल, स्वात, कुर्रम, टोची, गोमल, संगर आदि अन्य सहायक नदियाँ हैं।
संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं - सिन्धु नदी
का नाम, जो लद्दाख और पाकिस्तान से बहती है.....कोई भी नदी या
जलराशि ( समुद्र )
सिन्धु
घाटी सभ्यता (३३००-१७०० ई.पू.) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं
में से एक प्रमुख सभ्यता थी।
साहित्यिक उल्लेख---
--------सिंधु नदी की महिमा ऋग्वेद में
अनेक स्थानों पर वर्णित है- 'त्वंसिधो
कुभया गोमतीं क्रुमुमेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे...’
------ऋग्वेद में
सिंधु में अन्य नदियों के मिलने की समानता बछड़े से मिलने के लिए आतुर गायों से की
गई है----'अभित्वा सिंधो शिशुभिन्नमातरों वाश्रा अर्षन्ति
पयसेव धेनव:'
--------सिंधु के नाद को आकाश तक
पहुंचता हुआ कहा गया है। जिस प्रकार मेघों से पृथ्वी पर
घोर निनाद के साथ वर्षा होती है उसी प्रकार सिंधु दहाड़ते हुए वृषभ की तरह अपने
चमकदार जल को उछालती हुई आगे बढ़ती चली जाती है-
'दिवि स्वनो यततेभूग्यो पर्यनन्तं
शुष्ममुदियर्तिभानुना।
अभदिव प्रस्तनयन्ति वृष्टय: सिंधुर्यदेति वृषभो न रोरूवत्'|
------ऋग्वेद में सप्त सिंधव का उल्लेख है जिसे अवेस्ता में हप्तहिन्दू कहा गया है। यह सिंधु
तथा उसकी पंजाब की छ: अन्य सहायक नदियों (वितस्ता, असिक्नी, परुष्णी, विपाशा,
शुतुद्रि, तथा
सरस्वती) का
संयुक्त नाम है। ऋग्वेद
के नदी सूक्त में सरस्वती का उल्लेख है ----
इमं मे गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि
सतोमंसचता परुष्णया,
असिक्न्या
मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोभया'|
कुछ मनीषियों का
विचार है कि ऋग्वेद में वर्णित सरस्वती वस्तुत: मूलरूप में सिंधु का ही पूर्व रूप है। क्योंकि
गंगा, यमुना सरस्वती के अलावा ये सभी पांच नदियाँ आज सिन्धु
की सहायक नदियाँ हैं छटवीं द्रषद्वती है, सिन्धु नदी का नाम नहीं है |
ऋग्वेद ७.३६.६ में सरस्वती को
सप्तसिन्धु नदियों की जननी बताया गया है | इस प्रकार इसे सात
बहनें वाली नदी कहा गया है –
“उतानाह
प्रिया प्रियासु सप्तास्वसा, सुजुत्सा सरस्वती स्तोभ्याभूत ||
सातवीं बहन सिन्धु होसकती है जो उस समय तक छोटी
नदी या पृथक बड़ी नदी के रूप में सरस्वती की सहायक नदी रही होगी | सरस्वती के सूखने पर पांच सहायक नदियों से आप्लावित
होकर आज की बड़ी नदी बनी | सरस्वती और दृषद्वती परवर्ती काल में ब्रह्मावर्त की पूर्वी सीमा की
नदियां कही गई हैं।
---------ऋग्वेद मन्त्र ६:६१:१०,१२; ७:३६:६
में सरस्वती को सात बहनों वाली और सिन्धु नदी
की माता कहा गया है
-------सिंधु की पश्चिम की ओर की सहायक
नदियों-कुभा सुवास्तु, कुमु और गोमती का
उल्लेख भी ऋग्वेद में है। सिंधु नदी के प्रदेश के निवासी इस नदी को 'सिंध का समुद्र' कहते
हैं।
-------ऋग्वेद मन्त्र १०:७५:५ एवं ३:२३:४
के आधार पर -शतुद्री (सतलज), परुशणी (रावी), असिक्नी (चेनाब), वितस्ता, आर्जीकीया (व्यास) एवं सिन्धु, पंजाब की ये सभी नदियाँ सरस्वती की सहायक नदियाँ थीं।
---------कुछ पुराणों में ऐसा
आया है कि शिव ने
अपनी जटा से गंगा को सात धाराओं में परिवर्तित कर दिया, जिनमें तीन (नलिनी, ह्लदिनी एवं पावनी) पूर्व की ओर, तीन (सीता, चक्षुस एवं सिन्धु) पश्चिम
की ओर प्रवाहित हुई
और सातवीं धारा
भागीरथी हुई
|
----वाल्मीकि रामायण में सिंधु को महानदी की संज्ञा दी गई है----
'सुचक्षुशचैव सीता च, सिंधुश्चैव
महानदी, तिस्त्रश्चैता दिशं जग्मु: प्रतीचीं सु दिशं शुभा: '
-----इस प्रसंग में सिंधु को सुचक्षु (=वंक्षु= ओक्सस ) तथा सीता
(=तरिम) के साथ गंगा की पश्चिमी धारा माना गया है।
------महाभारत में सिंधु का, गंगा और सरस्वती के साथ उल्लेख है,
'नदी पिवन्ति विपुलां गंगा सिंधु सरस्वतीम् गोदावरी
नर्मदां च बाहुदां च महानदीम्'
----ऋग्वेद के मन्त्रों में सभी नदियों को स्त्रीलिंग
नाम से वर्णन किया गया है केवल सिन्धु को पुल्लिंग संज्ञा दी गयी है ---अर्थात
सिन्धु का अर्थ समुद्र से है...
रास्ता बदलती नदी : इस नदी ने पूर्व में अपना रास्ता
कई बार बदला| तीसरी सदी ईपू के अभिलेख के अनुसार सिन्धु वर्तमान से
१३० किमी पूर्व में बहती थी जो आज एक परित्यक्त मार्ग है | सिन्धु तब कच्छ तक जाती
थी जो उस समय अरब सागर की खाडी थी पर कच्छ के रन के भर जाने से नदी का मुहाना अब
पश्चिम की ओर खिसक गया है। सरस्वती ३०० ईपू में चूरू के निकट बहती थी | चनाब,
झेलम, रावी, व्यास सतलज अदि सभी अपने पुराने मार्गों से अत्यंत दूर जा चुकी हैं|
मूल सिन्धु नदी---- को ही ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त है। इसे भी गंगा की सात धाराओं में एक तथा अग्नि का उत्पत्ति स्थान माना गया
है। भागवत के अनुसार मार्कण्डेय को यहीं पर भगवान के दर्शन हुए थे। पुराण में
उल्लेख है कि वरुण की सभा में उपासनारत यह नदी हिमालय पहाड़ के पश्चिमी भाग से
निकलकर दो हजार किलोमीटर की लम्बी यात्रा तय करती है। अरब सागर में विलीन होते समय
इसकी चौड़ाई 6 किलोमीटर हो जाती है।
------यह भी धारणा है कि सरस्वती नदी जो काल के
प्रवाह में अदृश्य है, इसी
सिन्धु नदी में जा मिली थी।
दूसरी
काली सिंधु अथवा निर्विन्ध्या
शुक्तिमान पर्वत से निकलकर विंध्य के बगल से बहकर यमुना में समाहित होती है। रन्तिदेव
की राजधानी दशपुर अथवा मंदसौर नगर इसी के तट पर स्थित है। इस पावन नदी का अपना महत्व
है।
आदि गंगा ---गोमती ----
गंगा अवतरण से पूर्व धरती की कोख से
प्रकट हुई आदि गंगा 'गोमती' , पुराणों
में महानदी से अलंकृत उत्तर भारत मे
बहने वाली एक नदी है
जो प्रदेश के पीलीभीत जिले से प्रकट होकर 960
किमी की यात्रा के बाद वाराणसी के
निकट सैदपुर के,
पटना गाँव के पास गंगा में मिल जाती है गोमती का उदगम माधोटान्डा
के पास होता है। पुराणों
के अनुसार गोमती ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की
पुत्री है,
हिन्दू ग्रन्थ श्रीमदभागवत के अनुसार गोमती भारत
की उन पवित्र नदियों में से है जो मोक्ष प्राप्ति का मार्ग हैं। माधोटान्डा पीलीभीत से
लगभग ३० कि. मी. पूर्व में स्थित है। कसबे के मध्य से करीब १ कि. मी. दक्षिण-पश्चिम
में एक ताल है जिसे पन्गैली फुल्हर ताल या गोमत ताल कहते हैं, वही
इस नदी का स्रोत है I इस ताल से यह नदी मात्र एक पतली धारा की तरह
बहती है। इसके उपरान्त लगभग २० कि. मी. के सफ़र के बाद इससे एक सहायक नदी गैहाई
मिलती है। लगभग १०० कि. मी. के सफ़र के पश्चात यह लखीमपुर खीरी जनपद
की मोहम्मदी खीरी तहसील पहुँचती है जहां इसमें सहायक नदियाँ जैसे सुखेता, छोहा
तथा आंध्र छोहा मिलती हैं और
इसके बाद यह एक पूर्ण नदी का रूप ले लेती है। गोमती और गंगा के संगम में
प्रसिद्ध मार्कण्डेय महादेव मंदिर स्थित है। लखनऊ, लखीमपुर
खेरी, सुल्तानपुर और जौनपुर शहर गोमती के किनारे पर
स्थित हैं नदी जौनपुर शहर को दो बराबर भागों मे विभाजित करती है और जौनपुर में व्यापक
हो जाती है।
-----------वर्ष 1970 के
सेटेलाइट चित्र से इस बात का पता चला है कि गोमती
गोमद ताल से नहीं बल्कि 60 किलोमीटर ऊपर हिमालय की तलहटी से निकली है। गोमती हिमालय से निकली पेलियो चैनल (वह रास्ता जिससे होकर पानी नदी तक पहुंचता है) से रिचार्ज होती थी।
चित्र-५..गोमतीनदी
चित्र-५..गोमतीनदी
------------गंगा के पृथ्वी पर अवतरण से पहले गोमती जो (पहले उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र,काबुल में गोमल नाम से बहती थी एवं गंगा की मूलधारा थी) मानसरोवर क्षेत्र से अन्दर ही अन्दर भूगर्भीय प्रवाहित होकर निम्न-हिमालयी क्षेत्र के मध्य भाग में भूगर्भीय जलश्रोत से निकलकर पहले मथुरा के समीप पुनः प्रयाग के समीप यमुना से मिलने लगी | इसीलिये गोमती को आदि-गंगा कहा जाता है | इसीलिये मथुरा में सरस्वती घाट व गंगा घाट आज भी हैं तथा प्रयाग में त्रिवेणी ( गंगा, सरस्वती, यमुना) का संगम माना जाता है|
गोमती संभवत: विश्व की इकलौती नदी है, जो धरती की कोख से प्रकट हुई। हिमखंडों
का इसमें तनिक भी योगदान नहीं है। पीलीभीत जिले के माधौटांडा स्थित गोमती तालाब नदी का उदगम
स्थल है। सतयुग का तीर्थ कहा जाने वाला नैमिषारण्य भी गोमती का महत्व समेटे है।
यहां के चक्रतीर्थ से जो लगातार जल का प्रवाह होता है, वह गोमती का नीर है। मान्यता है कि सतयुग
में संतों की साधना के लिए आदि गंगा ने चक्रतीर्थ से नाता जोड़ा |
भारतीय प्राचीन ग्रंथों में आदि-गंगा गोमती को कच्छप वाहिन कहा जाता है। ऐसा इसलिए कि कभी यह नदी कछुओं का
प्राकृतिक निवास हुआ करती थी | गोमत ताल में आज भी कछुए इतने अधिक हैं कि जरा सा लाई दाना डालिए कि ये सिर उठाकर भागते चले आते हैं।
सुनासीरनाथ घाट व देवस्थान शाहजहांपुर में बण्डा के निकट गोमती तट
पर स्थित सुनासीरनाथ घाट व देवस्थान है | सुनासीर
वैदिक नाम है जो उत्पादन व कृषि से सम्बंधित देवों इंद्र व मरुत से सम्बंधित
है| सुनासीरनाथ महादेव शिव का नाम है यहाँ इंद्र ने शिव को स्थापित किया था | अर्थात
यह नदी आदि-गंगा, गंगा से पहले वैदिक काल की है |
ऋग्वेद के अष्टम और दशम मण्डल में गोमती को
सदानीरा बताया गया है। शिव महापुराण में भगवान आशुतोष ने नर्मदा और गोमती नदियों को
अपनी पुत्रियां स्वीकारा है।
गोमती की मुख्य विशेषताएं---
1. गोमती प्रदेश की भूगर्भ से प्रवाहित सदानीरा ऐसी महत्वपूर्ण नदी है जिसका उद्गम प्रदेश से होकर प्रदेश में ही गंगा में संगम हो जाता है।
2. यह नदी गंगा से पूर्व काल की होने के कारण आदि गंगा कहलाती है।
3. गोमती भूगर्भ से निकलने वाली ऐसी नदी है जो हिमालय की तलहटी, में पैलियो चैनल से निकलती है साथ ही गोमती में मिलने वाली अन्य 22 धाराएं भी भूगर्भ से ही निकलती है। अतः हिमनदों का गोमती के जल में कोई योगदान नहीं है।
1. गोमती प्रदेश की भूगर्भ से प्रवाहित सदानीरा ऐसी महत्वपूर्ण नदी है जिसका उद्गम प्रदेश से होकर प्रदेश में ही गंगा में संगम हो जाता है।
2. यह नदी गंगा से पूर्व काल की होने के कारण आदि गंगा कहलाती है।
3. गोमती भूगर्भ से निकलने वाली ऐसी नदी है जो हिमालय की तलहटी, में पैलियो चैनल से निकलती है साथ ही गोमती में मिलने वाली अन्य 22 धाराएं भी भूगर्भ से ही निकलती है। अतः हिमनदों का गोमती के जल में कोई योगदान नहीं है।
--------एक गोमती नदी राजस्थान के उदयपुर जिले
में स्थित छोटी नदी है जो उदयपुर जिले के मध्य भाग चित्तौडगढ के बाड़ीसदरी गाँव
की पहाड़ियों से निकलकर दक्षिण की ओर सोम नदी में मिल जाती है |१७ वीं शताब्दी में
नदी को जैसमंद झील में परिवर्तित कर दिया गया
था |
--------एक गोमती या गोमल नदी अफगानिस्तान
में सिन्धु नदी की महत्वपूर्ण सहायक नदी है |
ब्रह्मपुत्र नदी -
ब्रह्मपुत्र -- तिब्बत, भारत तथा बांग्लादेश से होकर बहती है। इसका उद्गम तिब्बत के दक्षिण में मानसरोवर के निकट चेमायुंग दुंग नामक हिमवाह, कैलाश पर्वत के निकट जिमा यॉन्गजॉन्ग झीलसे हुआ है। यह मध्य और दक्षिण एशिया की प्रमुख नदी है| इसका नाम चीन में या-लू-त्सांग-पू चियांग या यरलुंग ज़ैगंबो जियांग है, तिब्बत में यरलुंग त्संगपो या सांपो, अरुणाचल में दिहांग या सियांग तथा असम में ब्रह्मपुत्र व बंगला देश में जमुना है। भारतीय नदियों के नाम स्त्रीलिंग में होते हैं पर ब्रह्मपुत्र एक अपवाद है। संस्कृत में ब्रह्मपुत्र का शाब्दिक अर्थ ब्रह्मा का पुत्र होता है। यह भारत की एकमात्र नदी है जिसे पुल्लिंग संज्ञा से पुकारा जाता है |
भारत में गारो पहाड़ी
के निकट दक्षिण में मुड़ने के बाद
ब्रह्मपुत्र बांग्लादेश
के मैदानी इलाक़े में प्रवेश करती है।
बांग्लादेश में इसके दाएँ तट पर
तिस्ता नदी
इससे मिलती है और उसके बाद यह यमुना
नदी के रूप में दक्षिण की ओर 241
किलोमीटर लम्बा मार्ग तय करती है, गंगा से संगम से पहले यमुना में बाएँ तट पर विशाल धलेश्वरी नदी व एक उपनदी बूढ़ी गंगा, मेघना नदी में मिलती
है। यमुना गंगा से मिलने
के बाद पद्मा
के रूप में उनका मिश्रित जल
दक्षिण-पूर्व में 121 किलोमीटर की दूरी तक बहता है।
गंगा और ब्रह्मपुत्र के निचले मार्गों के तटों पर इन क्रियाशील नदियों के मार्गों के हटने और बदलने के कारण धरती में निरंतर क्षरण और रेत का जमाव होता रहता है। यमुना ने अनेक बार मार्ग बदला है और नदी कभी भी लगातार दो वर्षो तक एक जगह पर नहीं टिकी।
------ टेथीज़-सागर
की विलुप्ति पर, गंगा
घाटी एक समुद्री लवणीय जल एवं बालू का इलाका था जो बाद में यमुना, सरस्वती,
ब्रह्मपुत्र, गोमती,गंगा अदि नदियों द्वारा लाई गयी मिट्टी द्वारा भर दिया गया और
विश्व का सबसे उर्वर मैदानी भाग बना | इस समय अन्य सभी
हिमालयी नदियों के जल की भांति ब्रह्मपुत्र भी सीधे दक्षिण की ओर बहकर अरब
सागर में गिरता था |
हिमालय के विक्सित होने से पूर्व --- पश्चिमी क्षेत्र में (मानसरोवर क्षेत्र सहित) हलचल से सतपुडा श्रेणी की
राजमहल व गारो पर्वत श्रेणियां आपस में जुडी हुईं थी अतः संयुक्त भूमि का पूर्वी
भाग अवरुद्ध था ---- ब्रह्मपुत्र नदी उद्गम से पूर्वाभिमुख होकर -मानसरोवर-कैलाश से पूर्व की ओर बहती
हुई पूर्व-हिमालय के बंद क्षेत्र से दक्षिण घूमती हुई पूर्व से होकर दक्षिणी मनीपुर, राजमहल, महादेव,
सतपुडा आदि पर्वत श्रेणियों के बंद मार्ग के कारण सारे टेथिस सागरीय बालुका मैदान
को अपने जल से भरते हुए सारे वर्त्तमान गंगा
–यमुना मैदान को पार करती हुआ पश्चिम सागर अरब सागर में
प्रवाहित होती थी|
-------तत्पश्चात भूगार्भीय हलचलों के
कारण उसका प्रवाह यमुना में मिलकर सरस्वती के साथ
साथ पश्चिम अरब सागर में गिरने लगा |
------हिमालय के उठने पर ---इन
पर्वत श्रेणियों के अलग होने पर पूर्वी मार्ग बना एवं गंगा के आने पर ब्रह्मपुत्र का प्रवाह
पूर्व की ओर हुआ और गंगावतरण से पहले पूर्ववर्ती हुई यमुना के साथ मिलकर,
तत्पश्चात स्वतंत्र रूप से, बंगाल की खाड़ी में गिरने लगी| इसीलिये आज भी बँगला देश
में ब्रह्मपुत्र नदी गंगा से संगम से पहले यमुना नदी के नाम से ही दक्षिण की ओर 241 किलोमीटर
लम्बा मार्ग तय करती है|
यमुना...
भारत की सर्वाधिक प्राचीन और पवित्र नदियों में गंगा के समकक्ष ही यमुना की गणना की जाती है| यमुना का उद्गम स्थान हिमालय के हिमाच्छादित श्रंग बंदरपुच्छ २०,७३१ऊँचाई फीट ७ से ८ मील उत्तर-पश्चिम में स्थित कालिंद पर्वत है, जिसके नाम पर यमुना को कालिंदजा अथवा कालिंदी कहा जाता है। अपने उद्गम से आगे कई मील तक विशाल हिमागिरों और हिंममंडित कंदराओं में अप्रकट रुप से बहती हुई तथा पहाड़ी ढलानों पर से अत्यन्त तीव्रतापूर्वक उतरती हुई इसकी धारा यमुनोत्तरी पर्वत (२०,७३१ऊँचाई फीट) से प्रकट होती है।
प्राचीन प्रवाह----मैदान में जहाँ इस समय यमुना का प्रवाह है, वहा वह सदा से
प्रवाहित नहीं होती रही है। पौराणिक अनुश्रुतियों और ऐतिहासिक उल्लेखों से
ज्ञात होता है, यद्यपि यमुना पिछले हजारों वर्षो से विधमान है, तथापि इसका प्रवाह समय समय पर परिवर्तित होता रहा है। अपने सदीर्ध
जीवन काल में इसने जितने स्थान वदले है, उनमें से बहुत कम की
ही जानकारी हो सकी है।
बल्लभ सम्प्रदाय के वार्ता साहित्य से
ज्ञात होता है कि सारस्वत कल्प में यमुना नदी, जमुनावती ग्राम के समीप बहती थी। उस काल में यमुना
नदी की दो धाराऐं थी,
एक धारा नंदगाँव, वरसाना, संकेत
के निकट वहती हुई गोबर्धन में
जमुनावती पर आती थी और दूसरी धारा
पीरधाट से होती हुई गोकुल की ओर चली जाती थी।
आगे दानों धाराएँ एक होकर वर्तमान आगरा की ओर बढ़ जाती थी।
प्राचीन काल में वृन्दाबन में यमुना
की कई धाराएँ थी, जिनके कारण
वह लगभग प्रायद्वीप सा बन गया
था। उसमें अनेक सुन्दर बनखंड और घास के मैदान थे, जहाँ भगवान् श्री
कृष्ण अपने साथी गोप बालकों के गाय चराया करते थे। बटेश्वर
सुप्रसिद्ध धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल है, जहाँ ब्रज की सांस्कृतिक सीमा समाप्त होती है। बटेश्वर का प्राचीन नाम 'सौरपुर' है, जो
भगवान श्री कृष्ण के पितामह शूरसेन की राजधानी थी।
--------बांग्लादेश में ग्वालंदो घाट
के निकट गंगा में जब विशाल ब्रह्मपुत्र शामिल होती है तो इस संगम के 241 किलोमीटर पहले तक इसे यमुना के नाम से ही बुलाया जाता है |
यमुना सबसे प्राचीन नदी ---यमुना गंगा से पहले
थी.....
१-आरंभ में मनु और यम का अस्तित्व अभिन्न था। बाद में मनु को जीवित मनुष्यों का और
यम को दूसरे लोक में, मृत मनुष्यों का आदिपुरूष माना गया|
२ ---गंगा व सरस्वती व लक्ष्मी आपसी
श्राप के कारण पृथ्वी पर नदियाँ व तुलसी बन कर आयीं परन्तु यमुना पहले ही उपस्थित
थी...|
३ –यमुना सूर्य की पुत्री है ..यम की
बहन अतः वह वैदिक पूर्व की नदी है गंगा हिमालय पुत्री है अतः वैदिक कालीन नदी है |
४- गोपालन का प्रारम्भ –यमुना के तट पर
हुआ जिसका ऋग्वेद में वर्णन है ..
५. भारत कोश के अनुसार -पहिले दो वरसाती
नदियाँ 'सरस्वती'
और 'कृष्ण
गंगा'
मथुरा के पश्चिमी भाग में प्रवाहित
होकर यमुना में गिरती थीं, जिनकी स्मृति में यमुना के सरस्वती
संगम और कृष्ण गंगा नामक धाट हैं। अर्थात कभी सरस्वती व गंगा स्वयं, यमुना की
सहायक नदियाँ थीं |
---अतः यमुना पूर्व वैदिक काल की नदी है जो..गंगा से प्राचीन होनी
चाहिए....|
-------यह कहा भी जाता है कि यहां पहले
यमुना ही बहती थी, गंगा बाद में आई। गंगा
के आने पर यमुना अर्ध्य लेकर आगे आई, लेकिन
गंगा ने उसे स्वीकार नहीं किया।
बोली, “तुम
मुझसे बड़ी हो। मैं तुम्हारा अर्ध्य लूंगी तो आगे मेरा नाम ही मिट जायगा।
मैं तुममें समा जाऊंगी।” यह सुनकर यमुना बोली, “बहन, तुम मेरे घर मेहमान बनकर आई
हो। मैं ही तुममें लीन हो जाऊंगी। चार सौ कोस तक
तुम्हारा ही नाम चलेगा, फिर मैं तुमसे अलग हो
जाऊंगी।”
गंगा ने यह बात मान ली और इस तरह गंगा
और यमुना एक-दूसरे के गले मिलीं।
गंगा-यमुना
के बारे में और भी कई कथाएं कही जाती
हैं। गंगा का जल सफेद, यमुना का नीला। दोनों का रंग अलग-अलग दिखाई देता है। पर संगम से आगे गंगा का जल भी कुछ नीला हो जाता है। कहते हैं
कि यहां से नाम गंगा का रह जाता है और रंग यमुना का। सूर्य की कन्या माने
जाने के कारण यमुना का पानी कुछ गर्म है। साफ भी बहुत है। उसमें कीटाणु
भी नहीं होते। ------ नक़्शे में भी
देखा जाय तो गंगा ही उत्तर से दक्षिणावर्ती होकर
यमुना में गिरती है | वस्तुतः आदि
प्रागैतिहासिक मूल नदी यमुना ही थी जो पूर्वी सागर, बंगाल की खाड़ी तक जाती थी
|
गंगा –
भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी गंगा जो भारत और बांग्लादेश में मिलाकर २,५१० किमी की दूरी तय करती हुई उत्तरांचल में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुंदरवन तक विशाल भू भाग को सींचती है, देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, जन जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है।१०० फीट (३१ मी) की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ और देवी के रूप में की जाती है। इसका जल घर में शीशी या प्लास्टिक के डिब्बे आदि में भरकर रख दें तो बरसों तक खराब नहीं होता है और कई तरह की पूजा-पाठ में इसका उपयोग किया जाता है। ऐसी आम धारणा है कि मरते समय व्यक्ति को यह जल पिला दिया जाए तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है|
उद्गम---- गंगा का उद्गम दक्षिणी हिमालय में तिब्बत सीमा के भारतीय हिस्से से होता है। इसकी पाँच आरम्भिक धाराओं भागीरथी, अलकनन्दा, मंदाकिनी, धौलीगंगा तथा पिंडर का उद्गम उत्तराखण्ड क्षेत्र, जो उत्तर प्रदेश का एक संभाग था (वर्तमान उत्तरांचल राज्य) में होता है। दो प्रमुख धाराओं में बड़ी अलकनन्दा का उद्गम हिमालय के नंदा देवी शिखर से 48 किलोमीटर दूर तथा दूसरी भागीरथी का उद्गम हिमालय की गंगोत्री नामक हिमनद के रूप में 3, 050 मीटर की ऊँचाई पर बर्फ़ की गुफ़ा में होता है। वैसे गंगोत्री से 21 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व स्थित गोमुख को गंगा का वास्तविक उद्गम स्थल माना जाता है। २०० कि॰मी॰ का संकरा पहाड़ी रास्ता तय करके गंगा नदी ऋषिकेश होते हुए प्रथम बार मैदानों का स्पर्श हरिद्वार में करती है।
इलाहाबाद (प्रयाग) में इसका संगम यमुना नदी से होता है। यह संगम स्थल हिन्दुओं का एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ है। इसे तीर्थराज प्रयाग कहा जाता है। इसके बाद हिन्दू धर्म की प्रमुख मोक्षदायिनी नगरी काशी (वाराणसी) में गंगा एक वक्र लेती है, जिससे यह यहाँ उत्तरवाहिनी कहलाती है। इस बीच इसमें बहुत-सी सहायक नदियाँ, जैसे सोन, गंडक, घाघरा, कोसी आदि मिल जाती हैं।
-------कोसी की मुख्यधारा अरुण है जो गोसाई
धाम के उत्तर से निकलती है। ब्रह्मपुत्र के
बेसिन के दक्षिण से सर्पाकार रूप में अरुण नदी बहती है इसके बाद एवरेस्ट के कंचनजंघा शिखरों के बीच से बहती हुई यह दक्षिण
की ओर ९० किलोमीटर बहती है इसके बाद कोसी नदी के नाम से यह शिवालिक को पार करके मैदान में उतरती है तथा
बिहार राज्य से बहती हुई गंगा में मिल जाती है।
----- अरुण वास्तव में सरस्वती नदी की धारा
है जब रेगिस्तान
में उतथ्य मुनि के शाप से भूगर्भित होकर सरस्वती लुप्त हो गई और पर्वतों पर ही बहने लगी। पश्चिम से पूरब की ओर बहती
हुई सुदूर पूर्व
नैमिषारण्य पहुंची। अपनी 7 धाराओं
के साथ सरस्वती कुंज पहुंचने के कारण
नैमिषारण्य का वह क्षेत्र 'सप्त
सारस्वत' कहलाया।
यहां मुनियों के आवाहन
करने पर सरस्वती 'अरुणा' नाम से प्रकट हुई। अरुणा
सरस्वती की 8वीं धारा
बनकर धरती पर उतरी। अरुणा प्रकट होकर कौशिकी (आज की कोसी नदी) से मिल गई।
पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में स्थानीय
आबादी गंगा को पद्मा कहकर पुकारती है। बांग्लादेश में ग्वालंदो घाट के निकट गंगा में विशाल ब्रह्मपुत्र शामिल होती है (इन दोनों के संगम के 241 किलोमीटर पहले तक इसे
फिर यमुना के नाम से बुलाया जाता है)। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के गिरिया स्थान के पास गंगा नदी दो शाखाओं में विभाजित
हो जाती है-भागीरथी और पद्मा। मुर्शिदाबाद शहर से हुगली
शहर तक गंगा का नाम भागीरथी
नदी तथा हुगली शहर से मुहाने तक गंगा का नाम हुगली नदी है। हुगली नदी कोलकाता, हावड़ा होते
हुए सुंदरवन के
भारतीय भाग में सागर से संगम करती है। पद्मा में ब्रह्मपुत्र से निकली शाखा नदी जमुना नदी एवं मेघना नदी मिलती
हैं। अंततः ये ३५० कि॰मी॰ चौड़े सुंदरवन डेल्टा में
जाकर बंगाल की खाड़ी में
सागर-संगम करती है।
-------गंगा का यह डेल्टा का मैदानी तट हस्तिनापुर भी माना जाता है । यहाँ बूढ़ी गंगा के नाम से नदी बहती हैं। वहाँ भी
भक्तगण स्नान करते हैं। वहाँ जम्बूद्वीप नामक विश्व प्रसिद्ध रचना बनी हुई है। जिसे देखने के लिए देश - विदेश के
पर्यटक प्रतिदिन आते हैं।
गंगा की इस घाटी में एक ऐसी सभ्यता का
उद्भव और विकास हुआ जिसका प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवमयी और वैभवशाली है।
जहाँ ज्ञान,
धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की
ऐसी किरण प्रस्फुटित हुई जिससे न केवल भारत बल्कि समस्त संसार आलोकित हुआ। पाषाण या प्रस्तर युग का जन्म और विकास यहाँ होने के अनेक साक्ष्य मिले हैं।
---------कुछ पुराणों में ऐसा आया है
कि शिव ने अपनी जटा से
गंगा को सात धाराओं में परिवर्तित
कर दिया, जिनमें तीन
(नलिनी, ह्लदिनी एवं पावनी) पूर्व की ओर, तीन (सीता, चक्षुस एवं सिन्धु) पश्चिम की ओर प्रवाहित हुई और सातवीं धारा भागीरथी हुई
(मत्स्य पुराण 121|38-41; ब्रह्माण्ड पुराण 2|18|39-41 एवं
1|3|65-66)।
कूर्म पुराण (1|46|30-31) एवं वराह पुराण (अध्याय
82, गद्य में) का कथन है कि गंगा सर्वप्रथम सीता, अलकनंदा, सुचक्ष एवं
भद्रा नामक चार विभिन्न धाराओं में बहती है। अलकनंदा
दक्षिण की ओर बहती है, भारतवर्ष की ओर आती है और सप्तमुखों
में होकर समुद्र में गिरती है।
--------श्रीकृष्ण ने राधा की पूजा करके रास में उनकी स्थापना की। सरस्वती तथा समस्त देवता प्रसन्न होकर संगीत में खो गये। चैतन्य होने पर उन्होंने देखा
कि राधा और कृष्ण उनके मध्य नहीं हैं। सब ओर जल ही जल है। सर्वात्म, सर्वव्यापी राधा-कृष्ण ने ही संसारवासियों के उद्धार के लिए जलमयी मूर्ति
धारण की थी, वही गोलोक में स्थित गंगा है।
-------यह भी कहा जाता है कि यहां (
भारतवर्ष में ) पहले यमुना ही बहती थी,
जो बंगाल की खाड़ी तक जाती थी, गंगा बाद में आई। ऊपर प्रयाग संगम के नक़्शे में भी देखा
जाय तो गंगा ही उत्तर से दक्षिणावर्ती होकर यमुना में गिरती है |
---पुराकाल में ..५ मिलियन वर्ष
पूर्व ...पंजाब की सारी नदियों सहित सतलज पूर्व
की ओर बहती हुई गंगा में गिरती थी |
नर्मदा
नर्मदा घाटी धरती की प्राचीनतम नदी घाटियों में से एक है, भारत की नदियों में नर्मदा का अपना महत्व है। न
जाने कितनी भूमि को उसने हरा-भरा बनाया है, और उसके
किनारे पर बने तीर्थ न जाने कब से अनगिनत नर-नारियों को प्ररेणा देते रहे हैं, आगे
भी देते रहेंगे।
नर्मदा मध्यप्रदेश और गुजरात राज्य में
बहने वाली एक प्रमुख नदी है। यह विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों के
पूर्वी संधिस्थल पर मध्यप्रदेश के महाकाल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से निकलती
है। सोहागपुर तहसील में विन्ध्य और सतपुड़ा पहाड़ों
में अमरकण्टक नाम का एक छोटा सा गांव है। उसी के पास से नर्मदा एक गोमुख से निकलती
है।
यह विंध्याचल और सतपुड़ा के बीचोबीच पश्चिम दिशा की ओर
प्रवाहित होती है | "नर्मदा क्षेत्र में ही किसी जमाने में यहां पर मेकल,
व्यास, भृगु और कपिल आदि ऋषियों ने ओर स्वयं भगवान शंकर ने तपस्या की थी।
नर्मदा हमारी प्राचीन संस्कृति की ही नैहर नहीं है, बल्कि वह दक्षिण
भारत और उत्तर भारत, द्रविड़ संस्कृति और आर्य संस्कृति को जोड़नेवाली एक कड़ी भी
है। यही नहीं, हमारे आदिवासी भाइयों की संस्कृति भी इसी के आसपास विकसित
हुई
लोगों की राय है कि भारत की सबसे
पुरानी संस्कृति का विकास नर्मदा के किनारे पर ही हुआ। कहते हैं, सारा संसार
जब जल में मग्न हो गया, तब जो स्थान बचा था, वह था मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम जो नर्मदा
के तट पर ऊंकारेश्वर में है। इसके अलावा मौजूदा महेश्वर के आसपास जो
खुदाई हुई है, उसमें पाई गई हजारों वर्ष पुरानी चीजें भी इस बात को सिद्ध करती
हैं। नर्मदा के किनारे बहुत से स्थानों पर सुगंधित भस्म के टीले आज
भी पाये जाते हैं। इससे यह अनुमान किया जाता है कि यहां बहुत से यज्ञ हुए
थे,
जिनका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है।
नर्मदा के किनारे गढ़-मण्डला
के अंदर राजेश्वरी का मन्दिर है, जिसमें दूसरे देवताओं के साथ एक मूर्ति सहस्रार्जुन की है। कुछ लोगों का कहना है कि यह मण्डला ही प्राचीन
माहिष्मती है और भगवान शंकराचार्य का मण्डन मिश्र से यहीं पर शास्त्रार्थ
हुआ था| प्राचीन काल में ब्रहाजी ने यहां तप किया था। इस
स्थान को ‘कपिला तीर्थ’ भी कहते हैं। कपिला तीर्थ पश्चिम में धर्मपुरी
है। “स्कंद-पुराण” और ‘वायु पुराण’ में इसे महर्षि दधीचि का आश्रम बताया
गया है। वृत्रासुर के वध के लिए इन्द्र ने उनसे हडडियों की मांग की थी और महर्षि
ने प्रसन्नता के साथ दे दी थीं।
मण्डला के पास नर्मदा की धारा सैकड़ों छोटी-छोटी धाराओं में बंट
गई है। इसलिए इस स्थान का नाम ‘सहस्रधारा’ हो गया है। कहते हैं, यहां पर राजा सहस्रबाहु ने अपनी हजार भुजाओं से
नर्मदा के प्रवाह को रोकने का प्रयत्न किया था। मण्डला के बाद स्थान है भेड़ा-घाट
भेड़ा-घाट से थोड़ी दूर पर नर्मदा का एक प्रपात है। इसे ‘धुआंधार’ कहते हैं। धुआंधार के बाद साढ़े तीन कि.मी. तक
नर्मदा का प्रवाह सफेद संगमरमर की चट्रानों के बीच से गुजरता है।
नर्मदा के दक्षिणी तट पर कुब्जा
नदी का संगम है। इसे ‘रामघाट’ कहते हैं। अयोध्या के राजा रंतिदेव ने प्राचीन काल में यहां पर महान बिल्व-यज्ञ किया था। इस यज्ञ से एक विशाल
ज्योति प्रकट हुई थी। कुछ दूरी पर सूर्य कुंड तीर्थ है। कहा जाता है कि
यहां भगवान सूर्य नारायण ने अंधकासुर को मारा था।
नेमावर और ॐकारेश्वर
के बीच धायड़ी कुण्ड नर्मदा का सबसे बड़ा जल-प्रपात है। ५० फुट की
ऊंचाई से यहां नर्मदा का जल एक कुण्ड में गिरता है। जल के साथ-साथ इस कुण्ड में
छोटे-बड़े पत्थर भी गिरते रहते हैं। वे घुट-घुटकर सुन्दर,
चिकने, चमकीले शिवलिंग बन जाते हैं। सारे देश में शंकर के जितने भी मन्दिर बनते हैं, उनके लिए शिवलिंग अक्सर यहीं से
जाते हैं।
नर्मदा के तट पर बसे ऊंकारेश्वर
नामक स्थान प्राकृतिक सौंदर्य, इतिहास और साधना की दृष्टि से रेवा-तीर पर सबसे
महान और पवित्र माना जाता है। ऊंकारेश्वर एक प्राचीन तीर्थ है। समीप पहाड़ी पर मार्कण्डेय
ऋषि का मन्दिर है ईक्ष्वाकु वंश के प्रतापी महाराज मांधाता ने यहां
भगवान शंकर की आराधना की थी। इस पहाड़ी का आकार ॐ जैसा है। आसपास दोनों तीरों पर बड़ा घना वन है, जिसे ‘सीता का वन’ कहते हैं। लोगों का कहना है कि वाल्मीकि ऋषि
का आश्रम यहीं कहीं था।
ॐकारेश्वर के समीप एक स्थान में रेणुका माता का
मन्दिर है। कहते हैं, परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि ऋषि की आज्ञा से
अपनी माता का सिर यहीं काटा था और फिर पिता से वरदान लेकर उन्हें जिला भी दिया था।
सतपुड़ा की पहाड़ियों में एक जैन तीर्थ है, जिसे ‘वावन गजाजी’ कहते हैं। एक पहाड़ी की बगल में संपूर्ण
चट्रटान में खुदी यह एक विशाल खड़ी मूर्ति कोई ८४ फुट ऊंची है। इसी पहाड़ी के ऊपर
एक मन्दिर भी है, जिसकी जैनियों और हिंदुओं में समान रुप से मान्यता है। हिन्दू
लोग इसे ‘दत्तात्रेय की पादुका’ कहते हैं। जैन इसे ‘मेघनाद और कुंभकर्ण की तपोभूमि’ मानते हैं। इधर के शिखरों में यह सतपुड़ा का शायद सबसे
ऊंचा शिखर है |
सतपुड़ा का यह भाग गोवर्धन क्षेत्र भी माना जाता
है। यह निमाड़ी गोवंश का घर बीजारान में विंध्यवासिनी देवी ने,
धर्मराज तीर्थ में धर्मराज ने और हिरनफाल में हिरण्याक्ष ने तप किया था। यहां पर वरुण ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तप किया था। इस सारे
प्रदेश में बड़े-बड़े और दुर्गम वन हैं।
अनसूयामाई में अत्रि ऋषि की आज्ञा से देवी
श्री अनसूयाजी ने पुत्र प्राप्ति के लिए तप किया था और उससे
प्रसन्न होकर ब्रहा, विष्णु, महेश तीनों देवताओं ने यहीं
दत्तात्रेय के रुप में उनका पुत्र होना स्वीकार कर जन्म ग्रहण किया था। कंजेठा में
शकुन्तला-पुत्र महाराज भरत ने अनेक यज्ञ किये।
भड़ोंच में नर्मदा समुद्र में मिल जाती है।
यहां पहले एक किला भी था, जिसे सिद्धराज जयसिंह ने बनवाया था। अब तो उसके खण्डहर
हैं। भड़ोंच को ‘भृगु-कच्छ’ अथवा ‘भृगु-तीर्थ’ भी कहते हैं। यहां भृगु ऋषि का निवास था। यहीं
राजा बलि ने दस अश्वमेध-यज्ञ किये थे | शुक्रतीर्थ में नर्मदा के बीच टापू में एक
विशाल बरगद का पेड़ है। शायद यह संसार में सबसे बड़ा वट-वृक्ष है।
भूगर्भ प्रमाणों के अनुसार हिमालय
निर्माण होने के पूर्व वर्तमान भारत पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्ध के विशाल द्वीप समूह से जुड़ा हुआ था और पृथ्वी के
मध्य रेखा पर स्थित था.
इसलिए नृतत्वशास्त्रियों और जीवशास्त्रियों का मत है कि इसी द्वीप में सर्वप्रथम
जीवाश्म का प्रादुर्भाव हुआ और प्रथम मानव भी इसी द्वीप में विकसित हुआ, जिसमे वर्तमान भारत
के नर्मदा घाटियों के क्षेत्र का समावेश होता है. तत्पश्चात
शेष द्वीप समूहों में उसका विस्तार हुआ |
कुछ विद्वानों के अनुसार हिमालय का निर्माण आज से सात
करोड़ वर्ष पूर्व हुआ है | जहां से सतलज, यमुना, गंगा तथा ब्रम्हपुत्र
नदियों का उद्गम हुआ है और मध्य भारत का अमरकंटक (अमूरकोट) पर्वत
का उद्गम पैंतीस
करोड़ वर्ष पूर्व हुआ है, जहां से नर्मदा (नर-मादा) की जलधारा निकली है. इसलिए नर्मदा नदी के किनारे जिस मानव समुदाय का विकास हुआ, वह निश्चित ही प्राचीन आदि मानवों की सभ्यता थी|
प्राचीन काल में महाप्रलय होने से अमरकंटक पर्वत के चारों ओर समुद्र निर्माण हुआ था. अर्थात आदिमानव का उद्गम नर्मदा नदी प्रवाहित होने के पूर्व ही हो चुका था|
पुराविदों और भूगर्भशास्त्रियों का मत है कि अमरकंटक के चारों ओर
कभी महाझील थी| नर्मदा घाटी के पूर्व भाग में बड़ी संख्या में ऐसे वृक्षों के जीवाश्म मिले हैं,
जिनका प्राकृतिक संवर्धन सामान्यतः सागर
अथवा समुद्री मुहाने के खारे पानी के निकट होते हैं| इसी क्षेत्र
में शंख तथा सीपों के जीवाश्मों के अवशेष भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं.
वर्तमान खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि आदिमानव नूतनयुग के आरम्भ में तथा उसके पूर्व नर्मदाघाटी में कभी समुद्र लहराता
था.
जब हिमालय भी नही था, तब भी विंयाचल था, मीठे पानी की नदी नर्मदा
सर्वप्रथम अस्तित्व में आई थी । सिंधु
सभ्यता से पहले भी सभ्यता रही है| आमूरकोट (अमरकंटक) को मानव का उत्पत्ति स्थल कहा
जाता है. आमूरकोट नर्मदा नदी के उदगम स्थल
में सर्वप्रथम नर व मादा का जन्म हुआ. नर-मादा से नदी का नाम नर्मदा प्रचलित हुआ
है. इस प्रकार नर्मदा घाटी की जो आदिम सभ्यता थी, यहाँ
से ही लोग उत्तर की ओर क्रमशः बढ़ते गये है|
हिमालय श्रंखला बनने पर कालांतर में सरस्वती,
सिंधु, गंगा, यमुना, ब्रम्हपुत्र एवं अन्य सहायक नदियों ने जन्म लिया| किन्तु नर्मदा व ताप्ती आमूर पर्वतीय क्षेत्र में सदा से बहती रही
है|
जब भारतीय भूखण्ड,
गोंडवानालेंड, ( भारतीय
प्रायद्वीप ) अफ्रिका के पूर्वी तट जंजीबार तट से जुड़ा था तब
नर्मदा ताप्ती नदी का प्रदेश
भूमध्य रेखा के पास था| वहाँ ये नदियाँ करोड़ो वर्ष
पूर्व विक्टोरिया झील में समाहित होती थी तथा अमूरकोट से प्रथम
नर-मादा की उत्पत्ति के प्रमाण स्वरूप सर्वाधिक प्राचीन मानव खोपड़ी झील के आसपास
ही पाये गए हैं |
यहाँ
भू-मध्य रेखीय जलवायु थी करोड़ो वर्षों तक यहाँ अत्यधिक वर्षा होती थी. सघन एवं
ऊचे-ऊचें वृक्ष थे. घनघोर जंगल थे. इन जंगलों में विशालकाय शाकाहारी डायनासोर
निवास करते थे| करोड़ों वर्ष पूर्व भूमि का सरकाव शुरू हुआ तथा भारतीय
प्रायद्वीप, नर्मदा ताप्ती का प्रदेश उत्तर पूर्व
की ओर सरक गया. तब आमूरकोट कर्करेखा पर स्थित हो गया. इसी अमूरकोट स्थल के जबलपुर
शहर की पहाड़ियों में डायनासोर के अनेक अंडे भू-गर्भवेताओं द्वारा जनवरी २००७
में खोज निकाले गये हैं| अंडों का जीवाश्म मिलना प्रमाणित हुआ कि अमूरकोट की
सभ्यता प्राचीन है| इन
तथ्यों के आधार पर लगता है कि मानव सभ्यता
के विकास के समय नन्दनवन या ईडन गार्डन यहीं कहीं पचमढ़ी
और नर्मदा के बीच ही रहा होगा |
उस समय अरबसागर नेमावर के आसपास तक एक पतली शाखा के रूप में भीतर घुसा हुआ | था तब यहां
समुद्री जीव-जंतुओं की भरमार हुआ करती
थी| उस काल में यहां छोटे-बड़े असंख्य डायनासोर भी विचरण किया करते | नर्मदा घाटी में कभी महागज- स्टेगोडॉन, शुतुरमुर्ग, हिप्पोपोटेमस आदि जीव रहा करते थे, जो आज भारत में नहीं पाए जाते हैं| इसी प्रकार नीलगिरी या यूकेलिप्टस का वृक्ष जिसे हम ऑस्ट्रेलिया से आया विदेशी वृक्ष समझते हैं, लाखों वर्ष पहले डिंडोरी (मंडला) के निकट घुघुवा में पाया जाता था
| जबलपुर में डायनासोर का पहला जीवाश्म तभी खोजा जा चुका था, जब डायनासोर शब्द प्रचलन में भी नहीं था| धार जिले में बाग के निकट पाडल्या वनग्राम में डायनासोर के 100
से अधिक अण्डों के जीवाश्म हाल ही मिले हैं| भयानक टी-रेक्स डायनासोर जैसा मांसाहारी विध्वंसक डायनासोर कभी भरूच से लेकर जबलपुर तक एकछत्र राज किया करता था. वैज्ञानिकों ने इसे नर्मदा घाटी का राजसी डायनासोर कहते हुए इसका नाम राजासॉरस नर्मदेन्सिस कियाहै| सीहोर जिले के नर्मदा तटीय गाँव हथनौरा में लगभग पाँच लाख साल पुराने नर्मदा मानव का जीवाश्म मिलना मोहन जोदड़ो और हड़प्पा की खोज से भी अधिक
महत्वपूर्ण है |
उपरोक्त के अनुसार – ६ हिमालयी नदियों – सरस्वती आदि एवं भारतीय
दक्षिण प्रायद्वीप की नदियाँ नर्मदा आदि ..की आदिकाल, प्रागैतिहासिक काल व वर्त्तमान काल
में मूलकथा यह बनती है ----
१.हिमालय
से पहले जब भारत अफ्रीका से जुड़ा हुआ था—गोंडवाना
लेंड –--भूसागरीय प्लेट..उत्तर में
यूरेशियन प्लेट की ओर खिसक कर दोनों के मध्य स्थित सागर—टेथिस सागर को
संकरा कर रही थीं | इस प्रकार तिब्बत के पठार की संरचना हुई...सुमेरु, कैलाश आदि
क्षेत्र निर्मित हुए..अतः ----उस समय...
--– -- सभी
उत्तरी क्षेत्र का जल प्रवाह.. ( जो कालान्तर में सिन्धु-सरस्वती, यमुना,
ब्रह्मपुत्र आदि हिमालयी नदियाँ नामित हुईं ). उद्गम –मानसरोवर—कैलाश क्षेत्र
से...सीधे दक्षिण की ओर बहती हुई टेथिस सागर में गिरता था ..... अन्य सुमेरु-कैलाश क्षेत्र की
वर्त्तमान चीन खंड की ओर की एवं यूरेशिया खंड की ओक्सस आदि नदियाँ पूर्वी महासागर
व उत्तरी आर्कटिक सागर में गिरती रही होंगीं अथवा उसी पर्वतीय क्षेत्र की स्थानीय
नदियों की भांति झीलों आदि तक बहती रही होंगी |
------भारतीय
दक्षिण प्रायद्वीप की नदियाँ -- गोंडवानालेंड स्थित भारतीय भूखण्ड अफ्रिका के
पूर्वी तट जंजीबार तट से जुड़ा था, सभी जल प्रवाह ..नदियाँ (नर्मदा आदि नामित ) करोड़ो वर्ष पूर्व विक्टोरिया
झील में समाहित होती थी |
२.भारतीय
व यूरोपीय प्लेट की टक्कर पर –
भारतीय प्रायद्वीपीय भूखंड के अफ्रीका से टूटकर पूर्वोत्तर की ओर खिसककर उत्तरी
यूरेशियन भूखंड की प्लेट से टकराने पर ..
-----भारतीय भूखंड के अफ्रीका से टूटकर यूरेशियन प्लेट से टकराने पर नर्मदा
आदि नामित प्रायद्वीपीय नदियाँ उत्तर में टेथिस सागर में गिरती थीं, तत्पश्चात ...उत्तरी तट उठ जाने पर पूर्व की ओर बंगाल की खाडी की ओर बहने
लगीं | अमूरकोट से प्रथम नर-मादा की
उत्पत्ति के प्रमाण स्वरूप सर्वाधिक प्राचीन मानव खोपड़ी झील के आसपास ही पाये गए
हैं| इस
प्रकार दक्षिण भारतीय प्रायद्वीप की प्राचीनतम नदियाँ नर्मदा व ताप्ती आमूर पर्वतीय
क्षेत्र में सदा से बहती रही है|
3. टेथीज़-सागर की विलुप्ति पर, उसके स्थान पर बने लवणीय वालू के मैदान में– ---- हिमालयी जल प्रवाह....शिवालिक या इंडो-ब्रह्म नामक विशाल नदी के रूप में सम्पूर्ण वालुका क्षेत्र में असम से पंजाब तक प्रवाहित होती थी जो अरब सागर, सिंध की खाड़ी में गिरती थी |
---------तत्पश्चात भू हलचलों के कारण यह जल प्रवाह तीन
प्रमुख नदी तंत्र... सरस्वती...यमुना व ब्रह्मपुत्र में विभाजित होगई--- ये आदि मूल नदियाँ सरस्वती-यमुना-ब्रह्मपुत्र–
उत्तर से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती थीं जो पश्चिम अरबसागर में गिरती थीं...
वर्त्तमान
सिन्धु एवं गंगा घाटी एक समुद्री लवणीय जल एवं बालू का इलाका था जो बाद में यमुना,
सरस्वती, सिन्धु, ब्रह्मपुत्र, गोमती, गंगा एवं अन्य प्रायद्वीपीय भाग की नदियों द्वारा
लाई गयी मिट्टी द्वारा भर दिया गया और विश्व का सबसे उर्वर मैदानी भाग बना |
चित्र -१४--भारत का उत्तर-पूर्व की ओर गमन ..
चित्र -१४--भारत का उत्तर-पूर्व की ओर गमन ..
------तत्पश्चात पुनः भूगर्भीय हलचलों
के कारण ब्रह्मपुत्र का प्रवाह यमुना में मिलकर सरस्वती के साथ साथ पश्चिम
अरबसागर में गिरने लगा |
--------हिमालय के उठने पर, पूर्वी मार्ग बना पुनः हिमालय क्षेत्र में हलचल से इन पर्वत श्रेणियों के अलग होने पर व पूर्वी –दक्षिणी मैदान के पर्वतीय मार्ग के खुल
जाने पर पूर्वी सागर का निर्माण
हुआ – ब्रह्मपुत्र का प्रवाह पूर्व की
ओर हुआ और बंगाल की खाड़ी में गिरने लगी|
-----सरस्वती व यमुना दोनों का प्रवाह
उलटकर पूर्व की ओर हुआ सरस्वती मथुरा के समीप यमुना से मिलकर बहने लगी यमुना
लम्बी दूरी पार करके बंगाल की खाड़ी में गिरने लगी जिसमें पूर्वोत्तर से
आकर ब्रह्मपुत्र भी समाहित होने लगी | आज के कथित
गंगा-यमुना-सरस्वती –सिन्धु मैदानों का निर्माण प्रारम्भ हुआ| आज भी ब्रह्मपुत्र नदी के बंगाल में बहने वाले 241 किलोमीटर
लम्बा मार्ग को जमुना
कहा जाता है |
५.गंगा
के पृथ्वी पर अवतरण से पहले---
-----
गोमती
जो गंगा की मूलधारा थी, मानसरोवर क्षेत्र से अन्दर ही अन्दर प्रवाहित होकर निम्न-हिमालयी
क्षेत्र में भूगर्भीय क्षेत्र (आज
के गोमत ताल) के
जलश्रोत से निकलकर स्वतंत्र धारा के रूप में बंगाल की खाडी तक जाती थी,
----तत्पश्चात
मथुरा के समीप पुनः प्रयाग के समीप यमुना से मिलने लगी (जो आज उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में गोमत ताल से
प्रकट होकर वाराणसी के
निकट सैदपुर के पास गंगा में मिल जाती है)
|
-----गंगा केवल स्थानीय नदी की भांति कैलाश-मनसरोवर
क्षेत्र में बहती थी, इसीलिए युगों तक गंगा का शिव की जटाओं में फंसे रहना कहा
जाता है, जो पुनः शिवजी द्वारा गंगा रूप में प्रवाहित की गयी | इसीलिये गोमती को आदि-गंगा कहा जाता
है | मथुरा में सरस्वती घाट व
गंगा घाट आज भी हैं
तथा प्रयाग में त्रिवेणी ( गंगा, सरस्वती, यमुना) का संगम माना जाता
है, इसे युक्तवेणी कहा जाता है |
----गंगा की मूल धारा आज भी कलकत्ता
के समीप पहुंचकर बंगाल के त्रिवेणी स्थान पर तीन धाराओं में बंटकर- हुगली ( या गंगा ) सरस्वती व यमुना –अलग अलग
समुद्र में गिरती हैं, इस स्थान को मुक्तवेनी कहा जाता है
|
अर्थात कभी तीनों नदिया सरस्वती,
यमुना व गोमती आदि-गंगा के नाम रूप में तीनों पृथक पृथक धाराओं में पूर्व
समुद्र, बंगाल की खाड़ी तक पहुंचतीं थीं |
गंगा
अवतरण के समय छोटी नदी थी जो उत्तर से निकल कर पहले यमुना में मथुरा के समीप
सरस्वती के साथ मिलती थी, पुनः आगे खिसक कर प्रयाग में मिलने लगी | हिमालय के पुनः उठने पर यमुना के पश्चिम में सरस्वती
की ओर चले जाने के कारण गंगा इस क्षेत्र की प्रमुख नदी हुई और बंगाल की खाड़ी तक
प्रवाहित होने लगी |
६. हिमालय के उठने व अन्य
पश्चिम व मध्य क्षेत्रीय हलचलों के फलस्वरूप
---
------यमुना
पुनः पूर्वाभिमुख होकर सरस्वती के
साथ पश्चिमसागर में प्रवाहित होने लगी, मानसरोवर एवं हिमालय के पश्चिमी
क्षेत्र में सतलज आदि विभिन्न नदियों के उद्गम से
सरस्वती की सिन्धु सहित ६ बहनों का प्रादुर्भाव हुआ, ब्रह्मपुत्र का शेष पश्चिमी भाग
दृशवती के नाम से यमुना-सरस्वती की सहायक नदी
हुआ|
चित्र १६. सरस्वती, सिन्धु, सतलज, दृश्वती, यमुना,
गंगा .....चित्र-1७.......सरस्वती +सतलज,
+यमुना, +दृश्वती ....
३३
चित्र १८.—सप्त सिन्धु----सतलज सहित पांच नदियाँ एवं सिन्धु –सरस्वती में समाहित -------- सात बहनें ...
----- फलस्वरूप सरस्वती एक
विशाल महानदी के रूप में बहने लगी|
-------यही वह
काल था जब मानसरोवर-कैलाश क्षेत्र में मानव का जन्म हुआ, जहां से उतरते हुए
सरस्वती के किनारे सप्तसिंधु क्षेत्र में प्रथम मानव सभ्यता की उत्पत्ति हुई तथा
वैदिक सभ्यता फली-फूली |
यही समय गंगा के अवतरण का था, जो मानसरोवर
क्षेत्र से अपने अंत-भूगर्भीय मार्ग को दक्षिणमुखी एवं बाह्य-भूतलीय करते हुए
हिमालय पार कर भारतीय मैदान में उतरी और उत्तर व दक्षिण से प्रवाहित होने वाली
विभिन्न नदियों एवं यमुना व सरस्वती के शेष मैदानी जल को सम्मिलित करके बंगाल की
खाडी तक प्रवाहित होने लगी |
७. त्रेता के अंतिम काल में-----पुनः उच्च-हिमालयी एवं उत्तर-पश्चम भारतीय भूगर्भीय हलचलों के कारण भूमि उठने से ---
------सरस्वती
का उद्गम मानसरोवर से हटकर यमुनोत्री के निकट, प्लक्ष-प्रसवन होजाने से, सतलज व सहायक नदियों का जल पश्चिम में सिन्धु में
एवं यमुना-दृश्वती का जल पूर्व में गंगा में
गिरजाने के कारण सरस्वती सूखने लगी
एवं महाभारत काल तक एक बरसाती नदी की भांति रह गयी, सरस्वती की सहायक सिन्धु नदी आज की एक बड़ी नदी की भांति
अस्तित्व में आयी | यमुना पूर्व की ओर बहकर अपनी अन्य सहायक
नदियों सहित प्रयाग में गंगा से मिल गयी, एवं महान नदी गंगा प्रादुर्भाव
हुआ | इस प्रकार आज के विश्व-प्रसिद्ध गंगा-सिन्धु मैदान का निर्माण पूर्ण हुआ|
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