....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ये आज पूछता है बसंत
ये
आज पूछता है बसंत
क्यों
धरा नहीं हुलसाई है |
इस
वर्ष नहीं क्या मेरी वह
बासंती
पाती आई है |
क्यों
रूठे रूठे वन-उपवन,
क्यों
सहमी सहमी हैं कलियाँ |
भंवरे
क्यों गाते करूण गीत,
क्यों
फाग नहीं रचती धनिया |
ये
रंग वसंती फीके से ,
है
होली का भी हुलास नहीं |
क्यों
गलियाँ सूनी-सूनी हैं,
क्यों
जन-मन में उल्लास नहीं |
मैं
बोला ऐ सुनलो बसंत !
हम
खेल चुके बम से होली |
हम
झेल चुके हैं सीने पर,
आतंकी
संगीनें गोली |
कुछ
मांगें खून से भरी हुईं,
कुछ
दूध की बोतल खून रंगीं |
कुछ
दीप-थाल, कुछ पुष्प-गुच्छ,
भी
धूल से लथपथ खून सने |
कुछ
लोग हैं खूनी प्यास लिए,
घर
में आतंक फैलाते हैं|
गैरों
के बहकावे में आ,
अपनों
का रक्त बहाते हैं |
कुछ
तन मन घायल रक्त सने,
आंसू
निर्दोष बहाते हैं|
अब
कैसे चढ़े बसन्ती रंग,
अब
कौन भला खेले होली ?
यह
सुन वसंत भी शरमाया,
वासंती
चेहरा लाल हुआ |
नयनों
से अश्रु-बिंदु छलके,
आँखों
में खून उतर आया |
हुंकार
भरी और गरज उठा,
यह
रक्त बहाया है किसने!
मानवता
के शुचि चेहरे को,
कालिख
से पुतवाया किसने |
ऐ
उठो सपूतो भारत के,
बासंती
रंग पुकार रहा |
मानवता
की रक्षा के हित,
तुम
भी करलो अभिसार नया |
जो
मानवता के दुश्मन हैं,
हो
नाता, रिश्ता या साथी |
जो
नफ़रत की खेती करते,
वे
देश-धर्म के हैं घाती |
यद्यपि
अपनों से ही लड़ना,
यह
सबसे कठिन परीक्षा है |
सड़
जाए अंग अगर कोई,
उसका
कटना ही अच्छा है |
ऐ
देश के वीर जवान उठो,
तुम
कलमवीर विद्वान् उठो |
ऐ
नौनिहाल तुम जाग उठो,
नेता
मज़दूर किसान उठो |
होली
का एसा उड़े रंग,
मन
में इक एसी हो उमंग |
मिलजुलकर
देश की रक्षा हित,
देदेंगे
तन मन, अंग-अंग |
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