....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ईश्वर की अवधारणा का भविष्य ---
ईश्वर का जन्म कैसे व क्यों एवं उसका
भविष्य ?
जितना ज्ञान प्राप्त करता हूँ उतनी ही जिज्ञासा और बढ़ती जाती है | मुझे
स्वयं पर विश्वास है | इंसान पर और इंसानियत पर श्रद्धा भी है और विश्वास भी,
ज्ञान पर भी और शास्त्रों पर भी, ईश्वर पर भी | परन्तु यह
जिज्ञासा कि ' ईश्वर का जन्म की व क्यों ? मुझे अपने अज्ञान से प्रत्यक्ष करा देती है| अभी तक का मेरा अध्ययन,
अनुभव और निष्कर्ष मुझे हमेशा और हर बार एक ही उत्तर देते हैं वह यह
कि ' ईश्वर मानव मस्तिष्क की परिकल्पना है।'
यद्यपि इस विषय पर सभी के
अपने-अपने, भिन्न-भिन्न उत्तर हो सकते हैं, अपने ज्ञान व अनुभव, श्रृद्धा व
विश्वास के अनुसार, और यही बात हमें निरंतर अपने को अद्यतन, संशोधित और बेहतर करने को प्रेरित करती रहती
हैं तथा निश्चित ही हमें एक-दूसरे से सीखने और समझने की राह प्रशस्त करती हैं |
यद्यपि तर्कहीन विश्वास व अंध श्रृद्धा एवं केवल प्रत्यक्ष
ज्ञान, भौतिक ज्ञान-विज्ञान, को ही सर्वोपरि मानना जैसी अवधारणाएं,
इस प्रक्रिया को अवरोधित भी करती हैं |
ईश्वर
का जनक कौन है,
इस विचार या उक्ति के सार्वजनिक प्रतिरूपण से प्रतिध्वनित होता है कि हमारी मान्यता
है कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है, लेकिन हम सर्वत्र ‘ईश्वर नाम की अवधारणा’
की एक वृहद् रूप में सर्वव्यापी उपस्थिति पाते हैं, इसलिए प्रश्न उठाते हैं कि
‘तो फिर इसका जन्म कैसे हुआ?’ इसके दो अभिप्रायः निकलते हैं---
(१). यह
कि हम ईश्वर से संबंधित अपनी स्वयं की मान्यताओं और निष्कर्षों पर पूरी तरह सुनिश्चित
व स्पष्ट नहीं हैं, कुछ उलझाव हैं, प्रश्न हैं, विभ्रम
हैं जिनके कारण ईश्वर की अवधारणा पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाती।
(२). यह
कि स्पष्ट मान्यताएं बना लेने के बावज़ूद हम इन मान्यताओं के लिए मजबूत
आधार की तलाश में हैं और इन सबके बारे में विविध चर्चा-परिचर्चा एवं विभिन्न
ज्ञानार्जन द्वारा इस अवधारणा पर अपने को अधिक सुनिश्चित करना चाहते हैं। अपने निष्कर्षों
और मान्यताओं को पुष्ट करना चाहते हैं।
इस सामान्य जिज्ञासा का एक सामान्य भौतिकवादी
उत्तर हो सकता है, ईश्वर के अस्तित्व के नकार के साथ कि "ईश्वर की अवधारणा, मनुष्य
के ऐतिहासिक विकास की परिस्थितियों की स्वाभाविक उपज है, जिस
तरह की मनुष्य का मस्तिष्क भी इन्हीं की उपज है।"
उपरोक्त कथन, `ईश्वर मानव मस्तिष्क की परिकल्पना है' से थोड़ा भिन्न अर्थ वाला है | वाक्यांश `ईश्वर मानव मस्तिष्क की परिकल्पना है', जहां एक
ओर ईश्वर के अस्तित्व के खिलाफ़ जाना चाह रहा है,
वहीं यह उसकी ‘मस्तिष्क की परिकल्पना’ के सामान्यीकृत स्पष्टीकरण के लिए उस भाववादी
प्रत्ययवादी ( idealistic ) विचारधारा या दर्शन को ही अपना आधार बना रहा है
जिसकी स्वाभाविक परिणति ईश्वर के अस्तित्व
को ही प्रमाणित करती है, जो कि चेतना ( मानव मस्तिष्क ) को
ही प्राथमिक और मूल मानती है। हम ‘मानव मस्तिष्क’ यानि चेतना को अधिक महत्त्व दे रहे होते हैं, उसे
मूल या प्राथमिक मान रहे होते हैं अर्थात-जिस तरह मानव
परिवेश की वस्तुगतता मानव चेतना की पैदाइश है, उसी तरह इस
ब्रह्मांड़ की वस्तुगतता के पीछे भी किसी चेतना, परम चेतना,
ईश्वर जैसी किसी चेतना का हाथ
अवश्य ही होगा।
वहीं भौतिकवादी दर्शन की
स्थापनाओं में - चेतना को द्वितीय तथा पदार्थ को प्राथमिक और मूल साबित करता
है। यह स्पष्टता के साथ जाना जाता है कि मूल में, मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की वे परिस्थितियां
ही है जिनसे मनुष्य का मस्तिष्क और उसकी सभी अवधारणाएं जिनमें ईश्वर की अवधारणा भी
शामिल है, विकसित हुई हैं। यह भौतिकवादी (materialistic)
विचारों के आधार तक पहुँचने का मार्ग है |
ईश्वर की अवधारणा की व्यापक
स्वीकार्यता —
हम अपने चारों ओर की दुनिया में ईश्वर
नाम की इस अवधारणा की सर्वव्यापी व सबको प्रभावित करती हुई उपस्थिति पाते हैं| अपने चारों ओर एक विशिष्ट पृष्ठभूमि, शिक्षा, सामाजिक परिवेश व अनुभव रखने वाले अधिकाँश को हम आस्तिक पाते हैं और
वे ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में कोई प्रश्न या द्वंद भी नहीं रखते, उनके लिये ईश्वर ठीक उसी तरह साफ-साफ मौजूद है जैसे सूर्य, तारे, समुद्र और आसमान | तो क्या इस प्रश्न को उठाने
वालों में विचार प्रक्रिया सामान्य से हट कर है, क्यों ? जो एक व्यक्ति देख-समझ
पाता है वह अन्य नहीं देख-समझ पाते और क्यों जिस तरह के अनुभवों की बात वे करते
हैं, अन्य को नहीं मिलते, विचार प्रक्रियाओं में इतनी
बड़ी भिन्नता क्यों है ?
आस्तिकता के आधार का आधार --
मनुष्य सामान्यतः अपने जीवन एवं जीवन-यापन के लिए पूर्व-उपस्थित परिवेशीय सहज-रूपता, सहजवृत्ति के व्यवहार पर अवलंबित होता है और सभी चीज़ें जैसे चलना, बोलना, व्यवहार के तरीके आदि, अपने परिवेशगत लोगों से सीखता है। इन्हीं से वह आस्थाओं, परंपराओं, विचारों आदि को भी ग्रहण करता है। उसके पास अपना स्वयं का जन्मजात कुछ नहीं होता, इसी पृष्ठभूमि से प्राप्त यही व्यवहार-स्वरुप उसके अपने बन जाते हैं। सामान्यतः सभी अपने परिवेश के अनुकूलन में होते हैं, इसीलिए सामान्यतः सभी आस्तिक आधारों के साथ होते हैं।
मनुष्य सामान्यतः अपने जीवन एवं जीवन-यापन के लिए पूर्व-उपस्थित परिवेशीय सहज-रूपता, सहजवृत्ति के व्यवहार पर अवलंबित होता है और सभी चीज़ें जैसे चलना, बोलना, व्यवहार के तरीके आदि, अपने परिवेशगत लोगों से सीखता है। इन्हीं से वह आस्थाओं, परंपराओं, विचारों आदि को भी ग्रहण करता है। उसके पास अपना स्वयं का जन्मजात कुछ नहीं होता, इसी पृष्ठभूमि से प्राप्त यही व्यवहार-स्वरुप उसके अपने बन जाते हैं। सामान्यतः सभी अपने परिवेश के अनुकूलन में होते हैं, इसीलिए सामान्यतः सभी आस्तिक आधारों के साथ होते हैं।
इसी अनुकूलन की प्रक्रिया के साथ-साथ
एक और मानवीय प्रक्रिया चल रही होती है। व्यक्ति
अपने आसपास की चीज़ों के प्रति
असीम जिज्ञासाओं से पूर्ण, हर वस्तु को जांचने-परखने, जानने-समझने की प्रक्रिया
में होता है। बोलना
प्रारंभ करते ही उसके सवाल परिवेश के माथे चढ़कर बोलने लगते हैं। सामान्यतः हर परंपरा पर, आस्था
के हर आधारों पर सवाल उठाए जाते हैं, जो नवविचारों की संभावनाओं के बीजरूप होती हैं | समान्यतः मनुष्य के इस जिज्ञासु
स्वभाव को परिवेश की अपरिवर्तनीय निश्चित-धर्मिता की कठोरता से दबा दिया जाता है, या विविध समाधानों की श्रृंखलाओं से समाधित कर
दिया जाता है और उसे अनुकूलित होने दिया जाता है। अर्थात परिवेश द्वारा आस्तिक नियमबद्ध प्रकार से तैयार किए जाते हैं।
सामान्यतः तो पारिस्थितिक अनुकूलन
ही किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान बन जाता है। वह इसी अनुकूलन के साथ
रहने और जीने का आदी हो जाता है, उसकी यह अनुकूलित विचार-प्रक्रिया इसी अनुकूलन के साथ सहजता अनुभव करती
है। समान वैचारिक-व्यवहारिक लोगों के बीच एक सांमजस्यता
पैदा करती है, आर्थिक और सामाजिक सम्बद्धता पैदा करती है| अतः वह अपने उठते हुए
संशयों को दबाए रखने को बद्ध होजाता है, रूढ़ होता जाता है, और सामान्य सामूहिक चेतना के अनुरूप अपनी व्यवहार-सक्रियता को ढ़ाल लेता
है और यह उसके वैयक्तिक अहम् का हिस्सा बन जाता है| तब
वह इस अनुकूलनता के खिलाफ़ व्यक्त विचारों के प्रति अपनी तार्किकता व विशिष्ट
अनुभवों द्वारा विविध एक पक्षीय अभिव्यक्तियों का संसार रचता है।
अधुनातन ज्ञान का प्रभाव व नव-विचारों की संभावनाएं--- आस्था व
अनास्था के बीज, विभिन्न व्यक्तित्वों की उत्पत्ति .....
आज के आधुनिक हालात में मानव जाति के अधुनातन
ज्ञान के साथ कदमताल बैठाने के लिए एक औपचारिक आधुनिक शिक्षा प्रणाली अस्तित्व में
है। ( यद्यपि
वस्तुतः यह हर युग में, युग संधि में होता है) | शिक्षा व धनार्जन हेतु वह
बाहर निकलता है, परिवेश व्यापक बनता
है, समाज की अन्य परिधियों में पहुंचता है। ये सब मिलकर उस
पर अपना प्रभाव डालते हैं।
ये सब बाहरी प्रभाव प्रायः मानव के
आस्तिक-अनुकूलन में मदद ही करते हैं। प्रायः बाहरी समाज, शिक्षक सब इसी आस्तिक अनुकूलनता के साथ होते
हैं। हाँ यह
अवश्य होता है कि व्यक्ति के दिमाग़ में दो विभाग बन जाते है-- एक
शिक्षा-विज्ञान को ऊपरी तरह रट-रटाकर अपने लिए रोजगार पाने के जरिए का और --दूसरा
उसी पारंपरिक आस्तिक संस्कारों से समृद्ध जहां सभी के जैसा ही होना अधिक सहज
और आसान व स्वाभाविक सा होता है।
इस तरह की स्थिति में वैयक्तिक नव-विचारों की वे संभावनाएं उत्पन्न होती
हैं जो व्यक्ति को अधिक अद्यतन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त करने की राह पर ले
जाएं। अतः इन परिस्थितियों में ही आस्था
या अनास्था के बीज मौजूद होते हैं, क्योंकि समाज में, परिवेश
में, सभी तरह की धाराएं प्रवाहित हो रही होती हैं। कौन किससे अछूता रह जाए, और कौन कब किसके चपेट में आ जाए, यह उसकी विशिष्ट पारिस्थितिकी और संयोगों पर निर्भर करता है। सामान्यतः एक
जैसी लगती परिस्थितियों के बीच भी कई विशिष्ट सक्रियताएं और प्रभाव पैदा होती हैं,
वे सभी को एक जैसा नहीं रख पाती और भिन्न-भिन्न व्यक्तित्वों
की उत्पत्ति होती हैं, आस्थावादी व अनास्थावादी आदि |
हम जब कहते हैं, कि, "ईश्वर
की अवधारणा, मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की परिस्थितियों की
स्वाभाविक उपज है, जिस तरह की मनुष्य का मस्तिष्क भी इन्हीं
की उपज है। तो स्पष्ट होता है कि जैव विकास के
सर्वोच्च स्तर पर खड़ा, प्रकृति से व जैविक शत्रुओं से अपनी रक्षा करने में अक्षम
मानव का, यह मस्तिष्क ही था जो वह पूरी दुनिया पर छा गया और उसकी इन कोशिशों के फलस्वरूप उसका मस्तिष्क सतत विकसित होता
गया | आज मानव, जैविक विकास-क्रम की उस शाखा के शिखर पर है जो अपने अस्तित्व के
लिये अपने मस्तिष्क पर निर्भर है |
मस्तिष्क निश्चित रूप से मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की परिस्थितियों की स्वाभाविक
उपज है और मानव का विकास मस्तिष्क के विकास का स्वाभाविक परिणाम | यही बात ईश्वर की अवधारणा के लिये भी कही जा
सकती है जो मानव विकास क्रम में एक विशिष्ट काल में आयी |
आदिकाल में मनुष्य प्राकृतिक
नियमों से अनभिज्ञ था तथा अनेक प्रकार की प्राकृतिक विपत्तियों के फलस्वरूप सदैव
असुरक्षित तथा भय के कारण मानव-समाज में ईश्वर का जन्म हुआ।
ज्यां
पॉल सार्त्र के अनुसार --ईश्वर का भाव मनुष्य के द्वारा आत्म-चेतना के
विकास के क्रम में निर्मित भाव है। अपने अस्तित्व की चेतना में व्यक्ति अपने
से इतर की उपस्थिति के मूल में जाने की चेष्टा करता है। इसी क्रम में वह ईश्वर भाव
की सृष्टि कर लेता है।
मनुष्य को वे पुराने दिन उसकी अंतःचेतना (सबकोन्श्यस
माइंड) में याद थे जब वह पेड़ों पर रहता था, जब जिंदगी अधिक सरल थी,
और जब तानाशाह सरदार उसके लिए हर निर्णय ले लेता था और उसकी रक्षा
करता था। उसे केवल उसका आज्ञापालन करना होता था। इसी पुरानी परिस्थिति को
मनोवैज्ञानिक धरातल पर बहाल करने के लिए मनुष्य ने ईश्वर की कल्पना कर ली और
उसे सर्वशक्तिमान, सर्वाधिकार-संपन्न तानाशाह सरदार की
भूमिका में उतार दिया |
हबेर्ट स्पेंसर का मत है--सपनों, परछाइयों और प्रतिबिम्बों की व्याख्या के लिये
आदिम मानव मे अपने शरीर से प्रथक आत्मा में मिथ्या विश्वास रचा और धारणा बनाई कि
मनुष्य के दो भाग हैं। एक दृश्य शरीर है जो सदा परिवर्तित होता रहता है और दूसरी
अदृश्य आत्मा है जो बदलती नहीं। इसके बाद यह विचार पनपा कि आत्मा का नित्य
अस्तित्व है और उसे देवी-देवता और ईश्वर का नाम दिया है। उन देवी देवताओं और ईश्वर
के ऊपर मानव का स्वभाव आरोप कर दिया।
वर्तमान रूप
में अस्तित्वमान ईश्वर की अवधारणा निश्चित ही विकास-क्रम में बहुत बाद की चीज़ है। भाषा व
समाज के विकसित हो जाने के बाद
सामाजिक संगठनों, संस्थाओं, व्यवस्थाओं, आदि का
भी क्रमिक विकास हुआ है, ये भी सरल रूप से कठिनतर रूपों की ओर विकसित हुए | ईश्वर
की भावना भी अलग अलग मानव समूहों में अलग अलग तरीके से आयी | यह समूहों के नेतृत्व का अपनी
नाकामियों के लिये ठीकरा फोड़ने व अपने नेतृत्व को एक उचित कारण देने के लिये गढा
मिथक था| अर्थात भगवान
का अविष्कार हमने इसीलिए किया कि एक ऐसी शक्ति हो जिसके सिर
पर हम सारी ज़िम्मेदारी डाल दें और उसके सामने बैठकर अपने सुख-दुख सुना सकें और
उसकी कृपा के भागी बनें।
जैसे-जैसे मानव समाज अधिक जटिल होता गया, ईश्वर की कल्पना भी विकसित होती गई और सारे ब्रह्मांड के निर्माता के रूप
में ईश्वर को देखा जाने लगा। ईश्वर के लिए कुछ भी असंभव
नहीं था, उसमें सभी शक्तियां थीं, वह
सब जगह था। दरअसल बढ़ी थी स्वयं मनुष्य की शक्ति। मनुष्य प्रकृति पर अधिकाधिक विजय
पाता जा रहा था, और प्रकृति की शक्ति को नाथने की कला सीखता
जा रहा था। और जैसे-जैसे वह अधिक शक्तिमान बनता गया, और सब
जगह फैलता गया, वह ईश्वर को भी अपने से कहीं अधिक शक्ति प्रदान
करता गया, ताकि ईश्वर हमेशा उससे अधिक शक्तिशाली और
अधिकार-संपन्न बना रहे, सब जगह व्याप्त रहे और इस तरह आजकल के सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, असीम शक्तिवाले ईश्वर का
आविर्भाव हुआ।
एक अलौकिक
शक्ति, परम
चेतना, परम आत्मा, जिसने इस ब्रह्मांड़,
दुनिया को रचा इसकी सारी विशेषताओं के साथ, सृष्टिकर्ता,
पालनकर्ता, जिसके कि पास दुनिया के सारी
चीज़ों का, उनके व्यवहारों और भाग्यों का परम नियंत्रण है।
जिसे आराधना से खुश किया जाना चाहिए, उसकी कृपा के लिए
प्रार्थना में रहना चाहिए। अब यह ईश्वर का सामान्यीकृत रूप हर
समूह और इसके सांस्थानिक रूपों यानि धर्मों में वृहद् रूप में पृथक पृथक होते हुए
भी लगभग सभी में समान रूप ही पाया जाता है|
अतः निष्कर्षतः मानव-मस्तिष्क और उसके
समस्त क्रियाकलाप अंततः इसी प्रक्रिया से गुजरे हैं,
और इसीलिए मूलभूत रूप से जिस तरह मानव-मस्तिष्क, उसके विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज है | अतः अन्य विचारों
या अवधारणाओं की तरह ही, ईश्वर की अवधारणा भी, एतिहासिक रूप में सतत विकसित
हुए मानव मस्तिष्क और चेतना की पैदाइश ही है, जो कि अंततः
उसके विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों की स्वाभाविक परिणति है।
ईश्वर से संबंधित इन अवधारणाओं का एक
समुचित क्रमिक-विकास संपन्न हुआ जो
विशिष्ट
परिणति में मानव जाति को एक विशिष्ट जनक, आदम-ईव या मनु-शतरूपा के मिथकों और साथ
ही सृष्टि की रचयिता किसी परम-चेतना की काल्पनिकता तक ले गई ।
ईश्वर
के वर्तमान संस्थानिक रूप का विकास –
बुद्धि उत्पादित स्वार्थ भावना के साथ,
अपने अहम् भाव के सृजित होने के कारण, विनाश के संभावना की चिंता तथा कर्मों
की असफलता की संभावना से उदिग्न होने के कारण नैतिकता की संभावना बनती है। उसके उपाय
स्वरूप विविध कल्पनाओं द्वारा ईश्वर का उदय होता है।
ईश्वर का रूप पहली कपोल कल्पना से अलौकिक तथा देवीय अस्तित्व कायम कर, मानव की स्वार्थपरता पर दण्ड की संभावना से नियंत्रण करता है। समाज विरोधी कर्मों पर अंकुश लगाने से समाज व्यवस्थित होता है। दूसरी कपोल कल्पना से आत्मा की अमरता के कारण, मृत्यु की आशंका से मुक्त होता है। तीसरी कपोल कल्पना से, सर्वशक्तिमान दयालु ईश्वर एवं उसकी आराधना के विधान से कठिनाई के समय सहायता द्वारा असफलता की आशंका से मुक्ति होती है।
जीवन के लिए प्रकृति के साथ के सघर्षों, उसकी हारों, विवशताओं, अभिशप्तताओं ने प्रकृति में किसी अलंघ्यनीय चमत्कारी शक्तियों के वास की कल्पना, साथ ही उसकी बढ़ रही, प्रकृति की नियंत्रक क्षमताओं से उत्पन्न चेतना से, इनके भी नियंत्रण के लिए किये गये मानव के कर्मकांड़ी प्रयासों से, जादू-टोने-टोटकों की क्रियाविधियां विकसित हुईं। जातीय निरंतरता की चेतना ने पूर्वजों और उनके प्रति कृतज्ञता, पूजा-आदि की परंपराओं को विकसित किया, पूर्वजों की अवधारणाओं को अंतर्गुथित किया। मृतकों के साथ जीवित व्यक्तियों के साम्य और विरोधी तुलना ने, मानव में उपस्थित किसी चेतना या आत्मा के विचार तक पहुंचाया। और इन सबका अंतर्गुंथन अपने विकास-क्रम में अंततः परमचेतना, परमात्मा, ईश्वर की अवधारणाओं और धर्मों के वर्तमान संस्थानिक रूप तक विकसित हुआ।
ईश्वर का रूप पहली कपोल कल्पना से अलौकिक तथा देवीय अस्तित्व कायम कर, मानव की स्वार्थपरता पर दण्ड की संभावना से नियंत्रण करता है। समाज विरोधी कर्मों पर अंकुश लगाने से समाज व्यवस्थित होता है। दूसरी कपोल कल्पना से आत्मा की अमरता के कारण, मृत्यु की आशंका से मुक्त होता है। तीसरी कपोल कल्पना से, सर्वशक्तिमान दयालु ईश्वर एवं उसकी आराधना के विधान से कठिनाई के समय सहायता द्वारा असफलता की आशंका से मुक्ति होती है।
जीवन के लिए प्रकृति के साथ के सघर्षों, उसकी हारों, विवशताओं, अभिशप्तताओं ने प्रकृति में किसी अलंघ्यनीय चमत्कारी शक्तियों के वास की कल्पना, साथ ही उसकी बढ़ रही, प्रकृति की नियंत्रक क्षमताओं से उत्पन्न चेतना से, इनके भी नियंत्रण के लिए किये गये मानव के कर्मकांड़ी प्रयासों से, जादू-टोने-टोटकों की क्रियाविधियां विकसित हुईं। जातीय निरंतरता की चेतना ने पूर्वजों और उनके प्रति कृतज्ञता, पूजा-आदि की परंपराओं को विकसित किया, पूर्वजों की अवधारणाओं को अंतर्गुथित किया। मृतकों के साथ जीवित व्यक्तियों के साम्य और विरोधी तुलना ने, मानव में उपस्थित किसी चेतना या आत्मा के विचार तक पहुंचाया। और इन सबका अंतर्गुंथन अपने विकास-क्रम में अंततः परमचेतना, परमात्मा, ईश्वर की अवधारणाओं और धर्मों के वर्तमान संस्थानिक रूप तक विकसित हुआ।
अंततः ईश्वर व धर्म दोनों
की पृथक विशिष्टताओं और समाज को इनकी आवश्यकताओं ने इन्हें साथ साथ युक्त कर
दिया। और राज्य और सत्ता के सुखों के एक निश्चित बंटवारे की जोड़-तोड में ये आपसी सहयोग की राह पर आए | पुजारियों-ब्राह्मणों और क्षत्रियों की
जुगलबंदी के नये रूप विकसित हुए। ईश्वर, धर्म और राज्य या शक्ति समूह
सांस्थागत रूप में आपस में सम्बद्ध हो गये।
अर्थात क्रमिक-विकास की प्रक्रिया में, सामान्यतः समान और व्यापक, ऐतिहासिक परिस्थितियों में उत्पन्न इन धर्म और ईश्वर संबंधी अवधारणाओं के क्रम विकास में, ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न हुई कि कुछ व्यक्ति या समूह विशेष इसके कारण शनैः शनैः सामाजिक सोपानक्रम में ऊपर की स्थिति प्राप्त करते गए, और फिर इन्हीं व्यक्ति-समूह विशेषों ने अपनी इस स्थिति को बनाए रखने और निरंतर समाज में प्रभुत्व प्राप्त करने व उसे स्थायी बनाए रखने हेतु एक सचेतन उचित रूप ठहराने के लिए षाडयंत्रिक रूप देने, मिथक गढ़ने, काल्पनिक-कथाएं, पुराणों की रचनाएं करने, अलौकिक और रहस्यमयी प्राकृतिक शक्तियों संबंधी सामान्य अवधारणाओं को ईश्वर संबंधी विशिष्ट रूप देने, ईश्वर और धर्म को सांस्थानिक रूप देने में अपनी एक विशिष्ट भूमिका निभाई। अर्थात कुछ विशिष्ट मस्तिष्कों ने इसे सचेतन रूप से गढ़ा, इसे विशिष्ट रूप दिया और फिर इसे योजनाबद्ध रूप से व्यापक बनाया।
ऐसा होना भी सिर्फ़ इसलिए संभव नहीं हो गया कि यह केवल किसी विशिष्ट मस्तिष्क या चेतना की, या विशिष्ट समूहों के सचेतन प्रयासों से संपन्न हुआ हो, अपितु ऐसा होने के निश्चित भौतिक पूर्वाधार मौजूद थे। भौतिक-जीवनीय परिस्थितियां, चेतना और परिवेश के ज्ञान का स्तर, जीवनयापन हेतु उत्पादन प्रक्रिया और प्रणालियों का स्तर, प्रकृति के सामने असहायता और विवशता, जीवन के सामने प्रस्तुत ख़तरों से उत्पन्न भय, प्राकृतिक शक्तियों के बारे में उसका अज्ञान, उनसे बचने-निपटने, उन्हें अपने वश में नियंत्रित करने की महती आवश्यकता, आदि-आदि, ये सब आपस में अंतर्गुथित हैं जो इन अवधारणाओं के विकास के आधारों का पूर्व-निर्धारण करती हैं।
अर्थात क्रमिक-विकास की प्रक्रिया में, सामान्यतः समान और व्यापक, ऐतिहासिक परिस्थितियों में उत्पन्न इन धर्म और ईश्वर संबंधी अवधारणाओं के क्रम विकास में, ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न हुई कि कुछ व्यक्ति या समूह विशेष इसके कारण शनैः शनैः सामाजिक सोपानक्रम में ऊपर की स्थिति प्राप्त करते गए, और फिर इन्हीं व्यक्ति-समूह विशेषों ने अपनी इस स्थिति को बनाए रखने और निरंतर समाज में प्रभुत्व प्राप्त करने व उसे स्थायी बनाए रखने हेतु एक सचेतन उचित रूप ठहराने के लिए षाडयंत्रिक रूप देने, मिथक गढ़ने, काल्पनिक-कथाएं, पुराणों की रचनाएं करने, अलौकिक और रहस्यमयी प्राकृतिक शक्तियों संबंधी सामान्य अवधारणाओं को ईश्वर संबंधी विशिष्ट रूप देने, ईश्वर और धर्म को सांस्थानिक रूप देने में अपनी एक विशिष्ट भूमिका निभाई। अर्थात कुछ विशिष्ट मस्तिष्कों ने इसे सचेतन रूप से गढ़ा, इसे विशिष्ट रूप दिया और फिर इसे योजनाबद्ध रूप से व्यापक बनाया।
ऐसा होना भी सिर्फ़ इसलिए संभव नहीं हो गया कि यह केवल किसी विशिष्ट मस्तिष्क या चेतना की, या विशिष्ट समूहों के सचेतन प्रयासों से संपन्न हुआ हो, अपितु ऐसा होने के निश्चित भौतिक पूर्वाधार मौजूद थे। भौतिक-जीवनीय परिस्थितियां, चेतना और परिवेश के ज्ञान का स्तर, जीवनयापन हेतु उत्पादन प्रक्रिया और प्रणालियों का स्तर, प्रकृति के सामने असहायता और विवशता, जीवन के सामने प्रस्तुत ख़तरों से उत्पन्न भय, प्राकृतिक शक्तियों के बारे में उसका अज्ञान, उनसे बचने-निपटने, उन्हें अपने वश में नियंत्रित करने की महती आवश्यकता, आदि-आदि, ये सब आपस में अंतर्गुथित हैं जो इन अवधारणाओं के विकास के आधारों का पूर्व-निर्धारण करती हैं।
चेतना को, जो मानव-मस्तिष्क की
प्रक्रियाओं का विशिष्ट उत्पाद है, प्राथमिक समझना,
उसे मूल कर्ता-कारण के रूप में स्थापित करना; अंततः अपनी तार्किक
परिणति में उसी भाववादी विचारधारा तक पहुंचाता है, कि जिस तरह मनुष्य द्वारा सृजित परिवेश के पीछे उसकी चेतना
मूलभूत है, उसी प्रकार पदार्थ और इस विश्व के सृजन के पीछे भी, किसी चेतना, परमचेतना
का मूलभूत होना स्वाभाविक और आवश्यक है। यही तो ईश्वर
की अवधारणाओं और उसके सांस्थागत रूपों का मूलाधार है।
ईश्वर की अवधारणा का भविष्य ---
पृथ्वी पर उपस्थित प्राणियों में एकमात्र मानव ही तो है
जिसने कुछ रचा-बनाया... और तभी से वह
'हर चीज को किसने बनाया-रचा ? 'यह सवाल
भी पूछने लगा... अगर
मानव कुछ रचना नहीं कर पाता तो शायद यह सवाल भी उसके पास नहीं होता... तो यह 'रचनाकार कौन, ईश्वर कौन?' सवाल मानव मस्तिष्क का केवल एक विशिष्ट सामयिक फितूर माना जा सकता है,
परन्तु यह प्रश्न आदिकाल से ही प्रश्नांकित किया जा रहा है अत: इसे यूंही नहीं
टाला जा सकता | हमें
यह सोचना चाहिए कि अपनी रचना और उसके कर्ता के
रूप में मनुष्य की स्वयं की उपस्थिति की, अर्थात
‘यह प्रश्न ’ उसके विकास की
ऐतिहासिक परिस्थितियों की एक स्वाभाविक परिणति सा लगता है |
दार्शनिक रूप में ऐसा भी कहा जाता है कि पदार्थ
मूलभूत है, उसके विकास की उच्चतर और जटिल अवस्थाओं में चेतना उत्पन्न और विकसित होती
है। चेतना का विकास होने के बाद, यह अपने आगे के विकास क्रम
में, स्वयं पदार्थ को नियंत्रित करने का प्रयास करती है।
अर्थात अब एक द्वंद का रिश्ता बन जाता
है। परिस्थितियों के प्रतिबिंबन से उनकी चेतना प्राप्त होती है, और यह चेतना अपने क्रम में अपने हितार्थ
परिस्थितियों का नियमन तथा नियंत्रण करने की कोशिश करती है, परिस्थितियों को बदलने की कोशिश करती है।
फिर परिस्थितियों में परिवर्तनों के प्राप्त परिणामों से पुनः चेतना समृद्ध
होती है, परिस्थितियों में और अनुकूल
परिवर्तनों को प्रेरित होती है, कोशिश करती है। यह प्रक्रिया अपने विकास-क्रम पर चल निकलती है और
निरंतर विकसित और परिष्कृत होती रहती है।
अधुनातन ज्ञान के प्रभाव से मानव की चेतना
में नव-विचारों की संभावनाओं का उदय हुआ है जो सदैव हर युग में, युग
संधि में होता है| नव सम्भावनाओं में विचार
व वस्तुएं हमेशा द्वंद में होती हैं, और उनके अंतर्विरोधों, संघर्षों और एकता में ही उनका नवीन व वस्तुगत
ज्ञान प्राप्त होता है। इन
सभी नवीन परिवर्तनों से निश्चित रूप से ईश्वर की अवधारणा
में परिवर्तन हुऐ हैं और इसका क्रमिक विकास भी हो रहा है
| यह भी हो सकता है कि क्रमिक विकास होते होते एक दिन मानव जाति इस ईश्वरीय
अवधारणा को नकार भी दे |
मानवजाति का अद्यनूतन दर्शन भी इसी
निष्कर्ष तक पहुंचता है। वह
इसे इस शब्दावली में कहता है कि, जिस तरह ईश्वर की अवधारणा एक निश्चित और विशिष्ट परिस्थितियों की उपज है,
उसी तरह से विकास-क्रम में इन
निश्चित और विशिष्ट परिस्थितियों का लोप होने पर, ईश्वर की अवधारणा स्वतः ही लुप्त हो जाएगी, इतिहास की चीज़ हो जाएगी। यह कई अन्य अवधारणाओं
की तरह सिर्फ़ अध्ययन और आश्चर्य मिश्रित
हास्यबोध का विषय रह जाएगी कि विकास-क्रम में मनुष्य का ज्ञान, एक समय में इन अवस्थाओं में था कि वह इस तरह के काल्पनिक समाधानों की
दुनिया में विचरण किया करता था, और धर्म तथा ईश्वर की इन अवधारणाओं को अपने हितार्थ नाना-रूपों में पल्लवित कर
कुछ व्यक्ति या समूह एक लंबे समय तक समाज में अपने-आप को प्रभुत्व प्राप्त स्थिति में
बनाए रखने में सफल रहे थे।
----------जैसा कि कुछ आधुनिक विद्वानों का मत से प्रकट होता
है ---
------आस्तिकता मानव एवं उसके जीवन को ईश्वर की असीम शक्ति के समक्ष तुच्छ एवं
सारहीन सिद्ध करती रहती है,
जबकि नास्तिकता मानव एवं उसकी
चिंतनशक्ति की स्वतंत्रता एवं महत्ता को स्थापित करती है। .....ईश्वर एवं
उसके अवतारों तथा दूतों की अन्धभक्ति से मुक्ति एवं तार्किक मानवीयता के जन्म का
उत्सव मनायें। – महेश चन्द्र द्विवेदी-
आलेख ईश्वर से मुक्ति का उत्सव से...
------रॉबर्ट ग्रीन इंगरसॉल का मत है, 'मेरा विश्वास है कि तब तक इस पृथ्वी पर स्वतंत्रता नहीं हो
सकती, जब तक मनुष्य स्वर्ग में बैठे अत्याचारी शासक को पूजते रहेंगे।'
-------बीसवीं
सदी के महानतम दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल का कथन है, 'एक उत्तम संसार के लिए ज्ञान, दयालुता एवं साहस की आवश्यकता होती है, इसके लिए अतीत के लिए अनावश्यक प्रलाप,
अथवा बहुत पहले अल्पज्ञानी
व्यक्तियों द्वारा कहे गए
शब्दों में अपने सोच की स्वतंत्रता को
बाँधे रखने की आवश्यकता नहीं है।'
------दक्षिण भारत के समाज सुधारक गोरा --चूँकि आस्तिकता का आधार ही असत्य है, अत:
वह असत्यनिष्ठ व्यक्तित्व को
जन्म देती है। ऐसे व्यक्ति स्वर्ग की बात करेंगे और जनसाधारण को गंदगी
एवं निर्धनता में संतुष्ट रहकर जीने देंगे | वे वैश्विक भाईचारे की बात करेंगे परंतु ईश्वर के नाम पर नरसंहार
करेंगे, तथा वे संसार को भ्रम बताएँगे परंतु उसके प्रति गहरी आसक्ति
रखेंगे।'
-------रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने
--'भारतवर्ष में मुक्त चिंतन का
मार्ग कई सौ वर्ष पहले ही अवरुद्ध हो चुका था। धर्म और समाज, दोनों
में ही भारतवासी अपने शास्त्र को देखकर चलते थे। यूरोप की श्रेष्ठता का कारण केवल यही नहीं था कि
उसके पास उन्नत शस्त्र थे, वरन यह भी था कि जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण
प्रवृत्तिमार्गी था। वह जीवन से भागकर अपना सुख नहीं खोजता प्रत्युत उसके भीतर पैठकर उसका रस पाता था।
परन्तु क्या ऐसा संभव है, शायद नहीं |
क्योंकि ईश्वर के होने का एक मूल कारण उसे मनुष्य का अब तक न जान पाना है। जिस दिन मनुष्य
ने ईश्वर को जान लिया, निःसंदेह उसी दिन या
तो ईश्वर संसार से विलुप्त हो जायगा अथवा नास्तिकता।
यदि ध्यान पूर्वक देखा जाय तो उपरोक्त सभी विद्वानों के ईश्वर विरुद्ध कथन संस्थागत ईश्वर या धार्मिक कांडों के विद्रूपता युक्त रूपों प्रति असंतोष से व्यक्त भाव हैं, ईश्वर की उपस्थिति के प्रति नहीं| यदि हम ईश्वर की बुराई या उसके प्रति अविश्वास या नास्तिकता अथवा ईश्वर से मुक्ति का उत्सव मनाने की बात कहते हैं तो इसका अर्थ यह होता है कि हम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास कर रहे होते हैं, क्योंकि उसे जान नहीं पाते अतः उसे मान नहीं पा रहे हैं |
यदि ध्यान पूर्वक देखा जाय तो उपरोक्त सभी विद्वानों के ईश्वर विरुद्ध कथन संस्थागत ईश्वर या धार्मिक कांडों के विद्रूपता युक्त रूपों प्रति असंतोष से व्यक्त भाव हैं, ईश्वर की उपस्थिति के प्रति नहीं| यदि हम ईश्वर की बुराई या उसके प्रति अविश्वास या नास्तिकता अथवा ईश्वर से मुक्ति का उत्सव मनाने की बात कहते हैं तो इसका अर्थ यह होता है कि हम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास कर रहे होते हैं, क्योंकि उसे जान नहीं पाते अतः उसे मान नहीं पा रहे हैं |
साथ ही साथ आस्तिकता के मूल स्थान
भारत, भारतीय संस्कृति व वैदिक ईश्वरीय ज्ञान तो स्वयं ही इन सभी उपरोक्त
कथनों का समर्थन करते हैं | अंधभक्ति, जीवन का पलायनवादी दृष्टिकोण, ऊपर स्वर्ग
में बैठा अत्याचारी शासक विश्व के सर्वश्रेष्ठ व प्राचीनतम साहित्य वैदिक साहित्य
में कहीं नहीं है | सोच की स्वतंत्रता, जीवन का
कर्मवादी दृष्टिकोण इस आस्तिकवादी वैदिक साहित्य की रीढ़ हैं | अतः इन आधुनिक
विद्वानों के ये सभी ईश्वर विरुद्ध कथन भारतीय वैदिक संस्था पर सही नहीं ठहरते | जैसा कि ईशोपनिषद का
कथन है –
विध्यान्चाविद्यां च यस्तद वेदोभय सह |
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यामृतमश्नुते ||.
------ विद्या ( ईश्वर
का ज्ञान ) एवं अविद्या ( संसार का भौतिक ज्ञान ) दोनों को सामान रूप से ग्रहण
करना चाहिए | भौतिक ज्ञान से मृत्यु/ कष्टों रूपी संसार सागर पार करते हैं, ईश्वरीय
भाव से अमृत /मुक्ति रूपी सुख-शान्ति, आनंद |
इसमें कोई संदेह नहीं कि ईश्वर एवं नरक के
भय से मुक्त नास्तिक व्यक्ति घोर मानववादी हो सकता है तो घोर
स्वार्थी भी। क्योंकि - 'ईश्वर पर अनास्था के उपरांत नास्तिकों के पास शारीरिक सुख, आत्महीनता अथवा परार्थ के मार्गों में कोई भी मार्ग अपनाने की स्वतंत्रता
हो जाती है।'और आत्म-प्रवंचना व सुखाभिलाषा के रोक टोक का
कोइ मार्ग नहीं होता | स्वयं ही सबका कर्ता मानने के कारण असफलताओं व
विपरीत परिस्थितियों में स्वयं को ही दोषी मानने से असंतुष्टि, आत्म-ग्लानि युत
आत्म-प्रवंचना हेतु असत्याचरण का मार्ग प्रशस्त होजाता है| नास्तिकता के संभावित दुष्परिणाम यही हैं |
अस्तित्व मानव की प्राथमिकताओं में
सर्वप्रथम है| आस्तिकता, सहयोग, सामूहिकता, सामाजिकता, ईश्वर-भय, धर्म व समाज
भय के रूप में उसे अपनी चेतना में अपने अस्तित्व की सुरक्षा, अपनी कमजोरियों की
ढाल के रूप में प्रयुक्त करने में सुविधा देती है | अपनी असफलताओं, निराशाओं,
परिस्थियों को, जो उसके वश में नहीं होतीं, को मनोवैज्ञानिक ढंग से सुलझाने, ईश्वर
पर छोड़कर आश्वस्त होजाने, स्वयं के आत्म-ग्लानि से बचने एवं पुनः अपने सामान्य रूप
से कार्य में लग जाने को तैयार करती हैं| वह अपनी हार को परम आत्मा के परम
नियंत्रणाधीन एक वृहद योजना का हिस्सा सा मान स्वयं को सांत्वना दे लेता है |
यही ईश्वर के जन्म का कारण है, यही
ईश्वर की महत्ता भी है, आवश्यकता भी एवं ईश्वर की अवधारणा की अनिवार्य स्वीकारिता
भी और यही उसका भविष्य भी है |
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