....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
पुस्तक समीक्षा
समीक्ष्य कृति- काल है संक्रांति का...रचनाकार-आचार्य
संजीव वर्मा सलिल...संस्करण-२०१६..मूल्य -२००/- ..आवरण
–मयंक वर्मा..रेखांकन..अनुप्रिया..प्रकाशक-समन्वय
प्रकाशन अभियान, जबलपुर.. समीक्षक—डा श्यामगुप्त |
साहित्य जगत में समन्वय के साहित्यकार,
कवि हैं आचार्य संजीव वर्मा सलिल | प्रस्तुत कृति ‘काल है संक्रांति का’ की
सार्थकता का प्राकट्य मुखपृष्ठ एवं शीर्षक से ही होजाता है | वास्तव में ही यह
संक्रांति-काल है, जब सभी जन व वर्ग भ्रमित अवस्था में हैं | एक और अंग्रेज़ी का
वर्चस्व जहां चमक-धमक वाली विदेशी संस्कृति दूर से सुहानी लगती है; दूसरी और
हिन्दी –हिन्दुस्तान का, भारतीय स्व संस्कृति का प्रसार जो विदेश बसे को भी अपनी
मिट्टी की और खींचता है | या तो अँगरेज़ होजाओ या भारतीय –परन्तु समन्वय ही उचित
पंथ होता है हर युग में जो विद्वानों, साहित्यकारों को ही करना होता है | सलिल जी की साहित्यिक समन्वयक दृष्टि का एक
उदहारण प्रस्तुत है ---गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला
शुभ को पहचानें |
माँ शारदा से पहले, ब्रह्म रूप
में चित्रगुप्त की वन्दना भी नवीनता है | कवि की हिन्दी भक्ति वन्दना में भी छलकती
है –‘हिन्दी हो भावी जग वाणी / जय जय वीणापाणी’ |
यह कृति
लगभग १४ वर्षों के लम्बे अंतराल में प्रस्तुत हुई है | इस काल में कितनी विधाएं
आईं–गईं, कितनी साहित्यिक गुटबाजी रही, सलिल मौन दृष्टा की भांति गहन दृष्टि से
देखने के साथ साथ उसकी जड़ों को, विभिन्न विभागों को अपने काव्य व साहित्य-शास्त्रीय
कृतित्वों से पोषण दे रहे थे, जिसका प्रतिफल है यह कृति|
कितना दुष्कर है बहते सलिल को पन्ने पर रोकना
उकेरना | समीक्षा लिखते समय मेरा यही भाव बनता था जिसे मैंने संक्षिप्त में
काव्य-रूपी समीक्षा में इस प्रकार व्यक्त किया है-
“शब्द सा है मर्म
जिसमें, अर्थ सा शुचि कर्म जिसमें |
साहित्य की शुचि
साधना जो, भाव का नव धर्म जिसमें |
उस सलिल को चाहता
है, चार शब्दों में पिरोना ||”
सूर्य है प्रतीक संक्रांति का, आशा के
प्रकाश का, काल की गति का, प्रगति का | अतः सूर्य के प्रतीक पर कई रचनाएँ हैं | ‘जगो
सूर्य लेकर आता है अच्छे दिन’ ( -जगो सूर्य आता है ) में आशावाद है,
नवोन्मेष है जो उन्नाकी समस्त साहित्य में व इस कृति में सर्वत्र परिलक्षित है | ‘मानव
की आशा तुम, कोशिश की भाषा तुम’ (-उगना नित) ‘छंट गए हैं फूट के
बादल, पतंगें एकता की उडाओ”(-आओ भी सूरज ) |
पुरुषार्थ युत मानव, शौर्य के प्रतीक
सूर्य की भांति प्रत्येक स्थित में सम रहता है | ‘उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त
प्रतिपल रहे सूरज’ तथा ‘आस का दीपक जला हम, पूजते हैं उठ सवेरे, पालते
या पल रहे तुम ‘(-उग रहे या ढल रहे ) से प्रकृति के पोषण-चक्र, देव-मनुज
नाते का कवि हमें ज्ञान कराता है | शिक्षा की महत्ता – ‘सूरज बबुआ’ में,
सम्पाती व हनुमान की पौराणिक कथाओं के संज्ञान से इतिहास की भूलों को सुधारकर
लगातार उद्योग व हार न मानने की प्रेरणा दी गयी है ‘छुएँ सूरज’ रचना में | शीर्षक
रचना ‘काल है संक्रांति का’ प्रयाण गीत है, ‘काल है संक्रांति का, तुम मत
थको सूरज’ ..सूर्य व्यंजनात्मक भाव में मानवता के पौरुष का,ज्ञान का व प्रगति
का प्रतीक है जिसमें चरैवेति-चरैवेति का सन्देश निहित है | यह सूर्य स्वयं कवि भी
होसकता है | “
युवा पीढ़ी को स्व-संस्कृति का ज्ञान नहीं है
कवि व्यथित हो स्पष्टोक्ति में कह उठता है –
‘जड़ गँवा जड़
युवापीढी, काटती है झाड, प्रथा की चूनर न भाती, फैकती है फाड़ /
स्वभाषा भूल इंग्लिश
से लड़ाती लाड |’
यदि हम शुभ चाहते हैं तो सभी जीवों पर दया
करें एवं सामाजिक एकता व परमार्थ भाव अपनाएं | कवि व्यंजनात्मक भाव में कहता है ---‘शहद
चाहैं, पाल माखी |’ (-उठो पाखी )| देश में भिन्न भिन्न नीतियों की राजनीति
पर भी कवि स्पष्ट रूप से तंज करता है..’धारा ३७० बनी रहेगी क्या’/ काशी
मथुरा अवध विवाद मिटेंगे क्या’ | ‘ओबामा आते’ में आज के राजनीतिक-व्यवहार
पर प्रहार है |
अंतरिक्ष पर तो मानव जारहा है परन्तु क्या वह
पृथ्वी की समस्याओं का समाधान कर पाया है यह प्रश्न उठाते हुए सलिल जी कहते हैं..’मंगल
छू / भू के मंगल का क्या होगा |’ ’सिंधी गीत ‘सुन्दरिये मुंदरिये
’...बुन्देली लोकगीत ‘मिलती कायं नें’ कवि के समन्वयता भाव की ही अभिव्यक्ति है |
प्रकृति, पर्यावरण, नदी-प्रदूषण, मानव आचरण
से चिंतित कवि कह उठता है –
‘कर पूजा पाखण्ड हम
/ कचरा देते डाल |..मैली होकर माँ नदी / कैसे हो खुशहाल |’
‘जब
लौं आग’ में कवि उत्तिष्ठ जागृत का सन्देश देता है कि हमारी अज्ञानता ही हमारे
दुखों का कारण है-
‘मोड़ तोड़ हम फसल उगा
रये/ लूट रहे व्यौपार |जागो बनो मशाल नहीं तो / घेरे तुमें अन्धेरा |
धन व शक्ति के दुरुपयोग एवं वे दुरुपयोग
क्यों कर पा रहे हैं, ज्ञानी पुरुषों की अकर्मण्यता के कारण | सलिल जी कहते हैं
हैं---‘रुपया जिसके पास है / उद्धव का संन्यास है /सूर्य ग्रहण खग्रास है |’
(-खासों में ख़ास है )
पेशावर के नरपिशाच..तुम बन्दूक चलाओ तो..मैं
लडूंगा ..आदि रचनाओं में शौर्य के स्वर हैं| छद्म समाजवाद की भी खबर ली गयी है –‘लड़वाकर
/ मामला सुलझाए समाजवादी’ |
पुरखों पूर्वजों के स्मरण बिना कौन उन्नत हो
पाया है, अतः सभी पूर्व, वर्त्तमान, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष पुरखों , पितृजनों के एवं
उनकी सीख का स्मरण में नवता का एक और पृष्ठ है ‘स्मरण’ रचना में –
‘काया माया छाया
धारी / जिन्हें जपें विधि हरि त्रिपुरारी’
‘कलम थमाकर कर में
बोले / धन यश नहीं सृजन तब पथ हो |’ क्योंकि यश व पुरस्कार की आकांक्षा श्रेष्ठ सृजन से वंचित रखती है |
नारी-शक्ति का समर्पण का वर्णन करते हुए सलिल जी का कथन है –
‘बनी अग्रजा या
अनुजा तुम / तुमने जीवन सरस बनाया ‘ (-समर्पण ) | मिली दिहाड़ी रचना में दैनिक वेतन-भोगी की व्यथा
उत्कीर्णित है |
‘लेटा
हूँ ‘ रचना में श्रृंगार की झलक के साथ पुरुष मन की विभिन्न भावनाओं, विकृत इच्छाओं
का वर्णन है | इस बहाने झाडूवाली से लेकर धार्मिक स्थल, राजनीति, कलाक्षेत्र, दफ्तर
प्रत्येक स्थल पर नारी-शोषण की संभावना का चित्र उकेरा गया है | ‘राम बचाए‘ में जन
मानस के व्यवहार की भेड़चाल का वर्णन है –‘मॉल जारहे माल लुटाने / क्यों न
भीड़ से भिन्न हुए हम’| अनियंत्रित विकास की आपदाएं ‘हाथ में मोबाइल’ में
स्पष्ट की गयी हैं|
‘मंजिल आकर’ एवं ‘खुशियों की मछली’ नवगीत
के मूल दोष भाव-सम्प्रेषण की अस्पष्टता के उदाहरण हैं | वहीं आजकल समय बिताने
हेतु, कुछ होरहा है यह दिखाने हेतु, साहित्य एवं हर संस्था में होने वाले विभिन्न
विषयों पर सम्मेलनों, वक्तव्यों, गोष्ठियों, चर्चाओं की निरर्थकता पर कटाक्ष है—‘दिशा
न दर्शन’ रचना में ...
‘क्यों आये हैं /
क्या करना है |..ज्ञात न पर / चर्चा करना है |’
राजनैतिक गुलामी से मुक्त होने पर भी अभी
हम सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुए हैं | वह वास्तविक आजादी कब मिलेगी,
कृतिकार के अनुसार, इसके लिए मानव बनना अत्यावश्यक है ....
‘सुर न असुर हम आदम यदि बन जायेंगे इंसान, स्वर्ग
तभी होपायेगा धरती पर आबाद |’
सार्वजनिक जीवन व मानव आचरण में सौम्यता,
समन्वयता, मध्यम मार्ग की आशा की गयी है ताकि अतिरेकता, अति-विकास, अति-भौतिक
उन्नति के कारण प्रकृति, व्यक्ति व समाज का व्यबहार घातक न होजाय-
‘पर्वत गरजे,
सागर डोले / टूट न जाएँ दीवारें / दरक न पायें दीवारे |’
इस प्रकार कृति का भावपक्ष सबल है | कलापक्ष
की दृष्टि से देखें तो जैसा कवि ने स्वयं कहा है ‘गीत-नवगीत‘ अर्थात सभी गीत ही
हैं | कई रचनाएँ तो अगीत-विधा की हैं –‘अगीत-गीत’ हैं| वस्तुतः इस कृति
को ‘गीत-अगीत-नवगीत संग्रह’ कहना चाहिए | सलिल जी काव्य
में इन सब छंदों-विभेदों के द्वन्द नहीं मानते अपितु एक समन्वयक दृष्टि रखते हैं,
जैसा उन्होंने स्वयम कहा है- ‘कथन’ रचना में --
‘गीत अगीत प्रगीत न
जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचाने |’
‘छंद से अनुबंध
दिखता या न दिखता / किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता |’
‘विरामों से
पंक्तियाँ नव बना / मत कह, छंद हीना / नयी कविता है सिरजनी |’
सलिल जी लक्षण शास्त्री हैं | साहित्य, छंद
आदि के प्रत्येक भाव, भाग-विभाग का व्यापक ज्ञान व वर्णन कृति में प्रतुत किया गया
है| विभिन्न छंदों, मूलतः सनातन छंदों –दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्ह छंद,
लोकधुनों के आधार पर नवगीत रचना दुष्कर
कार्य है | वस्तुतः ये विशिष्ट नवगीत हैं, प्रायः रचे जाने वाले अस्पष्ट सन्देश
वाले तोड़ मरोड़कर लिखे जाने वाले नवगीत नहीं हैं | सोरठा पर आधारित एक गीत देखें-
‘आप न कहता हाल, भले
रहे दिल सिसकता |
करता नहीं ख़याल, नयन
कौन सा फड़कता ||’
कृति की भाषा सरल, सुग्राह्य, शुद्ध
खड़ीबोली हिन्दी है | विषय, स्थान व
आवश्यकतानुसार भाव-सम्प्रेषण हेतु देशज व बुन्देली का भी प्रयोग किया गया है- यथा ‘मिलती
कायं नें ऊंची वारी/ कुरसी हमकों गुइयाँ |’ उर्दू के गज़लात्मक गीत का एक उदाहरण देखें—
‘ख़त्म
करना अदावत है / बदल देना रवायत है /ज़िंदगी गर नफासत है / दीन-दुनिया सलामत है |’
अधिकाँश रचनाओं में प्रायः उपदेशात्मक शैली का
प्रयोग किया गया है | वर्णानात्मक व व्यंगात्मक शैली का भी यथास्थान प्रयोग है | कथ्य-शैली
मूलतः अभिधात्मक शब्द भाव होते हुए भी अर्थ-व्यंजना युक्त है | एक व्यंजना देखिये –‘अर्पित
शब्द हार उनको / जिनमें मुस्काता रक्षाबंधन |’ एक लक्षणा का भाव देखें –
‘राधा हो या आराधा सत शिव / उषा सदृश्य
कल्पना सुन्दर |’
विविध अलंकारों की छटा
सर्वत्र विकिरित है –‘अनहद अक्षय अजर अमर है /अमित अभय अविजित अविनाशी |’ में अनुप्रास
का सौन्दर्य है | ‘प्रथा की चूनर न भाती
..’ व उनके पद सरोज में अर्पित / कुमुद कमल सम आखर मनका |’ में उपमा
दर्शनीय है | ‘नेता अफसर दुर्योधन, जज वकील धृतराष्ट्र..’ में रूपक की छटा
है तो ‘कुमुद कमल सम आखर मनका’ में श्लेष अलंकार है | उपदेशात्मक शैली में रसों की संभावना कम
ही रहती है तथापि ओबामा आते, मिलती कायं नें, लेटा हूँ में हास्य व श्रृंगार का
प्रयोग है | ‘कलश नहीं आधार बनें हम..’ में प्रतीक व ‘आखें रहते भी सूर’ व
‘पौवारह’ कहावतों के उदाहरण हैं | ‘गोदी चढ़ा उंगलियाँ थामी/ दौड़ा गिरा
उठाया तत्क्षण ‘.. में चित्रमय विम्ब-विधान का सौन्दर्य दृष्टिगत है |
पुस्तक
आवरण के मोड़-पृष्ठ पर सलिल जी के प्रति विद्वानों की राय एवं आवरण व सज्जाकारों के
चित्र, आचार्य राजशेखर की काव्य-मीमांसा का उद्धरण एवं स्वरचित दोहे भी अभिनव
प्रयोग हैं | अतः वस्तुपरक व शिल्प सौन्दर्य के समन्वित दृष्टि भाव से ‘काल है
संक्रांति का’ एक सफल कृति है | इसके लिए श्री संजीव वर्मा सलिल जी बधाई के पात्र
हैं |
लखनऊ
. ---डा श्यामगुप्त
विजय दशमी सुश्यानिदी
के-३४८, आशियाना दि.११.१०.२०१६ ई
लखनऊ-२२६०१२.. मो.९४१५१५६४६४
.
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