....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
मेरी सद्य प्रकाशित आध्यात्मिक कृति--"ईशोपनिषद का काव्य भावानुवाद---डा श्याम गुप्त -----
----------------मेरी
सद्य प्रकाशित आध्यात्मिक कृति--"ईशोपनिषद का काव्य भावानुवाद ----इस कृति
में ईशोपनिषद जो यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय है जिसमें उपनिषदकार ने
१८ मन्त्रों में , मानव आचरण व व्यवहार हेतु भारतीय, वैदिक ज्ञान एवं जीवन
व्यवहार के सिद्धांतों का मूल प्रस्तुत कर दिया है, उसका सरल हिन्दी में
काव्य भावानुवाद प्रस्तुत किया गया है -----
प्रस्तुत है----
ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र ..”ईशावास्यम इदं सर्वं यद्किंचित जगत्याम जगत |”
”तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध
कस्यविद्धनम "
के प्रथम भाग..”ईशावास्यम इदं सर्वं
यद्किंचित जगत्याम जगत |” का
काव्य-भावानुवाद......
कुंजिका- इदं सर्वं =यह सब कुछ...यदकिंचित=जो कुछ भी ...जगत्याम=
पृथ्वी पर, विश्व में ...जगत= चराचर वस्तु है ...ईशां =ईश्वर से ..वास्यम=आच्छादित
है |
मूलार्थ- इस समस्त विश्व में जो कुछ भी चल अचल, जड़,चेतन वस्तु, जीव,
प्राणी आदि है सभी ईश्वर के अनुशासन में हैं, उसी की इच्छा /माया से आच्छादित/
बंधे हुए हैं/ चलते हैं|
ईश्वर माया से आच्छादित,
इस जग में जो कुछ अग-जग है |
सब जग में छाया है वह ही,
उस इच्छा से ही यह सब है |
ईश्वर में सब जग की छाया,
यह जग ही है ईश्वर-माया |
प्रभु जग में और जग ही
प्रभुता,
जो समझा सोई प्रभु पाया |
अंतर्मन में प्रभु को बसाए,
सबकुछ प्रभु का जान जो पाए |
मेरा कुछ भी नहीं यहाँ पर,
बस परमार्थ भाव मन भाये |
तेरी इच्छा के वश है नर,
दुनिया का यह जगत पसारा |
तेरी सद-इच्छा ईश्वर बन ,
रच जाती शुभ-शुचि जग सारा |
भक्तियोग का मार्ग यही है ,
श्रृद्धा भाक्ति आस्था भाये |
कुछ नहिं मेरा, सब सब जग
का,
समष्टिहित निज कर्म सजाये |
अहंभाव सिर नहीं उठाये,
मन निर्मल दर्पण होजाता|
प्रभु इच्छा ही मेरी इच्छा,
सहज-भक्ति नर कर्म सजाता ||
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