....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ईशोपनिषद के तृतीय मन्त्र .. ”असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता |
तांस्ते प्रेत्यभिगच्छन्ति ये के च आत्महनो जनाः ||”---का काव्य
भावानुवाद .
कुंजिका- असुर्या नाम =प्रकाश
रहित अन्धकार वाले लोक व योनियाँ है.. ते=जो...अन्धेन: तमसा = गहन अन्धकार से..आवृता=
आच्छादित हैं...तास्ते=उन योनियों को...अभिगच्छन्ति = प्राप्त होते हैं...ये के च
= जो कोइ भी, आत्महन: = आत्मा का हनन करने वाले,...जना: =मनुष्य....प्रेत्य= मरकर |
मूलार्थ- केवल इन्द्रियों व
शरीर के सुख पर निर्भर रहने वाले, आत्मा की आवाज़ के विरुद्ध आचरण करने वाले जो
मनुष्य हैं वे मृत्यु उपरांत ( या प्रेत की भांति, अतृप्त, असंतुष्ट ) घोर अन्धकार
युक्त, अज्ञान युक्त (रौरव नरक) की योनियों य लोकों में पड़ते हैं (अज्ञान के कारण
सदा कष्टमय जीवन भोगते हैं– परवर्ती पौराणिक काल में यही स्वर्ग-नरक अवधारणा का
मूल बना ) |
आत्मज्ञान के आत्मभाव के,
सद्पथ से विपरीत मार्ग पर |
आत्मा की आवाज न सुनकर,
चले जो आत्मघात के पथ पर |
आत्मतत्व के स्वयं प्रकाशित,
सहज सरल ऋजुमार्ग त्यागकर |
स्वविवेक, सदइच्छा, सदगुण,
सदाचरण की उपेक्षा कर |
भक्तिहीन वह लोभी भोगी,
अकर्मण्य वह आत्महीन जन |
अन्धकार अज्ञान तमस रत,
अंधकूप में गिरता जाता |
विविध अकर्म, अधर्म पापमय
कृत्यों में हो लिप्त वह मनुज |
जाने कितने असुरभाव युत,
पापपंक में घिरता जाता |
इन्द्रियवश कायासुख लोभी,
लिप्त अदा तेरे मेरे हित |
विविध प्रपंचों में रत, होता-
वंचित सुख आनंद शान्ति से |
विविध मोह माया में फंसकर,
भवबंधन में उलझा प्राणी |
कष्ट, दुखों के महाचक्र में,
भंवरजाल में घिरता जाता |
इसीलिये कहते ज्ञानी जन,
शास्त्र पुराण उपनिषद् सब ही |
विविध आसुरीवृत्ति धार वह,
प्राणी प्रेतयोनि पाता
है |
मृत्यु प्राप्ति पर आत्महीन वह,
आत्महननकारी स्वघाती |
अन्धकारतम युक्त गहनतम,
योनि व लोकों में जाता है ||
ईशोपनिषद के चतुर्थमन्त्र----अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत |
तद्धावतोsन्यानत्येति तिष्ठन्तिस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति || का काव्य भावानुवाद
..
कुंजिका--तद=वह ब्रह्म...अनेज़त=अचल...एकम=अकेला...मनसो जवीयो=मन से
भी अधिक वेग वाला..पूर्वम=प्रत्येक स्थान पर पहले से ही..अर्षत =पहुचा हुआ है...नैन=नहीं..आप्नुवन
=प्राप्त है...देवा= इन्द्रियों को..तत=वह ब्रह्म...धावत:=दौड़ते हुए...अन्यान=अन्य
सभी को...अत्येति= पीछे छोडे हुए है ..तिष्ठति= (स्वयं) अचल होते हुए भी
..तस्मिन्न = उस ( ब्रह्म के ) भीतर...मातरिश्वा=वायु..अपो=जलों को..दधाति=धारण
किये हुए है |
मूलार्थ- वह एकमात्र ब्रह्म अचल,स्थिर होते हुए भी मन से भी अधिक
वेग वाला है अतःप्रत्येक स्थान पर सबसे पहले पहुंचा हुआ रहता है, सदा उपस्थित है,
सर्वदा सर्वत्र व्याप्त है | वह इन्द्रियों का विषय नहीं है, इन्द्रियों द्वारा
नहीं प्राप्त/अनुभव नहीं किया जा सकता | उस ब्रह्म के भीतर उपस्थित वायु (मूल
ऊर्जा तत्व ) जलों अर्थात समस्त जग-जीवन को धारण करता है |
वह एक अकेला अचल अटल
गतिहीन न चलता फिरता है |
स्थिर है न कोई चंचलता ,
सब में ही समाया रहता है |
पर मन से अधिक वेग उसका,
सबके आगे ही है चलता |
हर जगह पहुंचता सर्वप्रथम,
सबको ही पीछे छोड जाता |
गतिवान है मन के वेग से भी,
अतः स्थिर सा लगता है |
हर जगह है पहले ही पहुंचा,
सब में ही समाया लगता है |
गति को भी स्थिर किये हुए,
सबको बांधे स्थिर रखता |
सब कहीं सब जगह सदा व्याप्त,
जग के कण-कण में सदा प्राप्त |
सब देव शक्तियां इन्द्रिय मन,
भी उसको नहीं जान पाते |
उन सबका पूर्वज वही एक,
फिर कैसे उसे जान जाते |
वह ब्रह्म ज्ञान का विषय नहीं,
जो स्वयं ज्ञान का सृष्टा है |
इन्द्रियों को भी वह प्राप्त कहाँ,
वह स्वयं सभी का दृष्टा है |
स्थिर है किन्तु श्रेष्ठ धावक,
सब जग को जय कर लेता है |
दौड़ते हुए जग कण कण को,
अपने वश में कर लेता है |
सारे जल एवं सभी वायु,
जल वायु अग्नि पृथ्वी और मन |
हैं स्थित उसके अंतर में,
वह स्थित सभी चराचर में |
सब प्राण कर्म प्रकृति-प्रवाह ,
उससे ही सदा प्रवाहित हैं|
वह स्वयं प्रवाहित है सब में,
कण कण में वही समाहित है |
सारे जग का वह धारक है,
जग उसको धारण किये हुए |
कण कण के कारण-कार्यों का,
वह एक ब्रह्म ही कारक है ||