....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ईशोपनिषद के पंचम मन्त्र –
तदेजति
तन्नैजति तद्दूरे तद्द्वन्तिके |
तदन्तरस्य
सर्वस्य तदु सर्वस्यास्त बाह्यतः || का काव्य भावानुवाद....
कुंजिका- तत=वह ब्रह्म...एज़ति=गति देता है....नैज़ति=स्वयं गति में
नहीं आता...तद्दूरे=वह दूर है....तद्द्वंतिके=वह समीप भी है...तद अंतरस्य सर्वस्य
=वह सबके अन्दर है...सर्वस्यास्त बाह्यत=सबसे बाहर भी है|
मूलार्थ - वह ब्रह्म सबको गति देता है परन्तु
स्वयं गति में नहीं आता | वह दूर भी है और समीप भी | वह सबके अंतर में स्थित है और
सभी को बाहर आवृत्त भी किये हुए है, सब कुछ उसके अन्दर भी स्थित हैं |
वह दूर भी है और पास भी है,
चलता भी है, चलता भी नहीं |
वह ब्रह्म स्वयं हलचल से रहित,
जग हलचलमय कर देता है |
सबके अंतर का वासी है,
पर स्वयं सभी से बाहर है |
सब को आच्छादित किये हुए |
सबसे आच्छादित रहता है |
वह अचल अटल गतिहीन स्वयं,
कण कण में गति भर देता है |
जड़ प्रकृति की निष्क्रियता को,
वह सक्रिय सृष्टि कर देता है |
‘एकोsहँ बहुस्याम’ इच्छा-
रूपी ऊर्जा से महाकाश |
ऊर्जस्वित संचारित होता ;
कण-कण में हलचल भर जाती |
स्थूल-सूक्ष्म सब भूत-प्रकृति ,
जड़-जंगम की उत्पत्ति हेतु |
जब सक्रिय सृष्टि-क्रम बन जाते,
वह स्वयं पूर्ण-क्रम हो जाता|
वह आत्मतत्व स्थित स्थिर,
परमात्मतत्व सर्वत्र व्याप्त |
अदृश्य, दृश्य सबका दृष्टा,
दिक्-काल परे, दिक्-काल व्याप्त |
सबका धारक, सबमें धारित,
निष्कंप सूक्ष्म बहु वेगवान |
परिमित में रहकर अपरिमेय,
वह एक ब्रह्म ही है महान ||
----क्रमश षष्ठ मन्त्र-----
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें