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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 26 जून 2017

पुस्तक-----ईशोपनिषद का काव्य भावानुवाद ----- पंचम मन्त्र – . डा श्याम गुप्त

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



ईशोपनिषद के पंचम मन्त्र –
       तदेजति तन्नैजति  तद्दूरे तद्द्वन्तिके  |
       तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्त बाह्यतः ||    का काव्य भावानुवाद....   

कुंजिका- तत=वह ब्रह्म...एज़ति=गति देता है....नैज़ति=स्वयं गति में नहीं आता...तद्दूरे=वह दूर है....तद्द्वंतिके=वह समीप भी है...तद अंतरस्य सर्वस्य =वह सबके अन्दर है...सर्वस्यास्त बाह्यत=सबसे बाहर भी है| 

मूलार्थ - वह ब्रह्म सबको गति देता है परन्तु स्वयं गति में नहीं आता | वह दूर भी है और समीप भी | वह सबके अंतर में स्थित है और सभी को बाहर आवृत्त भी किये हुए है, सब कुछ उसके अन्दर भी स्थित हैं |                   


वह दूर भी है और पास भी है,
चलता भी है, चलता भी नहीं |
वह ब्रह्म स्वयं हलचल से रहित,
जग हलचलमय कर देता है |

सबके अंतर का वासी है,
पर स्वयं सभी से बाहर है |
सब को आच्छादित किये हुए |
सबसे आच्छादित रहता है |

वह अचल अटल गतिहीन स्वयं,
कण कण में गति भर देता है |
जड़ प्रकृति की निष्क्रियता को,
वह सक्रिय सृष्टि कर देता है |

‘एकोsहँ बहुस्याम’ इच्छा-
रूपी ऊर्जा से महाकाश |
ऊर्जस्वित संचारित होता ;
कण-कण में हलचल भर जाती |


 स्थूल-सूक्ष्म सब भूत-प्रकृति ,
जड़-जंगम की उत्पत्ति हेतु |
जब सक्रिय सृष्टि-क्रम बन जाते,
वह स्वयं पूर्ण-क्रम हो जाता|

वह आत्मतत्व स्थित स्थिर,
परमात्मतत्व सर्वत्र व्याप्त |
अदृश्य, दृश्य सबका दृष्टा,
दिक्-काल परे, दिक्-काल व्याप्त |

सबका धारक, सबमें धारित,
निष्कंप सूक्ष्म बहु वेगवान |
परिमित में रहकर अपरिमेय,
वह एक ब्रह्म ही है महान ||



----क्रमश षष्ठ मन्त्र-----



















 

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