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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

बुधवार, 14 मार्च 2018

भारतीय धर्म, दर्शन राष्ट्र -संस्कृति के विरुद्ध उठती हुई नवीन आवाजें व उनका यथातथ्य निराकरण --पोस्ट चार----- डा श्याम गुप्त ---

                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

भारतीय धर्म, दर्शन राष्ट्र -संस्कृति के विरुद्ध उठती हुई नवीन आवाजें व उनका यथातथ्य निराकरण --- डा श्याम गुप्त ---
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----- एक धारावाहिक क्रमिक आलेख--पोस्ट चार  ------
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आजकल हमारे देश में गोंड आदिवासी दर्शन और बहुजन संस्कृति व महिषासुर के नाम पर एक नवीन विरोधी विचारधारा प्रश्रय पा रही है जिसे महिषासुर विमर्श का नाम दिया जारहा है |
-------- जिसमें जहां सारे भारत में समन्वित समाज की स्थापना के साथ धर्मों व प्राचीन जातियों आदि का अस्तित्व नहीं के बरावर रह गया था, अब असुर, नाग, गोंड आदि विभिन्न जातियों वर्णों को उठाया जा रहा है |
--------- भ्रामक विदेशी ग्रंथों आलेखों में आर्यों को भारत से बाहर से आने वाला विदेशी बताये जाने के भारत में फूट डालने वाले षडयन्त्र से भावित-प्रभावित वर्ग द्वारा इंद्र, आदि देवों को आर्य एवं शिव व अन्य तथाकथित असुर व नाग, गोंड आदि जातियों भारत की मूल आदिवासी बताया जा रहा है | वे स्वयं को हिन्दू धर्म में मानने से भी इनकार करने लगे हैं
---------यहाँ विभन्न आलेखों, कथनों, प्रकाशित पुस्तकों में उठाये गए भ्रामक प्रश्नों व विचारों, कथनों का हम एक एक करके उचित समाधान प्रस्तुत करेंगे जो ***** ४० कथनों-समाधानों एवं उपसंहार के रूप में *****प्रस्तुत किया जाएगा, विभिन्न क्रमिक ११ आलेख-पोस्टों द्वारा ----
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आगे ---पोस्ट चार  --- कथन/समाधान १५  से १७  तक--



कथन १५- सामान्य बुद्धि भी यह बतलाती है कि ऐसा इतिहास लिखकर आर्य अपने वंशजों की नजर में महान नहीं बन सकते थे। इसीलिये उन्होंने ऐसा इतिहास न लिखने का निर्णय लिया और इस इतिहास की बजाय मिथक रचे जिनमें न तर्क था न कोई  न्यायबोध था न नैतिकता ही थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि आततायी आर्य अविकसित और बर्बर थे,  बल्कि यह भी स्पष्ट होता है कि मूलनिवासी असुर अधिक नैतिक थे प्रकृति, जीवन, बहुलता, सृजन और स्त्रियों का बहुत सम्मान करते थे, वे अधिक सभ्य और विकसित थे। आक्रामक और युद्धखोर घुमक्कड़ आर्यों के विपरीत वे खेतिहर समाज थे। उनका दर्शन भी प्रकृति और प्राकृतिक शक्तियों का दर्शन था जो कि बहुत हद तक भौतिकवादी दर्शन था। 
समाधान -१५-- निश्चय ही असुरों,  अनार्यों का भौतिकवादी दर्शन था, यथा आज भी पाश्चात्य संस्कृति का है, जिसे शिव-विष्णु समन्वय संधि द्वारा उच्चतम संस्कृति संस्थापन के साथ अध्यात्मिक धरातल पर लाया गया जो आज भी कायम है | जैसे जैसे मानव समाज सांस्कृतिक रूप से उन्नत होता है भौतिकवाद से दूर होता जाता है एवं अध्यात्मवाद,  न्यायबोध,  नियम, नैतिकता, मनोविज्ञान, धर्म, दर्शन, ईश्वर की ओर उसका झुकाव होता जाता है जो आज भी व सदा से भारतीय जनमानस का दर्शन है |
     भारतीयों ने महान बनने हेतु नहीं अपितु मानवता के सांस्कृतिक विकास हेतु ही सारे कार्य किये, इसीलिये उन्होंने कभी अपने नाम से इतिहास नहीं लिखा अपितु मानव के सांस्कृतिक विकास के इतिहास की कहानियां लिखीं जो पुराणों आदि में वर्णित हैं, जिन्हें सामान्य बुद्धि वाले भौतिकवादी नहीं समझ सकते | यदि आर्य बर्बर होते तो आज भारत में नाग, असुर आदि जातियों का नामो-निशाँ नहीं होता | नैतिकता भारतीय मिट्टी की ख़ास बात है अतः समन्वय के उपरांत सुर असुर आर्य अनार्य सभी नैतिकता को मानते थे और त्रिदेवों को पूज्य |
 कथन १६- मूलनिवासी असुरों और आदिवासियों की समाज रचना बहुत हद तक मातृसत्तात्मक थी  और उनके विश्वास प्रकृति पूजकों के विश्वास थे। वे इश्वर जैसी किसी सत्ता की बजाय प्रकृति की शक्ति में भरोसा करते थे और वे  स्त्री की उर्वरता और प्रकृति या भूमि की उर्वरता में एक सीधा संबंध देखते थे। इसीलिये उनके अधिकाँश त्यौहार स्त्री केन्द्रित थे और परिवार व्यवस्था में स्त्री को पुरुषों से अधिक अधिकार प्राप्त थे (Chattopadhyaya,1992)। आज भी अधिकाँश जनजातीय समाजों में मातृसत्तात्मक व्यवस्था के अवशेष देखे जा सकते हैं। मध्य प्रदेश के बलाघाट, छिंदवाडा, बेतुल, मालवा निमाड़ सहित अन्य अनेक जिलों में गोंड, कोरकू, भील, बैगा जैसे आदिवासियों में विवाह और परिवार की व्यवस्था में स्त्रियों को अधिक अधिकार प्राप्त हैं। देश के अन्य राज्यों में भी जनजातीय समाजों में वधुमूल्य की प्रथा है, जबकि आर्य अर्थात ब्राह्मण धर्म को मानने वाले समाजों में इसके विपरीत दहेज़ की प्रथा है।

समाधान १६- केवल असुर यहाँ के मूल निवासी कैसे हुए जबकि देवता व दैत्य भाई भाई थे, अतः सिद्ध होता है कि तथाकथित आर्य भी मूल रूप से भारत के ही निवासी थे, बाहरी आक्रमणकारी नहीं |
    विश्व भर में सभी प्रारम्भिक प्राचीन समाजों में रचना मातृसत्तात्मक व प्रकृति पूजक थी, आज भी भारत में यह प्रथा अवशेष रूप में है जिसका अर्थ है कि व्यवहार में वे क्षेत्र विकास में पिछड़ते रहे | प्रकृति पूजा तो वेदों में भी वर्णित है और आज भी भारत भर में प्रत्येक जाती, धर्म व वर्ण में मौजूद है | यही तो भारतीय समन्वित समाज की व्यवस्था की परिचायक है | सारे भारत में सभी त्यौहार आज भी स्त्री केन्द्रित ही हैं लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, काली, होलिका आदि स्त्रियाँ ही सभी त्यौहारों की अधिष्ठात्री हैं और स्त्रियाँ ही मनाने वाली प्रमुख कर्त्री |  बधू मूल्य  एक गर्हित प्रथा है और यह प्रथा आर्यों में भी विशिष्ट परिस्थितयों में प्रचलित थीयथा माधवी की कथा, जिसमें उसे एक विशिष्ट कार्य संधान हेतु विक्रय किया गया था जिसे कभी सराहा नहीं गया | विकास के साथ यह प्रथा समाप्त होगई | दहेज़ की कुप्रथा मुस्लिम काल में आई जो समस्त भारत में फ़ैली जिसे अब मिटा दिया गया है |
    लेखक को धर्म, समाज आदि का पूर्ण ज्ञान नहीं है आर्य केवल ब्राह्मण नहीं अपितु मूलतः छत्रिय होते थे---आर्य एक समाज था जिसमें सभी वर्ग के (चारों वर्ण ) मनुष्य थे | ब्राह्मण भी कोइ धर्म नहीं है अपितु हिन्दू धर्म का एक वर्ग/वर्ण है |

कथन-१७.- आदिवासी समाजों में तलाक और पुनर्विवाह के बहुत सरल नियम हैं जिनमे स्त्रियों और पुरुषों दोनों को सुविधा प्राप्त है, और महिलाओं को बहुत अलग तरह से अधिकार देती हैं। आर्यों की भांति इनके समाजों में विवाह एक जन्म-जन्म का दुर्निवार बंधन नहीं माना जाता जिसे कि तोड़ा ही नहीं जा सकता हो।
------ बस्तर के आदिवासियों में घोटुल नामक संस्था के उल्लेख भी पाए जाते हैं। यह व्यवस्था असल में स्त्री पुरुष दोनों को जीवन साथी चुनने के समान अधिकार देती है। घोटुल नामक व्यवस्था कई समाजशास्त्रीय और मानवशास्त्रीय अर्थों में बस्तर के मुरियाओं, गोंडों, बैगाओं और उत्तर पूर्व के नागाओं सहित बिहार के मुंडाओं को आपस में जोडती है (Von Fürer et all, 1982)
----- प्राचीन जनजातीय समाजों में बहुपति व्यवस्था भी पाई जाती थी जिसमे पुनः स्त्री को केन्द्रीय स्थान प्राप्त था। इस प्रकार विस्तार में देखा जाए तो मातृसत्तात्मक परिवार, वधुमूल्य, घोटुल, विवाह, पुनर्विवाह और तलाक में स्त्री अधिकारों का होना और सबसे प्रमुख स्त्री की उर्वरा शक्ति को प्रकृति की उर्वरा शक्ति से जोड़कर देखना एक बहुत प्राचीन भारतीय भौतिकवादी दर्शन की तरफ इशारा करता है। इसे लोकायत दर्शन कहा गया है और इसकी परिभाषा लोकेषु आयतःके रूप में की गयी है, अर्थात इस लोक का दर्शन जिंसमे प्रकृति और उसकी शक्तियों को सर्वोपरि माना जाता है | शंकराचार्य ने भी लोकायत को प्राकृत जनाःका दर्शन माना है और इसे हीन दर्शन या भौतिकवादियों का दर्शन बताया है |(Chattopadhyaya,1992) । इस दर्शन में कृषि से जुड़े कर्मकांडों में स्त्री की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण मानी गयी थी। इसीलिये प्राचीन जनजातियों में ग्राम देवियों सहित वन देवियों की मान्यता बहुत अधिक पायी जाती हैं।
समाधान-१७-पुराकाल में समस्त भारत में, आर्यों के समय भी, स्त्रियाँ स्वतंत्र थीं चाहे जिस पुरुष को वरने हेतु एवं चाहे जब तक किसी के साथ रहने हेतु| इन प्रथाओं के शारीरिक व सामाजिक दुष्परिणाम देखकर महर्षि उद्दालक के शिष्य श्वेतकेतु के समय विवाह संस्था अस्तित्व में आई, एवं विवाह जन्म जन्म के बंधन के रूप में प्रचलित हुआ | मानव इतिहास में सर्वप्रथम प्रेम, प्रेमविवाह व विवाह भगवान् शिव का ही उद्धृरित है जो दक्षिण भारतीय देवता थे, समस्त देव, दानव, असुर, नाग मानव आदि के मान्य देवता महादेव एवं समस्त भारतीय मानव समन्वय के सबसे बड़े नेतृत्व थे | बहुपति व्यवस्था भी मातृसत्तात्मक समाज के दोषों के कारण समय के साथ समाप्त होगई | घोटुल व्यवस्था भी आदि वनवासी समाज की व्यवस्था है जो विकास में पिछड़े रह गए |
----यह सब वनसभ्यता के समय की बातें हैं जब केवल खाना पीना सोना ही उद्देश्य था मानव का, एवं संसार की सभी सभ्यता-संस्कृतियों में यही सब बातें थीं, मानव विकास के साथ इस दर्शन को अधूरा मानकर समाप्त अमान्य कर दिया गया | आज भी पथवारी देवी, गोवर्धन पूजा, वट सावित्री, पीपल वृक्ष पूजा आदि विभिन्न नामों से संस्कृति के ये सभी चिन्ह सम्पूर्ण देश की सभी संस्कृतियों, जातियों में पाए जाते हैं, केवल आदिवासी जगत में ही नहीं | अर्थात लोकायत भौतिकवादी दर्शन जीवन के समन्वयवादी वैदिक-आध्यात्मिक-भौतिकवाद  दर्शन में आत्मसात होगया | यही विशेषता है हिन्दू वैदिक धर्म की जिससे धर्म की जड़ सदा हरी रहती है 
 

    ---क्रमश --पोस्ट पांच -----

 

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