....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
श्याम स्मृति---२१ से २५ तक-----
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श्याम स्मृति---२१ से २५ तक-----
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श्याम स्मृति-२१. ईश्वर की आवश्यकता ....
आखिर हमें उस ईश्वर की आवश्यकता ही क्या
है जो अतनी सुन्दर दुनिया या समाज को त्याग कर मिले | ईश्वर की आवश्यकता उन्हें है जो ईश्वर
के अभाव में दुखी हैं | यदि कोई संसार में रहकर, संसार को पाकर, संसार में
लिप्त रहकर प्रसन्न है तो उसे ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है | जो सारा संसार
पाकर दुखी नहीं है उसे भी ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है | सिर्फ समझना यह है कि हैं क्या वे सुखी
हैं |
हमें ईश्वर हरस्थान पर, हरपल प्राप्य
है परन्तु संसार में सुखपूर्वक उलझे रहने के कारण उसकी आवश्यकता व उपस्थिति अनुभव नहीं
करते|नास्तिक कहते हैं वे ईश्वर को नहीं मानते अपितु एक स्वचालित व्यवस्था की
सत्ता है जो विश्व को चलाती है,वही तो भक्तजनों का ईश्वर है| ईश्वर को न मानना भी तो उसके अस्तित्व का मन में होना ही है |
वो कहते हैं कि ईश्वर कहीं नहीं है |
कभी किसी ने कहीं देखा नहीं है |
मैं कहता हूँ ज़र्रे ज़र्रे में है काबिज़-
बस खोजने में ही कमी कहीं है |
श्याम स्मृति -२२. पुरुषवादी मानसिकता ....
आजकल एक शब्द-समूह अधिकाँश सुना, कहा व लिखा जा रहा है वह है 'पुरुषवादी मानसिकता', प्राय: नारीवादी लेखिकाएं, सामाजिक कार्यकर्त्री, प्रगतिशील तेज तर्रार नारियां व समन्वयक पुरुष सभी, स्त्री सम्बंधित घटनाओं, दुर्घटनाओं, अनाचार, अत्याचार, यौन उत्प्रीणन आदि सभी के सन्दर्भ में पुरुषवादी सोच व मानसिकता का रोना रोया जाता है | यदि पुरुष में पुरुषवादी सोच व मानसिकता नहीं होगी तो और क्या होगी, तभी तो वह पुरुष है | क्या स्त्री अपनी स्त्रियोचित सोच व मानसिकता को बदल सकती है, त्याग सकती है, नहीं, यह तो प्रकृति-प्रदत्त है, .अपरिवर्तनशील |
यह असंगत है, समस्या के मूल से भटकना | किसी दुश्चरित्र पुरुष के कार्यकलापों का ठीकरा क्या समस्त आधी दुनिया, सारे पुरुष वर्ग पर फोड़ना क्या उचित है !
वस्तुतः यह सोचहीनता का परिणाम है, कृत्य-दुष्कृत्य करते समय व्यक्ति यह नहीं सोच पाता कि वह स्त्री किसी की बहन, पुत्री, माँ, पत्नी है..ठीक अपनी स्वयं की माँ, बहन, पुत्री, पत्नी की भांति | निकृष्ट व आपराधिक व आचरणहीनता की विकृत मानसिकता युक्त व्यक्ति ऐसी सोचहीनता से ग्रस्त होता है एवं स्त्रियों को सिर्फ कामनापूर्ति, वासनापूर्ति, वासना की पुतली, सिर्फ यौन तुष्टि का हेतु समझता है| नारी का मान, सम्मान, स्वत्व का उसके लिए कोई मूल्य नहीं होता | यह चरित्रगत कमी व अक्षमता का विषय है जो विविध परिस्थितियों, आलंबन व उद्दीपन-निकटता, आसंगता, स्पर्शमयता, आसान उपलब्धता से उद्दीप्तता की ओर गमनीय होजाते हैं|
आज स्त्रियों में पुरुष-समान कार्यों में रत होने के कारण उनमें स्त्रेंण भाव कम होरहा है व पुरुष भाव की अधिकता है अतः उनमें पुरुष के पुरुष भाव की शमनकारी व स्वयं के स्त्रेंण भाव के उत्कर्ष का भाव नहीं रहा, फलतः पुरुष में प्रतिद्वंद्विता भाव युत आक्रामकता बढ़ती जा रही है जिसे पुरुष मानसिकता से संबोधित किया जा रहा है |
श्याम स्मृति—२३. साहित्य की विंडम्बना.....
मुझे लगता
है यह विडम्बना ही है, कि एक ओर तो हम एकाक्षरी-द्वयाक्षरी आदि छंद के रूप में हर छंद
आखर-शब्द को ही छंद मानते हैं, बालक द्वारा प्रथम शब्द..माँ ..एकाक्षरी
छंद ही है आदि आदि | दूसरी ओर मुक्तछंद, अतुकांत-छंद आदि को अछूत | वस्तुतः हमारी सनातन छंद परम्परा तो देववाणी
संस्कृति के अतुकांत-छंदों से ही है | जब संस्कृत भाषा ज्ञान के तप, साधना, व धैर्य की
कमी के कारण तालबद्धता व संगीतमयता की विलुप्ति से संस्कृत का जन साधारण द्वरा प्रयोग
में ह्रास हुआ, जनभाषा प्राकृत व अपभ्रंश से होते हुए हिन्दी तक आई तो तुकांत छंदों का
आविर्भाव हुआ और तुकांत कविता मुख्य हुई | परन्तु हिन्दी साहित्यकारों द्वारा मुक्तछंद काव्य
व अतुकांत रचनाओं की प्रस्तुति भी होती रही| मैथिली शरण गुप्त जी के खंडकाव्य ‘सिद्धराज
में देखें –
तो फिर-
सिद्धराज क्या हुआ
मर गया हाय,
तुम पापी प्रेत उसके |
कविता का
पतन तकनीक के कारण नहीं हुआ अपितु भाव दोषों के कारण हुआ| कथ्यों व विषय-भाव का तादाम्य, तथ्यों की
वास्तविकता व सत्यता, सहज भाषा-शैली व स्पष्ट सम्प्रेषणता
का गौण होजाना एवं तकनीक छंद-तकनीक, तुकांत-अतुकांत के
विवाद, विषय-ज्ञान की अल्पज्ञता, क्लिष्ट शिल्प
व नए-नए शब्दों का आडम्बर आदि के कारण | स्वतन्त्रता के पश्चात हम काव्य के विषय
चुनने में भटक गए कोई लक्ष्य ही नहीं रहा | पाश्चात्य हलचल की चकाचौंध में हम पूर्व
व पश्चिम के जीवन तत्वों व व्यवहार में तादाम्य व समन्वय नहीं कर पाए | भौतिक सुखों
व धनागम के ताने-बाने, उपकरण, साधन चुनते-बुनते हम साहित्य में भी अपने स्वदेशी
विषय-भावों से भटककर जीवन के वास्तविक आनंद से दूर होते गए | विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों, मनीषियों
ने अपने कर्त्तव्य नहीं निभाये | समाज के इसी व्यतिक्रम ने व्यक्ति को कविता व साहित्य
से क्या दूर किया जीवन से ही दूर कर दिया | और चक्रीय प्रतिक्रया-व्यवस्थानुसार
स्वयं साहित्य भी व्यक्ति से दूर जाने लगा |
श्याम स्मृति-२४. एकै साधे सब सधै...
उद्धरणों सूक्तियों, लोकोक्तियों
को पूर्णतया सम्पूर्ण रूप में तथा पूर्ण अर्थ-निष्पत्ति में लेना चाहिए | होता यह है
कि प्रायः हम अपने मतलब के अर्थ वाले शब्द समूहों को प्रयोग में लाते रहते हैं जो आधा-अधूरा फल
देते हैं| आजकल ‘एकै साधे सब सधै...’ के अर्थ-भाव को लेकर
सभी चल रहे हैं अतः सेवा –साहित्य के क्षेत्र में भी तमाम नयी नयी संस्थाएं, संस्थान, वर्ग, गुट आदि खड़े
होते जा रहे हैं| कोई एक लाख बृक्ष लगाने का संकल्प लिए बैठा है, कोई
धरती को हरित बनाने का, जल बचाने का, कोई पर्यावरण सुधार का तो कोई नारी उद्धार
का झंडा उठाये हुए है | कोई वृद्धों की सेवा का तो कोई फुटपाथ के गरीब बच्चों
के खाने पीने के प्रवंधन का | तमाम साहित्यिक बंधु, राजनैतिक
व्यक्ति, पत्र-पत्रिकाएं विविधि विषयों पर चिंता व चिंतन कर रहे
हैं |
इससे उन सभी व्यक्ति, वर्ग, ग्रुप, संस्था व पत्र-पत्रिका आदि को नाम व प्रसिद्धि मिलती
है, बड़े पुरस्कार भी प्राप्त हो जाते हैं, होते रहे हैं | वे समाज के सेलीब्रिटी बन जाते हैं, अर्थात उनका
प्रायः सब कुछ सध जाता है | परन्तु क्या वे उद्देश्य व साध्य पूरे हो पाते हैं ? वर्षों-वर्षों से ये पेड़ लगाए जा रहे हैं परन्तु क्या भारत हरित होपाया
है, क्या गरीबी कम हुई है, फुटपाथें खाली हुई
हैं, स्त्री पर हिंसा व अत्याचार कम हुए हैं?
वास्तव में हम उस दोहे की प्रथम पंक्ति में मस्त, आगे के कथन
का अर्थ-भाव भूल जाते हैं ..’ जो तू सेवै मूल को....” | ये सारे कृतित्व व कार्य बृक्ष की शाखाएं ही हैं| शाखाओं को
पनपने से रोकना, पनपने हेतु जलधार से सींचना भी एक उद्देश्य हो सकता है, परन्तु जब
तक मूल के उच्छेद, सेवा या सिंचन का एक साध्य नहीं अपनाया जाएगा समस्याओं
का उच्छेद कैसे होगा?
मानव की समस्याओं का मूल क्या है ? निश्चय ही मानव-आचरण | खांचों में
प्रयत्न की अपेक्षा यदि चिंता, चिंतन व कृतित्व इसी मूल, मानव के आचरण सुधार के प्रति
हों तो सभी समस्याएं स्वयमेव ही समाप्ति की ओर प्रयाण करने लगेंगी | कहने की
आवश्यकता नहीं है कि प्रत्येक विज्ञजन मानव आचरण के बारे में जानता है, पर उसपर
चिंतन नहीं करता, उसपर चलता नहीं है, उन्हें दैनिक जीवन के अभ्यास व कर्तव्यपालन का
अंग नहीं बनाता |
श्याम स्मृति -२५. आवश्यकता
और प्रथा ...
मैंने पूछा- अमेरिका कैसा लगा, वे बोले
बहुत सुन्दर, बहुत उन्नत, वे बहुत आगे हैं हमसे, हम १०० साल में भी उन तक नहीं
पहुँच सकते | ‘१०० क्या हम १००० वर्ष में भी उन तक नहीं पहुँच सकते’, मैंने कहा,
क्यों पहुंचेंगे...क्यों पहुँचना चाहेंगे ?
सच ही कहते हैं वे पश्चिम वाले कि हम
भारतीय मूर्तियाँ व मंदिर तो सजाते रहते हैं, सुरक्षित रखते हैं परन्तु अपनी भौतिक
वस्तुओं, स्थानों, तथ्यों को सुरक्षित नहीं रखते | क्यों रखेंगे ? चित्र व
मूर्तियों पर नाम नहीं होते जो कर्ता व कृतित्व का भ्रम व अहं प्रदर्शित करते हैं
| वह नया-नया देश है, नया इतिहास, कम
आबादी, कम व नई नई समस्याएं व समाधान, सब कुछ सरल है | जिन्हें हम जाने कब के झेल
व सुलझा चुके हैं, हमारी समस्याएं अन्य हैं गंभीर, पुरातन संस्कृति व समृद्धि से
संवंधित, भिन्न आवश्यकताएं, भिन्न प्रथाएं, जाने कितने दर्शनीय व श्रृद्धा
युक्तस्थल | वे नए हैं, न प्रथाओं का झंझट न संस्कृति का, छोटे-छोटे गड्ढों,
दीवारों, जलाशयों को भी सजा संवार कर रखते हैं दर्शनीय स्थल बनाकर | उद्दश्य ही है -खाओ-पीयो मौज करो और ‘नया
मुल्ला प्याज अधिक खाता है’|
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