२९.छोटी सी गोली
डाक्टर साहब,चेकअप तो किया ही नहीं, इस छोटी सी गोली से क्या होगा|
डाक्टर ने सिर उठाकर देखा, सामने एक सुन्दर से कालिजियेट नवयुवक पर निगाह पडी, मुस्कुराकर पूछा, ‘किसके लडके हो?’
‘जी, राय बहादुर दीनानाथ एडवोकेट के| ‘
‘क्या पढ़ते हो ?’
‘ बीएससी (विज्ञान) का छात्र हूँ|’
‘तो विज्ञान छोड़कर
कुछ और विषय लेलो| कैसे उत्तीर्ण होगे ! पर हाँ, उत्तीर्ण तो हो ही जाओगे, परन्तु कुछ बेसिक ज्ञान भी तो होना ही चाहिए|’
‘क्या मतलब, युवक ने कुछ त्योरी चढाकर पूछा |’
‘मेरे दोस्त!’ डाक्टर साहब बोले, ‘जिसे अपने विषय की
एबीसी न पता हो वह क्या कर पायेगा|’
‘आपको कैसे पता’, युवक कुछ नाराज़गी में बोला|
‘क्या तुमने एटम की
जादुई शक्ति के बारे में पढ़ा है!’
‘हाँ, क्यों नहीं |’
‘हाँ पढ़ा होगा, पर परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए|’ आजकल स्कूल-कालेजों में भी तो
बस परीक्षा पास करने की कला सिखाई जाती है| ‘यदि व्यक्ति अपने
ज्ञान-विज्ञान को सामान्य दैनिक व्यवहार व जीवन में उपयोग नहीं कर
पाता, तो उस विद्या का क्या लाभ?’
‘ जी..ss,वह असमंजस की स्थिति में बोला|’
गलती तुम्हारी नहीं है, पहली पीढी की है जो गुलामी में जन्मी और वही गुलामी के
संस्कार उसकी आत्मा में हैं| उन्होंने विदेशी
समाज के सारे आचार, व्यवहार, विचार ज्यों की
त्यों अपना लिए हैं, स्वयं की, अपने देश की सांस्कृतिक व समन्वयक-वैज्ञानिक सोच के साथ नही| अतः इन्हें विरासत में मिली है मानसिक दासता, अभारतीय आचार संहिता, दिग्भ्रमिता और वही
तुम्हारी पीढी की विरासत है|
‘मैं समझा नहीं, युवक बोला |’,
‘समझो भी मत, समझोगे तो सब झोड़कर भागने लगोगे | जाओ, ठन्डे पानी के साथ
ले लेना, एक एक गोली सुबह-शाम | अवश्य असर करेगी |’
३०. दो का पहाड़ा...
लगातार चार दिनों तक पढ़ाने, सिखाने, रटाने, समझाने पर, यहाँ तक छड़ी से
पिटाई करने के पश्चात भी मुझे दो का पहाड़ा याद नहीं हो पाया तो पिताजी ने हाथ खड़े कर दिए, ये कहते हुए कि ‘ये तो कूढ़ मगज है, ये नहीं पढ़ पायेगा| पता नहीं आगे जाने
क्या करेगा, क्या घास छीलेगा| ‘
मेरी बड़ी बहन ने जोर देकर कहा, ‘आखिर तुम क्यों नहीं याद कर लेते हो ?’ ‘ये तो बड़ा ही मुश्किल काम है, इतने सारे पहाड़े याद करना | मुझे नहीं लगता इनको रटने की कोई अधिक जरूरत है|’ मैंने कहा |
बहन ने समझा कर कहा, ‘भैया! अगर तुम ये पहाड़े
याद नहीं करोगे तो तुम पहली बार गणित के सवालों को हल कैसे करोगे, गुणा-भाग कैसे करोगे? इसके अलावा कोई और रास्ता ही नहीं है|’
अगले दिन मैंने दो का पहाडा सीख लिया और सभी को
आश्चर्य में डालते हुए आगे बीस तक पहाडे कंठस्थ कर लिए |
३१.जीव सृष्टि की कहानी – नर से भारी नारी, नारी से सृष्टि सारी ...
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी अत्यंत चिंतित व गंभीर थे कि मैं इस प्रकार कब तक
मानवों, प्राणियों को बनाता रहूँगा कोई निश्चित स्वचालित प्रणाली
होनी चाहिए कि जीव स्वयं ही उत्पन्न होता जाये| वे समाधान सोचने में व्यस्त होगये| वास्तव में जीव की अदृष्ट भाव-सृष्टि व रूप-सृष्टि—महत्तत्व, चेतन, त्रिगुण, सत तम रज, इन्द्रियाँ, मन, विविध भाव रूप, गुण, भाव-शरीर आदि की सृष्टि के पश्चात ब्रह्मा ने वास्तविक दृश्य-भौतिक जीव शरीर सृष्टि की उत्पत्ति प्रारम्भ की|
सर्वप्रथम
ब्रह्मा ने चार मानस पुत्र, सनक,सनंदन,सनातन,सनत्कुमार बनाए जो योग साधना में लीन होगये| पुनः संकल्प से १० प्रजापति ९ पुत्र एवं ९ पुत्रियां उत्पन्न कीं परन्तु
सभी साधना लीन रहते थे|
यद्यपि ये सभी संकल्प द्वारा संतति प्रवृत्त थे परन्तु कोई निश्चित सतत स्वचालित प्रक्रिया व क्रम नहीं था अतः ब्रह्मा का जीव-सृष्टि सृजन कार्य का तीब्र गति से प्रसार नहीं होरहा था, सृष्टि क्रम समाप्त नही हो पा रहा था| ब्रह्मा चिंतित व
गंभीर समस्या के समाधान हेतु मननशील थे कि वे इस प्रकार कब तक मानवों, प्राणियों को बनाते रहेंगे| कोइ निश्चित स्वचालित प्रणाली होनी चाहिए कि जीव स्वयं ही
उत्पन्न होता जाये एवं मेरा कार्य समाप्त हो |
चिन्तित
ब्रह्मा ने पुनः प्रभु का स्मरण किया व तप किया| उनके ललाट से अर्ध-नारीश्वर (द्विलिन्गी) रूप में रूद्रदेव जो शम्भु-महेश्वर व माया का सम्मिलित रूप था, प्रकट हुए, जिसने स्वयम को- क्रूर-सौम्या; शान्त-अशान्त; श्यामा-गौरी; शीला-अशीला आदि ग्यारह नारी भाव एवम ग्यारह पुरुष भावों में विभक्त किया।
ये ग्यारह -स्थायी भाव जो अर्धनारीश्वर-भाव में उत्पन्न हुए क्रमश: रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, घृणा, विस्मय, निर्वेद, संतान प्रेम, समर्पण थे। रुद्रदेव के ये सभी ग्यारह-ग्यारह स्त्री-पुरुष भाव सभी
जीवों में समाहित हुए |
ब्रह्मा ने भी स्वयम के दायें-बायें भाग से मनु व शतरूपा को प्रकट किया, जिनमे रुद्रदेव के ग्यारह-ग्यारह नर-नारी-भाव समाहित होने से वे प्रथम मानव युगल हुए। इस प्रकार कामसृष्टि का प्रादुर्भाव एवं लिंग चयन
प्रभावी हुआ। वे मानस, सन्कल्प व काम
सन्कल्प विधियों से सन्तति उत्पत्ति में प्रव्रत्त थे, परन्तु अभी भी पूर्ण स्वचालित प्रक्रिया नहीं थी।
पुनः ब्रह्मा
ने मनु की काम सन्कल्प पुत्रियां आकूति व प्रसूति को दक्ष को दिया। दक्ष ने काम-सम्भोग प्रक्रिया से पांच हज़ार व दस हज़ार पुत्र उत्पन्न किये, परन्तु सब नारद के उपदेश से तपस्या को चले
गये। पुनः दक्ष ने प्रसूति के गर्भ से, सम्भोग, मैथुन जन्य प्रक्रिया से साथ पुत्रियों को जन्म दिया, जिन्हें सोम, अन्गिरा, धर्म, कश्यप व
अरिष्ट्नेमि आदि ऋषियों को दिया गया जिनसे मैथुनी क्रिया द्वारा, सन्तति से आगे स्वतः क्रमिक सृष्टि-क्रम चला व चल रहा है |
भला जब तक नारी-भाव की उत्पत्ति न होती स्वतः सृष्टि-क्रम कैसे प्रारम्भ हो सकता था? और कैसे हो सकता था ब्रह्मा का सृष्टि-सृजन यज्ञ सम्पूर्ण |
सुबह ही सुबह हमारे एक चिकित्सक मित्र घर पधारे और बोले, ‘यार एक केंडीडेट को पास कराना है, अपने अच्छे मित्र का लड़का है| कल तुम्हारा टर्न है और अगर तुमने कुछ उलटा-सीधा रिकार्ड कर दिया तो फिर कुछ नहीं होपायगा अतः सोचा सुबह ही सुबह मुलाक़ात कर ली जाय |’
‘यदि सब ठीक होगा तो पास हो ही जायगा |’, मैंने कहा |
'नहीं, वे बोले, 'थोड़ी सी विज़न में कमी है| और पैसे ले लिए गए हैं|'
'तो क्या हुआ' मैंने कहा, 'लौटा देना कि काम नहीं होसकता|'
‘अरे यार! लिए हुए पैसे तो काम में भी लग गए| खर्च भी होगये| अब घर से पैसे देने में तो बुरा लगता है कि आई हुई लक्ष्मी क्यों लौटाई जाय| बड़ा धर्म संकट होजाता है|’
मैं जब तक कुछ सोच पाता, वे बोले, ‘यार! अब अधिक न सोचो, कभी तुम्हारा काम भी पडेगा तो मैं भी टांग नहीं अडाऊंगा| यह काम तो करना ही पडेगा, तुम्हारा हिस्सा पहुँच जायगा|’ और मुझे न चाहते हुए भी उनका काम करना पडा|
मैं सोचने लगा, क्या लोकपाल इस समस्या का कोई हल निकाल पायगा ?
३३.लोफर
'एक ब्रेड देना ।'
दूकान पर बैठे हुए सुन्दर ने ब्रेड देते हुए कहा, ‘पांच आने।‘
'लो, तीन आने लुटाओ।' अठन्नी देते हुए रूपल ने कहा।
‘लुटाओ या लौटाओ’, सुन्दर ने उस के चहरे की तरफ घूर कर देखते हुए पैसे उसके हाथ पर रख दिए ।
'लोफर’।
रूपल बड़े वकील साहब सक्सेना साहब की तीसरी बेटी थी, तेरह वर्ष की। आर के सक्सेना जी पीछे गली में बड़े फाटक वाली 'सक्सेना हवेली' में रहते थे। वकीलसाहब के दादा-परदादा शायद मुग़ल दरवार में लेखानवीस थे, बड़े फाटक वाली हवेली मिली हुई थी। अंगरेजी राज में वे वकीलसाहब बन कर बड़े साहब थे। वकालत तो अब बस चलती ही थी, पुरुखों की जायदाद के किराए से ही गुजर बसर होजाती थी। परन्तु नक्श-नखरे अब भी वही बड़े साहब वाले थे। केपस्टन की सिगरेट फूंकना, उजले कपडे पहनना, लड़के लड़कियां अंग्रेज़ी स्कूल में ही पढ़ते थे व अंग्रेज़ी बोलने में ही शान समझते थे।
हवेली के बाज़ार की तरफ दुकानें बनी हुईं थी। उन्हीं में से एक दूकान में सुन्दर के पिता की जनरल स्टोर व स्टेशनरी की दुकान थी। सुन्दर कक्षा पांच का छात्र था और कभी-कभी दुकान पर बैठ जाया करता था। वह सनातन धर्म पाठशाला में पढ़ता था। कभी-कभी वकीलसाहब की सिगरेट या किराया देने को हवेली के अन्दर भी चला जाया करता था।
दुकान के पीछे वाली गली में जाते हुए समय फाटक से निकलती हुई रूपल उसे नज़र आई। सुन्दर ने हंसते हुए कहा,'लुटाओ नहीं लौटाओ ।'
‘हट,लोफर!’, रूपल ने हिकारत से कहा।
‘ लोफर का क्या मतलब होता है?,’ सुन्दर पूछने लगा।
'बदमाश ! हटो सामने से बाबूजी से शिकायत करूँ!’
‘क्या मैं बदमाश दिखाई देता हूँ ?’
‘और क्या, लोफर की तरह लड़की की तरफ घूर कर देखते हो।‘
‘अच्छा लड़कियों को घूरकर देखने वाले को लोफर कहते हैं। उससे क्या होता है। लो नहीं देखता। अब जब दुकान पर आना तो लौटाना ही कहना, हिन्दी में लौटाना या लौटाओ कहा जाता है।‘
'शटअप' वह दौड़कर अपने घर में घुस गयी।
जब रूपल ब्रेड लेने आयी, ब्रेड लेकर बोली, 'पैसे लौटाओ।' सुन्दर मुस्कुराकर बोला, 'ठीक, फिर कहने लगा, 'मैंने अंग्रेज़ी की किताब में देखा था 'लोफ 'ब्रेड को कहते हैं तो लोफर रोटी माँगने वाला हुआ न। रोटी तो तुम ही रोज लेने आती हो तो तुम लोफर..।‘
'शटअप, पैसे लौटाओ।‘
सुन्दर पैसे देते हुए बोला,'क्या तुम्हें अंग्रेज़ी के सिर्फ दो ही शब्द बोलने आते हैं लोफर और शटअप।
'यू फूल'
‘ अरे वाह! अच्छा तुम्हारा अंग्रेज़ी में नाम क्या है।‘
गुस्से से लाल होती हुई रूपल के मुख से निकला...
.'लोफर’
३४. विकृति की जड़..
दूरदर्शन पर प्रायोजित कार्यक्रम चल रहा था। विषय था, ‘माता-पिता व बच्चों के बीच बढ़ती दूरियां एवं उनके कारण ।‘ एक शिक्षाविद का कथन था कि बच्चों पर माँ बाप को अपनी
मर्जी नहीं थोपनी चाहिए। यह देखें कि उसकी रूचि किसमें है। प्राइमरी स्कूल की एक अध्यापिका ने कहा कि बच्चे आजकल माता पिता से अधिक
जानते व समझते हैं, उनकी इच्छा का सम्मान करना चाहिए।
एक छात्र का कथन था कि हमारे ऊपर अत्यधिक दबाव होता है। अभिभावकों का अध्यापकों का
पढाई का आदि आदि। अतः हमें भी सदा पढाई करो,
फिर ट्यूशन जाओ,
अब होमवर्क करो,
के अपेक्षा अपनी मर्जी से बिताने का समय चाहिए।
एक नागरिक ने बताया कि बच्चों को अपने माता पिता पर भरोसा करके उनका सम्मान
करना चाहिए। आजकल बच्चे कोई कहना ही नहीं मानते। अपने मित्रों, शिक्षकों,
टीवी,
अंग्रेज़ी उपन्यासों, अखवार,
इन्टरनेट आदि की बातों को ही मानते पसंद करते व अपनाते हैं।
मनोवैज्ञानिक डाक्टर साहब ने बताया कि बच्चों पर अधिक रोक टोक अच्छी नहीं | बच्चों को समझाना व सिखाना प्रारम्भ से ही होना चाहिये जब वे कच्ची मिट्टी के होते हैं। बाद में समझाने का कोई लाभ नहीं। आज माँ बाप बच्चों को फीस व पैसे तो दे देते हैं परन्तु समय नहीं देते।
एक गृहणी ने प्रश्न उठाया कि आजकल तो सभी माँ बाप बच्चों के साथ खूब मनोरंजन व मित्रों जैसा व्यवहार करते हैं समय देते है। तो दूरियां घटनी चाहिए | बच्चे ही घर की
अपेक्षा बाहर की व दोस्तों की नक़ल करके माँ बाप पर सुख -सुविधाओं का दबाव बनाते हैं।
संचालिका महोदया अपना अंतिम निर्णय देने वाली ही थीं कि तभी दर्शकों में से से एक सज्जन उठकर बोले कि क्या में कुछ कह सकता हूँ। संचालिका के अवश्य कहने पर वे बोले मुझे बस इतना कहना है कि वास्तव में अभी तक सभी वार्ता केवल पत्तों को तोड़ने धोने पोंछने तक ही सीमित रही
है। ठीक है पत्तों को भी धोने-पोंछने की आवश्यकता
है परन्तु समस्या की मूल कहाँ है किसी ने बताया ही नहीं। हमारे देश में जो कहावत है कि, ‘जैसा खाएं अन्न, वैसा बने मन’ यही समस्या की मूल है। हमारे देश में अन्य विकसित देशों के जुआघरों चकलों वैश्यालयों नग्न नृत्यों से कमाया हुआ जो धन, विकास, एन जी ओ,
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर्मियों की मोटी मोटी तनख्वाह, आदि के नाम पर आ रहा है और ऋण, सरकारी सहायता,
कर्मचारियों की बड़ी हुई पगार के नाम पर देश में बांटा जारहा है, वही अशोभनीय धन देश की बुद्धि-विवेक को नष्ट करके संस्कृति को भ्रष्ट कररहा है।
३५. जो सहि दुःख पर छिद्र दुरावा…
गुरुवासरीय काव्य गोष्ठी में वर्मा जी ने सुन्दर कविता पाठ के अनन्तर कवितांश “नयनों में अश्रु कलश छलके” पर डॉ. शर्मा ने मध्य में टोक कर कहा, ’नयनों में नहीं, ‘नयनों के अश्रु-कलश’ कहिये|
‘ क्यों, क्या अर्थ है आपका?’ वर्माजी पूछने लगे, ‘अब ज्यादा बाल की खाल न खींचिए|’
‘यह तथ्यात्मक व कथ्यात्मक त्रुटि है|’ डॉ. शर्मा बोले,
‘आप सदैव छींटाकशी करते ही रहते हैं| आपके कमेन्ट भी तीखे होते हैं| आप छिद्रान्वेषी प्रवृत्ति के हैं हर बात में छिद्र खोजते हैं और दूसरों के छिद्र उजागर करते रहते हैं| यह अवगुण है|’ लाल साहब बोले, ‘तुलसी बावा कह गए हैं ..’जो सहि दुःख पर छिद्र दुरावा, वन्दनीय सोई जग यशु पावा |’’ इस प्रकार आप न वन्दनीय होते हैं न इस यश का आनंद उठा पाते हैं, अधिकाँश लोग आपसे दूर हो जाते हैं|
‘और बीच में टोकते भी हैं |’ चौहान जी बोले |
‘हाँ,बाद में चुपचाप अकेले में बता दिया करिए, सबके सामने नहीं |,’ वर्मा जी कहने लगे |
नहीं, डॉ..शर्मा हंसकर कहने लगे,‘कविता यदि गोष्ठी में होरही है या इंटरनेट पर लिखी जा रही है तो समष्टि के लिए है| इसमें व्यक्तिगत क्या? फिर सत्य कथन में छुपाव व दुराव कैसा, कोई व्यक्तिगत बात तो है नहीं|’
‘ तो क्या महाकवि तुलसीदास जी यूंही कह गए हैं |’ लाल साहब ने प्रश्न उठाया|
नहीं, शर्माजी बोले, ‘तुलसीबावा तो उचित ही कह गए हैं, शंका का प्रश्न ही नहीं, पर प्रश्न उठता है कि ‘छिद्र’ किसे कहा जाय| किसी की नैसर्गिक, प्राकृतिक, जन्म आदि से कमी दोष या विकलांगता, अपंगता, निर्धनता, सामाजिक स्थित आदि को उजागर करना, प्रचार करना आदि, चाहे पुरस्कार के रूप में ही क्यों न हो, छिद्र व छिद्र को उजागर करना है क्योंकि वे अपूरणीय हैं| अष्टावक्र इसलिए प्रशंसनीय व प्रसिद्ध नहीं कि वे विकलांग थे, निरीह या सहायता योग्य थे अपितु अपने महाज्ञान के हेतु से| परन्तु अनाचरणगत कमियाँ, ज्ञान व जानकारी की त्रुटियाँ छिद्र नहीं, उन्हें तो बताना व उजागर करना ही चाहिए, विज्ञजनों का यह कर्तव्य है|’
‘और वर्माजी!’ डॉ. शर्मा कहने लगे, ’केवल आपको चुपचाप बताने से सिर्फ आपका ही लाभ होगा परन्तु अन्यान्य कवियों को एवं समष्टि को लाभपूर्ण व सही सन्देश कैसे जायगा, जो साहित्य का उद्देश्य है| फिर उस तथ्य पर वाद-विवाद कैसे होगा ताकि वास्तव में सही क्या है यह निर्धारित हो अन्य विद्वानों के परामर्श व विचार से जो गोष्ठियों का उद्देश्य है|’
‘बात तो सही है,’ ’रामदेव जी बोले, ‘इसीलिये तो पुरस्कार या सम्मान बस उसी व्यक्ति को बुलाकर चुपचाप नहीं दिया जाता, समारोह का आयोजन होता है ताकि समस्त समाज का लाभ हो क्योंकि इससे लोक प्रोत्साहित होता है|’
‘सच कहा रामदेव जी’, डॉ. शर्मा कहने लगे, ’वैसे भी हाँ जी हां जी वाले, हमें क्या अंदाज़ वाले, तो अधिक होते हें, छिद्रान्वेषी कम क्योंकि उसके लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है|’
‘पर इस प्रकार लोग आपको पसंद नहीं करते व दूर भागते हैं|’ लाल जी बोले
तो मुझे क्या, मैं तो सही बात कहने का प्रयत्न करता हूँ, सांच को आंच कहाँ .....|
कबीर और निराला को क्या क्या नहीं कहा गया, पर आज कहने वाले कहाँ हैं और कबीर, निराला कहाँ हैं|
‘ परन्तु ‘सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यमप्रियम.’ भी तो कहा गया है’, श्यामसुन्दर जी ने बात आगे बढाते हुए कहा|
सही कहा, डा शर्मा बोले, पर क्या मैंने कुछ अप्रिय कहा? वह तो जो सत्य सुनना ही नहीं चाहता, आलोचना सुनना ही नहीं चाहता उसे सत्य भी अप्रिय लगता है -
‘सोना कूड़े में पडा, लेते तुरत उठाय,सत्य बचन ले लीजिये, चाहे शत्रु सुनाय |’
सही है पर यह भी तो कथन है कि ‘सीख ताहि को दीजिये जाको सीख सुहाय..’ रामदेव जी ने कहा|
सत्य बचन, श्रीमान जी! डॉ.शर्मा हंसकर बोले, ‘पर यहाँ कोई बानरा थोड़े ही हैं| सब क्रान्तिदर्शी, कविर्मनीषी, स्वयंभू, परिभू है उन्हें तो समझना चाहिए, इसीलिये तो गोष्ठी होती है |
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