१.आठवीं रचना …
कमलेश
जी की
यह आठवीं
रचना थी| अब
तक वे
दो महाकाव्य, दो
खंडकाव्य व तीन
काव्य-संग्रह
लिख चुके
थे | जैसे
तैसे स्वयं
खर्च करके
छपवा भी
चुके थे| पर
अब तक
किसी लाभ
से बंचित
ही थे| जहां
भी जाते
प्रकाशक, बुक
सेलर, वेंडर, पुस्तक-भवन, स्कूल, कालिज, लाइब्रेरी एक ही
उत्तर मिलता, ‘आजकल
कविता कौन
पढ़ता है’,
काव्य
गोष्ठियों में
उन्हें सराहा
जाता, तब
उन्हें लगता
कि वे
भी कवि
हैं तथा कालिदास, तुलसी, निराला के
क्रम की
कड़ी तो
हैं ही| पर
यश भी
अभी कहाँ मिल
पाया था
| बस
एक दैनिक
अखवार ने
समीक्षा छापी
थी, आधी-अधूरी| एक समीक्षा
दो पन्ने
वाले नवोदित
अखवार ने
स्थान भरने
को छापदी
थी| कुछ
काव्य संग्रहों में
सहयोग राशि
के विकल्प
पर कवितायें
प्रकाशित हुईं| पुस्तकों के लोकार्पण
भी कराये,
आगुन्तुकों के
चाय-पान
व कवियों
के पत्र-पुष्प
समर्पण में
जेब ढीली
ही हुई |
अधिकतर रचनाएँ रिश्तेदारों, मित्रों व
कवियों में
ही वितरित
हो गईं| कुछ
विभिन्न हिन्दी संस्थानों
को भेज
दी गईं
जिनका कोई
प्रत्युत्तर आजतक
नहीं मिला|
किसी
कवि मित्र
के साथ
वे प्रोत्साहन
की आशा
में नगर
के हिन्दी
संस्थान भी गए
| अध्यक्ष
जी बड़ी
विनम्रता से
मिले, बोले, ‘पुस्तकें
तो आजकल
सभी छपा लेते
हैं पर
पढ़ता व
खरीदता कौन
है? संस्थान
की लिखी
पुस्तकें भी
कहाँ बिकतीं हैं| हिन्दी के
साथ यही
तो होरहा
है, कवि अधिक
हैं पाठक
कम| काव्य, कविता, साहित्य
आदि पढ़ने
का समय-समझने
की ललक है
ही कहाँ
|’
पुस्तक
का शीर्षक
पढ़कर अध्यक्ष
जी व्यंग्य मुद्रा
में बोले, ‘काव्य रस रंग’ शीर्षक अच्छा
है पर
देखकर इसे
खोलेगा ही
कौन| अरे आजकल तो दमदार
शीर्षक चलते
हैं जैसे 'शादी
मेरे बाप की', ईश्वर
कहीं नहीं
है’‘नेताजी
की गप्पें' ‘राजदरवारी’ आदि चौंकाने वाले
शीर्षक हों
तो इंटेरेस्ट
उत्पन्न हो
| ‘
वे
अपना सा मुंह
लेकर लौट
आये| तबसे
वे यद्यपि
लगातार लिख
रहे हैं, पर
स्वांत-सुखाय | पर
वे सोचते हैं
कि वे
सक्षम हैं, कोई
जिम्मेदारी नहीं,आर्थिक लाभ
की भी
मजबूरी नहीं है
| पर
जो नवोदित
युवा लोग
हैं व
अन्य साहित्यकार
हैं जो
साहित्य व
हिन्दी को ही
लक्ष्य बनाकर, इसकी सेवा में
ही जीवन
अर्पण करना
चाहते हैं
उनका क्या? और
कैसे चलेगा
! और
स्वयं हिन्दी
भाषा व
साहित्य का
क्या ?
२.अफसर…
मैं
रेस्ट-हाउस के बरांडे में कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ, सामने आम के पेड़ के नीचे बच्चे
पत्थर मार-मार कर आम तोड़ रहे हैं | कुछ पेड़ पर चढ़े हुए हैं
बाहर बर्षा की हल्की-हल्की बूँदें
(फुहारें) गिर रहीं हें| सामने पहाडी पर कुछ बादल रेंगते
हुए जारहे हैं, कुछ साधनारत योगी की भांति जमे हुए हैं| निरंतर बहती हुई पर्वतीय नदी की धारा 'चरैवेति-चरेवैति'
का सन्देश देती हुई
प्रतीत होती है|
बच्चों के शोर में मैं मानो अतीत में खोजाता हूँ गाँव में व्यतीत
छुट्टियां, गाँव के संगी साथी...बर्षा के जल से भरे हुए गाँव के तालाव पर कीचड
में घूमते हुए; मेढ़कों को पकड़ते हुए, घुटनों-घुटनों जल में दौड़ते
हुए, मूसलाधार बर्षा के पानी में ठिठुर-ठिठुर कर नहाते हुए;
एक-एक करके सभी चित्र मेरी
आँखों के सामने
तैरने लगते हैं|सामने अभी-अभी पेड़ से टूटकर एक पका आम गिरा है, बच्चों की अभी उस पर
निगाह नहीं गयी है|
बड़ी तीब्र इच्छा
होती है उठाकर चूसने की |
अचानक ही लगता है जैसे मैं बहुत हल्का
होगया हूँ और बहुत छोटा | दौड़कर आम उठा लेता हूँ, वाह! क्या मिठास है| मैं पत्थर
फेंक-फेंक कर आम गिराने लगता हूँ कच्चे-पक्के, मीठे-खट्टे अब पेड़ पर
चढ कर आम तोड़ने लगता हूँ |पानी कुछ तेज बरसने लगा है, मैं
कच्ची पगडंडियों पर नंगे पाँव दौड़ा चला जारहा हूँ, कीचड भरे
रास्ते पर | पानी और तेज बरसने लगता है, बरसाती नदी अब अजगर के भांति फेन उगलती
हुई फुफकारने लगी है, पानी अब मूसलाधार बरसने लगा है | सारी घाटी बादलों की
गडगडाहट से भर जाती है और मैं बच्चों के झुण्ड में इधर-उधर दौड़ते हुए गारहा हूँ
--- ""बरसो राम धड़ाके से, बुढ़िया मरे पड़ाके से ""
"साहब जी! मोटर ट्राली
तैयार है",अचानक ही बूटाराम की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूट
जाती है, सामने पेड़ से गिरा आम अब भी वहीं पडा हुआ है, बच्चे
वैसे ही खेल रहे हैं | मैं उठकर चल देता हूँ वरांडे से वाहर
हल्की-हल्की फुहारों
में, सामने से दौलतराम व बूटाराम छाता लेकर दौड़ते हुए आते हैं,'साहब जी ऐसे तो आप भीग जाएँगे' और मैं गंभीरता ओढ़
कर बच्चों को...पेड़ को..आम को व मौसम को हसरत भरी निगाह से देखता हुआ टूर पर चल
देता हूँ |
ढलती शाम और डूबता सूरज, वही स्थान, वही समय, वही दृश्य। वह कभी सूंघकर इधर देखता कभी उधर। बारी-बारी से चारों ओर सूंघकर शायद किसी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा हो ।
मैं पास के ही पेड़ की ओट में खड़ा हुआ यह दृश्य देख रहा हूं। अब खरगोश ने एक ओर को देखकर सूंघा, कान खड़े किये और एक विशिष्ट आवाज निकाली। कुछ देर पश्चात ही एक अन्य खरगोश उसी दिशा से आता हुआ दिखाई दिया। दोनों की आंखों मैं एक विचित्र चमक उत्पन्न हुई और आतुरता का स्थान प्रसन्नता ने ले लिया । आपस में उछल-उछल कर कुलांचें भरते हुए, खेलता हुआ जोड़ा अत्यन्त सुन्दर प्रतीत हो रहा था। धत्तेरे की...! अचानक बडे जोर की छींक आई, दोनों खरगोश पलक झपकते ही नौ दो ग्यारह ...।
आज रविवार है, मैं यहाँ समय से पहले ही छिपा हूं; प्रकृति की नैसर्गिक आभा के अतुलनीय रूप का निरीक्षण करते हुए अपने-अपने नीड़ों को लौटते हुए खगवृन्दों को देख रहा हूं | खरगोश का जोड़ा आज साथ-साथ आया है| पत्थर पर एक साथ बैठे हुए उनकी भोली-भाली मन मोहक छवि कैलाश पर्वत की उपत्यका पर आसीन शिव-पार्वती की याद दिलाती है, मैं कल्पना लोक में डूबता जा रहा हूँ ……
धायं-धायं ...,एक चीख ..और सब कुछ समाप्त; सहसा पार्श्व से किसी न आग उगल दी एक करुण चीख के साथ शिवजी पत्थर से उलट कर नदी की धार में समा गए और पार्वती जी ने भी एक लम्बी चीख के साथ धारा में छलांग लगा दी |
मेरे पैर वहीं जड़ हो जाते हैं मन एक करुणामयी भाव में भरकर वैराग्य की स्थिति में आकर संसार की असारता पर विमर्श करने लगता है, क्रोध मिश्रित करुणा विगलित भाव सोचने लगता है, कि किंचित यही अनुभूति आदि-कवि को हुई होगी जब उनके मुख से प्रथम श्लोक उद्भूत हुआ होगा-----
" मा निषाद प्रतिष्ठाम त्वमगम शाश्वती समां
यत क्रोंच मिथुनादेकम वधी काम मोहितं|
‘चाचा चल रहे हैं, काम से जारहा हूँ किरावली।‘ मैं छुट्टियों में अपने शहर आया हुआ था और हम लोग कई दिन से अपने पैतृक गाँव के बारे में चर्चा कर रहे थे कि अचानक संजय ने पूछ लिया।
हम मोटर साइकल पर अपने गाँव को चल दिए जो शहर से लगभग १८ किमी दूर था । गाँव पहुँच कर मैंने संजय से कहा, ‘अच्छा तुम अपना काम करके आओ तब तक मैं घूमकर आता हूँ ।‘
मैं घूमता रहा, मंदिर, खेत, कुआ, रहँट..कहीं कहीं नालियों में बहता हुआ ठंडा ठंडा पारदर्शी पानी .जो आजकल अधिकाँश ट्यूब-वैल से पाइपों द्वारा नालियों में भेजा जारहा था । पोखर के किनारे चलते चलते मैं अचानक एक पत्थर उठा कर तेज़ी से पोखर में फैंकता हूँ | पत्थर तेजी से तैरता सा कुलांचें मारता हुआ दूसरी ओर तक चला जाता है । मैं स्वतः ही मुस्कुराने लगता हूँ ।
उई ! कौन है रे! अचानक एक तेज़ आवाज से मेरा ध्यान भंग होता है। मैं सिर उठाकर दूसरी ओर देखता हूँ । आवाज कुछ जानी पहचानी लगती है। पत्थर तैरता हुआ शायद दूसरी ओर जाकर किसी किनारे खड़ी हुई महिला को या पानी पीते हुए जानवर को लग गया है ।
कौन है रे! जो इतने बड़े होकर भी कंकड़ चला रहे हो पोखर में । तब तक मैं क्षमा-मुद्रा में आता हुआ, किनारे किनारे चलता हुआ समीप आ पहुंचता हूं ।
अरे, तुम हो ! 'बनिया का छोरा '! आश्चर्य मिश्रित स्वर में महिला कहने लगी, ‘तुम तो शहर में जाकर डाक्टर बन गए हो। अभी भी पत्थर फैंकते हो पोखर में। जानवरों को हड़का दिया न। तुम यहाँ कैसे!’
मैं झेंपते हुए मुस्कुराया, तो तुम हो.."जाटिनी की छोरी "
क्या पुरानी बचपन की याद आगई है ?
क्यों, क्या तुम्हें नहीं आती ?
‘नहीं …. मुझे भी नहीं’ मैंने कहा ।
‘तो पत्थर क्यों चला रहे हो, भूले नहीं हो ।‘
‘क्या ?’ मैंने कहा | ‘अरे पत्थर चलाना, और क्या’, वह बोली ।
अरे नहीं, बस यूं ही, ‘तुम तो शादी करके, अन्य गाँव चली गयीं थी न ।‘
‘क्यों ? क्या तुम चाहते हो कि मैं भैया के घर नहीं आऊँ । कल ही तो आई हूँ अतरसों चली जाऊंगी । सोचा गाय को पानी पिला लाऊँ, पोखर देख आऊँ ...पर तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?’
‘क्यों ? क्या तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारे गाँव आऊँ भी नहीं ।‘
‘नहीं, मेरा वो मतलब नहीं । फिर मेरा गाँव क्या ...तुम्हारा भी तो गाँव है, रोज आओ।‘
‘तुम रोज आओगी क्या ।‘
‘अब ज्यादा न बोलो,अपना रास्ता नापो ।‘
‘वही तो कर रहा हूँ ।‘
'क्या हुआ कम्मो।‘ उसकी तेज आवाज शायद भाभी ने सुन ली थी । कम्मो जल्दी से बोली, ’कुछ नहीं भाभी बस ज़रा पैर फिसलने लगा था”| अरे, 'इस उम्र में तो पैर संभालकर रखा करो,लाड़ो।' भाभी ने हंसते हुए कहा, 'ननदोई जी को क्या जबाव देंगे हम।' कहते कहते सरला भाभी नज़दीक आगई थी। फिर अचानक मुझे सामने देखकर, झेंपकर चुप होते हुए बोली, 'अरे कौन! रमेश बाबू हैं, लालाजी के बेटे। यहाँ कहाँ, तुम तो सुना है शहर में बड़े डाक्टर होगये हो.|’.. ‘तो पुरानी मुलाक़ात हो रही थी ।‘ वे भोंहें चढ़ाकर कम्मो की ओर देखते हुए बोलीं ।
‘अरे भाभी तुम तो बस .’.कम्मो बोली । ‘भाभी मैं एक काम से इधर से गुज़र रहा था तो मैंने सोचा कि अपना गाँव देखता जाऊं, पुरानी यादें ताज़ा करलूं । मुद्दतों बाद तो इधर से गुज़रा हूँ ।‘मैंने कहा |
अच्छा किया ..अरे ! मेरी तो दाल चूल्हे पर रखी है, चलो कम्मो जल्दी पानी पिला कर आओ, कहती हुई वो तेजी से चली गयीं। मुस्कुराती हुई कम्मो पीछे-पीछे गाय को हांकते हुए चलदी ।
५.कार्य विभाजन ...
‘देखो कितना अच्छा रहा न,आपने आलू छील
दिए,मेरा कितना समय बच गया|’, रीता जी प्रसन्न होते हुए बोलीं |
हाँ, वह तो है ही, यदि पुरुष, स्त्री साथ
साथ किचन के कार्य, कपडे धोना आदि करने लगें तो अच्छा तो रहेगा ही | ‘पर आप अपना
समय बचा कर करेंगी क्या?,’ प्रशांत जी ने प्रश्न दाग दिया |
‘सखियों के साथ उठना बैठना, मिलना, जुलना
करेंगे | हमें भी स्पेस चाहिए |’, वे बोलीं |
‘तो
पुरुष अपना काम कब करें,’कमायें नहीं, केवल पत्नियों के साथ घर के कार्यों में लगे
रहें|’
‘भई,आजकल तो सभी पत्नियों का हाथ बटाते
हैं,किचन में,गृहकार्य में| ‘क्योंकि उन्हें भी नौकरी पर जाना होता है,सखी
सहेलियों में,किटी पार्टी में जाना होता है’|, रीता जी कहने लगीं |
‘सच है,तो फिर वही प्राचीन व्यवस्था क्या
बुरी थी जब साथ-साथ खेत पर जाना,मजदूरी करना,शिकार करना,केवल खाना-खेलना और कमाना
ही था’, प्रशांत जी ने कहते गए| ‘ऊपर उठे- समाज उन्नत हुआ,पुरुष–स्त्री के,राजा-रानी के कर्तव्य
अलग अलग हुए; कार्य विभाजन हुआ, तभी उच्च विचार, कथाएं, साहित्य, शास्त्रों की
रचनाएँ हुईं, उच्च संस्कृतियाँ पनपीं |’
‘आज पुरुष गृहकार्यों, बच्चों के कार्यों
में हाथ बंटाने में व्यस्त हैं, महिलायें नौकरी में या पार्टियों-किटी पार्टियों
में व्यस्त हैं| आज नारी-पुरुष के साथ साथ सभी कार्यों के करने की बयार से उच्च कोटि के कला, साहित्य, वैचारिकता व
संस्कृति/सुसन्तति का निर्माण व प्रसार नहीं हो पारहा है |’
‘ स्त्री को भी यदि इन सब गृह आदि कार्यों से
समय मिले तो वे भी महान रचनाएँ, शास्त्रों आदि का सृजन कर सकती हैं|’
‘ परन्तु अभी तक क्या कोई उदाहरण है कि स्त्रियों ने पौराणिक काल,भूतकाल-इतिहास वर्त्तमान में कोई महान ग्रन्थ,शास्त्र,साहित्य,धर्म, दर्शन,चिंतन आदि पर ग्रन्थ लिखे हैं| स्त्रियों के ज्ञान,कर्म पराक्रम व कृतित्व से शास्त्र भरे पड़े हैं| विदुषियां हैं,हुई हैं,परन्तु मौलिक सोच, कृतित्व नहीं रहा|’ क्यों?
‘इसीलिये पुराकाल में कार्य-विभाजन हुआ जो स्त्री-पुरुष
दोनों को स्वीकृत था|,’ प्रशांत जी बोले |
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