डॉ.श्यामगुप्त आलेखमाला शृन्खला-4, भाषा व साहित्य
1.
कविता का- क ख ग घ-----
कविता का क –मूल परिभाषायेँ ----
अभी हाल में ही किसी काव्य रचना पर एक विपरीत टिप्पणी के सन्दर्भ में काफी घमासान हुआ तमाम कवियों के आपसी वाक्-युद्ध में उनकी बोली-बाणी के स्तर का भी भान हुआ | परन्तु मंथन भी खूब हुआ | एक तथ्य और उभरकर आया कि केवल विपरीत टिप्पणी से क्या होता है | वरिष्ठ एवं गुरुतर तथा साहित्यिक ठेकेदार लोगों ने नव एवं युवा कवियों के लिए कोई काव्य कला–शिक्षा की कक्षा क्यों नहीं खोली, अतः वे जैसा चाहें लिखें सब छूट है |
यद्यपि कविता किसी कक्षा या शिक्षा का क्षेत्र नहीं है वह स्वानुभूति व हृदयानुभूति से उद्भूत होती है, हाँ व्यक्ति / कवि के शिक्षा स्तर, ज्ञान, अनुभव व विवेक का भी स्थान होता है | कविता-ज्ञान मूलतः स्व-प्रेरणा, तमाम वरिष्ठ कवियों के साहित्य का अध्ययन एवं सन्दर्भ–अध्ययन की भाँति स्व-पठन-पाठन साधना से प्राप्त होता है | साथ ही वरिष्ठ जन, गुरुजन आदि द्वारा केवल संक्षिप्त इंगित या निर्देश देने की ही परिपाटी है अन्यथा जिज्ञासा करने पर अर्थात प्रश्न पूछने पर ही आगे निर्देशन का नियम है | हमारे सभी शास्त्र यदि हम देखें तो ‘अथातो जिज्ञासा ‘ अर्थात किसी भी शिष्य या विद्वान् द्वारा प्रश्न करने पर ही प्रारम्भ होते हैं|
जिज्ञासुओं के लिए कविता का प्रारंभिक पाठ हेतु भाषा विज्ञान की कुछ मूल परिभाषाओं का ज्ञान आवश्यक है ---
अक्षर या वर्ण = किसी ध्वनि या बोली की उच्चारित या लिखी जा सकनेवाली लघुतम स्वतंत्र इकाई है । जैसे--- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, क्, ख् आदि। अक्षर में स्वर, स्वर तथा व्यंजन, अनुस्वार सहित स्वर या व्यंजन ध्वनियाँ सम्मिलित मानी जाती हैं। किसी भाषा के वर्णों के समुदाय को वर्णमाला कहा जाता है | उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं: (क) स्वर (ख) व्यंजन---
स्वर---जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता है और जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक हों वे स्वर कहलाते है। ये संख्या में ग्यारह हैं: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।
उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गए हैं:
१. ह्रस्व स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं(---श्वास के एक आघात में उच्चरित या लिखी जा सकने वाली लघुतम स्वतंत्र ध्वनि इकाई, ) उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। ये चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं।
२. दीर्घ स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। ये हिन्दी में सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
३. प्लुत स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है। जैसेः– ओ३म्, हे कृष्णा।
व्यंजन--जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं। अर्थात व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। वे अपने आप में अधूरे होते है, जब उसमें स्वर मिलाये जाते है तब ही पूर्णता प्राप्त करते है यथा- क्, ख् आदि वर्ण हैं— क् +अ (स्वर) = क व्यंजन ..|
शब्द = अक्षरों का सार्थक समूह | यथा - राम, परिवार, शशक आदि
मात्रा /
कला =अक्षर के सम्पूर्ण उच्चारण में लगने वाला समय। ये ह्रस्व(छोटी) या दीर्घ (बड़ी ) होती हैं-
----लघु, हृस्व या छोटी मात्रा = जिस अक्षर के उच्चारण में इकाई समय लगे। भार या मात्रा १, यथा अ, इ, उ, ऋ अथवा इनसे जुड़े अक्षर, चंद्रबिंदी वाले अक्षर...
--- दीर्घ या बड़ी मात्रा = जिसके उच्चारण में दोगुना समय लगे। भार या मात्रा २, उक्त लघु अक्षरों को छोड़कर शेष सभी अक्षर, संयुक्त अक्षर अथवा उनसे जुड़े अक्षर, अनुस्वार (बिंदी वाले अक्षर)। यथा आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ औ --
यति = पंक्ति पढ़ते समय विराम या ठहराव के स्थान।
तुक /तुकांत = पद या छंद की दो या अधिक पंक्तियों / चरणों के अन्त में ध्वनियों की समानता ।
गति = छंद में गुरु-लघु मात्रिक क्रम, जो चरण या पंक्ति को स्वरों की क्रमिक लयबद्धता प्रदान करता है।
लय = छंद या गीत पढ़ने या गाने की धुन या तर्ज़ की क्रमिकता । स्वरों के आरोह –अवरोह का क्रम जो श्रव्य-आनंद प्रदान करता है |
आज विश्व वाणी हिंदी भाषा, व्याकरण व साहित्य का कोश असीम है। संस्कृत से विरासत में मिले छंदादि काव्य-व्याकरण ज्ञान के साथ-साथ पंजाबी, मराठी, बृज, अवधी आदि आंचलिक भाषाओं/ बोलियों को अपनाकर तथा अंग्रेजी, जापानी आदि विदेशी भाषाओँ को अपने अनुसार संस्कारित कर हिंदी ने यह समृद्धता अर्जित की है। हिंदी साहित्य के विकास में ध्वनि विज्ञान तथा गणित ने आधारशिला की भूमिका निभायी है।
कविता का ख –
कविता लेखन ....मूल प्रारंभिक रूप-भाव......
ब्लॉग जगत में स्वतंत्र अभिव्यक्ति हेतु मुफ्त लेखन की सुविधा होने से अनेकानेक ब्लॉग आरहे हैं एवं नए नए व युवा कवि अपने आप को प्रस्तुत कर रहे हैं यह हिन्दी व भाषा एवं समाज के लिए गौरव और प्रगति-प्रवाह की बात है परन्तु इसके साथ ही यह भी प्रदर्शित होरहा है कि कविता में लय, गति, लिंगभेद, विषय भाव का गठन, तार्किकता, देश-काल, एतिहासिक तथ्यों की अनदेखी आदि की जारही है |
जिसके जो मन में आरहा है तुकबंदी किये जारहा है | जो काव्य-कला में गिरावट का कारण बन सकता है|
यद्यपि कविता ह्रदय की भावाव्यक्ति है उसे सिखाया नहीं जा सकता परन्तु भाषा एवं व्याकरण व सम्बंधित विषय का उचित ज्ञान काव्य-कला को सम्पूर्णता प्रदान करता है| शास्त्रीय-छांदस कविता में सभी छंदों के विशिष्ट नियम होते हैं अतः वह तो काफी बाद की व अनुभव-ज्ञान की बात है परन्तु प्रत्येक नव व युवा कवि को कविता के बारे में कुछ सामान्य ज्ञान की छोटी छोटी मूल बातें तो आनी ही चाहिए| कुछ सहज सामान्य प्रारंभिक बिंदु नीचे दिए जा रहे हैं, शायद नवान्तुकों व अन्य जिज्ञासुओं के लिए सार्थक हो सकें । .
कलापक्ष
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(अ) -अतुकांत कविता में- यद्यपि तुकांत या अन्त्यानुप्रास नहीं होता परन्तु उचित गति, यति व लय अवश्य होना चाहिए...यूंही कहानी या कथा की भांति नहीं होना चाहिए......यथा ..निरालाजी की प्रसिद्ध कविता.....
"अबे सुन बे गुलाव ,
भूल
मत गर पाई, खुशबू रंगो-आब;
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा -
कैपीटलिस्ट ||"
मानव व पशु मॆं यही है अन्तर,
पशु नहीं करता ,
छ्ल-छन्द और जन्तर- मन्तर।
शॆतान ने पशु को,
माया सन्सार कब दिखाया था;
ज्ञान का फ़ल तो ,
सिर्फ़ आदम ने ही खाया था। –डा. श्याम गु्प्त
"देव नागरी को अपनाएं
हिन्दी है जन जन की भाषा ,
भारत माता की अभिलाषा |
बने राष्ट्रभाषा अब हिन्दी,
सब बहनों की बड़ी बहन है
हिन्दी सबका मान बढाती ,
हिन्दी का अभियान चलायें|" -- डा रंगनाथ मिश्र सत्य
श्रेष्ठ कला का जो मन्दिर था,
तेरे गीत सजा मेरा मन,
प्रियतम तेरी विरह पीर में;
पतझर सा वीरान होगया ।
जैसे धुन्धलाये शब्दों की ,
धुन्धले अर्ध मिटे चित्रों की,
कला बीथिका एक पुरानी । ----डा. श्याम गु्प्त
प्रीति–प्यार में नया नहीं कुछ,
वही पुराना किस्सा यारो ;
लगता शाश्वत नया-नया सा । ----डा. श्याम गु्प्त
(ब )- तुकांत कविता / गीत आदि में--जिनके अंत में प्रत्येक पंक्ति या पंक्ति युगल आदि में (छंदीय गति के अनुसार)
तुक या अन्त्यानुप्रास समान होता है...
१-- मात्रा -- तुकांत कविता की प्रत्येक पंक्ति में समान मात्राएँ ( सामान्यत: लघु वर्ण की एक मात्रा दीर्घ की दो मात्रा, संयुक्त शब्द से पहले अक्षर की दो मात्रा, स्वयं संयुक्त शब्द की मात्रा के अनुसार लघु व दीर्घ ) होनी चाहिए मुख्य प्रारंभिक वाक्यांश, प्रथम पंक्ति ( मुखडा ) की मात्राएँ गिन कर उतनी ही समान मात्राएँ प्रत्येक पंक्ति में रखी जानी चाहिए...बस आप मस्त होकर गाइए, गुनगुनाइए, तमाम गीत, कोइ न कोइ छंद आदि अपने आप बनते चले जायेंगे, आपको छंद शास्त्री होने की कोई आवश्यकता नहीं है ....यथा ..
"कर्म प्रधान जगत
में
जग में,
=१६ मात्राएँ
(२+१ , १+२+१ ,
१+१+१ ,
२ , १+१ , २ =१६)
प्रथम पूज्य
हे
सिद्धि
विनायक
| = १६.
(१+१+१, २+१, २ ,
२+१ ,
१+२+१+१ =१६ )
कृपा करो
हे
बुद्धि
विधाता , =
१६
(१+२ ,
१+२ ,
२ , २+१
१ +२ +२
=१६ )
रिद्धि सिद्धि
दाता
गणनायक || = १६
(२+१, २+१ ,
२+२ ,
१+१+२+१+१ =१६ )
हिन्दी की ये रेल न जाने,
(२ +२ , २, २, २+१, १, २+२ ) =१६
चलते चलते क्यों रुक जाती |
१+१+२ १+१+२ २ १+१ २+२ ) = १६
जैसे ही रफ़्तार पकडती,
(२+२ , २, २+२+१ १+१+१+२ ) =१६
जाने क्यूं धीमी होजाती |
(२+२, २, २+२, २+२+२ )=१६
२ -लिंग ( स्त्रीलिंग-पुल्लिंग )-कर्ता व कर्मानुसार उसके अनुसार उसी लिंग का प्रयोग हो, यथा "जीवन हर वक्त लिए एक छड़ी होती है " यहाँ क्रिया-लिए कर्ता – जीवन. का व्यापार है न कि छड़ी का जो समझ कर 'होती है 'लिखा गया अतः या तो जीवन हर वक्त लिए एक छड़ी होता है होना चाहिए या जिंदगी हर वक्त लिए एक छड़ी होती है होना चाहिए |
३.बचन– बहुत से शब्दों का बहु वचन नहीं होता वे नपुंसक लिंग होते हैं-यथा चाहत को चाहतों लिखा जाता है जो त्रुटिपूर्ण है, इसी प्रकार मुहब्बतों आदि यथा ‘कंक्रीटों की दीवारें’ त्रुटिपूर्ण है = कंक्रीट की दीवारें ।
४- इसी प्रकार काव्य- विषय का --काल-कथानक का समय (टेंस ),
विषय-भाव ( सब्जेक्ट-थीम ),
भाव (सब्सटेंस), व विषय क्रमिकता, तार्किकता, एतिहासिक प्राकृतिक व सिद्ध वैज्ञानिक तथ्यों की सत्यता, विश्व-मान्य सत्यों-तथ्यों-कथ्यों ( यूनीवर्सल ट्रुथ) का ध्यान रखा जाना चाहिए..बस |
५-- लंबी कविता में मूल कथानक, विषय-उद्देश्य, तथ्य व देश-काल एक ही रहने चाहिए, बदलने नहीं चाहिए । उसी मूल कथ्य व उद्देश्य को विभिन्न उदाहरणों व कथ्यों से परिपुष्ट करना एक भिन्न बात है जो विषय को स्पष्टता प्रदान करते हैं ।
७. हिन्दी में शब्दों की वाक्य में स्थिति व क्रम का अत्यंत महत्त्व होता है, कविता में भी उचित संज्ञा सर्वनाम, क्रिया आदि उचित स्थान से हट जाने पर अर्थ अनर्थ होजाता है | यथा—
नर्म होकर रुई सी लगी
वो जो लड़की थी सख्त वारिश में | |
शायद कवि कहना चाहता है कि जो लड़की सख्त थी वो भी वारिश में भीग कर नर्म होगई, परन्तु असम्बद्ध स्थान पर वारिश शब्द रखने से लगता है कि लड़की वारिश में सख्त थी |
भावपक्ष में कविता के विषय व भाव व कथ्य पर थोड़ा विचार करें कि -”आज सर्दी बहुत है”-”सूरज भी ठंड से कांप रहा है”- या फिर ”गर्मी ने भीड़ को पसीना-पसीना कर दिया” या फिर ”बसन्त ऋतु आ गयी” (यह वैसी ही है, जैसी हर वर्ष होती है) या फिर ”आषाढ़ के बादल घिर आये, धरती उठ कर आलिंगन कर रही है” तथा देश में व्यभिचार बढ़ रहा है, शासक अत्याचारी हैं, जनता त्रस्त है..वलात्कार होरहे हैं, भ्रष्ट होगये हैं इत्यादि.. बिना कोई समाधान प्रस्तुत किये, समाचारों ( जो समाचारपत्र, टीवी, रेडियो, इन्टरनेट पर पहले ही खूब मौजूद रहते हैं) से युक्त कविता से, इन सभी सर्वज्ञात यथास्थितियों का वर्णन करके कविता आख़िर क्या संदेश देना चाहती है। इस पर विचार अवश्य करना चाहिए|
---दूसरा विचारणीय तथ्य यह कि- ”मैं आज सुबह से उदास हूँ” या फिर -”रह रह कर भीतर से पीर उभरती है” या फिर- ”खोया खोया खुश हुआ”- इत्यादि प्रसंगों पर रचना करने का दूरगामी प्रभाव क्या हो सकता है। बहुत स्पष्ट है कि किसी एक व्यक्ति की एकान्तिक अनुभूति में समग्र जन समुदाय को क्या रुचि हो सकती है| यदि वह निराला की कविता एक तिनका – की भांति –‘ऐंठता तू है भला किसके लिए, एक तिनका है बहुत तेरे लिए जैसे सरोकार/ समाधान से युक्त न हो |
और आचार्य भामह के स्व-अनुभव के कथ्यांकन पर चलते हुए सबसे बड़ा नियम यह है कि स्थापित, वरिष्ठ, महान, प्रात:-स्मरणीय कवियों की सेकडों रचनाएँ बार बार पढना, मनन करना व उनके कला व भाव का अनुसरण करना| उनके अनुभव व रचना पर ही बाद में आगे शास्त्रीय नियम बनते हैं |
ग . कविता का ग ..
शब्द शक्ति --शब्दों के तथ्यात्मक अर्थ --कविता के सूक्ष्म तथ्य .....
शब्द की शक्ति अनंत व रहस्यात्मक भी है। चाहे गद्य हो या पद्य -किसी भी शब्द के विभिन्न रूप व पर्यायवाची शब्दों के कभी समान अर्थ नहीं होते। (जैसा सामान्यतः समझा जाता है। ) यथा-
" प्रभु ने ये संसार कैसा सजाया."---एक कविता की पंक्ति है । --यहाँ सजाया =रचाया =बनाया कुछ भी लिखा जा सकता है । मात्रा, तुक व लय एवं सामान्य अर्थ मैं कोई अन्तर नहीं, कवितांश के पाठ मैं भी कोई अन्तर नहीं पढता । परन्तु काव्य व कथन की गूढता तथा अर्थवत्तात्मक दृष्टि से, भाव संप्रेषण दृष्टि से देखें तो --
1.--- बनाया = भौतिक बस्तु के कृतित्व का बोध देता है, स्वयं अपने ही हाथों से कृतित्व का बोध .. कठोर वर्ण है।
२.-- रचाया = समस्त सृजन का बोध देता है, विचार से लेकर कृतित्व तक, आवश्यक नहीं कि कृतिकार ने स्वयं ही बनाया हो। किसी अन्य को बोध देकर भी बनवाया हो सकता है।
३.-- सजाया = भौतिक संरचना की बजाय भाव-सरंचना का भी बोध देता है। बनाने (या स्वयं न बनाने -रचाने ) की बजाय या साथ-साथ, आगे नीति, नियम, व्यवहार, आचरण, साज-सज्जा आदि के साथ बनाने, रचाने, सजाने की कृति व शब्दों की सम्पूर्णता-विशिष्टता का बोध देता है।
प्रभु के लिए यद्यपि तीनों का प्रयोग उचित है । परन्तु ब्रह्मा, देवताओं, मानव के संसार के सन्दर्भ मैं बनाया अधिक उचित होगा। सिर्फ़ ब्रह्मा के लिए रचाया भी। अन्य संसारी कृतियों के लिए विशिष्ट सन्दर्भ मैं तीनों शब्द यथा स्थान प्रयोग होने चाहिए । उदाहरित कविता मैं --सजाया-- शब्द उचित प्रतीत होता है।
एक अन्य शब्द को लें --क्षण एवं पल --दौनों समानार्थी हैं । परन्तु -- क्षण = बस्तु परक, भौतिक, वास्तविक समय प्रदर्शक तथा कठोर वर्ण है और .. पल = भावपरक, स्वप्निल व सौम्य-कोमल वर्ण है । इसीलिये प्रायः पल-छिन शब्द प्रयोग किया जाता है, सुंदर, भावुक स्वप्निल समय काल-खंड के लिए।
कविता एवं अलन्कारादि सादृश्य-विधान
--
काव्य का
कला पक्ष काव्य की शोभा बढाने के साथ-साथ सौन्दर्यमयता, रसात्मकता व आनंदानुभूति से जन-जन रंजन के साथ विषय-भाव की रुचिकरता व सरलता से काव्य की सम्प्रेषणता बढ़ाकर मानव के अंतर की गहराई को स्पर्श करके दीर्घजीवी प्रभाव छोडने वाला बनाता है | परन्तु अत्यधिक सचेष्ट
लक्षणात्मकता भाषा व विषय को बोझिल बनाती है एवं विषय व काव्य जन सामान्य के लिए दुरूह होजाता है एवं उसका जन-रंजन व वास्तविक उद्देश्य पीछे छूट जाता है , पाण्डित्याम्बर व बुद्धि-विलास प्रमुख होजाता है |
वस्तुतः रचना की ऊंचाई पर पहुँच कर कवि सचेष्ट लक्षणा व अलन्कारादि विधानों का परित्याग कर देता है | रचना के
उच्च भाव
स्तर पर
पहुँच कर
कवि अलन्कारादि लक्षण विधानों की निरर्थकता से परिचित हो जाता है तथा अर्थ रचना के सर्वोच्च धरातल पर पहुँच कर भाषा भी सादृश्य-विधान के सम्पूर्ण छल-छद्मों का परित्याग कर देती है | तभी अर्थ व भाव रचना की सर्वोच्च परिधि दृश्यमान होती है | हाँ जहां काव्य है वहाँ कथ्य में कलापक्ष स्वतः ही सहजवृत्ति से आजाता है, क्योंकि कविता व काव्य-रचना स्वयं ही एक अप्रतिम कला है |
अभिव्यक्ति व काव्य प्रतिभा --- प्रतिभा किसी देश, काल, जाति, धर्म, व्यवसाय, उम्र व भाषा की मोहताज़ नहीं होती --- हिन्दी साहित्य के स्वर्णिम काल –भक्ति-काल की निर्गुण शाखा के संत कवि प्रायः अधिक पढ़े लिखे नहीं थे परन्तु जो उच्च दर्शन, धर्म, व्यवहार , ज्ञान के काव्य उन्होंने रचे उनसे इस तथ्य की पुष्टि होती है.. कबीर तो कहते ही हैं ....
" मसि कागद छुओ नहीं, कलम गही ना हाथ ,
चारिउ युग का महातम, कबिरा मुखहि जनाई बात |"
साहित्य व
कविता में विशेषज्ञता ---- साहित्य व कविता भी जन जन व जन जीवन की अपेक्षा अन्य व्यवसायों की भांति एक विशिष्ट क्षेत्र में सिमट कर रह गए हैं | वे ही लिखते हैं; वे ही पढ़ते हैं | समाज आज विशेषज्ञों में बँट गया है | विशिष्टता के क्षेत्र बन गए हैं | जो समाज पहले आपस में संपृक्त था, सार्वभौम था -परिवार की भांति, अब खानों में बँटकर एकांगी होगया है। विशेषज्ञता के अनुसार नई-नई जातियां-वर्ग बन रहे है | व्यक्ति जो पहले सर्वगुण-भाव था अब विशिष्ट-गुण सम्पन्न- भाव रह गया है | व्यक्तित्व बन रहा है-व्यक्ति पिसता जारहा है। जीवन सुख के लिए जीवन आनंद की बलि चढ़ाई जा रही है | यह आज की पीढी की संत्रासमय अनिवार्य नियति है |
पर निश्चय ही हमारी आज की यह युवा पीढी उचित सहानुभूति व आवश्यक दिशा-निर्देशन की हकदार है; वास्तव में वे
हमारी पीढी की भूलों व
अदूरदर्शिता का
परिणाम भुगत
रहे हैं| अपने अति-सुखाभिलाषा भाव में रत हमारी पीढी उन्हें उचित दिशा निर्देशन व आदर्शों को संप्रेषित करने में सफल नहीं रही |
मानव, कविता व गीत एवं सामाजिक सरोकार ----सृष्टि की सबसे सुन्दर है कृति है मानव, और मानव की कृतियों में सबसे सुन्दर है- कविता:,.... गीत-- काव्य की सुन्दरतम प्रस्तुति है । गीत होते ही हैं मानव मन के सुख-दुख व अन्तर्द्वन्द्वों के अनुबन्धों की गाथा । जहां भावुक मन गीत सृष्टा हो तो वे मानव ह्रदय, जीवन, जगत, की सुखानुभूति, वेदना, संवेदना के द्वन्द्वों व अन्तर्संबंधों की संगीतमय यात्रा हो जाते हैं । ये गीत वस्तुतः मानव ह्रदय की पूंजी होते है--स्वान्त सुखायः......यदि गीतों में जीवन के राग-विराग, कर्तव्य बन्धनों की अनिवार्यता की स्वीकृति के साथ-साथ मुक्त-गगन में उडान की छटपटाहट की व्यष्टि चेतना के साथ जीवन -जगत की समष्टिगतता भी निहित है और निहित है समाज व विश्वकल्याण की भावना तो वे निश्चय ही समाधान युक्त होकर कालजयी हो जाते हैं| सामाजिक सरोकार के बिना कोई भी कविता व साहित्य अधूरा ही है।
काव्य के उद्देश्य
साहित्य = सा + हिताय + य = अर्थात जो समाज, संस्कृति व मानव के व्यापक हित में हो वह ही साहित्य है। अतः साहित्य के मूल भाव-उद्देश्य होने चाहिये ---
(1) सम्पूर्ण ज्ञान का अनुशासन (ज्ञान का कोष व ज्ञान की प्रतिष्ठापना ),शास्त्रीय पद्धति से जीवन -जगत का बोध .....
(२) जन रंजन के साथ स्वान्त सुखाय ....व्यक्तित्व व समष्टि निर्माण की प्रेरणा से सुखानंद, काव्यानंद द्वारा ब्रह्मानंद सुख ।
(३) काव्य सुरसिकता द्वारा जन-जन युग प्रबोधन, जीवन मूल्यों का संदेश व व्यक्ति व समष्टि निर्माण की प्रेरणा ।
इनसे भिन्न ---ज्ञान का लेखन तो -समाचार बाचन,या तुकबंदी ही रह जायगा । अतः काव्य-लेखन के मुख उद्देश्य निम्न होते हैं ...
१.स्वान्त सुखाय...जो ह्रदय से निकली कविता होती है, प्रेम गीत, भजन आदि परन्तु वही समष्टिगत होने पर प्रांत सुखाय व जन जन सुखाय भी हो जाती है |
२.जन रंजन के साथ स्वान्त सुखाय ....व्यक्तित्व व समष्टि निर्माण की प्रेरणा से रचित काव्य सुखानंद, काव्यानंद द्वारा ब्रह्मानंद सुख ...ह्रदय के उद्गारों का बुद्धि व अनुभव के तालमेल से उत्पन्न हुई कविता | खंड-काव्य, महाकाव्य, देशभक्ति के काव्य, प्रसिद्द व्यक्तित्वों धार्मिक-एतिहासिक चरित्रों, दार्शनिक व धार्मिक तत्वों व ग्रंथों की व्याख्या हेतु रचित काव्य...
३.सामायिक काव्य ...जिसमें कवि अपने देश-धर्म-काल के नागरिक दायित्व को पूर्ण करता है..यथा मनोरंजन पूर्ण काव्य, सामयिक शौर्य गाथाएँ, राजनीति आदि पर आधारित काव्य...
आज सूचना युग में सारा ज्ञान कंप्यूटर से मिलजाने के कारण इलेक्ट्रोनिक मीडिया ,दूर दर्शन आदि से सुखानंद प्राप्ति व उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से उपरोक्त तीनों प्रयोजन निष्प्रभावी होजाने से कविता की समाज में निष्प्रभाविता बढ़ी है।
प्रायः यह कहा जाने लगा है कि कवि को भी बाज़ार, प्रचार आदि के आधुनिक हथकंडे अपनाने होंगे । परन्तु प्रश्न है कि यदि कवि यह सब करने लगे तो वह ह्रदय से उदभूत कविता कैसे रचेगा? वह भी व्यापारी नहीं बन जायगा? क्या स्वयं समाज का कविता,कवि व समाज के व्यापक हित के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है ? ताली दौनों हाथों से बज़ती है।
घ.कविता
का
घ
…. काव्य क्या है....
सभी के अनुभव व विचार लगभग समान ही होते है | ज्ञान भी समान हो सकता है परन्तु विचारों की गंभीरता, सूक्ष्मता, निरीक्षण की गहनता, चिंतन, व अभिव्यंजना सभी की पृथक पृथक होती है | इसीलिये मानव समूह में साहित्यकार, विद्वान्, विचारक, चिन्तक, ज्ञानी, सामान्य आदि वर्ग होते हैं| यथा ...
सर्व ज्ञान संपन्न विविधि नर,
सभी एक से कब होते हैं |
अनुभव श्रृद्धा तप व भावना,
होते सबके भिन्न भिन्न हैं |
भरे जलाशय ऊपर समतल,
होते ऊंचे -नीचे तल में || ---शूर्पणखा काव्य-उपन्यास से
जब कोई घटना , तथ्य या कथ्य, स्थिति, विषय-वस्तु अथवा भाव ..मन को गहराई तक स्पर्श करते हैं एवं अंतर्मन को मंथित करते हैं तो भावुक मन उसे अपने काम से काम के भाव में यूंही छोड़कर आगे नहीं बढ़ जाता | वह प्रतिक्रया स्वरुप उसके समाधान या समाधान पाने के प्रयत्न में अन्य हृदयों से, जन सामान्य से समन्वय या समर्थन की इच्छा में अपने विचार प्रस्तुत करना चाहता है | साहित्य लेखन, काव्य, गायन, वादन , चित्रकला इसी इच्छा के फल हैं| भावुक मन में जब भाव आत्म-तत्व को मंथित करते हैं तो कोमल भावनाएं गेय रूप में निसृत होती हैं और कविता बन जाती हैं|
सामान्य व्यक्ति की भाषा विवरणात्मक होती है तो कवि की भाषा में विशिष्टता व भावों व शब्दों की संश्लिष्टता होती है सामान्य भाषा में जो तथ्य मान्य नहीं हो सकते वे काव्य की भाषा में भावालंकार रूप में सौन्दर्ययुक्त व मान्य माने जाते हैं | कविवर रविंद्रनाथ टेगोर का कथन है कि...
‘हृदयवेग में जिसकी सीमा नहीं मिलती उसको व्यक्त करने के लिए सीमाबद्ध भाषा का घेरा तोड देना पडता है, यह घेरा तोड देना ही कवित्व है।‘
सामान्य भाषा में एक ही निश्चित अर्थात्मक तथ्य होते हैं, यथा.... मनुष्य चलता है, पेड़ों की डालियाँ हवा में हिलती हैं, चिडिया उड़ती है, घोड़ा दौडता है आदि.....वहीं कविता में पेड.. डालियाँ रूपी गर्दन हिलाते हैं, घोड़ा हवा से बातें करता है अर्थात काव्य में जड़ तत्वों की भाव ग्राहयता के साथ सौन्दर्य भी है। सामान्य भाषा को विशिष्ट भाव-शब्द देने के कारण उत्पन्न होने वाली सौन्दर्यमय, भाव-सम्प्रेषणात्मकता युक्त, सर्जनात्मक भाषा... कविता व साहित्य की भाषा है। कविता में भाषा की सर्जनात्मकता, भाषा व कथ्य के निश्चित अर्थ के विपरीत शब्द-भावों का लाक्षणिक प्रयोग करके भिन्न सौन्दर्यमय अर्थवत्तात्मकता उत्पन्न की जाती है। यही काव्य है।
काव्य -- मानवीय सृजन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण –
काव्य मानव-मन की संवेदनाओं का बौद्धिक सम्प्रेषण है--मानवीय सृजन में सर्वाधिक कठिन व रहस्यपूर्ण ; क्योंकि काव्य अंतःकरण के अभी अवयवों ---चित्त (स्मृति व धारणा ), मन ( संकल्प ), बुद्धि ( मूल्यांकन ), अहं ( आत्मबोध ) व स्वत्व (अनुभव व भाव ) आदि सभी के सामंजस्य से उत्पन्न होता है | तभी वह युगांतरकारी, युगसत्य, जन सम्प्रेषणीय, विराट-सत्याग्रही, बौद्धिक विकासकारी व सामाजिक चेतना का पुनुरुद्धारक हो पाता है |
काव्य--- इतिहास, दर्शन या विज्ञान के भांति कोरा कटु यथार्थ न होकर मूलरूप से वास्तविक व्यवहार जगत के अनुसार सत्यं, शिवं, सुन्दरं होता है, तभी उसका कथ्य युगानुरूप के साथ सार्वकालिक सत्य भी होता है| साहित्यकार का दायित्व- नवीन युग-बोध को सही दिशा देना होता है तभी उसकी रचनाएँ कालजयी हो पाती हैं| आधुनिक व सामयिक साहित्य रचना के साथ-साथ ही सनातन व एतिहासिक विषयों पर पुनः-रचनाओं द्वारा समाज के दर्पण पर जमी धूलि को समय-समय साफ़ करते रहने से समयानुकूल प्रतिबिम्ब नए-नए भाव-रूपों में दृश्यमान होते हैं एवं प्रगति की भूमिका बनते हैं|
साहित्य व काव्य को किसी भाषा , शाखा या गुट-विशेष की रचनाधर्मिता न होकर काव्य की समस्त शक्तियों, भावों, शब्दों व सम्भावनाओं का उपयोग करना होता है| प्रवाह व लय काव्य की विशेषताएं हैं जो विषय, भाव व सम्प्रेषण-क्षमता एवं समाज की सार्वकालीन आवश्यकतानुसार प्रत्येक काव्य-विधा में होनी चाहिए चाहे वह विधा छंदोबद्ध काव्य हो या मुक्त-छंद काव्य | अतः गीत- अगीत, तुकांत-अतुकांत, छंद आदि कोई विवाद का विषय नहीं होना चाहिए |
काव्य ---सत्यं शिवं सुन्दरम ---
काव्य सौंदर्य-प्रधान हो या सत्य-प्रधान - इस पर पूर्व व पश्चिम के विद्वानों में मतभेद हो सकता है | आचार्यों के अपने अपने मतभेद व तर्क हैं| सृष्टि की प्रत्येक वस्तु व भाव, कर्म की भाँति काव्य-कविता व समस्त साहित्य को भी " सत्यं शिवं सुन्दरम " होना चाहिए | साहित्य का कार्य सिर्फ मनोरंजन न होकर जन-रंजन के रूप में समाज को एक दिशा देना होता है और सत्य के बिना कोई दिशा, दिशा नहीं हो सकती | सिर्फ कलापक्ष को सजाने हेतु एतिहासिक, भौगोलिक व तथ्यात्मक सत्य को अनदेखा नहीं करना चाहिए |
स्वतः स्फूर्त रचना,स्वांत-सुखाय व सर्वग्राही होती है | रचनाकार को वह सद्य-प्रसूता जननी की भांति सृजन की सुखानुभूति देती है | उसके अंतर के पुरुष-तत्व के अहं की तुष्टि करती है | आदि-सृष्टि की रचना भी तो उस परम-तत्व, आदि-सृष्टा की स्वतः स्फूर्त व स्वांत-सुखाय, सृजन-प्रवृत्ति की सुखानुभूति एवं 'एकोहं बहुस्याम ' के ईषत-अहं की तुष्टि ही है | इसी से सृजन-धर्मिता असत से सतकी ओर प्रस्फुटित होती है | जब सुधीजन उस रचना को अपने-अपने दृष्टिकोण से परखते हैं तभी वह रचना सर्वांत-सुखाय व सर्वग्राही भी हो पाती है |
आज कल काव्य की विंडम्बना.....
मुझे लगता है यह विडम्बना ही है कि एक ओर तो हम एकाक्षरी-द्वयाक्षरी आदि छंद के रूप में हर छंद आखर-शब्द को ही छंद मानते हैं ..बालक द्वारा प्रथम शब्द..माँ ..एक छंद ही है आदि आदि, दूसरी ओर मुक्त छंद, अतुकांत छंद आदि को अछूत | वस्तुतः हमारी सनातन छंद परम्परा तो देववाणी संस्कृति के अतुकांत छंदों से ही है | जब संस्कृत भाषा ज्ञान के तप, साधना, व धैर्य की कमी के कारण तालबद्धता व संगीतमयता की विलुप्ति से संस्कृत का जन साधारण द्वरा प्रयोग में ह्रास हुआ, जनभाषा प्राकृत व अपभ्रंश से होते हुए हिन्दी तक आई तो तुकांत छंदों का आविर्भाव हुआ और तुकांत कविता मुख्य हुई | परन्तु हिन्दी साहित्यकारों द्वारा मुक्त छंद काव्य व अतुकांत रचनाओं की प्रस्तुति भी होती रही| मैथिली शरण गुप्त जी के खंडकाव्य ‘सिद्धराज में देखें –
तो फिर-
सिद्धराज क्या हुआ
मर गया हाय,
तुम पापी प्रेत उसके |
छंद क्या है --- वे जो सिर्फ छंदोबद्ध कविता ही की बात करते हैं, वस्तुतः छंद, कविता, काव्य-कला व साहित्य का अर्थ ठीक प्रकार से नहीं जानते-समझते एवं संकुचित अर्थ व विचार धारा के पोषक हैं। वे केवल तुकांत-कविता को ही छंदोबद्ध कविता कहते हैं। कुछ तो केवल वार्णिक छंदों -कवित्त, सवैया, कुण्डली आदि को ही छंद समझते हैं।
वस्तुतः कविता, काव्य-कला, गीत आदि नाम तो बाद मैं आए। पद्य विधा का आविर्भाव तो छंद - नाम से ही हुआ। छंद ..ही कविता का वास्तविक सर्वप्रथम नाम है। अतः छंद ही कविता है, हर कविता छंद है -तुकांत, अतुकांत; गीत-अगीत सभी... छंद का अपना ही एक विस्तृत आकाश है।
मुक्त छंद कविता व अगीत ---वस्तुतः कविता वैदिक, पूर्व-वैदिक, पश्च-वैदिक व पौराणिक युग में भी सदैव
मुक्त-छंद रूप
ही थी| कालान्तर में मानव सुविधा स्वभाव वश, चित्रप्रियता वश- राजमहलों, संस्थानों, राजभवनों, बंद कमरों में सुखानुभूति प्राप्ति
हित कविता छंद-शास्त्र
के बंधनों व पांडित्य
प्रदर्शन के बंधन
में बंधती गयी | नियंत्रण और अनुशासन प्रबल होता गया तथा वन-उपवन में मुक्त, स्वच्छंद विहरण करती कविता कोकिला ,गमलों व वाटिकाओं में सजे पुष्पों की भांति बंधनयुक्त होती गयी एवं स्वाभाविक, हृदयस्पर्शी, निरपेक्ष काव्य, विद्वता प्रदर्शन व सापेक्ष कविता में परिवर्तित होता गया |
प्रवाह व लय काव्य की विशेषताएं हैं जो काव्य के विषय-भाव व भाव सम्प्रेषण क्षमता की आवश्यकतानुसार छंदीय काव्य में भी होसकती हैं मुक्त-छंद काव्य में भी| अतः गीत-अगीत कोई विवाद का विषय नहीं हैं गेयता दोनों में ही होती है | वस्तुतः स्वयं संगीत व काव्य-गीत से अन्यथा कोई रचना पूर्ण गेय नहीं होती |
हर नई विधा में कुछ चमत्कार होता है, परन्तु यदि उसमें समाज में अपेक्षित संस्कार, साहित्य के उचित गुण, भाव, कला व देश कालानुसार आस्था भी होती है तो वह कालजयी होती है, उसका समादर होता है, होना ही चाहिए|
स्वतन्त्रता के पश्चात हम काव्य के विषय चुनने में भटक गए कोई लक्ष्य ही नहीं रहा | पाश्चात्य हलचल की चकाचौंध में हम पूर्व व पश्चिम के जीवन तत्वों व व्यवहार में तादाम्य व समन्वय नहीं कर पाए | भौतिक सुखों व धनागम के ताने-बाने, उपकरण, साधन चुनते-बुनते हम साहित्य में भी अपने स्वदेशी विषय-भावों से भटककर जीवन के वास्तविक आनंद से दूर होते गए | विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों, मनीषियों ने अपने कर्त्तव्य नहीं निभाये | समाज के इसी व्यतिक्रम ने व्यक्ति को कविता व साहित्य से क्या दूर किया जीवन से ही दूर कर दिया | और चक्रीय प्रतिक्रया-व्यवस्थानुसार स्वयं साहित्य भी व्यक्ति से दूर जाने लगा |
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने दशकों पूर्व वाराणसी के एक कार्यक्रम में कविता की चर्चा करते हुए कहा था कि कविता रोटी नहीं देगी, कपड़ा नहीं देगी, मकान नहीं देगी - फिर उसका हमारे लिये क्या उपयोग हो सकता है? उन्होंने इन सवालों का उत्तर देते हुये कहा था कि यह ठीक है कि कविता हमें किसी तरह का भौतिक सुख नहीं दे सकती लेकिन वह उससे भी बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य करती है - एक बेहतर इन्सान बनाने का काम. जीवन में वह सहचर भाव से हमारे साथ हमेशा रहेगी, संवेदनाओं को निरन्तर सम्पन्न बनाती हुई. कविता में निहित होती है सृजन की आकांक्षा. वह जीवन को कोमल, सहज तथा सुखद बनाये रखने का प्रयास करती है
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