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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त
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सोमवार, 22 जुलाई 2013

साहित्य और मार्केटिंग ----डा श्याम गुप्त की कहानी -----

                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                                        ‘यार, क्या ये फालतू में कविता, उपन्यास लिखते रहते हो | 8-10 किताबें लिख डालीं कोई पूछता भी है ?’ डा अग्रवाल कहने लगे | डा राजीव अग्रवाल मेरे चिकित्सा-महाविद्यालय के सहपाठी व मित्र हैं, हम लोग एक  ही नगर से भी हैं, वे आर्थोपेडिक सर्जन हैं, बोले,’ देखो चेतन भगत को, बेस्ट सेलर है |’
          पर यार राजीव, ‘मैं अंग्रेज़ी में क्यों लिखूं, विदेशी भाषा को प्रश्रय क्यों दूं ? मैं तो हिन्दी में, हिन्दुस्तान के लिए लिखता हूँ |’ मैंने कहा |
          कोई खरीदता भी है तेरी किताबों को, कहीं दिखाई तो देती नहीं हैं|’
          हाँ यार, बात तो सही कह रहे हो| अब तूने भी मेरी कोई किताब खरीदी है कभी ?
          अबे! यार-दोस्तों से ही खरीद्वायेगा | कुछ को तो फ्री में बांटनी ही पड़ती हैं |
          सच कह रहे हो, अधिकांश तो बांटने में ही जाती हैं | कम से कम मित्र लोग पढ़ तो लेते हैं अन्यथा आजकल कौन कविता को......| पर हाँ यार, वो तेरी तथाकथित कालिज वाली भाभीजी थी न, कह रही थी कि मैंने तुम्हारी सभी किताबें खरीदी हैं, अच्छा लिख रहे हो | चलो किसी ने तो खरीदी ... मैं मुस्कुराया |
          ‘अबे, तुझे वो कहाँ से मिल गयी, इतने मुद्दतों बाद ? राजीव आश्चर्य से कहने लगा |
          यूंही एक दिन ट्रेन में मुलाक़ात होगई | तुरंत ही पहचान कर बोली.. . अरे तुम! क्या लिख रहे हो आजकल |’ मैंने बताया तो राजीव हँसते हुए बोला,अरे आश्चर्य क्या है, तुझे कौन नहीं पहचानेगा, फिर वो तो.....| तू यह सोच कि मिलते ही कैसे हो, क्या कर रहे हो, कहाँ डाक्टर हो पूछने की बजाय ..लिखने की पूछने का क्या अर्थ समझा ....यही कि पहले भी वह तुझे डाक्टर की बजाय कविता के कीड़े वाला फालतू कवि-लेखक समझती थी और अब भी....उसे देखना था कि तुम सुधरे हो या नहीं |
          अपनी अपनी समझ है भाई,किसी ने पूछा तो कविता-लेखन के बारे में हम तो इसी में ख़ुश हैं |’ मैंने भी हंसकर कहा |
          खैर वो सब छोड़, डा अग्रवाल कहने लगे, ‘ बेकार फालतू में ही गुणा-भाग करने का क्या फ़ायदा, क्या जरूरत है | ये बता कि इस कविता–वविता से कुछ फायदा भी होता है या यूंही | देख चेतन भगत, हेरीपोटर जैसे बेस्ट सेलर हों तो कुछ मजा आये |’
         बविता का तो पता नहीं, हाँ कविता....‘वो सब तो अंग्रेज़ी वालों के दंद-फंद हैं | जासूसी की, इधर-उधर की ऊटपटांग, जादू-फंतासी ...कुछ भी हो, अंग्रेज़ी में हो ... हमारे आज भी मानसिक गुलामी ग्रस्त देश में अंग्रेज़ी और बिकने वाली चीज हो, तमाम धन्धेबाज़ प्रकाशक, किताब बेचने-छापने वाले दौड़े –दौड़े चले आयेंगे और ये बेस्ट-सेलर टेग भी तो पब्लीसिटी स्टंट है | ऐसी ऐसी पुस्तकों पर बेस्ट-सेलर लिखा होता है कि....| ये सब धंधेबाजी की, बाज़ार की बातें हैं|’ मैंने कुछ व्याख्या करके समझाना चाहा |
          अरे धंधा तो है ही, अन्यथा धंधा नहीं होगा तो क्यों कोई यूंही व्यर्थ में सिर खपायेगा | उन्होंने तर्क दिया |
         धंधा ही करना है तो कटोरा लेकर बैठ जायं न, दे दे बावा.. देदे ...खुदा के नाम पर देदे ..| मैंने हँसते उए कहा ,’आजकल भिखारी भी करोड़पति होते हैं या पान की दूकान खोल ली जाय ..या हलवाई, दर्जी, मोची भी तो आजकल ब्रांडेड होने लगे हैं| बड़ी-बड़ी कोठियां खडी कर रहे हैं .. इनकमटेक्स भी देते हैं | सौ प्रतिशत चोर बाजारी करके ...२५% टेक्स व ७५% टेक्स चोरी |’
        अखबार का धंधा भी अच्छा है | मैं आगे आगे कहा,’पत्रकार भी, धंधा भी  साहित्यकार भी | वो अपने साथ एकेडेमिक कालिज वाला छात्र नेता दोस्त नहीं था, अध्यक्ष पद का प्रत्यासी.....|
        हाँ हाँ वही न जो तुझे साथ लेगया था कालिज केम्पस में बोयज़-गर्ल्स हास्टल में कन्वेसिंग के लिए और हार गया था ....तो  ...? राजीव हंसने लगा |
        हाँ वही पत्रकार बन गया और महीने में ५-१० अखबार छाप कर बाकी सारा कोटे का कागज़ ब्लेक में बड़े अखबार वालों को बेच दिया करता था | मैंने बताया |
        ‘तुम नहीं सुधरोगे यार!’ डा अग्रवाल कहने लगे |
        हाँ, तेरा कोई परिचित पब्लिशर मित्र हो तो बता, उससे कह कि मेरी पुस्तकें पब्लिश किया करे | मैंने अचानक कहा |
        तू हंसने हंसाने वाली जोरदार कविता-किताबें लिखाकर,  देख बड़े बड़े कवि सम्मलेन होते हैं, लिफ़ाफ़े मिलते हैं, तमाम कवि तो रेट तय करके ही जाते हैं|
        ‘हास्य-व्यंग्य भी कोई साहित्य है| ये लोग तो स्टेज पर समाचार पढ़ते हैं, रोने गाने की भावुक कवितायें  या नेताओं, पत्नियों पर चुटुकुले, भौंडे व्यंग्य, फूहड़ हास्य...शराब पीकर | कविता पढ़ने के लिए रात रात भर जागना, बैठे रहना | सब धंधा है, दारू के लिए.. लाबी बनाने के लिए | तभी तो कविता आज अपना प्रभाव खोचुकी है जन-संस्कार बोधकता पर |  पहले कहाँ होते थे ये पूर्णकालीन हास्य-व्यंग्य के कवि आदि बस नाटकों में या उपन्यासों आदि में नट-नटी, विदूषक होते थे फिलर की भांति| साहित्य व साहित्यकार तो सामाजिक सरोकार युक्त होते थे|’ मैं अपनी ओर से समझाते हुये बताने लगा |
        ‘तुम क्या कह रहे हो, ये सब तो मेरे सिर के ऊपर से जारहा है | मुझे तो यही समझ में आता है कि जब कोई कविता पढी-सुनी ही नहीं जायगी तो उसका फ़ायदा ही क्या | डा अग्रवाल ने कहा |
          ‘यह भी ठीक ही कहा’, मैंने कहा,’ ‘पर सभी ऐसा कहाँ कर पाते हैं | फिर कविता, साहित्य,पुस्तकों की रचना तो समाज को उठाने के लिए की जाती है न कि स्वयं को गिराने के लिए | कविता स्वांत-सुखाय होती है जिसके तत्व बाद में परांत-सुखाय होजाते हैं | किसी ने वैसे  भी सच ही कहा है कि हिन्दी कवि व साहित्यकार मार्केटिंग नहीं कर पाता |


गुरुवार, 23 जुलाई 2009

सूर्य ग्रहण --यह मेला -वह मेला,,धार्मिक अंधविश्वास -वैज्ञानिक अंधविश्वास ,कितना अन्तर ,क्या अन्तर ?

सूर्य ग्रहण पर एक तरफ़ तो नदियों ,तालावों ,मंदिरों ,पूजाघरों में मेले लगे ;दूसरी तरफ़ चश्मे लेलेकर जगह जगह ग्रहण देखने की उत्सुकता में वैज्ञानिक केन्द्रों तमाम शहरों ,वायुयानों आदि में मेले लगे |कहा है-"उत्सव प्रियः मानवाः "- दोनों तरह के मेलों में क्या अन्तर है?इस तरह से भी विचार कीजिये---
१- भीड़ दोनों ही जगह एकत्र हुई ,स्नान वालों की भीड़ -सोद्देश्य ,पर दुःख में दुखी ( परमार्थी भाव ), परार्थ भाव से,उत्तम भाव से एकत्र हुई । क्यूंकि ज्योतिष के अनुसार राहू सूर्य को ग्रषित करके कष्ट देता है ,अतः दान पुन्य करना चाहिए । बस समाज के लिए एक बहाना है गरीवों ,निचले तबकों पर दया व सद्भाव ,सामाजिक स्वीकृति दिखाने का ,उनके अर्थ लाभ का । मानवता वादी प्रवृत्ति है|
सिर्फ़ विज्ञान भाव से ग्रहणदेखने वालों की भीड़ -आर्श्चय,कौतूहल,मनोरंजन,हम भी की प्रतियोगिता, धन (टिकट)का दिखावा ,सिर्फ़ अपना स्वयं के ज्ञान ,जानकारी ,अर्थात सिर्फ़ अपने लिए एकत्र हुए थे ,क्योंकि वह सिर्फ़ एक घटना मात्र थी ,चन्द्रमा की छाया ,कहीं कोई सुख-दुःख या परार्थ भाव नहीं सिर्फ़ "में " और अहम् को जन्म देता भाव ।

२-- स्नान वाले लोगों के मेले से स्थानीय लोगों को ही आर्थिक लाभ हुआ एवं जनता का अपना अपना धन सोद्देश्य खर्च हुआ ,जबकि सिर्फ़ कौतुहलवश एकत्र मेले में सरकारी धन खर्च हुआ व कुछ स्थानीय जन के लाभ के साथ विमान कंपनिया ,चश्मे की कंपनियाँ आदि धन्ना सेठों का , टी वी ,विज्ञापन आदि का धंधा हुआ एवं तमाम जनता का हफ्तों से समय व धन बरबाद हुआ |
३- जिन्होंने देखा उन्हें क्या मूल लाभ हुआ,क्या तीर मार लिया , जिन्होंने न देखा उन्हें क्या हानि हुई ?क्या ये वैज्ञानिक अंधविश्वास नहीं है ?

४-धार्मिक विश्वास (तथाकथित अंध विश्वास) ग्रहण देखने को मना करता है, विज्ञान भी नंगी आँखों से देखने को मना करता है , क्या अन्तर है ,तब चश्मे नहीं होते थे।
५- ज्योतिष , धार्मिक मान्यता के अनुसार ,सूर्य को राहू ग्रषित करता है,राहू व केतु छाया ग्रह माने जाते हैं ,अतः होसकता है छाया को ही राहू व केतु कहा गया हो ,भाव रूप में जैसा कि भारतीय तरीका है कथन का,रहू व केतु के पौराणिक प्रकरण में चन्द्रमा की ही प्रमुख भूमिका थी । विज्ञान के अनुसार भी तो चन्द्रमा की छाया सूर्य को ग्रषित करती है। दोनों ग्रहणों में चन्द्रमा की प्रमुख भूमिका होती है। ---क्या अन्तर है।

६-वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य के ढँक जाने पर रेडिएशन कम होजाते हैं , यह भी सोचें ,चन्द्रमा से रेडिएशन रूक जाते हैं व एकत्र होजाते हैं तथा हटने पर सभी एक साथ अधिक मात्रा में प्रथ्वी पर आते हैं , इसीलिए जल से शरीर व स्थानों को प्रक्षालन किया जाता है, खाना नहीं बनाया जाता आदि।
७।ग्रहण में पशु पक्षियों का व्यवहार सदियों से जन-जन को पता है ,विज्ञान अभी नया-नया है अतः प्रयोग कर रहा है।

क्या अन्तर है इस मेले में उस मेले में | पुराना भारतीय ज्ञान अन्धाविवास ,नया अंधविश्वास विज्ञान !!!