सूर्य ग्रहण पर एक तरफ़ तो नदियों ,तालावों ,मंदिरों ,पूजाघरों में मेले लगे ;दूसरी तरफ़ चश्मे लेलेकर जगह जगह ग्रहण देखने की उत्सुकता में वैज्ञानिक केन्द्रों व तमाम शहरों ,वायुयानों आदि में मेले लगे |कहा है-"उत्सव प्रियः मानवाः "- दोनों तरह के मेलों में क्या अन्तर है?इस तरह से भी विचार कीजिये---
१- भीड़ दोनों ही जगह एकत्र हुई ,स्नान वालों की भीड़ -सोद्देश्य ,पर दुःख में दुखी ( परमार्थी भाव ), परार्थ भाव से,उत्तम भाव से एकत्र हुई । क्यूंकि ज्योतिष के अनुसार राहू सूर्य को ग्रषित करके कष्ट देता है ,अतः दान पुन्य करना चाहिए । बस समाज के लिए एक बहाना है गरीवों ,निचले तबकों पर दया व सद्भाव ,सामाजिक स्वीकृति दिखाने का ,उनके अर्थ लाभ का । यह मानवता वादी प्रवृत्ति है|
सिर्फ़ विज्ञान भाव से ग्रहणदेखने वालों की भीड़ -आर्श्चय,कौतूहल,मनोरंजन,हम भी की प्रतियोगिता, धन (टिकट)का दिखावा ,सिर्फ़ अपना स्वयं के ज्ञान ,जानकारी ,अर्थात सिर्फ़ अपने लिए एकत्र हुए थे ,क्योंकि वह सिर्फ़ एक घटना मात्र थी ,चन्द्रमा की छाया ,कहीं कोई सुख-दुःख या परार्थ भाव नहीं सिर्फ़ "में " और अहम् को जन्म देता भाव ।
२-- स्नान वाले लोगों के मेले से स्थानीय लोगों को ही आर्थिक लाभ हुआ एवं जनता का अपना अपना धन सोद्देश्य खर्च हुआ ,जबकि सिर्फ़ कौतुहलवश एकत्र मेले में सरकारी धन खर्च हुआ व कुछ स्थानीय जन के लाभ के साथ विमान कंपनिया ,चश्मे की कंपनियाँ आदि धन्ना सेठों का , टी वी ,विज्ञापन आदि का धंधा हुआ एवं तमाम जनता का हफ्तों से समय व धन बरबाद हुआ |
३- जिन्होंने देखा उन्हें क्या मूल लाभ हुआ,क्या तीर मार लिया , जिन्होंने न देखा उन्हें क्या हानि हुई ?क्या ये वैज्ञानिक अंधविश्वास नहीं है ?
४-धार्मिक विश्वास (तथाकथित अंध विश्वास) ग्रहण देखने को मना करता है, विज्ञान भी नंगी आँखों से देखने को मना करता है , क्या अन्तर है ,तब चश्मे नहीं होते थे।
५- ज्योतिष , धार्मिक मान्यता के अनुसार ,सूर्य को राहू ग्रषित करता है,राहू व केतु छाया ग्रह माने जाते हैं ,अतः होसकता है छाया को ही राहू व केतु कहा गया हो ,भाव रूप में जैसा कि भारतीय तरीका है कथन का,रहू व केतु के पौराणिक प्रकरण में चन्द्रमा की ही प्रमुख भूमिका थी । विज्ञान के अनुसार भी तो चन्द्रमा की छाया सूर्य को ग्रषित करती है। दोनों ग्रहणों में चन्द्रमा की प्रमुख भूमिका होती है। ---क्या अन्तर है।
६-वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य के ढँक जाने पर रेडिएशन कम होजाते हैं , यह भी सोचें ,चन्द्रमा से रेडिएशन रूक जाते हैं व एकत्र होजाते हैं तथा हटने पर सभी एक साथ अधिक मात्रा में प्रथ्वी पर आते हैं , इसीलिए जल से शरीर व स्थानों को प्रक्षालन किया जाता है, खाना नहीं बनाया जाता आदि।
७।ग्रहण में पशु पक्षियों का व्यवहार सदियों से जन-जन को पता है ,विज्ञान अभी नया-नया है अतः प्रयोग कर रहा है।
क्या अन्तर है इस मेले में उस मेले में | पुराना व भारतीय ज्ञान अन्धाविवास ,नया अंधविश्वास विज्ञान !!!
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- एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त
गुरुवार, 23 जुलाई 2009
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2 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! आपके पोस्ट के दौरान अच्छी जानकारी प्राप्त हुई! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
कुछ लोग आंसुओं में दर्द को बहा देते हैं,
और किसी का दर्द हँसी में छुपा होता है !
मेरा नाम जोकर में राज कपूर जी ने शायद यह किरदार बखूबी निभाया
सच ही कहा है, पर मनुष्य- मनुष्य मे सिर्फ यही गुण जुदा नहीं होता है, बल्कि और भी गुण मनुष्य - मनुष्य में जुदा होते है, "बैच फ्लावर चिकत्सा" में इसका विस्तृत वर्णन पढने को मिल सकता है.
मगरमच्छी आंसुओं का जिक्र नहीं जिसने सच के आंसुओं पर से भी विश्वास उठा रखा है.
अपने दर्द को हंसीं में छिपा रखने वाले व्यक्ति सबसे जीवंत होते हैं, शायद उनका विश्वास जियो और जीने दो में ज्यादा होता है.
कुल मिला कर सुन्दर प्रस्तुति.
बधाई.
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