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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

डा श्याम गुप्त की ग़ज़ल....साहित्य----

साहित्य सत्यम शिवम् सुन्दर भाव होना चाहिए|
साहित्य शुचि शुभ ज्ञान पारावार होना चाहिए।

समाचारों के लिए अखबार छपते तो हैं रोज़ ,
साहित्य तो सरोकार-समाधान होना चाहिए ।

आज हम उतरे हैं इस सागर में यह कहने कि हाँ ,
साहित्य, सागर है तो सागर-भाव होना चाहिए।

डूब कर उतरा सके जन जन व मन मानस जहां ,
भाव सार्थक, अर्थ भी संपुष्ट होना चाहिए।

क्लिष्ट शब्दों से सजी, दूरस्थ भाव न अर्थ हों ,
कूट भाव न हों,सुलभ संप्रेष्य होना चाहिए।

चित्त भी हर्षित रहे, नव प्रगति भाव यथा रहें ,
कला सौन्दर्य भी सुरुचि, शुचि, सुष्ठु होना चाहिए।

ललित भाषा, ललित कथ्य,न सत्य तथ्य परे रहे ,
व्याकरण शुचि शुद्ध सौख्य-समर्थ होना चाहिए।

श्याम, मतलब सिर्फ होना शुद्धतावादी नहीं ,
बहती दरिया रहे पर तटबंध होना चाहिए॥

सोमवार, 27 सितंबर 2010

नासमझी के गलत संदेश...डा श्याम गुप्त ...


-इस आलेख में लेखक का कथन कि---- १-गाँव का भारत /शहर का भारत; बन्चितों का भारत/शाइनिंग भारत आपस में लड़ रहे हैं , इस टकराव से इनकार नहीं किया जासकता
---क्यों भाई आखिर आप इसे टकराव मानते ही क्यों हैं , नासमझी का खेल है, पुराने नए में समन्वय क्यों नहीं कर /कह सकते ? टकराव तो वहां होता है जहां अहं होता है और नए का पुराने से अहं कैसा क्यों ? सीख व समझ क्यों नहीं?
-जिन हाथों में खेलहै वे पुराने भारत का प्रतिनिधित्व करते है, जो भ्रष्ट ,आलसी,अक्षम, अराजक.....पूरा मन्त्रि मन्डल’ सब चलता है’ का रवैयावालों से भरा है...
-----क्यों भाई, क्या मन्त्री, मुख्य मन्त्री,प्रधान मन्त्री -कल्माडी, चिदम्बरम( आधुनिक शिक्षा प्राप्त-कान्वेन्ट व विदेश में), सभी मन्त्री-मंडल( जिसमें युवाओं की भी भागी दारी है) सभी कामचोर ,भ्रष्ट,अक्षम आदि हैं-तो फ़िर क्यों आपने उन्हें देश चलाने के लिये चुना?---क्या आधुनिक युवा जो चोरी, लूट,बे ईमानी , डकैती, वलात्कार, हत्या, गिर्ल फ़्रेन्ड को लूट के माल से घुमाते हुए व महाभ्रष्टाचार में पकडे जारहे है वे नया भारत हैं, सक्षम हैं।------क्या चंद अन्ग्रेज़ी दां, ऊल-जुलूल घ्रणित खेल खेलते हुए, सट्टेबाज़ी से लिप्त, पैसे के लिये कुछ भी विग्यापन करते हुए, सारी विदेशी बस्तुएओं का ही भरपूर उपभोग करते हुए- युवा , नया भारत है ??
३-दुनिया भारत को दोस्त बनाने व निवेश करने को आतुर है.....
------क्या आप /दुनिया नहीं जानती एसा क्यों है--अपना बाज़ार बनाने के लिये अपनी सन्श्क्रिति आदि के गुप्त अजेन्डे को उतारने के लिये --कोई आपको मुफ़्त में दोस्त व निवेश भागीदार नहीं बनाता । आप स्वयं क्यों नही अपना बाज़ार/अर्थशास्त्र बनाते, अपनी संस्क्रित के अनुसार , बाहर का निवेश क्यों चाहिये। कमीशन के लिये?
----नसमझी के इन बिन्दुओं,विचारों,आलेखों से युवा , बच्चों व सामान्य जन में गलत संदेश जाता है कि पुराने व पुराने पीढी के लोगों को दूर करना चाहिये , वे नासमझ व असक्षम हैं। आखिर कब तक हम विदेशों के धन, विदेशी संस्क्रिति( नहीं कल्चर) पर आत्म मुग्धता व स्व-संस्क्रिति की अग्यानता के कारण, आत्म-कुन्ठा, स्व संस्क्रिति-दोषान्वेषण की घातक प्रव्रत्ति, पराभूत भाव दर्शाने से बाज़ आयेंगे।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

अयोध्या प्रकरण पर दो विचारों की व्याख्या...डा श्याम गुप्त.

अयोध्या प्रकरण पर दो विचार ---आज यहां हम दो विचारों पर विवेचना करेंगे---

१.नेहरू जी का लाहौर-मस्ज़िद-प्रकरण पर आलेख-"इन्सान जो तजुर्वे से नहीं सीखता"-हि हिन्दुस्तान-- २३/९/१० --. कुस्तुन्तुनिया की सेन्ट सोफ़िया गिरिज़ाघर को सोफ़िया मस्ज़िद बनाए जाने व मुस्तफ़ा कमाल द्वारा पुनः ईसाई जमाने को वापस करने संबन्धी आलेख ---नेहरू जी कहते हैं कि “…बाजेन्टाइन जमाना तुर्कों के आने से पहले का ईसाई जमाना था इसलिये अब आया-सुफ़ीया(मस्ज़िद) एक प्रकार से फ़िर ईसाई जमाने में वापस चली गई, मुस्तफ़ा कमाल के आदेश से ।

--------क्या कहना चाहते हैं नेहरू जी १९३५ में, सोचिये , अयोध्या के लिये राम पुराने हैं या हज़ारों साल बाद आया बाबर ?

२. राम चन्द्र गुहा का आज का आलेख—"रूमी, गान्धी और अयोध्या"---हि हिन्दुस्तान२४/९/१०----गान्धीजी द्वारा पढी गई अन्ग्रेज़ी पुस्तक एफ़ हडलेन्ड डेविस की “द विज़्डम ओफ़ ईस्ट” में किसी एक महान जलालुद्दीन रूमी का पूर्वी विचारक की भांति उनके विचार रखना कि “…उन्हें ईश्वर न सलीब पर, न मन्दिर में न हेरात में न कंधार ,पहाड व गुफ़ा में मिला” तथा पुस्तक को पढने की सिफ़ारिस करना व श्री गुहा का मोटे अक्षरों में कथन “….पत्थर के ढाचों की जरूरत नहीं….”

-----प्रश्न यह है कि

अ–--क्या जलालुद्दीन रूमी पूर्व के विचारक थे , नाम व कथन से तो वे रोम के लगते है, क्या रोम पूर्वी देश है, जो उनके विचार गान्धीजी व गुहा जी को इस समय प्रामाणिक रूप में उद्धरित करने योग्य लगे ? क्या उन्हें जलालुद्दीन से हज़ारों साल पहले पूर्व के महान भारतीय विचार—गीता में “..निहितं गुहायां..” या उससे भी हज़ारों साल पहले “अन्गुष्ठ मात्रः पुरुषोन्तरात्मा, सदा जनानां ह्रदये संनिविष्ठः”—कठोपनिषद २/१७ व “..तं ददर्श गूढम्नुप्र्विष्ठं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणं”—कठ-१/१२… क्यों नहीं ध्यान में आये( रिग्वेद की क्या बात करें) ---हमारी यही तो विडम्बना है कि हम अपने ग्यान को न स्वयं पढते-प्रयोग करते हैं न उद्धरित व सिफ़ारिस करते हैं ताकि जन जन प्रामाणिकता के बारे में आश्वस्त होकर उस पर विश्वास कर सकें। यदि गान्धीजी ने यह किया होता तो आज युवक उसे अपना रहे होते।

ब—गुहा जी के मूल कथन..”…पत्थर के ढांचे की जरूरत नहीं…...” समझकर मानें तो फ़िर क्यों नहीं हिन्दू मुसलमान दोनों ही मानते---जैसा पुरा प्रमाण है होने दें, मानें------और सोचिये अयोध्या के लिये राम पुराने हैं या बाद में बाहर से आया बाबर….????-


गुरुवार, 23 सितंबर 2010

...वीराना सा आज हर वक्त यहाँ क्यों है....डा श्याम गुप्त की ग़ज़ल...

टूटते आईने सा हर व्यक्ति यहां क्यों है।
हैरान सी नज़रों के ये अक्स यहां क्यों है।

दौडता नज़र आये इन्सान यहां हर दम,
इक ज़द्दो ज़हद में इन्सान यहां क्यों है ।

वो हंसते हुए गुलशन चेहरे किधर गये,
हर चेहरे पै खौफ़ का यह नक्श यहां क्यों है।

गुलज़ार रहते थे गली बाग चौराहे,
वीराना सा आज हर वक्त यहां क्यों है ।

तुलसी सूर गालिव की सरज़मीं पै ’श्याम,
आतंक की फ़सल सरसब्ज़ यहां क्यों है॥

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

डा श्याम गुप्त की ग़ज़ल.....

जाने क्यों, मेरे यार जला करते हैं।
जाने क्यों वे, यार गिला करते हैं ।

आपको जबसे साथ हमारे देख लिया,
बड़े बड़े, सरकार , जला करते हैं ।

जलने वाले जलते हैं, तुम चुप रहना,
चुपके चुपके यार मिला करते हैं ।

कोई रोके टोके या अड़चन डाले,
प्रेमी नित नव गीत ढला करते हैं।

कहने को तो 'श्याम' हज़ारों दुश्मन हैं,
लाखों पर इस राह चला करते हैं॥

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

डॉ श्याम गुप्त की ग़ज़ल....

ग़ज़ल
याद में मेरी जब जब भी गुनगुनाओगे ।
इक हसीं लम्हा, ज़िंदगी का बिताओगे ।

आप बाहों में हों, गैर की चाहे लेकिन ,
ख्याल में देख के मुझको ही तो शरमाओगे ।

यूं तो हंस हंस के बुनोगे, कितने सपने,
किन्तु सपनों में तो, यादें मेरी सजाओगे ।

जान कर भी तो नहीं जाना ऐ जांना तुमने,
भूलकर भी न हमें, आप भूल पाओगे ।

श्याम' अब याद करें भी तो तुम्हें कैसे करें ,
हम तो भूले ही नहीं , सुन के मुस्कुराओगे ॥

बुधवार, 15 सितंबर 2010

राधाष्टमी पर विशेष ---डा श्याम गुप्त के पद.......

-
जनम लियो वृषभानु लली
आदि -शक्ति प्रकटी बरसाने, सुरभित सुरभि चली
जलज-चक्र,रवि तनया विलसति,सुलसति लसति भली
पंकज दल सम खिलि-खिलि सोहै, कुसुमित कुञ्ज लली
पलकन पुट-पट मुंदे 'श्याम' लखि मैया नेह छली
विहंसनि लागि गोद कीरति दा, दमकति कुंद कली
नित-नित चन्द्रकला सम बाढ़े, कोमल अंग ढली
बरसाने की लाड़-लडैती, लाडन -लाड़ पली ।।

--
कन्हैया उझकि-उझकि निरखै
स्वर्ण खचित पलना,चित चितवत,केहि विधि प्रिय दरसै
जंह पौढ़ी वृषभानु लली , प्रभु दरसन कौं तरसै
पलक -पाँवरे मुंदे सखी के , नैन -कमल थरकैं
कलिका सम्पुट बंध्यो भ्रमर ज्यों ,फर फर फर फरकै
तीन लोक दरसन को तरसे, सो दरसन तरसै
ये तो नैना बंद किये क्यों , कान्हा बैननि परखै
अचरज एक भयो ताही छिन , बरसानौ सरसै
खोली दिए दृग , भानु-लली , मिलि नैन -नैन हरसें
दृष्टि हीन माया ,लखि दृष्टा , दृष्टि खोलि निरखै
बिनु दृष्टा के दर्श ' श्याम' कब जगत दीठि बरसै

--
को तुम कौन कहाँ ते आई
पहली बेरि मिली हो गोरी ,का ब्रज कबहूँ आई
बरसानो है धाम हमारो, खेलत निज अंगनाई
सुनी कथा दधि -माखन चोरी , गोपिन संग ढिठाई
हिलि-मिलि चलि दधि-माखन खैयें, तुमरो कछु चुराई
मन ही मन मुसुकाय किशोरी, कान्हा की चतुराई
चंचल चपल चतुर बतियाँ सुनि राधा मन भरमाई
नैन नैन मिलि सुधि बुधि भूली, भूलि गयी ठकुराई
हरि-हरि प्रिया, मनुज लीला लखि,सुर नर मुनि हरसाई

--
राधाजी मैं तो बिनती करूँ
दर्शन दे कर श्याम मिलादो,पैर तिहारे पडूँ
लाख चौरासी योनि में भटका , कैसे धीर धरूँ
जन्म मिला नर , प्रभु वंदन को,सौ सौ जतन करूँ
राधे-गोविन्द, राधे-गोविन्द , नित नित ध्यान धरूँ
जनम जनम के बन्ध कटें जब, मोहन दर्श करूँ
श्याम, श्याम के दर्शन हित नित राधा पद सुमिरूँ
युगल रूप के दर्शन पाऊँ , भव -सागर उतरूँ

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हिन्दी की वास्तविकता ...-बेस्ट सेलर -अनुवाद ...हिंगलिश ..

<---हम हिन्दी भी पढेंगे तो अंग्रेज़ी में , तभी हिन्दी आगे बढ़ेगी (गुलामी में रहकर )--देखिये साथ का समाचार...
अब देखिये --आज के घोषित बेस्टसेलर (हिन्दी में 'बिकाऊ' नहीं?? असभ्य शब्द लगता है ! )--'लेडीस कूपे' ..थ्री मिस्टेक्स....'फाइव पाइंट..द गोड आफ ...स्टे हंगरी ...अमेजिंग रेसल्ट...अल्केमिस्ट ..यूं केन हील...फिश ...सबाल ही जबाव ...गुनाहों का देवता...राग दरवारी ...आग का दरिया ...आदि आदि ...अब है इस हिन्दी की कोई टक्कर ...!! क्या इस बेस्ट सेलर में कितने प्रतिशत हिन्दी , हिन्दी साहित्य व हिन्दी-हिन्दुस्तानी संस्कृति है? वैशाली ...और वाण भट्ट....आदि तो..कोई सिरफिरा साहित्यकार ही पढ़रहा होगा ।
----ये सब अंग्रेज़ी से अनुवाद हैं या बकवास कथाएँ ----हिन्दी के दुर्भाग्य में अनुवादों का भी महत्त्व पूर्ण हाथ है जो वस्तुतः बाज़ार, कमाऊ लेखक, धंधेबाज़ व्यापारी -प्रकाशक गुट के भाषा -साहित्य -संस्कृति द्रोही कलापों का परिणाम है ।
-----अजी छोडिये भी .....कौन सी हिन्दी ??---आर आर इंस्टी टयूट, आई दी एस , परफेक्ट , कोफ्स-२०१० , एस सी, एस टी, इंटर स्कूल फेस्ट लांच , सेलीब्रिटी , एल डी ए...धड़ल्ले से 'यूज़' होरहे हैं ....क्यों व्यर्थ हिन्दी वाले रोराहे हैं ।

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

हिन्दी दिवस के लिए एक विशेष विचार ---डा श्याम गुप्त .......

हिन्दी का एक दुर्भाग्य यह भी ---लोक वाणियों का प्रश्रय ...
हिन्दी के प्रसार व उन्नति में अन्य तमाम बाधाओं के साथ एक मुख्य बाधा हिन्दी पट्टीके प्रदेशों की आंचलिक बोलियों को साहित्य-सिनेमा -दूरदर्शन-रेडियो आदि में अलग से प्रश्रय देना भी है। भोजपुरी, अवधी, बृज भाषाबिहारी आदि हिन्दी की बोलियों को आजकल साहित्य में अत्यधिक महत्त्व दिया जाने लगा है जैसे कि वे हिन्दी न होकर हिन्दी-से अलग भाषाएँ हों। जो आगे चलकर साहित्य में भी अलगाव वाद की भूमिका बन सकता है।
-----जो कवि, साहित्यकार, सिने-आर्टिस्ट, रेडियो कलाकार व अन्य कलाकार-- मूल हिन्दी धारा के महासागर में अपनी वैशिष्यता , पहचान खोजाने से डरते हैं , क्योंकि वास्तव में वे उतने योग्य नहीं होते एवं स्वस्थ प्रतियोगिता से डरते हैं , वे अपना स्वार्थ लोक-वाणियों को भाषा बनाकर पूरा करने में सन्निहित होजाते हैं। इस प्रकार इन तथाकथित बोलियों( हिन्दी की ) से बनाई गयी भाषाओं की विविध सन्स्थाएं भी अपना अलग से पुरस्कार, सम्मान, आयोजन इत्यादि करने लगती हैं , सिर्फ शीघ्र व्यक्तिगत व संस्थागत पहचान व ख्याति के लिए |
----इस प्रकार छुद्र व तात्कालिक , व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए एक महान कर्तव्य ---हिन्दी को सारे विश्व राष्ट्रभाषा जन-जन की भाषा बनाने के ध्येय को अनदेखा किया जारहा है। ---कुछ मूल प्रश्न ....
१.--क्या सूर, बिहारी, भारतेंदु हरिश्चंद्र, रत्नाकर को सिर्फ -बृज भाषा का, तुलसी को सिर्फ अवधी का कवि कहलाना भारतीय पसंद करेंगे( हो सकता है इसके चलते यह मांग भी उठ खड़ी हो ) या किसी के द्वारा कभी कहीं कहा गया ? ये सभी महान कवि हिन्दी की महान विभूतियों के व कवियों के रूप में विश्व विख्यात हैं |
२. क्या स्वतन्त्रता से पूर्व या बाद में भी इन सभी आंचलिक भाषाओं को हिन्दी मानकर ही नहीं देखा , समझा , जाना व माना नहीं जाता था?
-----वस्तुतः होना यह चाहिए----
१. -हिन्दी -पट्टी की इन सभी बोलियों के साहित्य को अलग साहित्य न मानकर हिन्दी का ही साहित्य माना जाना चाहिए एवं सभी साहित्यिक/ कला के कार्य कलापों के लिए हिन्दी के साथ ही समाहित किया जाना चाहिए।
२. सभी देशज कवियों/ कलाकारों /सिनेमा को हिन्दी का ही माना जाना चाहिए -न कि इन विशिष्ट भाषाओं के ।
३. सभी हिन्दी-बोलियों को हिन्दी भाषा में ही समाहित किया जाना
-------तभी हिन्दी का महासागर और अधिक उमड़ेगा , लहराएगा

कृष्ण लीला तत्वार्थ.....

कृष्ण लीला तत्वार्थ...नाग नथैया...
( कुण्डलिया छंद )

कालिंदी का तीर औ, वंशी धुन की टेर,
गोप गोपिका मंडली नगर लगाती फेर |
नगर लगाती फेर,सभी को यह समझाती,
ग्राम नगर की सभी गन्दगी जल में जाती |
विष सम काला दूषित जल है यहाँ नदी का,
बना सहसफन नाग कालिया, कालिदी का ||

यमुना तट पर श्याम ने, बंशी दई बजाय,
चहुँ दिशि मोहिनि फेरि कर, सब को लिया बुलाय |
सब को लिया बुलाय, प्रदूषित यमुना भारी,
सभी करें श्रम दान, स्वच्छ हो नदिया सारी |
तोड़ किया विषहीन प्रदूषण नाग का नथुना ,
फेन फेन नाचे श्याम, स्वच्छ हो झूमी यमुना ||

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

सृष्टि रचयिता कौन .....?????

<---चित्र १.
अभी
हाल में ही प्रसिद्दभौतिकविद - विज्ञानी स्टीफन वेनबर्ग ने अपनी खोजों से ईश्वर के अस्तित्व को नकारा है , यद्यपि यह कोई नई बात नहीं है , अनीश्वरवादी दर्शन-चार्वाक, जैन, बौद्ध व स्वयम परम्परावादी वैज्ञानिक सदैव से यह कहते रहे हैं , हाँ, यह बात अलग है कि वे अभी तक ईश्वर को नकारने में सफल नहीं हुए हैं| यदि हम स्टीफन वेनबर्ग की व्याख्या-कथनों को बिन्दुवार विश्लेषित करें तो ये तथ्य सामने आते हैं -----
(१.) उनका कथन-कि सृष्टि का अस्तित्व भौतिकी या प्रकृति के बुनियादी नियमों की विशेष प्रक्रिया व ' ग्रेंड डिजायन' से हुआ। ............प्रश्न उठता ,तो उस डिजायन की परिकल्पना किसने की ? प्रकृति के वे मूल नियम किसने बनाए ?--शायद ब्रह्म या ईश्वर ने --यजुर्वेद १.३.७।; सामवेद ३.२१.९ व अथर्व वेद ४.१.५९१ --में निम्न श्लोक है --
"ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्तात विसीमितः सुरुचो वेन आवः बुघ्न्या उपमा अस्य विष्टा: सतश्च योनिं सतश्च वि वः -----सृष्टि के आरम्भ में जिस परमात्म शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ, वह शक्ति ब्रह्माण्ड में व्यवस्था रूप में व्यक्त हुई । वही व्यवस्था विविध रूपों में विभिन्न व्यक्त-अव्यक्त लोकों व जगतों को प्रकाशित ( संचालित ) करती है। तथा ऋग्वेद १०.९०.९८१३ का कथन है---
"सप्तास्यासन परिधियास्त्रि: सप्त समिधः व्रतादेवा यज्ञस्य तन्वाना अबघ्न्म्पुरुषपशुम---जब वे सब देवगण सृष्टि का ताना बाना बुन रहे थे तो इसकी सात परिधियाँ बनाईं, x समिधाएँ हुईं । उनमें स्वाधीन पुरुष (ब्रह्म) को पशु ( बंधन युक्त चेतना) से आवद्ध किया गया। वे सात परिधियाँ हैं--
----रासायन विज्ञान की 'पीरियोडिक टेबल ' में तत्वों के सात वर्ग --
----परमाणु के चारों ओर इलेक्ट्रोंस की सात परिधियाँ ---
----पृथ्वी व आकाश के सात सात स्तर सात रंग ---
पृथ्वी, आकाश व अंतरिक्ष तीनों के लिए त्रिसप्त समिधाएँ अर्थात इनसब केलिए ( सारे जगत/ब्रह्माण्ड) की क्रियाओंव निर्माण के लिए ऊर्जा व पदार्थ का चक्रीय उत्पादन की ' ग्रेंड डिजायन '।
()--बिग बेंग से बना ब्रह्माण्ड-- तो वह शुरूआती अति तापीय ब्रह्माण्ड व बिगबेंग वाला पिंड कहाँ से आया ---यदि विज्ञान मौन है तो शायद ईश्वर ने ही , वैदिक विज्ञान में वर्णन के अनुसार प्रादुर्भूत किया | जिसमें कथन है 'ब्रह्म की सृष्टि इच्छा ', ''एकोहं बहुस्याम' के तीब्र अनाहत नाद से ही ऊर्जा --->उप कण -->कण-->पदार्थ -->.....सृष्टि बनना प्रारम्भ हुई।
()--' मल्टी वर्स ' अर्थात बहुत से ब्रह्माण्ड ---इसका स्पष्ट वर्णन विष्णु पुराण में , आदि महाविष्णु के रोम रोम में अनंत ब्रह्माण्ड बने, तथा ऋग्वेद में ब्रह्म को "सूर्यस्य सूर्य --" महा सूर्य कहा है ,जिसके चारों और असंख्य सूर्य घूमते हैं , अपनी अपनी आकाश गंगाओं के साथ । विज्ञान व वैदिक दर्शन के समन्वय पर लिखा गया 'श्रृष्टि महाकाव्य'में कहा गया है------------------
" महाविष्णु और रमा संयोग से ,
प्रकट हुए चिद बीज अनंत
फैले
थे जो परम व्योम में,
कण
कण में बनाके हेमांड
उस
असीम के महाविष्णु के
रोम रोम में बन ब्रह्माण्ड॥ " एवं --

"
और असीम उस महाकाश में,
हैं
असंख्य ब्रह्माण्ड उपस्थित
धारण
करते हैं ये सब ही,
अपने
अपने सूर्य चन्द्र सब
अपने अपने गृह नक्षत्र सब,
है स्वतंत्र सत्ता प्रत्येक की ॥ "

(४)--स्टीफन कहते हैं--'हमें ईश्वर केमस्तिष्क का पता चल सकता है।’---अर्थात वे ईश्वर को एक मनुष्य समझते हैं---इसका उत्तर इस समाचार में देखिये।"ईश्वर कोई तत्व नहीं जो दिखे।"॥काशी के विद्वान--हिन्दी हिन्दुस्तान-दि-०७-९-१० --स्टीफन के असाधारण मस्तिष्क का उद्भव कैसे हुआ , सब का तो इतना असाधारण मस्तिष्क नहीं होता ? विज्ञानी कह सकते हैं कि ' प्राकृतिक चयन', ' उत्परिवर्तन (म्यूटेशन )' ---परन्तु वह चयन कौन करता है ? यदि विज्ञान मौन है तो शायद वही ईश्वर
(5)--एम् थ्योरी , ११आयाम वाला ब्रह्माण्ड------ वैदिक साहित्य में ये ११ आयाम तरह वर्णित हैं---
१---११ रुद्र--मूलतत्व, २---महत्तत्व से=५ तन्मात्राएं+५ महाभूत +१ अव्यक्त(नथिन्ग नेस, रिणात्मकता)=११, ३---४ आदि- मुनि सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार + ७ सप्तर्षि , ४----शीला-अशीला, श्यामा-गौरी, क्रूर-सौम्या आदि ११ नारी-भाव व ११ पुरुष-भाव , ५----५ कर्मेन्द्रियाँ +५ ज्ञानेन्द्रियाँ + १ मन = ११ , ६---गीता के अनुसार --आत्मा, जीव , मन , अहंकार + सप्तर्षि =११.------इन्हीं सारे ११ आयामों से ब्रह्माण्ड बना है।
()--लगता तो यही है कि न्यूटन की धारणा कि-- 'ब्रह्माण्ड का सृजन अवश्य ही ईश्वर ने किया होगा क्योंकि इसकी उत्पत्ति अराजकता के बीच नहीं होसकती '-- सत्य ही है | वैसे भी स्टीफन सिर्फ खगोलविद हैं , उन्होंने न्यूटन के जैसी कोई मूल खोज(गुरुत्व आदि ) भी नहीं की है सिर्फ अटकलें ही अटकलें हैं , जो उन्हें न्यूटन के समक्ष नहीं ठहरातीं | वे पहले अपनी पुस्तक ' ऐ ब्रीफ हिस्टरी ऑफ़ टाइम 'में ईश्वर के अस्तित्व को मानते थे परन्तु अब नहीं , हो सकता है आगे चलाकर वे भी न्यूटन की भांति ईश्वर को मानने लगें।
वस्तुतः वही एक तत्व है जिसे भिन्न भिन्न माध्यम अपने=-अपने ढंग से कहते हैं--" एको सद विप्राः बहुधा वदन्ति " प्रश्न यह नहीं कि सृष्टि का सृजक कौन , ईश्वर या भौतिक नियम या स्वतः ही --प्रोफ यशपाल के शब्दों में-पढ़ें ऊपर -चित्र . में .--- तथा सृष्टि महाकाव्य में ----

"नहीं महत्ता इसकी है कि,
ईश्वर ने यह जगत बनाया।
अथवा वैज्ञानिक भाषा में,
आदि अंत बिन, स्वतःरच गया।
अथवा ईश्वर की सत्ता है,
अथवा ईश्वर कहीं नहीं है॥"

यदि मानव खुद ही कर्ता है,
और स्वयं ही भाग्य विधाता।
इसी सोच का पोषण हो तो,
अहं भाव जाग्रत होजाता,
मानव संभ्रम में घिर जाता,
और पतन की राह यही है॥

पर ईश्वर है जगत नियंता,
कोई है अपने ऊपर भी।
रहे तिरोहित अहं भाव सब,
सत्व गुणों से युत हो मानव ,
सत्यं शिवं भाव अपनाता,
सारा जग सुन्दर होजाता ॥ " -----और अंत में --

" सूर्य चन्द्रम्सौ धाता यथापूर्वामकल्पयतदिवं प्रिथवीं चान्तारिक्षशयो स्वः"--सूर्य चन्द्र, पृथ्वी,अंतरक्ष ,द्यावा आदि सब कुछ पूर्व में कल्पित ( सुनिश्चित - द ग्रेंड डिजायन के अनुसार ), या पूर्व की भांति --बार बार , विज्ञान के अनुसार सृष्टि की बारम्बारिता, से वह विधाता, ईश्वर, ब्रह्म या प्रकृति-भौतिक नियम, इन सब की सृष्टि करता है