....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
यूं ही नहीं बन जाता कोई कबीर । कबीर सिर्फ़ कबीर नहीं, एक पूरा दर्शन है, एक संसार है, एक व्यवहारिक भाव है, एक गुण है जो गुणातीत है | कबीर का अर्थ है संत, आत्मानंद , नित्यानंद में मगन -विदेह , निर्गुणी | यूं तो कबीर बनने के लिए एक गुरु बनाना पड़ता है--- जायसी ने कहा है......'गुरु बिन जगत को निरगुन पावा' | पर कबीर का तो कोइ गुरु नहीं था ? पर रामानंद को उन्होंने अपना गुरु माना , एकलव्य की भांति --यदि गुरु नहीं हो तो स्वयम को गुरु बनाना पड़ता है , "तवै तुमि एकला चलो रे " ..."अप्प दीपो भव"--स्वयं दीपक बन कर ..शास्त्र, संसार, अनुभव, इतिहास के प्रकाश का विकिरण करना होता है | यही किया कबीर ने , और तभी वे होपाये ...कबीर....गुरु बिनु जगत को निरगुन पावा |
कबीर बनने के लिए ..लाठी लेकर घर फूंकना पड़ता है ......लोभ, मोह, लिप्सा का संसार छोड़ना पड़ता है , ........
"कबीरा खडा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ,
जो घर फूंके आपणा, चलै हमारे साथ |" ......
भोग,माया-संसार-स्त्री-पुत्रादि को भी त्यागना पड़ता है | यह ही पहला कदम है जैसा कबीर ने कहा---जब जागो तभी सवेरा .....
" नारी तो हम भी करी कीन्हा नांहि विचार ,
जब जाना तब परिहरी नारी बड़ा विकार ||"
कबीर बनने के लिए राम का कुत्ता बनना पड़ता है ..... अर्थात अहं का त्याग..मैं को गलाना पड़ता है , स्वयं को ईश-प्रवाह में छोड़ देना , ज्ञान, शास्त्र, भक्ति, विश्वास, श्रृद्धा के प्रवाह में डुबो देना पड़ता है | ईश्वर प्रणिधान .........
"कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नांउ ,
गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जांऊ |" .....और..............
.. ..........."जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नाहिं | " --परमात्मा व परमात्म गुण से एकाकार......
कबीर बनने के लिए समदर्शी बनना पड़ता है .....समता भाव में जीना पड़ता है .....सूक्ष्मदर्शी होना पड़ता है |
" कंकड़ पत्थर जोड़ के मस्जिद लई चिनाय ,
ता चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय |"...... या ..
......." लौकी अड़सठ तीरथ नहाई, कडुआ प न तौऊ नहीं जाई "...
..एकत्व भाव अपनाना होता है .............
"एक मूल ते सब जग उपजा कौन बड़े को मंदे |"
कबीर बनने के लिए...तत्वदर्शी बनना पड़ता है... भक्त होना पड़ता है ........
"हरि मेरे पीऊ मैं हरि की बहुरिया " .............और.......तत्वदर्शन..........
"झीनी झीनी बीनी रे चदरिया ...एक तत्व गुण तीनी रे चदरिया " .....
सो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढ़ की मैली कीन्ही चदरिया ,
दास कबीर जतन से ओढी, ज्यों की त्यों धर दीनी रे चदरिया |" .
...और.....
"साधू एसा चाहिए जैसा सूप सुभाय ,
सार सार को गहि रहे थोथा देय उडाय |" .......तथा......
" ज्यों तिल माहीं तेल है ज्यों चकमक में आग,
तेरा साईं तुज्झ में जाग सके तो जाग |" .......
कबीर बनने के लिए....निर्गुणी होना पड़ता है ...... ..... " अवगुण मेरे रामजी बकस गरीब निवाज "....अपने मूल को पहचानना पड़ता है....आत्म साक्षात्कार ...........
"जल में कुम्भ , कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी ,
.फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कथ्यो गियानी " ......स्वयं के मूल में स्थित होना होता है....
." काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी , तेरे ही नाल सरोवर पानी "...... और यहीं... आत्म .."एकोहम बहुस्याम"... का भाव अनुभव करता है , ..."अणो अणीयान, महतो महीयान "...हो जाता है ....तथा मूल ब्रह्मसूत्र ---"अहं ब्रह्मास्मि "..."सोहं"... "तत्वमसि "...एवं .."खं ब्रह्म"...को जान पाता है.....और होजाता है कबीर.... जान पाता है उस ब्रह्म को जिसके बारे में ........
..." एको सद विप्रा: बहुधा वदंति ".....
4 टिप्पणियां:
कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा था.जाते जाते आपकी यह पोस्ट पढकर निहाल हो गया जी.
बाजीगर का बंदर ऐसा जियूँ मन साथ
नाना नाच नचाईके राखे आपने हाथ
कबीर ने सबको लताड़ा, खुलकर, वह भी बड़े ही बुद्धिमत्तापूर्ण शब्दों से।
सही कहा पान्डे जी...समता का अर्थ किसी से कुछ न कहना नहीं अपितु सबको समान रूप से लताडना ही है...पर.संतों द्वारा ...कबीर होने के बाद....एरा-गेरा द्वारा नहीं...
--धन्यवाद राकेश जी...राखे अपने हाथ..
----.मनुष्य चाहे जितने रोबोट-मैन , कम्प्यूटर-मैन बनाले, सबकी चाबी वह--अणो अणीयान महतो महीयान ..अपने हाथ ही रखता है...
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