....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
होली सब क्यों खेलते, अपने अपने धाम ,
साथ साथ खेलें अगर, होली सारा गाँव |
होली सारा गाँव,ख़त्म हो तना-तनी सब,
गली डगर चौपाल, हर जगह होली हो अब |
निकले राधा -श्याम, ग्वाल, गोपी मिल टोली ,
गली गली और गाँव गाँव में खेलें होली ||
होली की इस धूम में मचें विविधि हुड़दंग ,
केसर और अबीर संग,उडें चहुँ तरफ रंग |
उड़ें चहुँ तरफ रंग, मगन सब ही नर नारी ,
बढे एकता-भाव, वर्ग समरसता भारी |
बिनु खेले नहिं रहें, बनें सब ही हमजोली ,
जन जन प्रीति बढ़ाय, सभी मिलि खेलें होली ||
5 टिप्पणियां:
होली खेलें कृष्ण कन्हैया।
होली की कुण्डलियाँ बेहतरीन हैं.कुंडलियों के विधान का विशेष ख्याल रखा गया.जैसे आदि एवं अंत का एक ही होना,दूसरी पंक्ति का अंतिम वाक्यांश का तीसरी पंक्ति का प्रथम वाक्यांश होना.मजा आ गया.मेरी कविताओं वाले ब्लॉग http://mithnigoth.blogspot.com में जरुर पधारें.
धन्यवाद पांडे जी..
धन्यवाद निगम जी ....कुंडलियों के लिए यह विधान एक आदर्श स्थिति तो है पर आवश्यक नहीं, अंतिम पंक्ति के अन्त्यानुप्रास का पांचवी पंक्ति से तादाम्य भी हो सकता है.. यथा काका हाथरसी की यह कुंडली...
"मम्मी जी ने बनाए, हलुआ-पूड़ी आज,
आ धमके घर अचानक,पंडित श्री गजराज.
पंडित श्री गजराज, सजाई भोजन थाली,
तीन मिनट में तीन थालियाँ कर दीं खाली.
मारी एक डकार, भयंकर सुर था ऐसा,
हार्न दे रहा हो, मोटर का ठेला जैसा ."
भाव रस गीत है यह होली प्रीत .राष्ट्रीय एकता का प्रतीक भी -आज ब्रज में होरी रे रसिया ,होरी रे होरी बरजोरी रे रसिया ,कौन गाँव को किसान कन्हैया ,कौन गाम की गौरी रे रसिया ...वाह आनंद रस बरसाया आपके भाव गीत ने ।
सह्भाविक :वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )
बहुत बहुत धन्यवाद बीरू भाई जी...आभार...
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