....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ....
अनृत अकृत अप भावों की आंधी थी आयी ,
.तृणावर्त ,धर रूपभाव, चहुँ दिशि थी छाई |चहुँ दिशि छाई, भाव राक्षसी था अपनाया ,
कृष्ण कन्हैया ने क्या उसको नाच नचाया |
आसमान में ले कान्हा को हुआ नृत्यरत ,
नष्ट किया वह असुर, रहा जो अकृत अनृत रत ||
4 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर, कृष्णाय नमः।
सुन्दर छंद.सुन्दर वर्णन.सुन्दर शब्द-चयन.
बहुत ख़ूबसूरत! मनमोहक गीत!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
--धन्यवाद ...अरुण जी, पांडे जी .. राधे ..राधे..
---धन्यवाद बबली जी....यह गीत नहीं एक शास्त्रीय छंद है ...कुंडली छंद ..
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