अंक छह
द्वितीय प्रोफेशनल परीक्षा के बाद क्लास रूम में प्रोफ. नलिनी पंडित ने पूछा --
' हू वाज़ द लास्ट टापर?' ( पिछला टॉपर कौन था )
' सावित्री शर्मा ', एक आवाज़ आई ।
'कितने मार्क्स मिले हैं अब ?
'२७६' - सावित्री ने बताया ।
' सर्वाधिक किसके हैं ?'
' डा कृष्ण गोपाल गर्ग के ' अचानक सावित्री बोल पडी ।
' हाऊ मैनी ?'
' २७८ ' - सावित्री फिर बताने लगी ।
' व्हेयर इज ही ?'.....( वह कहाँ है ) ।
मैं अपने स्थान पर खडा हुआ तो प्रोफ. पंडित ने कहा , ' बधाई , डा कृष्ण ।'
'पर मैडम , न तो अभी मुझे अपने मार्क्स ज्ञात हुए हैं, और न मैं एसा समझता हूँ ।' , मैंने कहा तो सारी क्लास आश्चर्य से देखती रह गयी ।
' बट आई हैव सीन इन यूनिवर्सिटी लिस्ट' ,( पर मैंने यूनीवर्सिटी की मार्क्स-लिस्ट में देखा है ) सावित्री ने कहा ।
' बट आई डोंट हैव दैट प्रिविलेज ' ( मुझे तो ये सुविधा नहीं है ), मैंने कहा । सारी क्लास हँसने लगी । सावित्री का चेहरा झेंप से लाल होगया था ।
' बैठ जाइए ' - प्रोफ. पंडित ने असमंजस में कहा ।
सावित्री, नगर के राजनीतिज्ञ- नेता व विधायक, के एल शर्मा की पुत्री थी । क्लास के बाद सुमित्रा ने कहा , 'तुमको कुछ कहने की क्या आवश्यकता थी । जबदस्ती छेड़ने में मज़ा आता है ?'
' मुझे पक्का कहाँ पता था, कैसे मान लेता । '
' वाह ! क्या सत्यवान से पाला पडा है । मज़े हैं तुम्हारे तो..... सावित्री भी..... भई वाह ! '
'हाउ कम ' ( कैसे पता ), वैसे क्या ये तुम्हारी ईर्ष्या बोल रही है या.......।
'कोई क्यों यूंही दूसरे के मार्क्स देखेगा और भरी क्लास में बताएगा भी ।' सावित्री ने क्यों तुम्हारे नंबर देखे ?
' यह सिर्फ टॉपर की कौतूहलवश जिज्ञासा है और कुछ नहीं । कोई लड़का होता तो वह भी यही करता । और तुम हर एक का नाम मेरे साथ जोड़ने के चक्कर में क्यों रहती हो ?'
' पर तुमने उसे बहुत नर्वस कर दिया ।' वह टालती हुई बोली ,' क्या तुम्हें उससे बात नहीं कर लेनी चाहिए ?'
' ओ के ' ठीक है ।
' चलो हमें उससे बात कर लेना चाहिए ।' सुमि उठते हुए बोली ।
' पर तुम क्यों गवाह बनना चाहती हो ? क्या मुझे अकेले बात नहीं करना चाहिए ?'
' ओह ! ओह ! हाँ, बिलकुल ।' वह हंसते हुए बैठ गयी ।
** ** **
'क्या अपना वृन्दावन - मथुरा नहीं दिखाओगे ?'
'मेरा वृन्दावन ! क्या मतलब ?' मैंने पूछा ।
'हाँ, हाँ.. कृष्ण गोपाल महाराज जी ।'
' तो चलो, कल ही चलते हैं ।'
' इतनी शीघ्र फैसला ले लेते हो ?'
'राधारानी की आज्ञा, फैसले का प्रश्न ही कहाँ उठता है ।'
'तो ए. के. व सुधा से भी पूछ लिया जाय ?'
'हाँ अवश्य, क्यों नहीं ।' मैंने स्वीकृति में कहा ।
बिहारी जी के मंदिर में मुझे यूं ही आराम से हाथ बांधे खडा देखा कर सुमित्रा कहने लगी, 'हाथ तो जोड़ लो बिहारी जी के ।'
'क्यों, क्या हाथ जोड़ने से वास्तव में हमारे सारे दुःख दूर व कार्य बन जाते हैं ? ' मैंने हाथ जोड़ते हुए पूछा।
' यह आस्था का विषय है ' , सुमित्रा समझाते हुए कहने लगी, 'आस्था एक व्यक्तिगत व समाजगत मनोवैज्ञानिक स्थिति है जो मनुष्य के मन में आत्मविश्वास उत्पन्न करती है । स्वयं पर निष्ठा रखना सिखाती है, कि यदि मैंने अपना कार्य पूर्ण निष्ठा व श्रम से किया है तो आगे आप को समर्पित, अब जो भी हो । तभी तो सामान्यत: अपना कार्य सिद्ध न होने पर भी सामान्यजन की श्रृद्धा कम नहीं होती । वह भगवान को व अन्य को दोष न देकर अपने कर्मों की कमी व भाग्यफल को मानकर पुनः सहज भाव में आगे अपने कार्य में लग जाता है ।'
' तभी तो मैं मन में आस्था रखता हूँ ।'
' परन्तु व्यक्त होना भी आवश्यक है, इससे पीछे आने वाले व अन्य लोग प्रभावित, उत्साहित व प्रेरित होते हैं ।'
मैं मुस्कुराते हुए चुप रह गया ।
गोवर्धन परिक्रमा मार्ग पर एक ग्रामवासी ने बताया कि इन्हीं रास्तों पर जब ये पगडंडियाँ होंगी, कृष्ण बांसुरी बजाते तथा राधा एवं गोपियाँ नृत्य करते हुए, ग्रामबासियों को नयी नयी बातें व गतिविधियाँ बताया करते थे ।
मैंने सुमि से पूछा, ' सुमि ! क्या कहीं से कृष्ण की वंशी की ध्वनि सुनाई दी ?'
' इतनी देर से और क्या सुन रहे हैं ? रनिंग कमेंट्री,... ये कुसुमा बाग़- जहां कृष्ण-राधा मिला करते थे, कुसुमा-ललिता के साथ । यह उद्धव ताल - जहां ऊधो जी ठहरे थे गोपियों से हारने के लिए । ये गोवर्धन पर्वत- जहां गोपाल ने गाँव को शरण में लेकर रोज-रोज की चख-चख अति-वृष्टि से बचाया था । ये सीधी-सादी राधा का, "राधा-ताल " और यह त्रिभंगी कन्हैया का टेढा -मेढ़ा नौकुचिया "कृष्ण ताल "। तुम्हारी वंशी तो अनंत काल से बज ही रही है ।' सुमित्रा बोली ।
'क्या बोर हो रही हो ? '
' हूँ ',.....
" कान्हा तेरी मुरली मन हरषाए ।
कण कण ज्ञान का अमृत बरसे, तन मन सरसाये ।
या तन-मन की बात कहूं क्या, सागर उफना जाए ।
बैरन छेड़े तान अजानी, मोहनि-मन्त्र चलाये ।
मानहु मर्यादा मोरी मोहन, मुरली मन भरमाये ।
कान्हा तेरी मुरली मन हरषाए ।। "
' वाह ! वाह ! सुमित्रा, तुम तो कवयित्री बनती जा रही हो ।' ए.के. ने ताली बजाते हुए कहा ।
'सब सोहबत का असर है।' सुधा ने जड़ा ।
' अब में क्या कहूं । कुसुम बोली , ' जब मन की वंशी बजे तो सब ओर वंशी-धुनि सजे ।'
' मैं धन्य हुआ, कैसे कैसे गुणी, विज्ञ व कलाकारों की संगत में हूँ ।' मैंने प्रणाम मुद्रा में कहा । '
' हम भी हैं यहाँ, डाक्टर साहब ..' पीछे से आवाज़ आई ।
मैंने पीछे मुड़कर देखा तो उछल पडा , ' अरे श्री ! तुम, यहाँ ।'
' गोवर्धन परिक्रमा देने आये हैं, पिताजी के साथ ।'
'क्या मन्नत माँगने आये हो कि इस बार तो पार लगा ही दो, हे मुरली बजैया !'
श्री घूरकर देख ने लगा, 'क्यों बेइज़्ज़ती करते हो, महिलाओं के सामने ।'
'अरे हम भी हैं' , सुमि ने नज़दीक आते हुए कहा, 'परिचय तो कराओ ।'
'हाँ, श्रीनाथ गुप्ता, मेरा इंटर का मित्र ।'
'आप सब तो डाक्टर लोग होंगे ।' श्री बोला, 'क्या कलियुग के कृष्ण के प्रबचन सुन कर बोर नहीं होरहे ?'
' ये परिक्रमा क्यों करते हैं ?' सुधा पूछने लगी ।,
'यही आपके ज्ञानी जी बताएँगे । मैं क्या बताऊँ ।' अब बताओ, उसने मुझे इशारा किया ।
' परिक्रमा. अर्थात परिक्रमण या परिभ्रमण, एक अर्थशास्त्रीय- समाज शास्त्रीय क्रमिक व्यवस्था है । किसी स्थान, पीठ या दैवीय शक्ति के उद्गम, विस्तार, उसकी महत्ता, वहां की सामाजिक- आर्थिक स्थिति के बारे में पूरा देश जान सके - वह क्यां क्यों है, कब से है, उसके युक्ति-युक्त अर्थ व प्रयोजन का सम्पूर्ण परिक्रमित ज्ञान; न कि सिर्फ चक्कर लगा कर चल देना; ताकि देश का प्रत्येक नागरिक देश के उस प्रदेश, क्षेत्र व सभी स्थानों की स्थिति के जानकार हों तथा उसकी उन्नति में सुझाव व सहायता से योगदान कर सकें और सामाजिक एकता व राष्ट्रीय समरसता बढे । लगभग सभी धार्मिक पीठों का यही क्रम है ताकि वहां देश भर के लोग आयें, उस स्थान का आर्थिक विकास हो । उसी के साथ समाज, देश व मानवता का विकास जुड़ा हुआ है ।' मैंने विस्तार से बताया ।
' मान गए गुरू' , श्री बोला, ' लगे रहो, लगे रहो । मैं चलता हूँ, नहीं तो साथ के लोग अधिक आगे निकल जायेंगे । जब चक्कर में पडा ही हूँ तो चक्कर लगा ही लूं ।'
' ये क्या करता है?', अचानक सुमित्रा ने पूछा ।
'रोड-इंसपेक्टरी ', 'बी ए में दो बार फेल होकर धक्के खारहा है ।'
'वाह ! क्या कृष्ण-सुदामा की जोड़ी है ।' और ऐसे कितने मित्र हैं तुम्हारे ?
' लोकल हूँ भई, और चुंगी वाले स्कूल से । धोबी, नाई, सब्जी वाले, दुकानदार, दूधवाले, पड़ोसिनें, बचपन की सखियाँ - सभी को झेलना-निभाना होता है । अपनी तो आदत ही ख़राब है, अब भी वही हाल है ।'
सब हँसने लगे, सुमित्रा मुस्कुराकर चुप होगई ।
' क्या हम सब चलने ही चलने आये हैं या बैठकर आपस में कुछ हंसें बोलें भी ।' कुसुम ने थकी थकी आवाज में कहा ।
' तो अब तक क्या होरहा था?' मैंने कहा, ' हाँ. जिन्हें आपस में स्पेशल हंसना-बोलना हो तो करें ।'
' चलो थर्मस निकालो, चाय पीते हैं, बैठकर' , पेड़ तले बैठती हुई सुमित्रा बोली ।
** ** **
प्रोफ़ेसर सचान बहुत धीमे बोलते थे, परन्तु उनके व्याख्यान बहुत महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर होते थे । सभी पढ़ाकू छात्र उनकी क्लास में आगे बैठना चाहते थे । यहाँ तक कि कभी-कभी तो आधी से अधिक क्लास आठ बजे के लेक्चर के लिए सात बजे ही आकर बैठ जाती थी । लड़कियों-लड़कों, होस्टलर -डे स्कोलर ..में क्लास में जल्दी पहुँचने की प्रतियोगिता रहती थी और कभी सब आगे कभी पीछे होते रहते थे ।
जब सुमि और मैं तेजी से आकर आगे की सीट पर बैठ गए तो पीछे से ए.के. जैन ने कमेन्ट मारा, 'चुंगी के स्कूल वालों की समझ में देर से आता है, आगे बैठना आवश्यक है । कान्वेंट में पढ़ने से अक्ल की आँखें खुल जाती हैं और दौड़कर आगे बैठने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।'
' हुज़ूर, बड़े बाप के बेटे हो, पढ़ कर करोगे भी क्या ? बाप की चलती हुई क्लिनिक चला लेना ।' मैंने कहा, ' वैसे अंग्रेज़ी बोलने और टाई लगाने के अलावा वहां पढ़ाया ही क्या जाता है , कान्वेंट में, बहुत सी फीस लेकर ।'
'सुमित्रा दार्शनिकों के से अंदाज़ में कहने लगी, 'मेरे ख्याल से सभी इंगलिश स्कूल बंद कर दिए जाने चाहिए । सारे प्राइमरी स्कूल सरकारी नियंत्रण में या सामाजिक संस्थाओं द्वारा या सरकार द्वारा बिना फीस के चलाये जाने चाहिए । कोई प्राइवेट स्कूल नहीं होना चाहिए । सभी स्कूलों में समान कोर्स, समान पढाई व फीस होनी चाहिए । नहीं तो क्या पता आगे चलकर ये प्राइवेट स्कूल भी एक व्यवसाय ही बन जाय ।'
' अपने ख्याल अपने पास ही रखो, हेड मास्टरनी जी ।' किसी ने पीछे से कमेन्ट किया ।
' चुप चुप ' पीछे से अन्य आवाज़ आई, ' प्रोफ़ेसर साहब आगये ।'
.................... अंक छः समाप्त ......क्रमश: अंक सात .... अगली पोस्ट में .....
4 टिप्पणियां:
सहजता तो संस्मरण जैसी लग रही है।
----प्रथम पुरुष में लेखन की यही तो प्रभावोत्पादक-सहज़ता होती है .....
----वैसे नो कमेन्ट!
संवाद और संवाद एक ख़ास देशकाल ,विचार और सामाजिक फर्क को उद्घाटित कर रहें हैं .विश्लेषण परक मनोविज्ञान की परतें खोलते से संवाद हैं सभी सहज आम बातचीत से .अच्छे सजीव वातावरण की सृष्टि .
धन्यवाद वीरू भाई जी...विश्लेषण परक टिप्पणी हेतु...आभार...
एक टिप्पणी भेजें