....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
श्याम’ मोरी मर्यादा, मुरली मन भरमाये ||
९.
१.
तेरे
कितने रूप गोपाल ।
सुमिरन
करके कान्हा मैं तो होगया आज निहाल ।
नाग-नथैया, नाच-नचैया, नटवर, नंदगोपाल ।
मोहन, मधुसूदन, मुरलीधर, मोर-मुकुट, यदुपाल ।
चीर-हरैया, रास -रचैया, रसानंद, रस पाल ।
कृष्ण-कन्हैया, कृष्ण-मुरारी, केशव, नृत्यगोपाल |
जगन्नाथ, श्रीनाथ, द्वारिकानाथ, जगत-प्रतिपाल |
देवकीसुत,रणछोड़ जी,गोविन्द,अच्युत,यशुमतिलाल |
वर्णन-क्षमता कहाँ 'श्याम की,
राधानंद, नंदलाल |
माखनचोर, श्याम, योगेश्वर, अब काटो भव जाल ||
२.
ब्रज की भूमि भई है निहाल |
सुर गन्धर्व अप्सरा गावें नाचें दे दे ताल |
जसुमति द्वारे बजे बधायो, ढफ ढफली खडताल |
पुरजन परिजन हर्ष मनावें जनम लियो नंदलाल |
आशिष देंय विष्णु शिव् ब्रह्मा, मुसुकावैं गोपाल |
बाजहिं ढोल मृदंग मंजीरा नाचहिं ब्रज के बाल |
गोप गोपिका करें आरती,
झूमि बजावैं थाल |
आनंद-कन्द प्रकट भये ब्रज में विरज भये ब्रज-ग्वाल |
सुर दुर्लभ छवि निरखे लखि-छकि श्याम’ हू भये निहाल ||
३.
कन्हैया उझकि उझकि निरखे |
स्वर्ण खचित पलना चित-चितवत केहि विधि प्रिय दरसै |
जहँ पौढ़ी वृषभानु लली, प्रभु दरसन कौं तरसै |
पलक पांवड़े मुंदे सखी के, नैन कमल थरकैं |
कलिका सम्पुट बंध्यो भ्रमर ज्यों, फर फर फर फरके |
तीन लोक दरसन कौं
तरसें, सो दरसन तरसै |
ये तो नैना बंद किये हैं, कान्हा बैननि
परखे |
अचरज एक भयो ताही छिन, बरसानौ सरसे |
खोली दिए दृग भानुलली,मिलि नैन, नैन हरषे|
दृष्टिहीन माया, लखि दृष्टा, दृष्टि खोलि निरखे|
बिन दृष्टा के दर्श श्याम, कब जगत दीठ बरसै ||
४.
बाजै रे पग घूंघर बाजै रे ।
ठुमुकि ठुमुकि पग नचहि कन्हैया, सब जग नाचै रे ।
जसुमति अंगना कान्हा नाचै, तोतरि बोलन गावै ।
तीन लोक में गूंजे यह धुनि, अनहद तान गुंजावै ।
कण कण सरसे, पत्ता पत्ता, हर प्राणी
हरषाये |
कैसे न दौड़ी आयं गोपियाँ घुँघरू चित्त चुराए |
तारी दे दे लगीं नचावन, पायलिया छनकैं |
ढफ ढफली खड़ताल मधुर-स्वर,कर कंकण खनकें |
गोल बनाए गोपी नाचें, बीच नचें नंदलाल |
सुर दुर्लभ लीला आनंद मन जसुमति होय निहाल |
कान्हा नाचे ठुम्मक ठुम्मक तीनों लोक नचावै रे |
मन आनंद चित श्याम’, श्याम की लीला गावै रे ||
५.
कैसी लीला रची गुपाल |
लूटि लूटि दधि माखन खावें, छकि हरषें गोपाल ।
क्यों हमकों दधि माखन वर्जित, मथुरा नगर पठावैं ।
धन सम्पदा ग्राम घर घर की, नंद्लाल समुझावैं ।
नीति बनाऔ दधि माखन जो मथुरा लेकर जाय ।
फ़ोडि गगरिया लूटि लेउ सब, नगर न पहुंचन पाय ।
हम बनिहैं बलवान सन्गठित, रक्षित सब घर द्वार ।
श्याम’ ग्राम सम्पन्न सुखी हों सहैं न अत्याचार ॥
६.
को तुम कौन कहाँ ते आई ।
पहली बेरि मिली हो गोरी ,का ब्रज कबहूँ न आई ।
बरसानो है धाम हमारो, खेलत निज अंगनाई ।
सुनी कथा दधि -माखन चोरी , गोपिन संग ढिठाई ।
हिलि-मिलि चलि दधि-माखन खैयें, तुमरो कछु न चुराई।
मन ही मन मुसुकाय किशोरी, कान्हा की चतुराई ।
चंचल चपल चतुर बतियाँ सुनि राधा मन भरमाई ।
नैन नैन मिलि सुधि बुधि भूली, भूलि गयी ठकुराई ।
हरि-हरि प्रिया, मनुज लीला लखि,सुर नर मुनि हरसाई ॥
पहली बेरि मिली हो गोरी ,का ब्रज कबहूँ न आई ।
बरसानो है धाम हमारो, खेलत निज अंगनाई ।
सुनी कथा दधि -माखन चोरी , गोपिन संग ढिठाई ।
हिलि-मिलि चलि दधि-माखन खैयें, तुमरो कछु न चुराई।
मन ही मन मुसुकाय किशोरी, कान्हा की चतुराई ।
चंचल चपल चतुर बतियाँ सुनि राधा मन भरमाई ।
नैन नैन मिलि सुधि बुधि भूली, भूलि गयी ठकुराई ।
हरि-हरि प्रिया, मनुज लीला लखि,सुर नर मुनि हरसाई ॥
७.
राधा रानी दर्पण निरखि सिहावैं |
आपुहि लखि, आपुहि की शोभा, आपुहि आपु लजावें |
आदि-शक्ति धरि माया छवि ज्यों माया भरम सजावै |
माया ते जग-जीवन उपजे,
जीवन मरम बतावै |
ताही छिन छवि श्याम की उभरी, राधा लखि सकुचावै |
इत-उत चहुँ दिशि ढूँढन लागी, कान्हा कतहु न पावै |
कबहु आपु छवि, कबहु श्याम छवि, लखि आपुहि भरमावै |
समुझ श्याम-लीला, भ्रम आपुन, मन ही मन मुसुकावै |
ब्रह्म की माया, माया नाचे, जीवन-जगत नचावै |
माया-ब्रह्म लीला-कौतुक लखि, श्याम’ सहज सुख पावै ||
८.
कान्हा तेरी वंसी मन तरसाए |
कण कण ज्ञान का अमृत बरसे, तन मन सरसाये |
ज्योति दीप मन होय प्रकाशित, तन जगमग कर जाए |
तीन लोक में गूंजे यह ध्वनि, देव दनुज मुसकाये |
पत्ता-पत्ता, कलि-कलि झूमे, पुष्प-पुष्प खिल जाए |
नर-नारी की बात कहूँ क्या, सागर उफना जाए |
बैरन छेड़े तान अजानी , मोहनि मन्त्र चलाये |
राखहु
श्याम’ मोरी मर्यादा, मुरली मन भरमाये ||
९.
मुरली काहे बजाओ घनश्याम।
सुबह सवेरे मुरली बाजे
, गूंजे आठों याम।
स्वर रस टपके सब जग भीजे,
उपजे भाव ललाम।
रस टपके उर गोप-गोपिका,
बाढे प्रीति अनाम ।
रस भीजे मेरी सूखी लकडियां,
सास करे बदनाम ।
श्याम की वन्शी बजे जलाये,पिय मन सुबहो शाम।
पोर-पोर कान्हा को बसाये,
नस-नस राधे-श्याम॥
१०.
काहे न मन धीर धरे घनश्याम
|
तुम जो कहत ,हम एक विलगि कब हैं राधे ओ श्याम ।
फ़िर क्यों तडपत ह्रदय जलज यह समुझाओ हे श्याम !
सान्झ होय और ढले अर्क, नित बरसाने घर-ग्राम ।
जावें खग मृग करत कोलाहल अपने-अपने धाम।
घेरे रहत क्यों एक ही शंका मोहे सुबहो-शाम।
दूर चले जाओगे हे प्रभु! , छोड़ के गोकुल धाम ।
कैसे विरहन रात कटेगी , बीतें आठों याम ।
राधा की हर सांस सांवरिया , रोम रोम में श्याम।
श्याम', श्याम-श्यामा लीला लखि पायो सुख अभिराम ।
१०.
राधे काहे न धीर धरो ।
मैं पर-ब्रह्म ,जगत हित कारण, माया भरम परो ।
तुम तो स्वयं प्रकृति -माया ,मम अन्तर वास करो।
एक तत्व गुन , भासें जग दुई , जगमग रूप धरो।
राधा -श्याम एक ही रूपक ,विलगि न भाव भरो।
रोम-रोम हर सांस सांस में , राधे ! तुम विचरो ।
श्याम; श्याम-श्यामा लीला लखि,जग जीवन सुधरो।
११.तुम जो कहत ,हम एक विलगि कब हैं राधे ओ श्याम ।
फ़िर क्यों तडपत ह्रदय जलज यह समुझाओ हे श्याम !
सान्झ होय और ढले अर्क, नित बरसाने घर-ग्राम ।
जावें खग मृग करत कोलाहल अपने-अपने धाम।
घेरे रहत क्यों एक ही शंका मोहे सुबहो-शाम।
दूर चले जाओगे हे प्रभु! , छोड़ के गोकुल धाम ।
कैसे विरहन रात कटेगी , बीतें आठों याम ।
राधा की हर सांस सांवरिया , रोम रोम में श्याम।
श्याम', श्याम-श्यामा लीला लखि पायो सुख अभिराम ।
१०.
राधे काहे न धीर धरो ।
मैं पर-ब्रह्म ,जगत हित कारण, माया भरम परो ।
तुम तो स्वयं प्रकृति -माया ,मम अन्तर वास करो।
एक तत्व गुन , भासें जग दुई , जगमग रूप धरो।
राधा -श्याम एक ही रूपक ,विलगि न भाव भरो।
रोम-रोम हर सांस सांस में , राधे ! तुम विचरो ।
श्याम; श्याम-श्यामा लीला लखि,जग जीवन सुधरो।
काहे मुरली श्याम बजाये ।
सांझ सवेर बजे मुरलिया,
अति ही रस बरसाये ।
रस बरसे मेरो तन-मन भीगे,अन्तर घट सरसाये ।
रस भीगे चूल्हे की लकडी,
आग पकड नहिं पाये ।
फ़ूंक-फ़ूंक मोरा जियरा धडके चूल्हा बुझ बुझ जाये।
सास ननद सब ताना मारें,
देवर हंसी उडाये ।
सज़न प्रतीक्षा करे खेत पर,
भूखा पेट सताये ।
श्याम’बने कैसे मोरी रसोई,
श्याम उपाय बताये ।
वैरिन मुरली श्याम अधर चढि,
तीनों लोक नचाये ॥
१२.
ऊधो ! ज्ञान कहौ समुझाय |
कस नचिहै, कस धेनु चरावे, कैसे माखन खाय |
कहो, सुने बाकी मुरली धुनि, गोकुल गाय रम्भाय |
कंकर मारि मटुकिया फोड़े, कैसें दधि
फैलाय |
मैया के आँगन में कैसे नचि-नचि जिय भरमाय |
का गोपिन संग रास रचावै, का वो चीर चुराय
|
कालियनाग को नाथ सके का, फन-फन वेणु बजाय |
श्याम’ कहो ऊधो, का गिरि कौं उँगरी लेय उठाय ||
2 टिप्पणियां:
शब्दों की कृष्णमय थाप, बस पढ़ते गये, पढ़ते गये।
धन्यवाद पांडे जी .....उनके ख्याल आये तो आते चले गए....
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